चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा अनुवाद एवं प्रस्तुति : सूरज प्रकाश और के पी तिवारी (पिछले अंक से जारी…...
चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा
अनुवाद एवं प्रस्तुति :
सूरज प्रकाश और के पी तिवारी
मेरे पिता के दैनिक जीवन के संस्मरण
फ्रांसिस डार्विन
इस लेखन में मेरा उद्देश्य यही है कि मैं अपने पिता के दैनिक जीवन के बारे में कुछ विचार प्रस्तुत करूं। मुझे यही लगा कि मैं इसका एक सामान्य-सा रेखाचित्र डाउन के दैनिक जीवन से शुरू करूं और मेरे जेहन में और इधर-उधर उनके बारे में जो कुछ जानकारियां बिखरी पड़ी हैं, उनका उल्लेख करूं। यादगार बातों में से कुछ ऐसी भी हैं जो मेरे पिता के परिचितों के लिए अर्थपूर्ण हो सकती हैं, लेकिन अपरिचितों के लिए बेहूदी और बकवास। फिर भी, मैं इनका उल्लेख इस आशा से कर रहा हूं कि इससे परिचितों के दिलो दिमाग़ पर उनके व्यक्तित्व का प्रभाव कुछ और समय तक बना रहेगा। ये परिचित उन्हें जानते थे और उन्हें खूब प्यार करते थे। यह प्रभाव एकदम अमिट तो था ही, इसे शब्दों में बयान कर पाना भी मुश्किल है।
उनकी कद काठी, चेहरे-मोहरे आदि (आजकल विविध फोटोग्राफ बनते हैं) के बारे में बहुत कहने की ज़रूरत नहीं है। उनका कद लगभग छह फुट था, लेकिन वे लम्बे नहीं लगते थे, क्योंकि वे काफी मोटे थे; बाद में वे कुछ दुबला गये; मैंने उन्हें कई बार बाजुओं को तेजी से झुलाते हुए देखा था। उनको देखकर यही लगता था कि वे ताकतवर तो नहीं लेकिन सक्रिय ज़रूर हैं। उनके कन्धे कद के अनुपात में चौड़े नहीं थे, लेकिन बहुत तंग भी नहीं थे। अपनी जवानी में वे काफी सशक्त रहे होंगे, क्योंकि बीगल की यात्रा के दौरान जहाँ सभी लोग पानी पानी चिल्ला रहे थे, वहीं मेरे पिता उन दो लोगों में से एक थे जो दूसरों की तुलना में पानी के लिए संघर्ष नहीं कर रहे थे। एक लड़के के रूप में भी वे बहुत ऊधम मचाते थे और अपने गले की ऊंचाई तक की छलांग मार जाते थे।
वे झूलते हुए से चलते थे। हाथ में छड़ी रखते थे। छड़ी के निचले सिरे पर लोहे का बंद लगा था। चलते हुए जब छड़ी को ज़मीन पर ठकठकाते थे तो ठक-ठक की आवाज़ दूर तक सुनाई देती थी। उनकी छड़ी की यह लय-ताल पूरे डाउन में सैन्ड वाक के समय आसानी से पहचानी जा सकती थी। दोपहर में जब वे घूमने जाते थे तो कन्धे पर वाटरप्रूफ जैकेट या लबादा डाले होते थे, क्योंकि गरमी के कारण इसे पहनना मुश्किल हो जाता था। ऐसे में यह साफ दिखाई देता था कि वे अपना लहराता हुआ कदम बमुश्किल घसीट रहे होते थे। घर में भी उनके कदम बहुत धीमे और घिसटते हुए से रहते थे। दोपहर में जब कभी वे सीढ़ियां चढ़ कर ऊपर जाते थे तो उनका उठा हुआ कदम बहुत तेजी से गिरता था, जैसे एक एक कदम बहुत कठिनाई से उठ रहा हो। जब वे कोई काम मनोयोग से कर रहे होते थे तो वे काफी तेज़ी से और आसानी से चलते-फिरते थे, और कई बार लेख लिखाते लिखाते वे तेज़ी से हॉल में आते और एक चुटकी नसवार लेते थे। अध्ययन कक्ष का दरवाजा खुला ही रहता था और कमरे से बाहर आते आते वाक्य का आखिरी शब्द बोल देते थे।
उनके क्रियाकलापों के अलावा मैं समझता हूं कि उनकी चाल-ढाल में कोई सहज रौब या चलने-फिरने में नफ़ासत नहीं थी। उनके हाथ बड़े ही चंचल थे और उनसे चित्रकारी नहीं हो पाती थी। इस बात का उन्हें हमेशा ही मलाल रहा और कई बार उन्होंने इस बात का ज़िक्र किया कि एक प्रकृतिवादी की ड्राइंग भी बेहतरीन होना बेहद लाजमी है।
वे साधारण से माइक्रोस्कोप की सहायता से भी चीर-फाड़ कर लेते थे, लेकिन मैं समझता हूं कि अपने धीरज और बेहद सावधानी के बल पर ही वे ऐसा कर पाते थे। उनकी खासियत थी कि वे यह भी मानते थे कि चीर-फाड़ में थोड़ी-सी भी दक्षता लगभग अति-मानवीय होती है। उन्होंने एक दिन न्यूपोर्ट द्वारा भौंरे की चीर-फाड़ देखकर उसकी खूब तारीफ की। बड़ी ही सफाई से उसने भौंरे का स्नायुतत्र पतली सी कैंची से थोड़ा-सा काट कर ही निकाल लिया था। वे सूक्ष्म टेढ़ी काट को बहुत बड़ा काम मानते थे। जीवन के आखिरी दिनों में उन्होंने बड़े ही जीवट के साथ जड़ों और पत्तियों की टेढ़ी काट का काम सीखा। उनके हाथ कांपते थे इसलिए काटी जा रही वस्तु को स्थिर नहीं रख पाते थे। वे सामान्य माइक्रोटोम में पदार्थ को पकड़े रखने के लिए उसकी मेरू नाड़ी को जकड़ देते थे और रेजर को काँच की पतली पट्टी सतह पर चलाते जाते थे। टेढ़ी काट के मामले में वे अपनी होशियारी पर खुद भी हँसते थे और कहते - `भाव विभोर हो मूक हूँ'। दूसरी ओर वे आँख और ताकत का ताल मेल बड़ा ही सुन्दर बिठाते थे। वे बहुत अच्छे बंदूकची भी थे और बचपन में पत्थरों से पक्का निशाना लगाते रहे थे। बचपन में उन्होंने घर की पुष्प वाटिका में कंचे से ही एक खरगोश का शिकार कर लिया था और जवानी में पत्थर फेंक कर एक क्रास बीक मार गिराया था। उस पक्षी की हत्या का उन्हें इतना दुख था कि इस घटना को कई बरस तक बताया ही नहीं। बाद में बोले कि अगर उन्हें मालूम होता कि पुरानी निशानेबाजी अभी तक कायम है तो वे हरगिज पत्थर न फेंकते।
उनकी दाढ़ी भरी हुई थी और वे कभी भी दाढ़ी की ट्रिमिंग नहीं करते थे। बाल उनके भूरे और सफेद थे तथा खूब मुलायम थे। उनके बाल हमेशा लहराते रहते थे। उनकी मूंछें काफी अजीब थीं क्योंकि उनका एक हाथ मूँछे तराशता रहता था। उम्रदराज होने के साथ-साथ वे गंजे हो गए थे और सिर के पीछे बालों का घेरा-सा रह गया था।
उनके चेहरे की रंगत लाली लिए हुए थी जिसे देखकर लोग उन्हें शायद इतना कमज़ोर नहीं समझते थे, जितने कि वे वास्तव में थे। उन्होंने सर जोसफ हूकर (13 जून 1849) को लिखा - सभी मुझे कहते हैं कि मैं काफी खिला-खिला और सुन्दर दिखाई देता हूँ, और ज्यादातर सोचते हैं कि मैं स्वांग कर रहा हूँ, लेकिन आप उनमें से नहीं हैं। और यह बात ध्यान में रखने की है कि उस समय वे गम्भीर रूप से बीमार थे और बाद के समय में तो हालत और भी खराब हो गयी। उनकी आँखें नीलापन लिए हुए भूरी थीं, भृकुटी खूब गहरी और घनी भौंहे आगे को निकली हुई थीं। उनके ऊंचे ललाट पर थोड़ी-सी लकीरें थीं। इसके अलावा उनके चेहरे पर निशान या झुर्रियां नहीं थीं। लगातार बीमारी के बाद भी उनके हाव-भाव से किसी तरह की पीड़ा नहीं झलकती थी।
जब भी वे आनन्ददायक बातें सुनते, एकदम प्रफुल्ल हो उठते थे, और यह प्रफुल्लता उनके चेहरे से झलक उठती थी। उनकी हँसी उन्मुक्त और अट्ठहास जैसी होती थी। ऐसी जैसे कोई व्यक्ति अपना सर्वस्व उस बात पर और व्यक्ति को समर्पित कर दे, जिससे उसका मन प्रसन्न हुआ है। अपनी हँसी के साथ वे शरीर को भी हिला डालते थे। हँसते हँसते ज़ोर से ताली भी मारते थे। मैं समझता हूं कि सामान्यतया वे भावों को इशारों में भी प्रकट करते थे। कई बार वे कुछ भी स्पष्ट करने के लिए अपने हाथों का प्रयोग करते थे (उदाहरण के लिए फूल का निषेचन) और यह इस प्रकार होता था कि इससे श्रोता को कम उन्हें अधिक मदद मिलती थी। ऐसे वे तब करते थे जब ठीक उसी बात को समझाने के लिए दूसरे लोग पेंसिल से रेखाचित्र बनाते थे। ज्यादातर लोग जिस मौके पर पेंसिल से चित्र बनाकर समझाते थे, वे वही बात हाथों के इशारे से समझाते थे। वे गहरे रंग के कपड़े पहनते थे जो ढीले लेकिन सहज होते थे। हाल ही के कुछ बरसों से उन्होंने लन्दन में भी लम्बा हैट पहनना छोड़ दिया था, और सरदियों में मुलायम काला हैट तथा गरमियों में बड़ा स्ट्रॉ हैट पहनते थे। घर के बाहर वे आम-तौर पर छोटा लबादा पहनते थे। इसी पोशाक में ईलीयट और फॉय द्वारा तैयार किए गए फोटोग्राफों में उन्हें बरामदे में खम्बे के सहारे टिका दिखाया गया है। घर के भीतर पहनने वाली पोशाकों में दो खास बातें थीं। एक तो यह कि वे हमेशा कन्धों पर दुशाला रखते थे, और पैरों में कपड़े के बूट पहनते थे जिसके भीतर फर लगे थे। इन्हीं के ऊपर वे घर में पहने जाने वाले जूते भी पहन लेते थे।
वे सवेरे जल्दी उठते थे और नाश्ते से पहले थोड़ा-सा घूमकर आते थे। यह आदत उन्हें तब पड़ी थी जब वे पहली बार जल चिकित्सा के लिए गए थे, और यह आदत अंतिम साँसों तक बनी रही। जब मैं छोटा था तो अक्सर उनके साथ जाता था और सरदियों में कितनी ही बार लाल लाल उगता सूरज देखा था। यही नहीं, उनका साथ बड़ा ही आनन्दप्रद था। मैं आज भी उसमें सम्मान और गर्व महसूस करता हूँ। जब वे मुझे यह बताते कि सरदियों की अंधियारी सुबह में इससे भी जल्दी चला जाए तो ऊष: काल के झिटपुटे में लोमड़ियों का फुदकना भी देखा जा सकता है।
सवेरे तकरीबन 7.45 पर नाश्ता करने के साथ ही वे काम में लग जाते थे। वे मानते थे कि 8 और 9.30 के बीच के डेढ़ घंटे काम करने के लिहाज से बेहतरीन होते हैं। सुबह 9.30 पर वे ड्राइंगरूम में आ जाते थे और आये हुए खत पढ़ते थे। अगर खत हल्के फुल्के होते तो वे खुश हो जाते। यदि ऐसे खत नहीं मिलते थे तो वे थोड़ा चिन्तित भी हो जाते थे। फिर वे सोफे पर अधलेटे से हो जाते और पारिवारिक खतों को पढ़वा कर सुनते थे।
पढ़वा कर सुनने का यह काम साढ़े दस बजे तक चलता था। इसमें कई बार किसी उपन्यास के हिस्से भी होते थे। इसके बाद बारह या पौन बजे तक फिर काम में लगे रहते थे। इतना काम करने के बाद वे समझते थे कि बस बहुत हुआ, और कई बार बड़े ही सन्तोष के साथ कहते,`आज पूरे दिन का काम निपटा लिया'। इसके बाद मौसम चाहे अच्छा हो या बारिश हो रही होती वे बाहर निकल जाते थे। उनकी सफेद टैरियर कुतिया, पॉली भी उनके साथ जाती थी, लेकिन अगर मौसम बारिश का होता तो वह मना कर देती या बरामदे में ही आनाकानी करती रहती थी। उसके हाव-भाव में अपने ही साहस के प्रति परेशानी और शर्म भी होती थे। आम तौर पर उसका अन्तर्मन ही जीतता था और जैसे ही वे बाहर निकल जाते थे तो वह भी पीछे नहीं रुक पाती थी।
मेरे पिता को कुत्तों से बहुत लगाव था, और जवानी में वे अपनी बहन के पालतू कुत्तों का ध्यान आसानी से अपनी ओर बंटा लेते थे। कैम्ब्रिज में तो उन्होंने अपने कजिन डब्ल्यू डी फॉक्स के कुत्ते का दिल जीत लिया था, और इतना कि वह छोटा-सा जानवर हर रात को उनके बिस्तर में घुस जाता और उनके कदमों में सोया रहता था। मेरे पिता के पास एक बड़ा ही दबंग कुत्ता भी था, जो उनके प्रति तो समर्पित था लेकिन दूसरों को काट खाने को दौड़ता था। बीगल की यात्रा से लौटने के बाद उस कुत्ते ने उन्हें कैसे याद रखा, उस तरीके को पिताजी ने कई बार बताया था। वे दालान में गए, खड़े होकर चिल्लाए और वह कुत्ता तुरन्त उनके साथ बिना कोई भाव या जोश खरोश दिखाए बस पीछे पीछे चल पड़ा, जैसे पिताजी ने उसे पाँच साल बाद नहीं बल्कि बस कल के बाद ही आज पुकारा था। इस वाकये को दि डीसेन्ट ऑफ मैन, दूसरा संस्करण, पृ.74 में भी बताया गया है।
मेरी याद में तो इतना ही है कि केवल दो ही कुत्ते ऐसे थे जो मेरे पिता से बहुत लगाव रखते थे। एक कुत्ते का रंग काला सफेद था और वह सोंधियार कुत्ते की संकर नस्ल का था। बॉब नामक इस कुत्ते को हम बच्चे भी खूब प्यार प्यार करते थे। दि एक्सप्रेशन ऑफ इमोशन्स में `हॉट हाउस फेस ' की कहानी में इसी कुत्ते का ज़िक्र है।
हमारी कुतिया, पॉली पिताजी को बहुत चाहती थी। वह सफेद रंग की फॉक्स टैरियर नस्ल की कुतिया थी। बहुत ही तेज़-तर्रार और प्यारी कुतिया थी वह। जब भी उसका मालिक किसी यात्रा पर जाने की तैयारी में होता तो उसे अध्ययन कक्ष में सामान बाँधने के क्रिया-कलापों से उसे इसका आभास हो जाता और वह एकदम सुस्त-सी हो जाती। इसके अलावा जैसे ही उसे अध्ययन कक्ष में चीज़ों को सलीके से रखने की कवायद दिखाई देती तो वह समझ जाती कि मालिक आने वाले है। वह बड़ी ही चतुर जीव थी। पिता के देहान्त के बाद वह कभी लड़खड़ा कर गिरती तो कभी उदास होकर पड़ी रहती। अपने डिनर के लिए तो वह ऐसे पड़ी रहती मानो अभी पिताजी उसे बुलाएँगे और कहेंगे कि (जैसा वे हमेशा करते थे) ये देखो यह `भूख से मरी जा रही है।' पिताजी उसकी नाक के ठीक ऊपर बिस्कुट पकड़ते और वह उछलती, और वे भी उसको मौन रूप से दुलराते हुए अपने हावभाव से ही कह देते - बहुत अच्छे बेटा। हमारी कुतिया की पीठ का एक हिस्सा एक बार जल गया था। उस जगह सफेद नहीं बल्कि लाल रंग के बाल उगे थे। उसकी इस कलगी के बारे में पिताजी कहते कि यह पेनजेनेसिस के सिद्धान्त का बेहतरीन उदाहरण है, क्योंकि इस कुतिया का जनक रेड बुलटैरियर था, और जलने के बाद लाल बालों का उगना यह बताता है कि लाल कलिकाएँ प्रछन्न रूप में विद्यमान हैं। वे पॉली को बहुत चाहते थे, और उस पर बहुत ध्यान देने में कभी भी अधीर नहीं होते थे। चाहे वह दरवाजे पर बाहर से भीतर आना हो या बरामदे की खिड़की में बैठकर शरारती लोगों पर भौंकना हो, उसकी इस कर्त्तव्यनिष्ठा पर वह भी बहुत खुश होते थी। पिताजी के देहान्त के कुछ ही दिन बाद वह भी चल बसी, या यूँ कहिए उसने खुदकशी कर ली।
पिताजी का दोपहर भ्रमण सामान्यतया ग्रीनहाउस से शुरू होता था। वहाँ पर वे अंकुरित हो रहे बीजों या प्रयोगाधीन पादपों का निरीक्षण करते थे, लेकिन इस समय वे कोई गम्भीर निरीक्षण नहीं करते थे। इसके बाद वे अपने नियमित भ्रमण `सैन्ड वाक के लिए जाते या फिर घर के ठीक पड़ोस में खाली पड़े मैदानों में घूमने चले जाते थे। `सैन्ड वाक ' डेढ़ एकड़ भूमि पर फैली हुई पट्टी थी, जिसके चारों ओर बजरी बिछाकर रास्ता बनाया गया था। इसके एक तरफ शाहबलूत के बड़े बड़े पेड़ों का झुरमुट था, जिससे रास्ता छायादार बन गया था, दूसरी ओर नागफनी की बाड़ लगाकर उसे पड़ोस के चरागाह से अलग किया गया था। उस तरफ जाने पर छोटी-सी घाटी दिखाई देती थी, वह घाटी वेस्टरहेम हिल के किनारे पर जाकर विलीन हो गई थी। कभी वहाँ पर घने पेड़ थे लेकिन अब पिंगल की झाड़ियाँ और श्रीदारु के पेड़ दिखाई देते थे, जो कि वेस्टरहेम हाई रोड तक फैले थे। मैंने पिताजी से कई बार यह कहते सुना था कि इस छोटी-सी घाटी की खूबसूरती ही इस जगह घर बनाने का कारण थी।
पिताजी ने सैन्ड वाक पर अलग अलग किस्म के पेड़ लगा रखे थे जिनमें पिंगल झाड़ी, भोजपत्र, जम्बीरी नीबू, श्रृंगीपेड़, बेंत, गुलमेंहदी और डागवुड थे। खुली जगह के किनारे किनारे शूलपर्णी की लम्बी कतार खड़ी थी। शुरू-शुरू में वे रोज़ एक निश्चित संख्या में चक्कर लगाते थे। चक्करों की गिनती के लिए वे हर चक्कर के बाद एक निश्चित जगह पर चकमकी पत्थरों को ठोकर से रास्ते में ले आते थे, और जितने पत्थर, उतने चक्कर हो जाते थे। हाल ही के कई बरसों से उन्होंने चक्करों की गिनती छोड़ दी थी और जब तक शरीर साथ देता था, तब तक घूमते रहते थे। बचपन में सैन्ड वाक ही हमारे खेल का मैदान भी रहा, और यहाँ मैं भ्रमण के दौरान पिताजी को लगातार देखता रहता था। वे हमारी बातों में भी रुचि लेते थे और बच्चे जो भी मज़े करते, उससे वे भी आनन्दित होते थे। यह मुझे भी बड़ा ही विचित्र लगता है कि मेरे पिताजी के सैंड वाक के बारे मे मेरी स्मृतियों में आज भी वही सब तैर उठता है जो उस समय बचपन में मैं सोचता था। यह बताता है कि उनकी आदतों में किसी किस्म का बदलाव कभी नहीं आया।
जब कभी वे अकेले होते थे तो पक्षियों या जानवरों को ध्यान से देखने के लिए वे बुत से बन जाते थे या एकदम दबे पैरों से चल कर आगे जाते थे। ऐसी अवस्थाओं में कई बार गिलहरियों के छोटे छोटे बच्चे उनके ऊपर, पीठ पर, पैर पर चढ़ जाते और उन बच्चों की माँ पेड़ के तने पर से ही गुस्से में किटकिटाती रहती थी। उनमें तलाश की अद्भुत क्षमता थी। ऐसा हम बचपन में मानते थे, लेकिन जीवन के अंतिम वर्षों में भी वे पक्षियों के घोंसले खोज लाते थे। दबे कदमों चलने की अपनी कला का इस्तेमाल करके वे कई बार अपरिचित पक्षियों के पास तक चले जाते थे, लेकिन मैं समझता हूँ कि यह कला मुझसे छुपाते नहीं थे। उन्हें इस बात का दुख था कि मैं चटिका (हरे रंग का छोटा-सा पक्षी) या स्वर्ण चटिका (सुनहरे रंग का छोटा-सा पक्षी) या इन्हीं जैसे कई अनोखे पक्षियों को नहीं देख पाया। वे बताते थे कि एक बार वे `विग वुड्स' में बेआहट खिसकते हुए आगे बढ़ रहे थे कि दिन में सोई हुई एक लोमड़ी के सामने जा पहुँचे। वह लोमड़ी इतनी हैरान हुई कि कुछ देर तो जड़वत उन्हें घूरती रही और फिर भाग छूटी। उनके साथ में स्पिट्ज कुत्ता भी था, वह भी लोमड़ी को देखकर जरा भी उद्वेलित नहीं हुआ। इस बात को खतम करते हुए वे यही कहते कि उस समय कुत्ता भी कैसे बुझे दिल से चला जा रहा था।
उनके भ्रमण की दूसरी पसन्दीदा जगह थी - आर्चिस बैंक । यह जगह शांत कुडहम घाटी के ऊपरी हिस्से में थी। इस इलाके में धूप चन्दन की झाड़ियों के साथ-साथ शतावरी और मश्कबू पौधे भी खूब थे। यही नहीं करंजवृक्षों की शाखाओं की छाया में सेफालेन्थेरा और नियोट्टिया भी उगे हुए थे। इसके ठीक ऊपर `हैंगग्रूव ' नामक छोटा जंगल भी था, जिसे पिताजी काफी पसन्द करते थे। मैंने कई बार उन्हें वहाँ पर विभिन्न प्रकार की घास का संग्रह करते देखा था, खासकर जब उन्हें सभी प्रकार की घास का नामकरण करना होता था। वे एक छोटे बच्चे की बात दोहराया करते थे कि एक लड़के को कोई ऐसी घास मिली जो उसके पिता ने पहले कभी नहीं देखी थी। वह घास को डिनर के समय प्लेट में रखकर बोला,`हम तो बहुत विचित्र घास खोजक हैं।'
पिताजी को बाग में ऐसे ही घूमते रहना काफी पसन्द था। साथ में कोई बच्चा या मेरी माँ होतीं या फिर ऐसे ही मंडली बना लेते, और वहीं लॉन में बेंच पर बैठ जाते। आम तौर पर वे घास पर ही बैठते थे। कई बार मैंने उन्हें विशालकाय लाइम-वृक्ष के नीचे लेटे देखा था। पेड़ की जड़ में निकले हरे गूमड़ पर वे अपना सिर रख लेते थे। ग्रीष्म ऋतु में हम अक्सर बाहर ही रहते थे। कुँए से पानी निकालने के लिए लगी चर्खी की आवाज उन दिनों की याद आज भी ताज़ा कर देती है। हम लॉन टेनिस खेलते और वे मज़े से देखते रहते थे। कई बार वे अपनी छड़ी की घुमावदार मुठिया से हमारी गेंद को मारकर हमारे पास लौटाते थे।
वैसे तो वे बगीचे को सजाने संवारने में कोई हाथ नहीं बंटाते थे, लेकिन फूल उन्हें बहुत पसन्द थे। ड्रॉइंग रूम में एजालेस का गुच्छा वे खुद ही लगाते थे। मुझे लगता है कि फूल की बनावट और उसकी अप्रतिम सुन्दरता, दोनों को वे कई बार गुम्फित कर देते थे। डाइक्लीट्रा के गुलाबी और सफेद रंग के बड़े लटकते फूलों के बारे में तो यही अक्सर होता था। इसी प्रकार नीले रंग के छोटे छोटे फूलों के प्रति भी उन्हें कुछ कलापूर्ण और कुछ वनस्पति शास्त्रीय लगाव था। फूलों की प्रशंसा में वे धूसर रंग के हाईआर्ट पर हँसते थे और उनकी तुलना प्रकृति के चमकदार रंगों से करते थे। वे जब किसी फूल की प्रशंसा में बातें करते थे तो मैं ज़रूर सुनता था। यह तो एक प्रकार से फूल के प्रति आभार होता था, उसकी नाजुक बनावट और रंग के लिए उनका प्यार था। मुझे याद है कि जिस फूल को देखकर वे प्रमुदित जोते थे उसे बड़े ही हौले से स्पर्श करते थे, उनका यह स्नेह और दुलार ठीक एक बच्चे की तरह निश्छल था।
वे प्राकृतिक घटनाओं का मानवीकरण करने से स्वयं को रोक नहीं पाते थे। यह भावना प्रशंसा और बुराई, दोनों ही स्थितियों में प्रकट हो जाती थी। उदाहरण के लिए नर्सरी के बारे में - ये छोटे छोटे भिखमंगे वही कर रहे हैं जो मैं नहीं चाहता। किसी संवेदनशील पौधे को पानी की जिस चिलमची में लगाते थे, अगर उसकी पत्तियाँ बाहर निकलने लगती थीं तो उन पत्तियों को करीने से सजाते समय भी वे पत्ते की चतुराई की प्रशंसा सम्मिलित भाव से करते थे। सनड्यू, केंचुओं, आदि के बारे में भी वे इसी प्रकार बोलते रहते थे।
जहाँ तक मुझे याद आता है घूमने फिरने के अलावा घर से बाहर उनका एकमात्र मनोरंजन था - घुड़सवारी। डॉक्टर बेन्स जोन्स के कहने पर उन्होंने घुड़सवारी शुरू की थी। इस मामले में हम भाग्यशाली रहे कि हमें उस समय `टॉमी ' नामक टट्टू मिल गया था, जो सीधा साधा और तेज चाल वाला था। वे इस प्रकार की सैर का खूब आनन्द लेते थे। आसपास के इलाकों का चक्कर लगाकर वे लंच तक आवश्य लौट आते थे। इस प्रयोजन से हमारे आसपास का इलाका बहुत ही रमणीक था। इसका कारण था कि इस इलाके में छोटी छोटी घाटियाँ थीं जो मैदानी इलाके की टेढ़ी मेढ़ी सड़कों की तुलना में कहीं ज्यादा मनोहर नज़ारा पेश करती थीं। मुझे लगता है कि उन्हें अपने ऊपर भी हैरानी होती होगी कि वे कितने अच्छे घुड़सवार थे, लेकिन बुढ़ापे और खराब सेहत ने उनका यह गुण उनसे छीन लिया था। वे कहते थे कि घुड़सवारी करते समय उतना गहराई से नहीं सोच पाते थे, जितना कि पैदल घूमते समय सोचते थे, क्योंकि घोड़े पर ध्यान देने के कारण गहराई से सोचना नहीं हो पाता था।
यदि अपने अनुभव के अलावा उनकी कही हुई बातों के आधार पर कहूँ तो मैं उनके खेल प्रेम आदि के बारे में कह सकता हूँ, लेकिन वह सब उन बातों का दोहराव ही होगा, जो उन्होंने अपने संस्मरणों में कही हैं। अपने बचपन से ही वे बन्दूक के शौकीन और पक्के निशानेबाज थे। वे कई बार बता चुके थे कि किस प्रकार से दक्षिण अमरीका में तेईस अबाबील पक्षी मारने के लिए उन्होंने केवल चौबीस गोलियाँ चलायी थीं। यह कहानी बताते समय वे यह भी ज़रूर बताते थे कि वहाँ की अबाबीलें हमारे इंग्लैन्ड के मुकाबले कम जंगली होती थीं।
दोपहर का भ्रमण करने के बाद वे डाउन में लंच करते थे। इस मौके पर मैं उनके भोजन के बारे में एक आध बात कर लेता था। मिठाइयाँ खाने की ललक उनमें बच्चों की तरह थी, पर दुर्भाग्य यह कि उन्हें मिठाई खाने की सख्त मनाही थी। वे अपने इस `दुख' को अधिक समय तक छिपा नहीं पाते थे। यह दुख उन्हें मिठाई न खाने को लेकर होता था, इस दुख को जब तक वे कह नहीं लेते थे, तब तक वे इससे निपट भी नहीं पाते थे।
वे बहुत थोड़ी-सी मदिरा लेते थे, लेकिन ये थोड़ी-सी भी उन्हें काफी फुर्ती देती थी। वे पीने से बहुत डरते थे, और अपने बच्चों को लगातार चेतावनी देते रहते थे कि कोई भी इस लत को अपने पास भी न फटकने देना। मुझे याद है कि एक बार अपने छुटपन में मैंने उनसे पूछा था कि क्या कभी वे मदहोश हुए थे, और बड़ी ही संज़ीदगी से उन्होंने बताया था कि एक बार कैम्ब्रिज में बहुत ही ज्यादा पी गए थे। मैं इससे बहुत प्रभावित हुआ, इतना कि आज भी मुझे वह जगह याद है जहाँ मैंने यह बात पूछी थी।
लंच के बाद वे ड्राइंग रूम में सोफे पर लेटकर अखबार पढ़ते थे। मैं समझता हूँ कि विज्ञान के अलावा अखबार ही पठन-सामग्री थी, जिसे वे खुद पढ़ते थे। इसके अलावा उपन्यास, यात्रा-वृतांत, इतिहास दूसरों से पढ़वा कर सुनते थे। वे जीवन के अन्य पहलुओं पर इतना व्यस्त रहते थे कि अखबार की उसमें कोई जगह नहीं थी, हालांकि वे वाद विवाद की शब्दावली को पढ़कर हँसते ज़रूर थे, मैं समझता हूँ कि केवल ऊपरी मन से। वे राजनीति में रुचि रखते तो थे लेकिन इस बारे में उनकी राय महज एक व्यवस्था के आधार पर थी, वे खुद इस पर गहराई से नहीं सोचते थे।
अखबार पढ़ने के बाद उनका पत्र-लेखन शुरू होता था। साथ ही, वे अपनी पुस्तकों की पाण्डुलिपियाँ भी तैयार करते थे। इसके लिए वे आग के पास अपनी हार्स चेयर रख लेते। कुर्सी के हत्थे पर लगे बोर्ड पर वे अपने कागज रखते थे। यदि खतों की संख्या ज्यादा होती, या खत लम्बे होते तो पहले वे खतों की एक प्रति लिख लेते थे और फिर उसी से बोल बोलकर लिखवाते थे। इन रफ कापियों को वे पाण्डुलिपियों या प्रूफशीट के पीछे लिखते थे। मज़े की बात यह कि कई बार वे अपना लिखा खुद भी नहीं पढ़ पाते थे। उन्हें जितने भी खत मिलते थे, उन सब को सहेज कर रख लेते थे। यह आदत उन्होंने मेरे दादाजी से सीखी थी और वे बताते थे कि यह काफी उपयोगी रहता था।
मूर्ख, उजड्ड लोग भी उन्हें बहुत से खत भेज देते थे, और पिताजी सबका जवाब देते थे। वे कहते थे कि अगर जवाब नहीं दूँगा तो यह बात अवचेतन में तैरती रहेगी। एक बात और कि यह उनकी विनम्रता को भी दर्शाता था। वे बड़ी विनम्रता से सभी का जवाब देते थे, इससे उनकी दयालुता चारों ओर प्रसिद्ध हो गयी, और यह बात उनकी मृत्यु पर जाकर स्पष्ट हुई।
ऐसी दूसरी छोटी मोटी बातों का ध्यान वे दूसरे खतों का जवाब देते समय भी रखते थे। उदाहरण के लिए किसी विदेशी को खत लिखवाते समय वे मुझसे यह कहना कभी नहीं भूलते थे,`तुम बेहतर लिख सकते हो इसलिए लिखो क्योंकि यह किसी विदेशी को जाएगा।' वे अपने अधिकांश खत इस प्रत्याशा के साथ लिखते थे कि इन्हें पढ़ने वाला लापरवाही से पढ़ेगा, इसीलिए पत्र लिखवाते समय वह मुझे सावधानी से बहुधा बताते जाते थे कि किसी भी महत्त्वपूर्ण बात से नया पैरा शुरू करो ताकि पाठक का ध्यान खींचा जा सके। प्रश्न पूछ पूछकर वे दूसरों को परेशान करने के बारे में स्वयं भी कितना सोचते रहते थे, यह बात उनके पत्रों से स्पष्ट हो जाएगी।
ऊल जलूल किस्म के खतों का जवाब देने के लिए उन्होंने एक सामान्य प्रकार से लिखा हुआ पत्र छपवा रखा था, लेकिन वह खत उन्होंने शायद ही कभी भेजा हो। मुझे लगता है कि उन्हें ऐसा कोई मौका ही नहीं मिला जिसके लिए वह पत्र भेजा जा सके। मुझे याद है कि एक बार ऐसा मौका आया था जब उन मुद्रित पत्रों का प्रयोग किया जा सकता था। उन्हें एक अजनबी ने लिखा था कि वाद विवाद की एक सभा में `द इनोल्यूशन' पर चर्चा होगी, और बहुत ही व्यस्त होने कारण उसके पास समय बहुत कम है, इसलिए आप अपने दृष्टिकोणों की एक रूपरेखा भिजवा दीजिए। हालांकि, उस नौजवान को काफी शालीनता भरा जवाब मिला था, तथापि उसे अपने भाषण के लिए अधिक सामग्री नहीं मिली। पिताजी का नियम था कि मुफ्त पुस्तक भेजने वाले हर एक को धन्यवाद देते थे, लेकिन पेम्फलेट के बारे में वे ऐसा नहीं करते थे। वे कई बार हैरानगी जाहिर करते थे कि उनकी अपनी किताबों के लिए किसी ने भी कभी भी उन्हें धन्यवाद नहीं दिया। उन्हें जैसे ही कोई पत्र मिलता था तो वे खुश हो जाते थे, क्योंकि उनकी नज़र में उनके सभी लेखन कार्यों का इससे बेहतर मूल्यांकन और कुछ नहीं हो सकता था। उनकी पुस्तकों में दूसरे रुचि लेते थे तो पिताजी भाव विभोर हो उठते थे।
धन और व्यापार के मामले में वे अत्यधिक सतर्क और सटीक रहते थे। वे सावधानी पूर्वक बहीखाता रखते थे, उसे वर्गीकृत करते और साल के अंत में एक व्यापारी की तरह से लेखे-जोखे का चिट्ठा तैयार करते। मुझे याद है कि भुगतान के लिए दिए गए हरेक चेक को वे फौरन से पेशतर बही में दर्ज करते, मानो यदि ऐसा नहीं किया तो भूल जाएंगे। मुझे लगता है कि दादाजी ने उन्हें यह एहसास दिला दिया था कि वे जितना सोचते हैं, उससे कहीं ज्यादा गरीब हैं। क्योंकि इस इलाके में घर खरीदते समय उन्हें दादाजी की ओर से बहुत ही कम धन मिल पाया था। इसके बावजूद वे जानते थे कि आगे चलकर उन्हें तकलीफ नहीं होगी, क्योंकि अपने संस्मरणों में उन्होंने लिखा है कि डाक्टरी पढ़ने में मेहनत करने की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि उन्हें अपनी आजीविका की अधिक चिन्ता नहीं।
वे कागज का इस्तेमाल बहुत किफायती ढंग से करते थे, लेकिन वास्तव में ये बचत कम और आदत ज्यादा थी। जितने भी खत मिलते उनके साथ मिले खाली कागजों को वे सहेज कर रख लेते थे; कागज का वे इतना आदर करते थे कि खुद अपनी ही किताबों की पाण्डुलिपियों के पीछे लिख डालते थे, दुर्भाग्यवश इस आदत के चलते किताबों की मूल पांडुलिपियाँ भी खराब हो गईं। कागज के बारे में उनकी यह भावना रद्दी कागजों के लिए भी थी, और कई बार तो मज़ाक में कहते कि मोमबत्ती जलाने के बाद बचे छोटे कागज़ के टुकड़े को भी आग में मत फेंको।
वे विशुद्ध बनियागिरी का भी पूरा आदर करते थे और अपने एक रिश्तेदार की प्रशंसा में कह उठते थे कि उसने अपना भविष्य संवार लिया। अपने बारे में तो वे इतना ही कहते कि जितना धन उन्होंने बचाया उसका उन्हें गर्व है। अपनी किताबों के जरिए प्राप्त धन का भी उन्हें संतोष था। धन की बचत वे इस चिन्ता से भी करते थे कि उनकी संतानों की सेहत ऐसी नहीं कि वे अपना जीवन यापन कर सकें। यह एक ऐसी बात थी जिससे वे कई बरस तक परेशान रहे। मुझे उनकी बातों में से एक अभी भी थोड़ी बहुत याद है। वे कहा करते थे,`भगवान का शुक्र है कि उसने तुम्हें दाल रोटी का सिलसिला दे रखा है'। बचपन में मैं इस बात का मतलब केवल शब्दों के रूप में ही समझता था।
खतों का काम निपटाने के बाद दोपहर करीब तीन बजे वे बेडरूम में आराम करते थे। एक सोफे पर लेट जाते, सिगरेट पीते हुए कोई उपन्यास या विज्ञान के अलावा कुछ और पढ़वा कर सुनते थे। वे केवल आराम करते समय ही धूम्रपान करते थे, जबकि नौसादर उन्हें तरोताज़ा कर देती थी। नौसादर वे केवल काम करते समय ही लेते थे। अपने जीवनकाल में उन्होंने नौसादर का काफी सेवन किया। यह लत उन्हें विद्यार्थी जीवन के दौरान ही एडिनबर्ग में लग गयी। नौसादर रखने के लिए उनके पास चाँदी की सुन्दर डिबिया थी, जो उन्हें मायेर में मिसेज वुडहाउस ने दी थी। इस डिबिया को बहुत प्यार करते थे, लेकिन कभी भी अपने साथ बाहर नहीं ले जाते थे, क्योंकि इससे नौसादर की सुंघनी ज्यादा हो जाती थी। अपने किसी पुराने पत्र में उन्होंने लिखा था कि कई माह से उन्होंने नौसादर बन्द कर रखी है, और इस दौरान उनकी हालत एकदम अहदी, आलसी, और बौड़म जैसी हो गयी। हमारे पुराने पड़ोसी और पादरी मुझे बताते थे,`एक बार तुम्हारे पिताजी ने यह संकल्प कर लिया कि घर के बाहर रहेंगे तो ही नौसादर की सुंघनी लेंगे, यह तो उनके लिए बड़ा ही संतोषप्रद इंतजाम था, क्योंकि मैं अपनी डिबिया अध्ययनकक्ष में रखता था और बगीचे से वहाँ आने का काम नौकरों को बिना बुलाए किया जा सकता था, और इसी बहाने मैं अपने प्यारे दोस्त के पास कुछ अधिक समय गुजार लेता था, दूसरे हालात में शायद यह नामुमकिन होता।' वे बड़े दालान में रखी मेज पर रखे मर्तबान में से नौसादर निकालते थे, नौसादर की एक चुटकी के लिए इतनी दूर जाना कोई बड़ी बाधा नहीं थी, नौसादर के मर्तबान के ढक्कन की खनक अलग ही आवाज़ करती थी। कई बार जब वे ड्राइंगरूम में होते थे, तो उन्हें अचानक ही इलहाम होता था कि अध्ययन कक्ष में जल रही आग धीमी पड़ गयी लगती है, और जब हम में से कोई एक कहता कि चलो देख कर आते हैं, तो पता चलता कि नौसादर की चुटकी भी आ गयी है। सिगरेट पीने की आदत उन्हें बाद के वर्षों में पक्की सी हो गई, हालांकि पम्पास की सैर के दौरान उन्होंने गाउकोस के साथ सिगरेट पीने की आदत पड़ गयी थी। मैंने उन्हें यह कहते सुना था कि मेट के प्याले के साथ सिगरेट का कश सारे सफर की थकान और भूख दोनों को दूर कर देता था।
दिन में चार बजे के करीब वे सैर के लिए कपड़े पहनने के लिए नीचे आते और इस काम में इतने पक्के थे कि सीढ़ियाँ उतरते हुए उनके कदमों की आवाज़ सुनकर कोई भी कह सकता था कि अब चार बजे के आस पास का समय है।
दिन में लगभग साढ़े चार बजे से साढ़े पाँच बजे तक वे काम करते और फिर ड्राइंग रूम में आ जाते थे, और फिर उपन्यास पढ़वाने तथ सिगरेट पीते हुए आराम करने (लगभग छह बजे) तक वे खाली बैठे रहते थे।
आगे चलकर उन्होंने देर से डिनर करना छोड़ ही दिया था, और साढ़े सात बजे चाय (हम सब डिनर करते थे) और साथ में एक अण्डा या गोश्त का छोटा-सा टुकड़ा ले लिया करते थे। डिनर के बाद वे कभी भी कमरे में नहीं रुकते थे और यह कहते हुए माफी माँगते कि जिसकी घोड़ी बूढ़ी हो उसे अपना सफर जल्दी शुरू कर देना चाहिए। यह भी उन संकेतों में से एक था कि उनकी कमज़ोरी बढ़ती जा रही थी। आधा घंटे भी कम या ज्यादा बातचीत की तो सारी रात की नींद का कबाड़ा और अगले दिन का आधा काम तो बिगड़ ही जाता था।
डिनर के बाद वे मेरी माँ के साथ बैकगेमोन नामक खेल खेलते थे। हर रात दो बाजियाँ होती थीं। कई बरस से खेल में हार जीत का रिकार्ड भी रखा जा रहा था, और इसके स्कोर में उन्हें बहुत रुचि थी। इन बाजियों में वे दिलो जान से जुट जाते थे। खेल में अपनी बदनसीबी को कोसते और मेरी माँ की खुशनसीबी पर बनावटी गुस्सा जाहिर करते हुए बिफरने का नाटक करते।
बैकगेमोन खेलने के बाद वे कोई वैज्ञानिक किताब खुद ही पढ़ने बैठ जाते। अगर ठीक हुआ तो ड्राइंगरूम में ही और अगर वहाँ शोरगुल हुआ तो अपने अध्ययनकक्ष में।
शाम को वे इस समय तक अपनी ताकत के मुताबिक पढ़ चुके होते थे, और कोई पढ़कर सुनाए इससे पहले ही, बहुधा वे सोफे पर लेट जाते और मेरी माँ उन्हें पियानो पर धुनें सुनाती। हालांकि उन्हें संगीत की बारीकियाँ नहीं मालूम थीं, लेकिन उन्हें अच्छे संगीत से बहुत प्यार था। वे इस बात पर खेद जाहिर करते थे कि उम्र बढ़ने के साथ साथ वे संगीत में खुशी पाना भूलते जा रहे हैं। तो भी जहाँ तक मुझे याद है कि अच्छी धुनों को अभी भी पसन्द करते थे। मैंने उन्हें एक ही धुन गुनगुनाते सुना था - और वह थी वेल्श गीत की धुन `Ar hydy nos', यह धुन वे एकदम सही तरीके से गुनगुनाते थे; वे कभी कभी ओटाह्वाइटियन गीत भी गुनगुना लेते थे। संगीत की समझ न होने के कारण वे किसी भी धुन को दुबारा समझने में नाकाम रहते थे, लेकिन उन्होंने अपनी पसन्द में निरन्तरता बनायी हुई थी। जब कभी भी उनकी पसंदीदा पुरानी धुन बजायी जाती तो वे पुलक उठते और कहते,`यह इतनी मधुर धुन कौन-सी थी?' वे बीथोवन की सिम्फनी के कुछ अंशों और हेन्डेल की कुछ धुनों को भी पसन्द करते थे। वे शैली में विभिन्नता के प्रति भी संवेदनशील थे। वे मिसेज वर्नन लशिन्गटन को भावोत्पादक रूप से संगीत बजाते सुनते थे। यही नहीं जून 1881 में हेन्स रिचर जब डाउन आए थे, तो पियानो पर उनके संगीत को सुन वे विमुग्ध हो गए थे। वे अच्छी गायकी का भी लुत्फ उठाते थे और संगीत की अन्तिम गत या करुणामय धुन को सुनकर लगभग रो पड़ते थे। उनकी भतीजी लेडी फेरेर जब सुलिवन के गीत `Will he come' पर साज छेड़ती थीं तो वह उनके लिए सुख की पराकाष्ठा होती थी। वे अपनी रुचि के लिए अत्यधिक भाव विभोर रहते थे, और यदि कोई दूसरा भी उनसे सहमत होता था तो वे उसके सामने प्रमुदित हो उठते थे।
वे शाम को बहुत थक जाते थे, और जीवन के आखिरी वर्षों में तो यह थकान बहुत बढ़ गई थी। वे रात में लगभग दस बजे के करीब ड्राइंग रूम से निकल जाते थे और साढ़े दस के करीब सोने चले जाते। उनकी रातें बहुत कष्टप्रद होती थीं। वे घंटों जागते रहते या बिस्तर पर बैठे रहते थे, और बेचैनी में पहलू बदलते। रातों में वे अपने विचारों की ऊहापोह में अधिक परेशान होते थे, और कई बार उनका दिमाग किसी ऐसी समस्या में उलझ जाता था जिसे वे लगभग नकार चुके होते थे। रात में भी अक्सर ऐसा होता कि दिन में परेशान करने वाली कोई समस्या फिर से उनहें परेशान करने लगती थी, मैं समझता हूं यह तब ज्यादा होता था जब वे किसी झंझटी खत का जवाब नहीं दे पाते थे।
इस प्रकार की यह लगातार पढ़ाई, जिसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूँ, कई बरस तक चलती रही, और इसी वजह से वे साहित्य के विनोदपरक पहलू को समझ पाए। उन्हें उपन्यासों का चस्का-सा लग गया था और मुझे याद है कि उन्हें इस बात पर कितना आनन्द आता था कि वे लेटे हुए सिगरेट के कश ले रहे हैं और कोई उपन्यास पढ़कर उन्हें सुना रहा हो। वे उपन्यास की कथा वस्तु और चरित्र चित्रण, दोनों में गहरी रुचि लेते थे, और कथा समाप्त होने तक वे उसके अन्त का अंदाज़ा नहीं लगा पाते थे। वे यह मानते थे कि उपन्यास का अन्त स्त्रैण कुटेव की तरह होता है। दुखान्त कथाओं को वे पसन्द नहीं कर पाते थे। इसी वजह से वे जार्ज ईलियट की प्रशंसा नहीं कर पाते थे, जबकि वे सिलास मार्नर की यदा कदा प्रशंसा करते थे। वाल्टर स्कॉट, मिस ऑस्टेन और मिसेज गास्केल की कृतियाँ तो बार बार पढ़वाते थे, इतना पढ़वाते कि पढ़ते पढ़ते उनमें नीरसता आ जाती थी। वे एक बार में दो या तीन किताबें उठा लेते थे, एक उपन्यास और शायद एक जीवनी तथा एक पुस्तक यात्रा वृत्तान्त के बारे में। वे ऐसे ही या पुरानी पद्धति की किताबों को पढ़ना शुरू नहीं कर देते थे, बल्कि वे नवीनतम पुस्तकों को पसद करते थे। ये पुस्तकें वे पुस्तकालय से लाते थे।
उनकी साहित्यिक रुचि और अभिमत उस स्तर के नहीं थे, जितना तेज़ उनका दिमाग़ था। वे खुद भी सोचते थे कि जिस बात को वे अच्छा समझते थे उसके बारे में पूरी तरह स्पष्ट थे। वे मानते थे कि साहित्यिक रुचि के मामले में वे किसी दूसरी दुनिया के थे, और इसमें से अपनी पसन्द और नापसन्द के बादे में भी बताते थे, साहित्यिक लोगों के बारे में तो वे कहते थे कि इस सम्प्रदाय से उनका कोई नाता नहीं है।
कला के सभी मामलों पर वे आलोचकों पर हंसते थे और कहते थे कि उनके अभिमत पुरानपंथी हैं। इसी प्रकार चित्रकारी के बारे में वे कहते थे कि आज जिन चित्रकारों की उपेक्षा हो रही है कभी अपने जमाने में वे धुरंधर माने जाते थे। युवक के रूप में चित्रों के प्रति उनका अनुराग एक तरह से इसका प्रमाण है कि कला के एक उपादान के रूप में वे इन चित्रों को पसन्द करते थे, केवल पसन्द दिखाने के लिए नहीं। इसके बावजूद वे पोर्टेट को काफी हल्का मानते थे और कहते थे कि फोटोग्राफ इसके मुकाबले कहीं बेहतर हैं, जैसे कि वे चित्रकार की समस्त कला के प्रति उदासीन हो अपनी आँखें बन्द कर लेते थे। लेकिन यह सब वे इसलिए कहते थे ताकि हम उनका पोर्टेट बनवाने का विचार छोड़ दें, क्योंकि इसकी प्रक्रिया उन्हें बहुत ही उबाऊ लगती थी।
इस प्रकार कला के सभी विषयों के बारे में उन्हें एक अनभिज्ञ के रूप में देखने की हमारी भावना इस बात से और मजबूत हो जाती थी कि वे अपने चरित्र के अनुरूप ही इस बारे में भी दिखावटीपन नहीं रखते थे। रुचि के साथ साथ अन्य गंभीर बातों के मामले में भी उन्होंने अपने सुदृढ़ विचार बना रखे थे। मुझे एक मौका याद आता है जो कि इसका अपवाद हो सकता है। एक बार वे जब मिस्टर रस्किन के बेडरूम में टर्नर्स को देख रहे थे, तो उन्होंने बाद में भी और उस समय भी यह स्वीकार नहीं किया कि मिस्टर रस्किन ने उनमें क्या देखा था, उस बारे में कुछ भी नहीं समझ पाए थे, लेकिन यह बहानेबाजी वे अपने बचाव के लिए नहीं कर रहे थे बल्कि अपने मेजबान के बचाव में कर रहे थे। वे इस बात पर काफी खुश और हैरान हुए थे, जब बाद में मिस्टर रस्किन कुछ चित्रों के फोटोग्राफ लाए (मैं समझता हूँ कि वे वेनडाइन के पोर्टेट) और उनके बारे में बड़े ही आदरपूर्वक मेरे पिताजी से अभिमत माँगा।
पिताजी का वैज्ञानिक अध्ययन ज्यादातर जर्मन भाषा में होता था, और यह उनके लिए बहुत ही श्रमसाध्य था। मुझे यह बात तब पता लगी जब मैंने उनकी पढ़ी किताबों में पेंसिल से लगाए गए निशानों को देखा, तो पाया कि निशान बहुत कम अन्तरालों पर लगाए गए थे। वे जर्मन को `वर्डाम्टे' कहते थे, मानो अंग्रेजी उच्चारण ही करना है। वे जर्मन लोगों के प्रति विशेष रूप से क्रोधित हो उठते थे, क्योंकि वे यह बात मानते थे कि यदि जर्मन चाहें तो सरल भाषा भी लिख सकते हैं, वे कई बार फ्रेइबर्ग के प्रोफेसर हिल्डब्रान्ड की तारीफ करते हुए कहते कि वे फ्रान्सीसी भाषा जैसी सरल और स्पष्ट जर्मन लिखते हैं। वे कई बार अपनी जर्मन मित्र को जर्मन भाषा का वाक्य देकर अनुवाद करने को कहते और यदि वह जर्मन भक्त महिला उस वाक्य को सहज रूप से अनुवाद न कर पाती तो हँसते। उन्होंने शब्दकोश में सिर खपा खपाकर जर्मन खुद ही सीखी थी। वे कहते थे कि किसी वाक्य को कई कई बार दोहराता हूँ, तब तक दोहराता हूँ जब तक कि उसका अर्थ मुझे स्पष्ट न हो जाए। काफी पहले जब उन्होंने जर्मन सीखना शुरू किया था तो वह इस बात का बखान करते (जैसा वे बताते) कि सर जे हूकर ने यह सुनकर कहा था,`मेरे प्रिय मित्र, यह कुछ भी नहीं है, मैं तो यह शुभ काम कई बार शुरू करके छोड़ चुका हूँ।'
व्याकरण में कमज़ोरी के बावज़ूद वे जर्मन बेहतर तरीके से समझ लेते थे, और जिन वाक्यों को वे समझ नहीं पाते थे, वे वाक्य वास्तव में कठिन होते थे। उन्होंने जर्मन सही प्रकार से बोलने का का प्रयास कभी नहीं किया, बल्कि शब्दों का उच्चारण ऐसे करते थे, मानो वे अंग्रेजी के हों। इससे उनकी कठिनाई कम नहीं होती थी, खासकर जब वे जर्मन वाक्य पढ़कर उसका अनुवाद कराते थे। उच्चारित ध्वनियों की बारीकी वे नहीं पकड़ पाते थे, इसलिए उच्चारण में थोड़े से भेद को समझना उनके लिए मुश्किल था।
उनकी एक खासियत यह भी थी कि वे विज्ञान की उन विधाओं में भी रुचि लेते थे, जो उनकी अपनी विधा से बिल्कुल अलग थीं। जीव विज्ञान से जुड़े विषयों के बारे में उनके विश्लेषणपरक सिद्धान्तों को काफी ख्याति प्राप्त हुई। यह तो कहा ही जा सकता है कि वे सभी विधाओं में कुछ न कुछ तलाश लेते थे। उन्होंने विभिन्न विषयों की खास खास किताबें भी पढ़ीं। इनमें पाठ्य पुस्तकें काफी थीं, जैसे हक्सले की इन्वर्टेब्रेट एनाटोमी या बेलफॉर की एम्ब्रयोलॉजा। इन सभी पुस्तकों की विषयवस्तु उनकी अपनी विशेषज्ञता से कहीं परे की बातें थीं। इसी प्रकार मोनोग्राफ प्रकार की पुस्तकों का अध्ययन नहीं करते थे।
इसी प्रकार जीव विज्ञान के अलावा अन्य प्रकार की पुस्तकों के प्रति भी वे संवेदना रखते थे, खासकर जिन्हें वे परख नहीं पाते थे। उदाहारण के लिए उन्होंने नेचर को पूरा पढ़ लिया था, भले ही इस पुस्तक का अधिकांश भाग गणित और भौतिकी से सम्बन्धित था। मैंने उन्हें कई बार यह कहते भी सुना था कि जिन आलेखों को (स्वयं उन्हीं के अनुसार) वे समझ नहीं पाते उन्हें पढ़ने में भी उन्हें बहुत आनन्द आता था। काश! मैं भी उन्हीं की तरह से हँस पाता, जब वे यह बात कहकर ठहाका मारते थे।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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tag – charls darwin, theory of evolution, origin of species, charls darvin’s autobiography in hindi, suraj prakash, k p tiwari
डार्विन जैसे महान लोगों का जिक्र करके ही आप पाठकों में उत्साह भरने का कार्य कर रहे है खासतौर से साइंस के छात्रों के लिये
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