चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा अनुवाद एवं प्रस्तुति : सूरज प्रकाश और के पी तिवारी ( पिछले अंक से जारी…) मैं इस निशानेबाजी मे...
चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा
अनुवाद एवं प्रस्तुति :
सूरज प्रकाश और के पी तिवारी
मैं इस निशानेबाजी में क्यों रुचि लेने लगा था, मुझे नहीं मालूम, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि उस वक्त मैं निशानेबाजी के चक्कर में विवेकशून्य हो गया था। तभी तो मैं यह सोचने लगा था कि अच्छी निशानेबाजी भी बुद्धिमानी की निशानी है, क्योंकि यह जानना भी एक कला है कि अच्छे शिकार कहाँ मिलेंगे और उनका शिकार कैसे किया जाए।
मैं सन 1827 में जब पतझड़ के मौसम में मायेर गया हुआ था, तो वहां पर सर जे मेकिनटोश से भेंट हुई। मुझे जितने भी वक्ता मिले उनमें वे सर्वोत्तम थे। बाद में पीठ पीछे मेरी तारीफ करते हुए उन्होंने गर्व से कहा था, `इस युवक में कुछ है जो मुझे रुचिकर लगा।' शायद उन्होंने भी देख लिया था कि उनकी बतायी हर बात को मैं कितने ध्यान से सुन रहा था, और मैं तो इतिहास, राजनीति और नैतिक दर्शनशास्त्र के बारे में निरा बुद्धू था। किसी प्रसिद्ध व्यक्ति से अपनी प्रशंसा सुनना किसी भी युवक को अच्छा लगता है, क्योंकि यह उसे सही रास्ते पर लगाए रखता है, हालांकि इस प्रकार की तारीफ से कुशाग्रता बढ़ती है लेकिन कई बार मिथ्या अहं भी बढ़ सकता है।
बाद के दो-तीन बरस में जब मैं मायेर गया तो मैंने निशानेबाजी नहीं की, फिर भी समय शानदार गुज़रा। वहाँ का जीवन एकदम तनाव रहित था। पैदल घूमने या घुड़सवारी करने के लिए दूर-दराज के इलाके बड़े ही दिलकश थे, और शाम को सब बैठकर संगीत और गप्पबाजी का आनन्द लेते थे। हमारी गप्पें बहुत व्यक्तिगत नहीं होती थीं, जैसा कि बड़े परिवारों में अक्सर होती हैं। गर्मियों में पूरा परिवार अक्सर पुराने पोर्टिको की सीढ़ियों में बैठ जाता था। सामने ही फुलवारी थी और मकान के ठीक सामने फैला हुआ ढलवाँ जंगल नदी में चमकता रहता था। नदी में मछलियों की छलाँग या जल पक्षियों का तैरना बड़ा ही मनमोहक था। मेरे दिलो दिमाग पर मायेर की उन शामों की याद आज भी ताज़ा है। मैं अंकल जोस का बहुत आदर करता था और मुझे उनसे लगाव भी बहुत था। वे बहुत ही मौन प्रकृति के और एकान्तप्रिय व्यक्ति थे, लेकिन मुझसे कई बार खुलकर बातें करते थे। वे अत्यन्त सरल और स्पष्ट विवेक के स्वामी थे। मुझे नहीं लगता कि संसार में ऐसी कोई भी शक्ति होगी जो उन्हें उस मार्ग से विचलित कर सके, जो मार्ग उनकी समझ में सही हो। उनके बारे में मैं होरेस के काव्य की कुछ पंक्तियाँ कहता था।
कैम्ब्रिज, 1828-1831 एडिनबर्ग में दो सत्र गुज़ारने के बाद, पता नहीं मेरे पिता को मालूम हो गया, या मेरी बहनों ने बता दिया कि मैं फिजीशियन बनने का विचार पसन्द नहीं करता। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं पादरी बन जाऊँ तो बेहतर होगा। क्योंकि मैं एक निठल्ला शिकारी बनूँ, इस बात के वे प्रखर विरोधी थे। उस समय तो यही सम्भावना ज्यादा थी कि मैं शिकारी बनने की ओर कदम बढ़ा रहा था। मैंने सोचने के लिए कुछ मोहलत माँगी, ताकि चर्च ऑफ इंग्लैन्ड के सभी धर्मसूत्रों के प्रति अपने मन में विश्वास पैदा कर सकूं, क्योंकि सुनी सुनाई बातों के कारण में मन में बहुत-सी आशंकाएं घर कर चुकी थीं। इसके अलावा मैं पादरी बनने के विचार को पसन्द करता था। इसी क्रम में मैंने ईसाई सिद्धान्तों पर पीयरसन के लेख और अन्य धर्मग्रन्थ बहुत ही सावधानी से पढ़े। उस समय तो बाइबल के प्रत्येक शब्द में वर्णित सत्य का कड़े और अक्षरशः पालन करने में मुझे संदेह नहीं रह गया। जल्द ही मैं इस बात का मुरीद हो गया कि ईसाई मत के सिद्धान्तों का सम्पूर्ण रूप से पालन होना चाहिए।
इस बात पर ध्यान दूँ कि मेरे विचारों के कारण किस प्रकार से मुझ पर रूढ़िवादियों ने हमले किए, तो यह बड़ा ही असंगत लगता है कि कभी मैं पादरी बनना चाहता था। वैसे मेरा तो अभिप्राय नहीं था और मैंने पिताजी की इच्छा को छोड़ा भी नहीं था, लेकिन पादरी बनने का यह विचार भी उस समय स्वाभाविक रूप से दम तोड़ गया, जब मैंने प्रकृतिवादी के रूप में बीगल में काम शुरू किया। यदि मानस विज्ञानियों का भरोसा किया जाए तो मैं पादरी बनने के लिए कई मायनों में एकदम सही था। कुछ वर्ष पहले जर्मन मानस विज्ञानी सोसायटी के कार्यालय से मुझे एक पत्र मिला था, जिसमें उन्होंने काफी शिद्दत के साथ मेरा फोटो माँगा था। कुछ समय बाद मुझे उनकी बैठकों का वृत्तान्त प्राप्त हुआ, उसमें यह उल्लेख था कि मेरे ललाट का आकार प्रकार वहां चर्चा का विषय रहा, और वहाँ मौजूद एक वक्ता ने तो यहाँ तक कहा कि मेरे जैसा उन्नत ललाट तो दस पादरियों को मिलाकर भी नहीं होगा।
जब यह तय हो गया कि मैं पादरी बनूँ, तो यह भी ज़रूरी हो गया कि इस दिशा में तैयारी करने के लिए मैं किसी इंग्लिश यूनिवर्सिटी में पढ़ने जाऊँ और उपाधि हासिल करूँ। मेरे साथ संकट यह था कि स्कूल छोड़ने के बाद मैंने कोई शास्त्रीय ग्रन्थ नहीं पढ़ा था। मुझे यह जान कर बड़ा ही क्षोभ हुआ कि इन दो बरस के दौरान स्कूल में पढ़ा हुआ सब कुछ भूल गया था। सब कुछ। यहाँ तक कि ग्रीक वर्णमाला के कुछ अक्षर भी। इसलिए मैं अक्तूबर में ठीक समय पर कैम्ब्रिज नहीं जा सका, बल्कि श्रूजबेरी में ही प्राइवेट ट्यूटर से पढ़ा और फिर क्रिसमस की छुट्टियों के दौरान 1828 की शुरुआत में ही कैम्ब्रिज जा पाया। मैंने जल्द ही स्कूल की सारी पढ़ाई को याद कर लिया, और होमर तथा ग्रीक टेस्टामेन्ट जैसी आसान ग्रीक पुस्तकों का सुविधानुसार अनुवाद भी कर लेने लगा था।
यदि शैक्षणिक ज्ञान को देखा जाए तो मैंने कैम्ब्रिज में तीन बरस का अपना समय बरबाद किया। यह ठीक वैसा ही रहा जैसा एडिनबर्ग में स्कूल में हुआ था। मैंने गणित का अभ्यास शुरू किया, और 1828 की गर्मियों में बारमाउथ में प्राइवेट ट्यूटर भी रखा, लेकिन मेरी पढ़ाई बहुत धीमी चल रही थी। मुझे बीजगणित के शुरुआती सूत्र तो बेमतलब ही लग रहे थे। पढ़ाई में इस तरह की अधीरता दिखाना एक तरह से बेवकूफी थी, क्योंकि बाद के समय में मैं खुद को ही कोसता था कि मैंने मेहनत क्यों नहीं की और गणित के कुछ विख्यात सूत्रों को क्यों नहीं समझा। मुझे लगने लगा था कि गणित की जानकारी रखने वाले प्रबल मेधा के स्वामी होते हैं। लेकिन साथ ही मुझे यह भी महसूस हुआ कि गणित की पढ़ाई में मैं खास कुछ कर भी न पाता। शास्त्रीय ज्ञान के बारे में मैंने कॉलेज के अनिवार्य लैक्चरों के अलावा कुछ खास नहीं किया, और इनमें भी मैं मामूली तौर पर ही जाता था।
अपने दूसरे वर्ष के दौरान लिटिल गो पास करने के लिए मैंने एक या दो महीने जमकर मेहनत की और बेड़ा पार हो गया। इसी तरह से अंतिम वर्ष में बीए की डिग्री पाने के लिए मैंने मनोयोग से अध्ययन किया, अपना शास्त्रीय ज्ञान, बीजगणित और यूक्लिड दोहराया। यूक्लिड में मुझे वैसा ही आनन्द आया जैसा कि स्कूली दिनों में आता था। बीए की परीक्षा पास करने के लिए मुझे पाले द्वारा लिखित एविडेन्स ऑफ फिलॉस्फी पढ़ना भी ज़रूरी था। यह काम मैंने मन लगाकर किया और मुझे यह तो भरोसा हो ही गया था कि मैं सम्पूर्ण एविडेन्स को पूरी शुद्धता के साथ लिख सकता था। हाँ, इतना ज़रूर है कि पाले जैसी स्पष्ट भाषा नहीं लिख पाता। इस किताब के विभिन्न प्रकार के तर्कों ने, और मैं यह भी कहूँगा कि उनकी प्राकृतिक आध्यात्म विद्या ने मुझे यूक्लिड जैसा ही आनन्द प्रदान किया। इन रचनाओं का सावधानीपूर्वक अध्ययन हमारे शैक्षणिक पाठ्यक्रम का वह भाग था जो मेरे दिमागी विकास के लिए शिक्षण में ज़रा-सा भी काम का नहीं था। मैंने इन रचनाओं की तोता रटंत का प्रयास नहीं किया। इसे मैं तब भी बेकार मानता था और आज भी मानता हूँ। मैंने उस समय पाले की भूमिका के बारे में स्वयं को ज्यादा परेशान नहीं किया; इसी विश्वास के बूते मैं तर्क वितर्क की परम्परा से खुश और सन्तुष्ट भी रहा। पाले के सभी प्रश्नों का ठीक उत्तर देने, यूक्लिड में बेहतर तैयारी और शास्त्रों की पढ़ाई में भी दयनीय रूप से असफल न होने के कारण मुझे आनर्स न करने वाली पोल्लोई या लोगों की भीड़ में अच्छा स्थान और डिग्री भी मिल गयी। मुझे ठीक तरह से तो नहीं मालूम कि मेरा रैंक कितना ऊपर था, लेकिन मुझे थोड़ा बहुत याद है कि सूची में पाँचवें, दसवें या शायद बारहवें स्थान पर था।
यूनिवर्सिटी में कई विषयों पर सार्वजनिक व्याख्यान दिए जाते थे, और इनमें ह़ाजिर होना अपनी मर्जी के मुताबिक था, लेकिन एडिनबर्ग में लैक्चर सुन सुनकर मैं इतना ऊब गया था कि मैं सेडविक के प्रभावशाली और रोचक व्याख्यानों में भी नहीं गया। यदि मैं उन व्याख्यानों में गया होता तो बहुत पहले ही भूविज्ञानी बन जाता। हालांकि मैंने वनस्पतिशास्त्र में हेन्सलो के व्याख्यान सुने और उनकी स्पष्टता को तथा अत्यधिक प्रभावशाली उद्धरणों को मैंने बहुत पसन्द किया लेकिन मैं वनस्पतिशास्त्र पढ़ता नहीं था। हेन्सलो अपने शिष्यों और यूनिवर्सिटी के कुछ पुराने सदस्यों को लेकर दूर दराज के इलाकों तक पैदल या घोड़ागाड़ी में या फिर नदी के बहाव के साथ साथ बजरे में बैठकर अध्ययन यात्राओं पर जाते थे। इस दौरान पाए जाने वाले दुर्लभ पौधों और पशुओं पर वे व्याख्यान देते। ये अध्ययन यात्राएँ बड़ी मनोरंजक होती थीं।
इस समय वैसे तो यही लग रहा होगा कि कैम्ब्रिज में पढ़ाई के दौरान मेरे जीवन के कुछ निर्धारक पहलू उजागर हो रहे थे, तो भी मैं यही कहूँगा कि वहाँ मेरा समय बुरी तरह से बरबाद हो रहा था। भयंकर बरबादी। निशानेबाजी की और शिकार करने की मेरी भावना मर चुकी थी, और अब मुझे देश के दूर दूर के हिस्सों की सैर करने में मज़ा आने लगा था। मैं दूर दूर तक घुड़सवारी करता। यहाँ मैं एक नई ही चांडाल चौकड़ी में फंस गया था। हमारी इस मंडली में कुछ लफंगे और नीच प्रवृत्ति के युवक भी थे। हम अक्सर शाम को एक साथ भोजन करते, हालांकि इनमें हमारे साथ अक्सर कोई न कोई गरिमामय व्यक्ति भी रहता था, और कई बार हम ज्यादा पी लेते थे, और बाद में गाते रहते या ताश खेलते। इस तरह से जितनी शामें मैंने गुज़ारीं, मुझे आज भी उसके लिए शरम महसूस होती है। हालांकि मेरे कुछ मित्र बहुत ही खुशमिजाज़ थे और हम सभी के दिमाग सातवें आसमान पर थे, लेकिन कुल मिलाकर मुझे उन दिनों की याद बहुत सुखदायक नहीं है।
लेकिन मुझे यह जानकर खुशी भी है कि मेरे कुछ और दोस्त भी थे जो पूरी तरह अलग प्रकृति के थे। व्हिटले के साथ मेरी दांत-काटी दोस्ती वाला मामला था। बाद में वह सीनियर रैंगलर बना। हम दोनों काफी दूर तक घूमने निकल जाते थे। उसने मुझमें अच्छे चित्रों और नक्काशियों के प्रति रुझान पैदा किया। इनमें से कुछ कलाकृतियाँ मैंने खरीदीं भी। मैं अक्सर फिट्जविलियम गैलरी भी जाता रहता था, और लगता है मेरी रुचि भी काफी अच्छी थी, क्योंकि मैंने हमेशा अच्छे चित्रों की प्रशंसा की थी, और उनके बारे में बुजुर्ग क्यूरेटर से चर्चा भी करता था। मैंने सर जोशुआ रेनाल्ड की किताब काफी रुचि के साथ पढ़ी। हालांकि यह रुचि मेरे प्राकृतिक रुझान में नहीं थी, तो भी कुछ बरस तक मैंने इसमें काफी रुचि ली, और लन्दन स्थित नेशनल गैलरी के कई सारे चित्र मुझे बहुत आनन्दित करते थे, और सेबेस्टियन देल पियेम्बो के चित्र तो जैसे मुझे दिव्यलोक में ले जाते थे।
मैं एक संगीत मंडली में भी जाता था। मेरा एक जोशीला दोस्त हर्बर्ट मुझे वहाँ ले गया। उसके पास हाई रैंगलर की उपाधि भी थी। इस मंडली में शामिल होने और उनकी धुनों को सुनकर मुझमें संगीत के प्रति गहरा लगाव पैदा हो गया था। मैं अपनी सैर का समय इस तरह रखता था कि सप्ताह के दिनों में किंग्स कालेज के चैपल में उस मंडली को राष्ट्रगान की धुन बजाते सुन सकूं। इसमें मुझे इतना गहरा आनन्द आता था कि कई बार मेरी रीढ़ में सिहरन दौड़ जाती थी। मैं पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि इस लगाव में कोई बनावट या केवल नकल नहीं थी, क्योंकि मैं कई बार खुद ही किंग्स कालेज चला जाता था, और कई बार तो गिरजे की गायन मंडली के बच्चों को पैसे देकर अपने कमरे में उनका गायन सुनता था। यह बात दूसरी है कि मेरे कान संगीत को समझने के मामले में दीन हीन थे। मैं एक भी धुन समझ नहीं पाता था, और न ही कोई धुन बजा पाता था। सही तरीके से गुनगुनाना तो मेरे लिए कठिन था, फिर भी यह रहस्य ही है कि मैं संगीत का आनन्द क्योंकर ले पाता था।
मेरी संगीत मंडली के मेरे मित्रों ने जल्द ही मेरी हालत का अन्दाजा लगा लिया। कई बार वे सब संगीत में मेरा इम्तिहान लेते और अपना मनोरंजन भी करते। वे कोई धुन बजाते और फिर सब मुझसे पूछते कि इनमें कौन कौन सी धुनों को मैं पहचान सकता हूँ। इन्हीं धुनों को जब वे सामान्य से द्रुत या मंथर गति से बजाते थे तो मेरे लिए और भी कठिनाई होती थे। इस तरह से तो गॉड सेव्ड द किंग की धुन भी मेरे लिए कष्टप्रद पहेली बन जाती थी। एक और व्यक्ति भी था जो संगीत में मेरे जितनी ही समझ रखता था और कहने में अटपटा लगता है कि वह थोड़ा बहुत बांसुरी भी बजा लेता था। हमारी संगीत मंडली की परीक्षाओं में एक बार मैंने उसे पराजित कर दिया तो मुझे बहुत खुशी हासिल हुई थी।
कैम्ब्रिज में रहने के दौरान मैं जिस उत्सुकता और लगन से भृंगी कीट पकड़ता था वह मेरे लिए आनन्ददायक था, और जितना आनन्द मुझे इस काम में मिलता था, उतना किसी अन्य काम में नहीं आता था। यह काम केवल संग्रह का जुनून था, क्योंकि मैं इन कीटों की चीर फाड़ नहीं करता था। हाँ, इतना ज़रूर है कि प्रकाशित विवरणों के साथ इन कीटों के बाहरी लक्षण यदा-कदा मिला लेता था, लेकिन मैं उनके नाम ज़रूर रख लेता था। कीट संग्रह के बारे में मैं अपने उत्साह के प्रमाणस्वरूप एक घटना बताता हूँ।
एक दिन पेड़ की पुरानी छाल उतारते समय मुझे दो दुर्लभ भृंग दिखाई दिए। मैंने दोनों को एक एक हाथ से उठाया, तभी मुझे तीसरा भृंग भी दिखाई दिया। मैं उसे भी छोड़ना नहीं चाहता था, इसलिए मैंने हाथ में पकड़े हुए एक भृंग को मुँह में रख लिया। दुर्भाग्यवश उस कीट में से कोई तीखा तरल पदार्थ निकला जिससे मेरी जीभ जल गयी और मैं थू थू कर उठा। भृंग मुँह से बाहर गिरा और साथ ही तीसरा भृंग भी हाथ न आया।
मैं इस प्रकार के कीटों का संग्रह करने में काफी सफल रहा और इसके लिए मैंने दो नए तरीके ईज़ाद किए। मैंने एक मज़दूर रख लिया था जो सर्दियों में जम गए पुराने वृक्षों की छाल को काट छाँट कर बड़े थैले में भर लाता था, और इसी तरह दलदली इलाकों से सरकंडे लाने वाले बजरों की तली में से कूड़ा कचरा बटोर लाता था। इस तरह से मुझे कुछ दुर्लभ प्रजाति के भृंग भी मिले।
शायद किसी कवि को अपनी पहली कविता के प्रकाशन पर भी इतनी प्रसन्नता नहीं होती होगी, जितनी मुझे उस समय हुई, जब मैंने स्टीफन की इलस्ट्रेशन्स ऑफ ब्रिटिश इन्सेक्ट्स, में यह जादुई शब्द देखे - सर, सी डार्विन द्वारा संगृहीत'। मेरे दूर के रिश्ते के चचेरे भाई डब्लयू डार्विन फॉक्स एक चतुर और बहुत ही खुशमिजाज व्यक्ति थे, उस समय क्राइस्ट कालेज में पढ़ते थे। मैं इनके साथ काफी हिल मिल गया था और इन्होंने ही मुझे कीट विज्ञान से परिचित कराया। इसके बाद मैं ट्रिनिटी कालेज के एल्बर्ट वे से भी परिचित हुआ और उनके साथ भी कीट संग्रह के लिए जाने लगा। आगे चलकर यही सज्जन सुविख्यात पुरातत्त्ववेत्ता बने। साथ में उसी कालेज के एच थाम्पसन भी होते थे। बाद में यह प्रसिद्ध कृषिविज्ञानी, ग्रेट रेलवे के चेयरमैन और संसद सदस्य भी बने। लगता है कि भृंगी कीटों के संग्रह की मेरी रुचि में ही भविष्य में मेरे जीवन की सफलता की सूत्र छिपा हुआ था।
मुझे इस बात की हैरानी है कि कैम्ब्रिज में मैंने जितने भृंगी कीट पकड़े, उनमें से कई ने मेरे दिमाग पर अमिट छाप छोड़ दी थी। जहाँ जहाँ मुझे अच्छा संग्रह करने का मौका लगा उन सभी खम्भों, पुराने वृक्षों और नदी के किनारों को मैं आज भी याद कर सकता हूं। उन दिनों पेनागियस क्रुक्स मेजर नामक प्यारा भृंगी कीट एक खजाने की तरह से था, और डॉन में घूमते हुए मैंने एक भृंगी कीट देखा जो कि सड़क पर दौड़ता हुआ जा रहा था। मैंने भाग कर उसे पकड़ा, और तुरन्त ही मैंने अंदाज़ा लगा लिया कि यह पेनागियस क्रुक्स मेजर से थोड़ा अलग है। बाद में पता चला कि वह पी क्वाड्रिपंक्टेटस था, जो कि इसकी एक किस्म या इसी की निकट सम्बन्धी प्रजाति है, लेकिन इसकी बनावट में थोड़ा अन्तर है। मैंने उन दिनों लिसीनस को कभी जिंदा नहीं देखा था, यह कीट भी अनजान व्यक्ति के लिए काले कैराबाइडुअस भृंग से शायद ही अलग लगे, लेकिन मेरे बेटों ने यहाँ एक ऐसा ही कीट पकड़ा और मैं तुरन्त जान गया कि यह मेरे लिए नया है। तो भी पिछले बीस साल से मैंने ब्रिटिश भृंगी कीट नहीं देखा है।
मैंने अभी तक वह परिस्थिति नहीं बतायी है जिसने दूसरी बातों की तुलना में मेरे समूचे कैरियर को सर्वाधिक प्रभावित किया। यह घटना थी, प्रोफेसर हेन्सलो के साथ मेरी दोस्ती। कैम्ब्रिज आने से पहले मैंने अपने भाई से उनके बारे में सुना था। प्रोफेसर हेन्सलो विज्ञान की हर शाखा के बारे में जानते थे, और मैं उनके प्रति नतमस्तक था। सप्ताह में एक बार वे ओपन हाउस रखते थे। उस दिन यूनिवर्सिटी में विज्ञान विषय पढ़ने वाले सभी अन्डर ग्रेजुएट और पुराने सदस्य एकत्र होते थे। फॉक्स के माध्यम से जल्द ही मुझे भी सभा में शामिल होने का निमंत्रण मिला और उसके बाद मैं नियमित रूप से वहाँ जाने लगा। हेन्सलो के साथ घुलने मिलने में मुझे अधिक समय नहीं लगा। कैम्ब्रिज में बाद के दिनों में मैं ज्यादातर उन्हीं के साथ सैर करने जाता था। कुछ गुरुजन तो मुझे यह भी कहने लगे थे, `हेन्सलो के साथ घूमने वाला व्यक्ति' और अक्सर शाम को वे मुझे अपने परिवार के साथ भोजन पर बुला लेते थे। वनस्पति शास्त्र, कीट विज्ञान, रसायन, खनिज विज्ञान और भूविज्ञान में उन्हें व्यापक ज्ञान था। लम्बे समय तक निरन्तर चलने वाले सूक्ष्म अवलोकन से निष्कर्ष निकालने की उनकी रुचि बहुत गहरी थी। उनकी निर्णय शक्ति अद्वितीय और उनका दिमाग संतुलित था, लेकिन मुझे कोई भी तो ऐसा नहीं दिखाई देता था जो यह कहे कि प्रोफेसर हेन्सलो में आत्म प्रज्ञा नहीं थी।
वे बहुत ही धार्मिक और रुढ़िवादी थे। एक दिन उन्होंने मुझे बताया कि थर्टीनाइन आर्टिकल्स का अगर एक भी शब्द बदला जाए तो उन्हें बहुत दुख होगा। उनके नैतिक गुण अत्यधिक प्रशंसनीय थे। उनमें लेश मात्र भी मिथ्या अहंकार नहीं था। वे अन्य क्षुद्र भावनाओं से भी कोसों दूर थे। मैंने ऐसा व्यक्ति नहीं देखा था जो अपने और अपने कार्य व्यापार के बारे में बहुत ही कम सोचता हो। वे हर प्रकार की अहंमन्यता या इसी प्रकार की संकीर्ण विचारधारा से पूरी तरह मुक्त थे। उनका स्वभाव अत्यन्त शान्त था, वे सुशील थे और दूसरे के दिल को जीत लेते थे, लेकिन वे किसी भी गलत काम के खिलाफ बहुत ही जल्दी आक्रोश से भर जाते थे, और फौरन ही उसे रोकने का प्रयास भी करते थे।
एक बार मैं उनके साथ कैम्ब्रिज की सड़कों पर घूम रहा था। अचानक ही मैंने बड़ा भयंकर दृश्य देखा जो शायद फ्रांसीसी क्रान्ति में ही दिखाई दिया होगा। दो उठाईगीरों को पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया था, और जेल ले जाते समय उग्र भीड़ ने उन्हें हवलदार के हाथों से झपट लिया, और उसी धूलभरी तथा पथरीली सड़क पर दोनों उठाईगीरों की टाँगें पकड़कर घसीटने लगे। वे दोनों ही सिर से पैर तक धूल से सने हुए थे। लात घूंसों और पत्थरों की मार से उनके चेहरे लहूलुहान थे। दोनों ही अधमरे हुए जा रहे थे। भीड़ इतनी ज्यादा थी कि उन दोनों आफत के मारे उठाईगीरों की एक झलक भर देख पाए थे हम दोनों। उस भयंकर दृश्य को देखकर हेन्सलों के चेहरे पर जो पीड़ा मैंने देखी वैसी मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखी। उन्होंने बार बार भीड़ को चीरकर रास्ता बनाने की कोशिश की लेकिन वह तो असम्भव था। वे तुरन्त मेयर के पास भागे और मुझसे कहा कि उनके पीछे आने के बजाये मैं कुछ और पुलिसवालों को बुला लाऊँ। बाकी तो याद नहीं, हाँ इतना ज़रूर हुआ कि पुलिस दोनों उठाईगीरों को जिन्दा ही जेल पहुँचाने में सफल रही।
हेन्सलो की परोपकारिता अपरिमित थी। उन्होंने गरीब देहातियों के लिए जो बेहतरीन योजनाएं तैयार कीं, उनसे इसके पक्के प्रमाण मिलते हैं। हिचेम में रहने के दौरान तो उन्होंने बहुतों का भला किया। ऐसे इंसान के साथ तो मेरी घनिष्ठता होनी ही थी, और मेरे ख्याल से यह मेरे लिए अपार लाभदायक भी रहा।
मैं एक छोटा-सा वाक्या बताता हूँ जो उनकी उदारता को प्रकट करता है। नमीदार सतह पर पराग कणों की परीक्षा करते समय मैंने देखा कि कुछ गाँठें सी निकल आयी हैं। अपनी यह आश्चर्यजनक खोज उन्हें तुरन्त बताने के लिए मैं भागा भागा गया। उनकी जगह वनस्पतिशास्त्र का कोई दूसरा प्रोफेसर होता तो इस तरह की जानकारी देने के लिए मेरी बदहवासी पर हंसे बिना न रहता। लेकिन उन्होंने इस घटना को बड़ा रोचक बताया और इसका आशय समझाते हुए यह भी स्पष्ट किया कि यह कोई नई घटना नहीं है, बल्कि सर्वविदित है। इस घटना से वे तो बहुत कम प्रभावित हुए लेकिन मुझे उन्होंने यही एहसास कराया कि मैंने स्वयं ही बहुत उल्लेखनीय तथ्य को भली प्रकार समझ लिया है। साथ ही मैं इसके लिए भी कृतसंकल्प हो उठा कि अब अपनी खोज को लेकर इतनी जल्दबाजी नहीं करूँगा।
डॉक्टर व्हीवेल पुराने परिचितों और खास लोगों में से एक थे। हेन्सलो के पास इनका आना जाना होता रहता था। मैं कई बार रात में उनके साथ ही घर लौटता था। गम्भीर विषयों पर व्याख्यान देने में सर जे मेकिनटोश के बाद उन्हीं का स्थान था, लेकिन मैंने उनके व्याख्यान कभी नहीं सुने। हेन्सलो और लियोनार्ड जेन्यन्स में जीजा साले का रिश्ता था। लियोनार्ड भी कभी कभार हेन्सलो के यहाँ रुकते थे। इन्होंने आगे चलकर प्राकृतिक इतिहास में बहुत से उत्कृष्ट निबन्ध प्रकाशित कराए। लियोनार्ड जब फैन्स (स्वाथम बुलबेक) की सीमा पर रह रहे थे, तो मैं खास मेहमान के तौर पर उनके पास गया था। उनके साथ भी प्राकृत इतिहास पर मैंने खूब बातें कीं। हम मिलकर सैर को गए। मैं अपने से उम्र में बड़े कई लोगों से परिचित हुआ जो विज्ञान के बारे में अधिक चिन्ता नहीं करते थे, लेकिन वे सब हेन्सलो के दोस्त थे। इनमें एक स्कॉटमैन भी थे जो सर अलेक्जेन्डर रैमसे के भाई थे, और जीसस कालेज में शिक्षक थे। बहुत कम उम्र में ही इनका देहान्त हो गया था। एक मिस्टर डावेस भी थे जो बाद में हरफोर्ड के डीन बने। गरीबों के लिए शिक्षा व्यवस्था तैयार करने में इन्होंने बहुत नाम कमाया। इन लोगों और ऐसे ही ज्ञानवान लोग तथा हेन्सलो सब मिलकर ग्रामीण इलाकों में दूर दूर तक अध्ययन यात्राओं पर जाते थे। इनमें मुझे भी बुलाया जाता था और सभी मुझे तहे दिल से साथ रखते थे।
अतीत पर नजर डालूँ तो मैं इस निर्णय पर पहुँचता हूँ कि मुझमें ऐसा ज़रूर कुछ था जो मुझे आम नौजवानों से अलहदा बनाए हुए था। वरना तो मैं जिन लोगों के साथ रहता था वे न केवल उम्र में मुझसे बड़े थे बल्कि कहीं ज्यादा पढ़े लिखे भी थे, और ऐसा न होता तो उन्होंने मुझे कभी भी साथ न लिया होता।
मैं अपने एक शिकारी दोस्त टर्नर की बात याद कर बैठता हूँ, जिसने मुझे गुबरैलों का संग्रह करते देखकर कहा था कि तुम एक दिन रॉयल सोसायटी के फैलो बनोगे। उसकी आत्मा की यह आवाज़ मुझे उस समय निरर्थक लगी थी।
कैम्ब्रिज में अपने अंतिम वर्ष में मैंने अत्यधिक सावधानी बरतते हुए और रुचि लेते हुए हम्बोल्ड लिखित पर्सनल नरेटिव का अध्ययन किया। इस रचना और सर जे हर्शेल लिखित इन्ट्रोडक्शन टू दि स्टडी ऑफ नेचुरल फिलासफी ने मेरे मन में इस उत्साह को और भी बढ़ावा दिया कि मैं भी प्राकृत विज्ञान की विशाल संरचना में अपना तुच्छ योगदान देने का प्रयास करूँ। लगभग दर्जन भर दूसरी पुस्तकों में से किसी भी पुस्तक ने मुझ पर इतना प्रभाव नहीं डाला जितना इन दोनों ने। मैंने हम्बोल्ड की पुस्तक में से टेनरिफेल के बारे में लिखे अंश की नकल की और अपनी अध्ययन यात्राओं के दौरान हेन्सलो (शायद), रेमसे और डेवेस के सामने इसका वाचन किया, क्योंकि पहले किसी मौके पर मैंने टेनरिफेल की शोभा का जिक्र किया था, और हमारी मंडली के कुछ लोगों ने यह भी कहा था कि वे वहाँ जाने का प्रयास करेंगे, लेकिन मेरा विचार है कि वे सब अधूरे मन से कह रहे थे। लेकिन मैं तो भीतर से तैयार था और लन्दन के एक मर्चेन्ट से मिलकर जलयान के बारे में पूछताछ भी कर चुका था, लेकिन मेरी यह योजना बीगेन पर समुद्री यात्रा के आगे धरी रह गयी।
गर्मी की छुट्टियों का मेरा सारा वक्त गुबरैले पकड़ने, कुछ पढ़ाई करने और छोटी मोटी यात्राओं में निकल जाता था। पतझड़ के दौरान मेरा सारा समय निशानेबाजी में जाता था। मैं इसमें से ज्यादातर समय वुडहाउस और मायेर में गुज़ारता था। कई बार मैं आयटन के रईस के साथ भी रहता था। कुल मिलाकर कैम्ब्रिज में बिताए गए तीनों बरस मेरे जीवन के सर्वाधिक खुशी भरे रहे। मेरी सेहत बहुत बढ़िया रही और कुल मिलाकर मैं कभी दुखी नहीं रहा।
मैं 1831 की शुरुआत में क्रिसमस पर कैम्ब्रिज आया था, इसलिए अंतिम परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी मुझे दो सत्रों तक रोका गया; तब हेन्सलो ने ही मुझे समझा-बुझा कर भूविज्ञान का अध्ययन शुरू करने के लिए कहा। इसलिए श्रापशायर लौटने के बाद मैं भूखण्डों की व्यवस्था का अध्ययन करने लगा और श्रूजबेरी के आसपास के इलाकों के रंगदार नक्शे भी तैयार किए। प्राचीन चट्टानों का भूवैज्ञानिक अन्वेषण करने के लिए अगस्त की शुरुआत में प्रोफेसर सेडविक नार्थवेल्स की यात्रा शुरू करने वाले थे; हेन्सलो ने उनसे कहा कि वे मुझे भी साथ चलने की इजाज़त दें। सब तैयारी करके वे मेरे पिता के घर आकर रुके।
शाम को उनके साथ थोड़ी बातचीत ने मेरे दिमाग पर गहरा असर डाला। श्रूजबेरी के समीप ही एक दलदली गड्ढे की जाँच करते समय एक मज़दूर ने मुझे बताया कि उसे गड्ढे में से एक बड़ा पुराना-सा उष्णकटिबंधीय शंख मिला है। ऐसे शंख झोपड़ियों की चिमनियों में भी मिल जाते हैं, लेकिन उस मजदूर ने शंख बेचने से मना कर दिया। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत था कि उसे यह शंख वास्तव में गड्ढे में से ही मिला था। मैंने सेडविक को यह बात बताई तो (संदेह नहीं सच में) वे एकदम बोले कि किसी ने इसे गड्ढे में फेंक दिया होगा; लेकिन वे यह भी बोले कि यदि यह वहीं पड़ा रहता तो भूविज्ञान के लिए दुर्भाग्य की बात होती, क्योंकि यह हमें मिडलैन्ड काउन्टीज में धरातलीय मिट्टी के जमाव के बारे में काफी बातों की जानकारी देगा। दलदल की ये परतें वस्तुत: हिमनदीय युग से सम्बन्धित हैं, और बाद के वर्षों में ये मुझे आर्कटिक के टूटे हुए शंखों में भी मिले। लेकिन उस समय मैं एकदम हैरान रह गया कि सेडविक इस अद्भुत तथ्य पर खुश क्यों नहीं हुए कि उष्णकटिबंधीय इलाके का शंख यहाँ इंग्लैन्ड के बीचों बीच इलाके में ज़मीन के भीतर कहाँ से आया होगा। यद्यपि मैंने बहुत-सी वैज्ञानिक पुस्तकों का अध्ययन किया था, लेकिन इससे पहले मुझे इतनी गहराई से यह अहसास नहीं हुआ था कि तथ्यों का समूहीकरण करने में ही वैज्ञानिकता है, क्योंकि इसके बाद ही कोई सामान्य नियम या निष्कर्ष निकाला जा सकता है।
अगले दिन हम लेंगोलेन, कॉनवे, बेंगोर और कैपल कूरिग के लिए निकल पड़े। इस यात्रा का एक लाभ तो मुझे यह मिल ही गया कि किसी देश के भूविज्ञान का अध्ययन किस प्रकार किया जाए। सेडविक मुझे कई बार अपने ही समानांतर चलने को कहते और कहते कि चट्टानों के नमूने लेते चलो तथा नक्शे पर उनका स्तर विन्यास भी चिह्नित करो। मुझे थोड़ा-सा संदेह है कि उन्होंने यह मेरी भलाई के लिए किया था, क्योंकि मैं उनकी सहायता करने में बहुत ही उदासीन रहता था। इस यात्रा के दौरान एक विशेष अनुभव भी हुआ कि जब तक ध्यान देकर न देखा जाए तो उत्कृष्टतम लक्षण को भी नज़र-अन्दाज़ कर देना कितना आसान होता है। क्वेम इड्वाल में हम दोनों ने कई कई घन्टे लगाकर सभी चट्टानों को बड़े ही ध्यान से देखा, क्योंकि सेडविक उनमें जीवाश्म (फॉसिल) तलाश रहे थे, लेकिन हम दोनों ही ने अपने चारों ओर बिखरे पड़े हिमनदीय लक्षणों पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया; हमने समतल तराशी चट्टानों, इधर उधर पड़े शिलाखंडों, आवसानिक और पार्श्वीय हिमोढ़ों पर नज़र ही नहीं डाली। हालांकि ये लक्षण इतने सुस्पष्ट हैं कि इसके कई वर्ष बाद फिलास्फिकल मैगजीन में प्रकाशित एक लेख में मैंने यह ज़िक्र किया कि वह घाटी अपनी कहानी ठीक उसी तरह से कह रही थी जिस तरह से जलकर खाक हुआ कोई मकान कहता है। यदि यह घाटी अभी भी हिमनद के पानी से भरी होती तो ये सभी लक्षण इतने मुखर न होते जितने इस समय हैं।
केपेल क्यूरिग में मैं सेडविक से अलग हो गया और दिक्सूचक तथा नक्शे के सहारे नाक की सीध में चलता गया तथा पर्वतों को पार करता हुआ बारमाउथ तक गया। रास्ते में मैंने कभी भी निर्धारित मार्ग का अनुसरण नहीं किया। संयोगवश मिल गया तो दूसरी बात थी। इस प्रकार मैं एक अपरिचित बियाबान में जा पहुँचा, और इस तरह की यात्रा का मैंने खूब आनन्द उठाया। मैं बारमाउथ में पढ़ रहे कैम्ब्रिज के पुराने सथियों से मिला और वहाँ से श्रूजबेरी लौटा और निशानेबाजी के लिए मायेर चला गया। उस समय मुझ पर भूविज्ञान या किसी अन्य विज्ञान की बनिस्बत चकोर के शिकार का भूत सवार था।
बीगेल से समुद्रयात्रा : 27 दिसम्बर 1831 से 2 अक्तूबर 1836
नार्थ वेल्स की इस छोटी भूवैज्ञानिक यात्रा से लौटने पर मुझे बताया गया था कि कैप्टन फिट्ज राय को एक सहायक चाहिए, जो उनके साथ बिना कुछ भी वेतन लिए बीगल की समुद्र यात्रा पर चल सके। उसे प्रकृतिवादी के रूप में काम करना होगा और बदले में उसे कैप्टन राय अपने केबिन की सभी कलाकृतियाँ देंगे। जहाँ तक मेरा विश्वास है मैंने अपने यात्रा संस्मरण रोजनामचे में उन सभी घटनाओं का जिक्र किया है जो उस दौरान घटित हुईं। यहाँ मैं केवल इतना ही बताऊँगा कि मैं भी इस प्रस्ताव को मानने के लिए पूरी तरह से इच्छुक था। लेकिन मेरे पिता ने इसका पुरज़ोर विरोध किया, और मेरी भलाई के लिए यह भी कहा,`यदि तुम सामान्य बुद्धि का ऐसा कोई व्यक्ति बता सको जो तुम्हें वहाँ जाने की सलाह दे, तो मैं भी सहमति दे दूँगा।' इसलिए मैंने उसी शाम इन्कार करते हुए जवाब लिख दिया। अगली सुबह मैं पहली सितम्बर की तैयारी करने के लिए मायेर चला गया। मैं निशानेबाजी कर रहा था कि मुझे अंकल ने बुलवाया। उन्होंने मुझसे श्रूजबेरी चलने के लिए कहा और बोले कि वे मेरे पिता से चलकर बात करेंगे कि उस प्रस्ताव को मानना बुद्धिमानी का काम होगा। मेरे पिता हमेशा यह मानते थे कि (मेरे अंकल) विश्व के सर्वाधिक समझदार व्यक्ति हैं। उनकी बात सुनते ही पिताजी ने फौरन सहमति दे दी। मैं कैम्ब्रिज में बहुत फिजूलखर्ची करता था, इसके लिए मैंने पिताजी को भरोसा दिलाया कि बीगेल यात्रा के दौरान मैं अपने भत्ते से ज्यादा खर्च नहीं करूँगा। पिताजी ने मुस्कराते हुए कहा, `लेकिन उन्होंने मुझे बताया है कि तुम बहुत बुद्धिमान हो।'
अगले दिन मैं कैम्ब्रिज जाने को चल पड़ा। वहाँ हेन्सलो से मिला और फिर फिट्ज राय से मिलने लन्दन के लिए निकल गया। यह सारे काम आनन-फानन में हो गये। इसके बाद जब फिट्ज राय से कुछ घनिष्टता हो गयी तो उन्होंने मुझे बताया कि वे मेरी नाक की आकृति के कारण मुझे अपने साथ न लेने का मन बना चुके थे। वे लावेटर के प्रबल अनुयायी थे, और इस बात को पक्का मानते थे कि वे किसी भी इंसान के चेहरे से उसका चरित्र जान सकते थे। उन्हें संदेह था कि मेरे जैसी नाक वाले इंसान में इस समुद्र यात्रा के लिए पर्याप्त ताकत और इच्छाशक्ति भी होगी। लेकिन मैं समझता हूँ कि बाद में उन्हें यह तो संतोष हो गया होगा कि मेरी नाक ने गलत आभास दिया था।
फिट्ज राय का चरित्र विलक्षण था। उनमें बहुत से उत्तम लक्षण थे। वे अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित, किसी भी कमी के प्रति उदार, बहादुर, दृढ़ प्रतिज्ञ और ग़ज़ब के ऊर्जावान तो थे ही, अपने सभी मातहतों के लिए जोशीले दोस्त भी थे। वे जिसे सहायता पाने लायक समझते थे, उस व्यक्ति के लिए कुछ भी कर गुज़रते थे। वे एक सजीले, सुदर्शन व्यक्ति थे। उनका व्यवहार बहुत अधिक शिष्टता लिये हुए था। उनकी सभी आदतें उनके मामा प्रसिद्ध लार्ड केसलरीग से मिलती थीं, जैसा कि रियो के मिनिस्टर ने बताया था। बेशक उनका चेहरा चार्ल्स द्वितीय से मिलता-जुलता था। इसी सिलसिले में डॉक्टर विलिश ने अपना एक एलबम दिया था। उन्हीं चित्रों में से एक चित्र फिट्ज राय से बहुत मिलता जुलता था। बाद में चित्र के नीचे लिखा नाम मैंने पढ़ा डॉक्टर ई सोबेस्की स्टुआर्ट, काउन्ट ड'अल्बाइन जो कि उसी सम्राट के वंशजों में से थे।
फिट्ज राय का मिजाज़ बड़ा ही अजीब था। सवेरे-सवेरे तो उनका मूड आम तौर पर खराब ही रहता था। अपनी गिद्ध जैसी पैनी निगाह से उन्हे फौरन ही पता चल जाता था कि जलयान पर कुछ गड़बड़ है, और फिर इल्ज़ाम लगाने में वे किसी को भी बख्शते नहीं थे। वे मेरे प्रति काफी दयालु थे, लेकिन उनके साथ घनिष्टता कर पाना टेढ़ी खीर था। लेकिन एक ही केबिन में रहने के कारण हम दोनों की आदतों में कुछ घाल-मेल तो हो ही गया। हम कई बार एक दूसरे से उलझ भी जाते। ऐसे ही यात्रा की शुरुआत में ब्राजील के बाहिया नामक स्थान पर उन्होंने गुलामी प्रथा का पक्ष लिया और इसकी बड़ी तारीफ की, जबकि मुझे गुलामी प्रथा से नफरत थी। उन्होंने मुझे बताया कि वे एक ऐसे व्यक्ति से मिल चुके हैं जिसके पास कई गुलाम हैं। उन्होंने स्वयं ही अनेक गुलामों को पूछा था कि क्या वे खुश हैं, और क्या वे आज़ाद होना चाहते हैं। इस प्रश्न पर सभी का जवाब था - `नहीं'। मैंने उस समय उपहास के लहज़े में कहा था कि मालिक के सामने उसके गुलामों का वह जवाब कोई मायने नहीं रखता। इससे वे बहुत नाखुश हो गए और बोले कि इसका मतलब यह भी हो सकता है, कि मैं उनके साथ रहना नहीं चाहता। मैंने सोचा कि अब जहाज तो छोड़ना पड़ेगा, लेकिन जैसे ही दूसरे लोगों को इस झगड़े की भनक लगी, तो जहाज के कैप्टन ने फौरन ही अपने लैफ्टिनेन्ट को भेजा कि जाओ और राय के गुस्से को शान्त करने के लिए डार्विन को खरी-खोटी सुनाओ।
यहाँ मैं गन रूम के आफिसर्स के प्रति काफी शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने तुरन्त ही यह संदेश भेजा कि मैं उनके साथ रह सकता हूँ। लेकिन कुछ ही घंटे के बाद फिट्ज रॉय ने दरियादिली दिखाते हुए जहाज के एक अधिकारी की मार्फत माफी माँगते हुए यह भी अनुरोध किया कि मैं उनके साथ रह सकता हूँ।
कई बातों में वे बहुत महान चरित्र के इंसान थे। उनमें कुछ ऐसा भी था जो मुझे पहले पता नहीं था। बीगेल पर यह समुद्री यात्रा मेरे जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना रही, और इसी ने मेरे पूरे कैरियर का खाका तैयार किया। लेकिन ये सब कुछ एक छोटी-सी घटना पर आधारित था। घटना कुछ यूं थी कि जिस दिन मेरे अंकल तीस मील सवारी चलाकर मुझे श्रूजबेरी लाए थे, संसार में बहुत कम नातेदारों ने ऐसा किया होगा, और तो और मेरी नाक भी इसमें आड़े आ रही थी। मैं हमेशा यह महसूस करता हूँ कि मेरे दिमाग के लिए इस यात्रा ने वास्तविक प्रशिक्षण या तालीम दी थी। इससे मुझे प्राकृतिक इतिहास की कई परतों की जानकारी मिली और चीज़ों को समझने की मेरी ताकत में बढ़ोतरी हुई, हालांकि ये सारी योग्यताएँ मुझमें पहले से मौजूद थीं।
मैं जितनी भी जगहों पर गया वहाँ के भूविज्ञान की जानकारी भी मेरे लिए काफी महत्त्वपूर्ण थी। यहाँ मुझे तर्कशास्त्र का भी सहारा मिला। किसी भी नए भू-भाग को अगर पहली बार देखें तो चट्टानों के ढेर से ज्यादा कुछ नहीं दीखता, लेकिन बहुत स्थानों पर चट्टानों और जीवाश्मों के संस्तरों और प्रकृति की जाँच करने के साथ साथ यदि मन में यह प्रश्न और आशा भी रखी जाए कि इसके अलावा और क्या मिल सकता है, तो उस भू-भाग के बारे में कुछ तथ्य उजागर होने शुरू हो जाते हैं। इस प्रकार सारी संरचना ही कमो-बेश सुबोध बनने लगती है। मैं अपने साथ लेयेल लिखित प्रिन्सिपल्स ऑफ ज्योलॉजी का पहला खंड भी लाया था, जिसे मैं सावधानीपूर्वक पढ़ता रहा। यह पुस्तक कई मायनों में मेरे लिए बहुत फायदेमन्द रही। वर्दे अंतरीप नामक द्वीप सेन्ट जेगो वह पहली जगह थी, जिसका मैंने निरीक्षण किया, और वहीं मुझे पता चल गया कि भूविज्ञान की जानकारी पर जितने लेखकों की रचनाओं को मैं पढ़ चुका था या बाद में पढ़ा, उनमें सबसे नायाब तरीका लेयेल का था।
इसी दौरान मैं एक और काम भी करता था, सभी प्रकार के जीवों का संग्रह। मैं इनका संक्षिप्त ब्यौरा लिखता और कुछेक समुद्री जीवों की छोटी मोटी चीरफाड़ भी करता था। पर एक कमी रही कि ड्राइंग में हाथ तंग होने और शरीर रचना की ज़रूरत भर जानकारी न होने के कारण इस यात्रा के दौरान मैंने जो संस्मरण लिखे, वे सब बेकार हो गए। इस तरह से मैंने काफी समय बरबाद किया। हाँ, इतना ज़रूर रहा कि क्रस्टेशियन्स की कुछ जानकारी हासिल हुई जिसकी मदद से मैं बाद में सिरीपेडिया पर अपना प्रबन्ध ग्रन्थ लिख सका।
दिन में थोड़ा वक्त निकाल कर मैं अपना रोजनामचा लिखता था। जो कुछ भी मैं देखता था उसे सावधानी से और विस्तारपूर्वक लिखता था। मैं समझता हूँ कि यह एक अच्छी आदत थी। मेरे रोजनामचे घर को लिखे गए खतों का भी काम करते थे। जब भी मौका मिलता मैं इनके कुछ अंश इंग्लैन्ड भेज देता था।
अभी ऊपर मैंने जिन विशेष अध्ययनों का जिक्र किया है, यदि उनकी तुलना बेइन्तहा मेहनत और ध्यान लगाकर काम करने से की जाए तो वे इसकी तुलना में कुछ भी नहीं थे। उस समय तो मैं मेहनत और दिलो-जान से काम करने का पाठ पढ़ रहा था। उस समय मैं जो कुछ पढ़ता या सोचता था उसका सीधा ताल्लुक उस चीज़ से रहता था जो मैं देख चुका था या देखने की सम्भावना थी। मेरी यही आदत इस यात्रा के अगले पाँच बरस तक बरकरार रही। मैं पक्के तौर पर कह सकता हूं कि इसी प्रशिक्षण की बदौलत मैं विज्ञान में कुछ हाथ पांव मार पाया।
यदि अतीत पर नज़र डालूँ तो में कह सकता हूँ कि विज्ञान के प्रति मेरे मोह ने अन्य सभी रुचियों पर विजय पायी। शुरू के दो बरस तक तो निशानेबाजी के लिए मेरा शौक जोर-शोर से बरकरार रहा। अपने संग्रह के लिए सभी पक्षियों और पशुओं को मैं खुद ही मारता था। लेकिन धीरे धीरे बन्दूक और मेरे बीच दूरी बढ़ती गयी, और अंत में यह काम मेरे नौकर ने संभाल लिया, क्योंकि अब यह निशानेबाजी मेरे काम के आड़े आने लगी थी, खासकर किसी इलाके की भूवैज्ञानिक संरचना तैयार करते समय। हालांकि मन के किसी कोने में मैं यह भी महसूस कर रहा था कि किसी चीज़ को देखने और सत्य की कसौटी पर कसने की ताकत शिकारी के काम से ज्यादा है। इस यात्रा के दौरान किये गये कामों से मेरे दिमाग का कितना विकास हुआ था यह इससे स्पष्ट हो जाएगा कि मेरे पिताजी कभी संदेह में कोई काम नहीं निपटाते थे और ललाट शास्त्र में उन्हें कोई रुचि नहीं थी, लेकिन वे बड़ी पैनी नज़र रखते थे, तभी तो समुद्र यात्रा से लौटने के बाद मुझे देखते ही, मेरी बहनों को बुला कर बोले, `क्यों जी! इसके सिर का तो हुलिया ही बदल गया है।'
और एक बार फिर समुद्र का बुलावा। सितम्बर 11 (1831), को मैं प्लेमाउथ में बीगल पर फिट्ज राय से मिलने गया। वहाँ से श्रूजबेरी गया। अपने पिता और बहनों से लम्बी जुदाई के लिए विदाई ली और चल दिया एक और सफर के लिए। मैं 24 अक्तूबर को प्लेमाउथ पहुँचकर वहीं रहने लगा और 27 दिसम्बर को दुनिया का चक्कर लगाने के लिए यात्रा शुरू करने तक वहीं रहा, क्योंकि भारी अंधड़ों के कारण हमारे जहाज बीगल के दो प्रयास विफल हो चुके थे, और हमारा जहाज वहीं इंग्लैन्ड के समुद्र तट पर लंगर डाले खड़ा रहा। प्लेमाउथ में ये दो महीने बेहद मुश्किल भरे गुज़रे। हालांकि मैं किसी न किसी काम धंधे में लगा ही रहता था। अपने परिवार और मित्रों से लम्बी जुदाई की याद ही मुझे हताश कर देती थी। और मौसम भी अपने रंग दिखा ही रहा था।
मेरी सांस फूल जाती और दिल के आस पास दर्द भी महसूस होता रहता था। दूसरे नौजवानों की तरह मैं भी अपनी सेहत के प्रति लापरवाह रहता था। उस पर तुर्रा यह भी कि मुझे डॉक्टरी का सतही ज्ञान भी था, तो उसके आधार पर मैंने यह भी मान लिया कि मुझे दिल की बीमारी है। मैंने किसी डाक्टर से सलाह भी नहीं ली क्येंकि मैं पूरी तरह से मान चुका था कि वह क्या फैसला सुनाने वाला है, यही कि मैं समुद्री यात्रा के काबिल नहीं हूँ, और यहाँ मैं हर खतरा उठाने को कमर कसे बैठा था।
अब मैं अपनी यात्रा के ब्यौरों का और घटनाओं का जिक्र फिर से नहीं करूँगा क्योंकि इन सबको मैं अपने प्रकाशित रोजनामचे में विस्तार से बता चुका हूं। फिलहाल तो मेरे सामने उष्णकटिबंधीय प्रदेशों की वनस्पतियों की हरियाली मेरे दिमाग पर किसी भी दूसरी चीज़ के मुकाबले ज्यादा गहराई से छायी हुई है। यह हरियाली मैंने पेटागोनिया के विशाल रेगिस्तानों और टियेरा डेल फ्यूगो की वन से ढंकी पर्वतमाला पर देखी। इस दृश्य का मेरे मन पर अमिट प्रभाव है। अपनी मातृभूमि में खड़े नग्न आदिवासी को मैं कभी भूल नहीं सकता। जंगली इलाकों में घुड़सवारी करते हुए या नावों में कई-कई हफ्ते तक जो सफर मैंने किए वे बहुत ही रोचक और रोमांचक थे। उस समय सफर के साथ जुड़ी परेशानियाँ और छोटे-मोटे खतरे ज़रा भी आड़े नहीं आए, और ये छिटपुट घटनाएँ बाद में याद भी नहीं रहीं। मैंने अपने कुछ वैज्ञानिक लेखों मैं भी इनका काफी उपयोग किया। मिसाल के तौर पर, सेन्ट हेलेना जैसे कुछ द्वीपों की भूवैज्ञानिक संरचना को स्पष्ट करते हुए मूँगा द्वीपों के निर्माण आदि का समाधान किया। यही नहीं, गैलापेगोस द्वीप समूह के बहुत से टापुओं पर पाए जाने वाले पशुओं और पौधों के एकल सम्बन्धों को भी ध्यान में रखा और दक्षिणी अमरीका में पाए जाने वाले जीवों और पौधों पर भी लेख लिखे।
यदि अपने बारे में कहूं तो किस्सा कोताह यही है कि समूची समुद्री यात्रा के दौरान मैंने खुद को काम में झोंक रखा था, क्योंकि मुझे खोज बीन में आनन्द आता था और प्राकृतिक विज्ञान से जुड़े तथ्यों के विशाल पुंज में कुछ और तथ्य भी जोड़ने की मेरी बलवती इच्छा थी। इतना ही नहीं, वैज्ञानिकों के बीच अपने लिए ठीक-ठाक जगह बना पाना भी मेरी अभिलाषा थी, यह मैं नहीं कह सकता कि मेरी अभिलाषा मेरे सहकर्मियों से अधिक थी या कम।
सेन्ट जैगो का भूविज्ञान बेहद सामान्य होने के बावजूद चकित कर देने वाला था। बहता हुआ लावा सागर की तलहटी में चला आया। इस लावे के साथ ताजा शंखों और मूँगों का चूरा मिलकर जमता चला गया और इनके पकने से सफेद रंग की कठोर चट्टानें बनती चली गयीं। उसके बाद समूचा द्वीप सिर उठा कर ऊपर निकल आया। लेकिन सफेद चट्टान में पड़ी लकीरों ने मुझे एक नए तथा महत्त्वपूर्ण तथ्य से परिचित कराया। वह यह कि ज्वालामुखी के जीवंत होने की अवस्था के दौरान लावा निकल निकल कर क्रेटरों के चारों ओर जमता चला गया। उस समय मेरे मन में यह विचार कौंधा कि मैं जितने देशों भी में गया हूँ, वहाँ के भूविज्ञान पर एक किताब लिखूँ। इस विचार ने मुझे रोमांच से भर दिया। यह मेरे लिए अविस्मरणीय क्षण थे। मेरे मन पर आज भी वह छवि जस की तस अंकित है कि लावे से बनी खड़ी चट्टान के नीचे मैं खड़ा था, ऊपर सूरज चमक रहा था, आस पास रेगिस्तानी इलाकों में पाए जाने वाले कुछ पौधे सिर उठाए खड़े थे और मेरे पैरों के पास समुद्री जल में जीवित मूँगे अपनी छटा बिखेर रहे थे। यात्रा के ही दौरान फिट्ज राय ने मुझसे कहा कि मैं अपने कुछ रोजनामचे पढ़कर उन्हें सुनाऊँ। सुनते ही वे बोले कि ये तो भई, छपने चाहिये, और इस तरह से दूसरी पुस्तक का आगाज हो गया।
हमारी यात्रा समाप्त होने को थी। एस्केन्सन पर पड़ाव के दौरान मुझे एक खत मिला, जिसमें मेरी बहनों ने लिखा था कि सेडविक घर आकर पिताजी से मिले थे और उनसे कहा था कि अब मुझे वैज्ञानिकों के बीच जगह मिलना तय ही है। उस समय मैं यह नहीं जान पाया था कि उन्हें मेरी गतिविधियों की जानकारी कैसे मिली होगी। बाद में मैंने सुना (और मुझे भरोसा भी हुआ) कि मैंने कुछ खत हेन्सलो को भी लिखे थे। उन खतों को उन्होंने कैम्ब्रिज की फिलास्फिकल सोसायटी के समक्ष पढ़ा, और उन्हें वहाँ वितरण के लिए छपवाया भी था। मैंने जितने जीवाश्मों का संग्रह किया था, वह भी हेन्सलो को भिजवा दिया था। इस संग्रह ने भी जीवाश्म वैज्ञानिकों को काफी आकर्षित किया था।
इस खत को पढ़कर मैं किसी तरह से ऐस्केन्सन की पहाड़ियों पर चढ़ कर गया और अपने हथौड़े से उन ज्वालामुखीय चट्टानों को ठकठकाने लगा। इस सबसे इस बात का अंदाजा तो लग ही गया होगा कि मैं कितना महत्त्वाकांक्षी था। लेकिन मैं इस सत्य को भी स्वीकार करने में संकोच नहीं करूंगा कि आने वाले बरसों में लेयेल और हूकर जैसे साथियों का हाथ मेरी पीठ पर रहा। बाकी आम लोगों की मैंने उतनी परवाह नहीं की। मेरा आशय यह नहीं है कि मेरी किताबों की अनुकूल समीक्षा या खूब बिक्री से मुझे खुशी नहीं होती थी, लेकिन यह खुशी क्षण भंगुर होती थी। पर इतना तो था ही कि प्रसिद्धि पाने के लिए मैं अपने रास्ते से जरा-सा भी डिगा नहीं।
इंग्लैन्ड में वापसी (2 अक्तूबर 1836) के बाद से मेरे विवाह तक (29 जनवरी 1839)
दो बरस और तीन महीने का यह समय काफी उथल-पुथल वाला रहा। हालांकि इस बीच बीमारी के कारण थोड़ा-सा वक्त बरबाद भी हुआ। श्रूजबेरी, मायेर, कैम्ब्रिज और लन्दन के बीच खूब दौड़ भाग करने के बाद मैं 13 दिसम्बर को कैम्ब्रिज में घर लेकर रहने लगा। इस समय तक मेरा सारा संग्रह हेन्सलों के पास रहा। मैंने वहाँ पर तीन महीने बिताए और प्रोफेसर मिलर की सहायता से खनिजों और चट्टानों पर परीक्षणों में जुटा रहा।
इसी बीच मैंने अपना जर्नल ऑफ ट्रेवल्स तैयार करना शुरू कर दिया। यह मेरे यात्रा वृत्तांत जितना कठिन नहीं था। यह जर्नल मैंने बहुत ध्यान से लिखा। मैंने ज्यादा मेहनत इस बात पर की कि अपने रोचक वैज्ञानिक परिणामों का सारांश भी लिखूं। लेयेल के अनुरोध पर मैंने चिली के समुद्र तट पर ज़मीन के उभार के बारे में अपने अवलोकनों का विवरण जिओलोजिकल सोसायटी को भी भिजवाया।
मैंने 7 मार्च 1837 को लन्दन में ग्रेट मार्लबरो स्ट्रीट में एक घर ले लिया और विवाह तक वहीं रहा। इन दो बरसों के दौरान मैंने अपना जर्नल पूरा किया, जिओलॉजिकल सोसायटी में कई लेखों का पाठ किया और जिओलॉजिकल आब्जर्वेशन्स पत्रिका के लिए वृत्तांत तैयार करना शुरू कर दिया। इसके अलावा, जूलॉजी ऑफ दि वायज ऑफ दि बीगल के प्रकाशन की तैयारी में जुट गया। जुलाई में मैंने द ऑरिजिन ऑफ स्पीशेज़ के लिए तथ्यों के संग्रह के लिए नोट बुक लिखनी शुरू कर दी। इसका उल्लेख मैंने काफी पहले शुरू कर दिया था। इसके बाद अगले बीस वर्ष तक मैंने अपना काम रुकने नहीं दिया।
इन दो बरसों के बीच मैं कुछ सोसायटियों में गया और जिओलॉजिकल सोसायटी के मानद सचिव में रूप में काम भी करता रहा। मैंने लेयेल की मेहनत भी देखी। उनमें एक खासियत यह भी थी कि वे दूसरों के काम के प्रति भी संवेदना रखते थे। इंग्लैन्ड लौटकर मैंने मूँगे की चट्टानों पर अपने विचार जब उन्हें बताए तो उनकी रुचि देखकर मैं चकित भी हुआ और प्रसन्न भी। इससे मेरा हौसला बढ़ा और उनकी सलाह तथा नज़ीर ने मुझ पर काफी असर डाला। इसी समय के आस पास मैं राबर्ट ब्राउन से भी काफी मिला। मैं अक्सर रविवार को नाश्ते पर उनसे बातचीत करने चला जाता था। वे भी अपनी जिज्ञासा और सटीक टिप्पणियों का भरपूर खजाना मेरे सामने खोल देते थे। यह बात अलग है कि उनके प्रश्न बारीक बातों को लेकर होते थे। वे विज्ञान के बड़े या खास प्रश्नों पर विचार विमर्श नहीं करते थे।
इन्हीं दो बरसों के दौरान मैंने मनोरंजन के तौर पर छोटी छोटी अध्ययन यात्राएं भी कीं। इन्हीं में से एक लम्बी यात्रा मैंने ग्लेन राय की यात्रा के समांतर की। इसके वृत्तांत फिलास्फिकल ट्रान्जक्शन में प्रकाशित हुए। यह आलेख एकदम असफल रहा और मैं इसके लिए शर्मसार भी हूँ। दक्षिण अमरीका में भूमि के उठान में समुद्र के योगदान से मैं बहुत प्रभावित हुआ था और इसी का वर्णन मैंने किया था। उसी आधार पर मैंने यह आलेख भी लिखा था, लेकिन मुझे यह विचार त्यागना पड़ा क्योंकि एगासिज ने ग्लेशियर झील सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था, और उस समय जानकारी की स्थिति के तहत कोई और वर्णन सम्भव भी नहीं था। मैंने समुद्र की संक्रिया के पक्ष में तर्क दिया, हालांकि मेरी यह भूल मेरे लिए एक सबक भी थी कि कुछ चीज़ों के बारे में विज्ञान पर भरोसा छोड़ना पड़ता है।
ऐसा नहीं था कि मैं सारा दिन विज्ञान पर ही काम करता रहता था। इन्हीं दोनों बरसों में मैंने अलग अलग विषयों पर पुस्तकों का अध्ययन किया। इनमें से कुछ पुस्तकें तत्त्व मीमांसा पर थीं। लेकिन मैं ऐसे विषयों के लायक नहीं था। इस बीच मुझे वर्डस्वर्थ और कॉलरिज के काव्य में काफी आनन्द मिला और मैं फख्र के साथ कह सकता हूं कि मैंने एक्सकर्सन दो बार पढ़ लिया था। इससे पहले मैं मिल्टन के पैराडाइज लॉस्ट को बहुत पसन्द करता था, और बीगल से समुद्र यात्रा करते समय जब हम बीच बीच में अध्ययन यात्राओं पर जाते थे, और कोई एक ही किताब लेनी होती थी तो मिल्टन मेरी पहली पसन्द होते थे।
मेरे विवाह, (जनवरी 29, 1839), और अपर गॉवर स्ट्रीट में रहने से लेकर 14 सितम्बर 1842 को लन्दन छोड़कर डॉउन में बसने तक :
[अपने सुखद वैवाहिक जीवन और अपनी संतानों के बारे में लिखने के बाद, वे लिखते हैं।]
लन्दन में तीन साल और आठ महीने रहने के दौरान मैंने वैज्ञानिक कार्य बहुत कम किया, हालांकि जितनी मेहनत मैंने इस दौरान की थी वह अपने जीवन में इतनी ही समयावधि में फिर कभी नहीं की। इसका कारण बार बार की बीमारी और लम्बी तथा गम्भीर बीमारी का एक झटका लगना रहा। जब मैं थोड़ा खाली होता था तो ज्यादातर समय कोरल रीफ्स' पर लगाता था। इसका लेखन मैंने अपनी शादी से पहले शुरू किया था और इसका आखिरी प्रूफ मैंने 6 मई 1842 को पढ़ा। वैसे तो यह पुस्तक छोटी-सी थी, लेकिन इसमें मेरी बीस माह की मेहनत लगी, क्योंकि मुझे प्रशान्त महासागर के द्वीपों पर सभी लेख पढ़ने और कई चार्ट देखने पड़े। इस पुस्तक को कई वैज्ञानिकों ने उच्च स्तरीय बताया और मैं समझता हूं कि इसमें दिए गए सिद्धान्त अब अपनी जगह बना चुके हैं।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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tag – charls darwin, theory of evolution, origin of species, charls darvin’s autobiography in hindi, suraj prakash, k p tiwari
साधुवाद ! बहुत ही पराशंस्नीय काम है यह !डार्विन के बारे में चिंतन के एक युग से जुड़ना है !
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