चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा (13)

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मेरी आत्म कथा चार्ली चैप्लिन   चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा -अनुवाद : सूरज प्रकाश ( पिछले अंक 12 से जारी …) इक्कीस जिस ...

मेरी आत्म कथा

charlie chaplin

चार्ली चैप्लिन

 

चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा

-अनुवाद : सूरज प्रकाश

suraj prakash

(पिछले अंक 12 से जारी…)

इक्कीस

जिस वक्त मैं न्यू यार्क में था तो मेरे एक दोस्त ने बताया कि उसने फिल्मों में आवाज़ को शामिल किये जाते देखा है। उसने भविष्यवाणी की कि इससे जल्द ही फिल्म उद्योग में क्रांति आने वाली है।

मैंने इसके बारे में तब तक नहीं सोचा जब कई महीने बाद वार्नर ब्रदर्स ने अपनी पहली बोलती फिल्म बनायी। ये एक कॉस्ट्यूम फिल्म थी जिसमें एक बेहद खूबसूरत अभिनेत्री को दिखाया गया था। उसका कुछ भी नाम नहीं रहने वाला था। वह दुख के कुछ चरम क्षणों को चुपचाप अभिव्यक्त करती है, मुर्दनगी से भरी उसकी बड़ी-बड़ी आंखें शेक्सपीयर की वाक् पटुता से भी अधिक पीड़ा दिखाती हैं। और तभी फिल्म में एक नयी बात का प्रवेश होता है। उस तरह का शोर सुनाई देने लगता है जैसा आप शंख को कान से लगाने पर सुनते हैं। तब वह खूबसूरत राजकुमारी इस तरह से बोलने लगती है मानो रेत में से बोल रही हो,"मैं ग्रेगोरी से ही शादी करूंगी भले ही मुझे इसके लिए अपना राजपाट ही छोड़ना पड़े।" ये भयंकर झटका था। क्योंकि अब तक तो राजकुमारी हमारा मनोरंजन ही कर रही थी। जैसे-जैसे पिक्चर आगे बढ़ती गयी, संवाद और मज़ाकिया होते चले गये। लेकिन उतने नहीं जितने साउंड इफेक्ट हो रहे थे। जब निजी बैठक के दरवाजे का हैंडल घूमा तो मुझे लगा कि किसी ने खेत में काम करने वाला ट्रैक्टर चला दिया है और जब दरवाजा बंद हुआ तो लगा, मिट्टी ढोने वाले दो ट्रक आपस में टकरा गये हैं। शुरू शुरू में वे आवाज़ को नियंत्रित करने के बारे में कुछ नहीं जानते थे। म्यान में तलवार रखने की आवाज़ ऐसे आती मानो स्टील फैक्टरी में काम चल रहा हो। साधारण पारिवारिक डिनर की मेज से आवाजें ऐसे आतीं मानो किसी भीड़ भरे रेस्तरां में खाना खाया जा रहा हो और गिलास में पानी डालने की आवाज़ इतनी खास तरह की आवाज़ निकलती कि आवाज़ के बहुत ऊंचे डेसिबल तक जा पहुंचती। मैं थियेटर से ये सोचते हुए लौटा कि आवाज़ के दिन बस, गिने चुने ही हैं।

लेकिन एक ही महीने बाद एमजीएम ने एक फिल्म बनायी, द ब्राडवे मेलोडी। ये एक पूरी लम्बाई वाली संगीत भरी फिल्म थी और हालांकि ये बड़ा ही सस्ता और सुस्त मामला था, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर इसने सफलता के झंडे गाड़ दिये और इसी से सिलसिला चल निकला। सभी थियेटरों ने रातों-रात आवाज़ के लिए तार बिछाने शुरू कर दिये। ये मूक फिल्मों की सांझ थी। ये तरस खाने वाली बात थी क्योंकि इस बीच मूक फिल्मों में सुधार होने शुरू हो गये थे। मिस्टर मुरनऊ, जर्मन निर्देशक ने इस माध्यम को बहुत अच्छे तरीके से इस्तेमाल किया था और हमारे कुछ अमेरिकी निर्देशक भी इसी तरह के प्रयोग कर रहे थे। किसी भी अच्छी मूक फिल्म में विश्वव्यापी अपील होती थी जो बुद्धिजीवी वर्ग और आम जनता को एक जैसे पसंद आती थीं। अब ये सब कुछ खो जाने वाला था।

लेकिन मैं इस बात पर अड़ा हुआ था कि मैं मूक फिल्में ही बनाता रहूंगा क्योंकि मेरा ये मानना था कि सभी तरह के मनोरंजन के लिए हमेशा गुंजाइश रहती है। इसके अलावा, मैं मूक अभिनेता, पेंटोमाइमिस्ट था और उस माध्यम में मैं विरल था और अगर इसे मेरी खुद की तारीफ करना न माना जाये तो मैं इस कला में सर्वश्रेष्ठ था। इसलिए मैंने एक और मूक फिल्म द सिटी लाइट्स के लिए काम करना शुरू कर दिया।

इसकी कहानी एक जोकर के आसपास बुनी गयी थी जो एक सर्कस में दुर्घटनावश, अपनी आंखों की रौशनी खो बैठता है। उसकी एक बीमार-सी, प्यारी-सी बेटी है जो नर्वस है और जब वह अस्पताल से वापिस आता है तो डॉक्टर उसे चेताता है कि वह अपनी बेटी से अपना अंधापन तब तक छुपाये रखे जब तक वह इतनी समझदार नहीं हो जाती कि अंधेपन को समझ सके, नहीं तो इसका लड़की पर उल्टा असर पड़ेगा। उसका चीजों पर लड़खड़ाना और ठोकरें खाना बेटी को खुशी भरी हंसी से भर देता है। लेकिन ये कुछ ज्यादा ही हो जाता। अलबत्ता, जोकर का अंधापन फिल्म सिटी लाइट्स में लड़की के हिस्से में चला जाता है।

इसमें एक उप कहानी भी थी जिस पर मैं कई बरसों से सोच रहा था। अमीर आदमियों के एक क्लब के दो सदस्य हैं जो इस बात पर बहस कर रहे हैं कि आदमी की आत्मा किसी अस्थिर होती है। वे एक ट्रैम्प के साथ एक प्रयोग करते हैं। उसे वे लंदन के एम्बेंकमेंट इलाके में सोया हुआ पाते हैं। वे उसे अपने महलनुमा घर में ले आते हैं और उसकी खूब खातिरदारी करते हैं। सुरा और सुंदरी और गाना बजाना होता है। और जिस वक्त वह बुरी तरह से नशे में धुत्त होता है और सो रहा होता है, वे उसे वहीं पर छोड़ आते हैं जहां से वे उसे उठा कर लाये थे। जब वह जागता है तो यही समझता है कि उसने सपना देखा है। इसी विचार से द सिटी लाइट्स के करोड़पति की कहानी बुनी गयी थी जो नशे में होते वक्त एक ट्रैम्प से दोस्ती करता है लेकिन जिस वक्त वह होश में होता है तो ट्रैम्प की अनदेखी करता है। इसी थीम से कहानी आगे बढ़ती है और ट्रैम्प उस अंधी लड़की के सामने ये नाटक कर पाता है कि वह अमीर आदमी है।

सिटी लाइट्स पर दिन भर काम करने के बाद मैं डगलस के स्टूडियो की तरफ निकल जाया करता और वहां स्टीम बाथ लेता। उनके कई दोस्त अभिनेता, निर्माता और निर्देशक वहां पर जमा होते और वहां पर हम बैठ जाया करते। अपनी जिन या टानिक की चुस्कियां लेते हुए, गप्पें मारते हुए सवाक फिल्मों की बातें करते। ये तथ्य किसी के भी गले से नीचे नहीं उतरता था कि मैं एक और मूक फिल्म बना रहा हूं।

"आप में तो भई गज़ब का धैर्य है," वे लोग कहा करते।

अपने पिछले कामों के दौरान अक्सर मैं निर्माताओं में रुचि पैदा कर लिया करता था। लेकिन इस वक्त तो हालत ये थी कि वे लोग सवाक फिल्मों की सफलता से इतने ज्यादा भरे हुए थे और जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था मुझे ऐसा लगने लगा था कि कि चीजें मेरे हाथ से फिसलती जा रही हैं; मुझे ऐसा लगा कि मैं बरबाद हो चुका हूं।

जो शेंक, जिन्होंने सवाक फिल्मों के प्रति अपना रोष सार्वजनिक रूप से प्रकट कर दिया था, अब उनके पक्ष में बात करने लगे थे,"चार्ली, मुझे ये डर है कि ये फिल्में हमेशा के लिए आ रही हैं!" तब वे इस बात की कल्पना करने लगते कि केवल चार्ली ही अकेले ऐसे शख्स हैं जो अभी भी सफल मूक फिल्में बना सकते हैं। ये बात तारीफ में कही गयी थी लेकिन बहुत ज्यादा राहत देने वाली नहीं थी। क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मैं अकेला ही मूक फिल्मों की कला का इकलौता पुजारी बचा रह जाऊं। न ही फिल्मी पत्रिकाओं में चार्ली चैप्लिन के फिल्मी कैरियर के भविष्य के बारे में व्यक्त की गयी शंकाओं और डरों को पढ़ना ही आश्वस्त करता था।

इसके बावजूद सिटी लाइट्स एक आदर्श मूक फिल्म थी और कोई भी बात मुझे ये फिल्म बनाने से रोक नहीं सकी। लेकिन मेरे सामने कई समस्याएं आ खड़ी हुई थीं। सवाक फिल्मों को आये अब लगभग तीन बरस हो गये थे, इस बीच अभिनेता इस बात को कमोबेश भूल ही चुके थे कि मूक अभिनय, पेंटोमाइमिंग करते ही कैसे हैं। उसकी सारी टाइमिंग बोलने में जा चुकी थी न कि एक्शन में। दूसरी परेशानी थी एक ऐसी लड़की की खोज करना जो अपने सौन्दर्य से निगाहें हटवाये बिना अंधी लग सके। कई आवेदक लड़कियां सामने आयीं जो अपनी आंखों की सफेद पुतलियां दिखा रही थीं लेकिन ये सब देखना बहुत ही हताश करने वाला था। किस्मत ने एक बार फिर मेरा साथ दिया। एक बार सांता मोनिका समुद्र तट पर मैंने एक फिल्म कम्पनी को शूटिंग करते देखा। वहां पर नहाने के कपड़ों में कई सुंदर लड़कियां थीं। उनमें से एक ने मेरी तरफ देख कर हाथ हिलाया, ये वर्जिनिया चेरिल थी। मैं उससे पहले भी मिल चुका था।

"मैं आपकी फिल्म में कब काम करने जा रही हूं?" पूछा उसने

नीले रंग के बेदिंग सूट में उसकी कमनीय देहयष्टि ने कहीं भी मेरे इस ख्याल को प्रेरित नहीं किया कि वह अंधी लड़की के रूप में आध्यात्मिक भूमिका कर पायेगी। लेकिन दूसरी नायिकाओं के साथ दो एक परीक्षण कर लेने के बाद मैंने बुरी तरह से हताश होने के बाद उसी को बुलवाया। मेरी हैरानी की सीमा न रही जब मैंने पाया कि उसमें अंधी लड़की की भूमिका करने के सभी गुण मौजूद थे। मैंने उसे आदेश दिया कि वह मेरी तरफ देखे लेकिन वह तब भीतर देख रही हो न कि मुझे और वह ये काम कर पायी। मिस चेरिल खूबसूरत और फोटोजेनिक थी लेकिन उसे अभिनय करने का बहुत ही कम अनुभव था। कई बार ये बात, खास कर मूक फिल्मों में फायदे की ही होती है। कारण ये है कि वहां पर तकनीक ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। अनुभवी अभिनेत्रियां कई बार अपनी आदतों में इतनी जकड़ चुकी होती हैं और मूक अभिनय में मूवमेंट की तकनीक इतनी ज्यादा मशीनी होती है कि उन्हें ये बाधा ही पहुंचाती है। जो कम अनुभवी होती हैं वे अपने आपको इन मशीनी मूवमेंट के साथ आसानी से ढाल लेती हैं।

फिल्म में एक दृश्य है जिसमें ट्रैम्प ट्रैफिक की भीड़ से बचने के लिए एक लिमोजिन कार में से चल कर सड़क पार करता है। वह एक तरफ का दरवाजा खोल कर उसमें घुसता है और दूसरी तरफ से बाहर निकल जाता है। फूल बेचने वाली अंधी लड़की कार का दरवाजा बंद होने की आवाज़ सुनती है और इस आवाज़ से वह उसे कार का मालिक समझ बैठती है और उसे फूल बेचने की कोशिश करती है। उसके पास सिर्फ आधे क्राउन का सिक्का ही बचा है और उससे वह कोट के बटन में लगाये जाने वाले फूल खरीद लेता है। दुर्घटनावश, फूल लड़की के हाथ से फुटपाथ पर गिर जाते हैं। एक घुटने के बल झुक कर वह फूल तलाशने की कोशिश करती है। वह बताना चाहता है कि फूल किस जगह पर हैं। लेकिन वह फिर भी तलाशती रहती है। अधीर हो कर वह खुद फूल उठाता है और उसकी तरफ अविश्वास से देखता है। लेकिन अचानक ही उसे ये लगता है कि लड़की देख नहीं सकती है और उसकी आंखों के आगे से फूल फिराते हुए वह पाता है कि वह सचमुच अंधी है। वह उससे माफी मांगता है और खड़े होने में उसकी मदद करता है।

ये पूरा दृश्य लगभग सत्तर सेकेंड तक चलता है। लेकिन इसे सही तरीके से लेने के लिए हमें पांच दिन तक रीटेक लेने पड़े। इसमें सारी गलती लड़की की नहीं थी। लेकिन मेरा खुद का भी कसूर था। मैं परफैक्शन चाहने के चक्कर में पागलपन की हद तक काम करता हूं। सिटी लाइट्स को बनाने में एक बरस से भी ज्यादा का समय लग गया।

फिल्म निर्माण के दौरान स्टॉक मार्केट धराशायी हो गया। सौभाग्य से मैं उसमें कहीं नहीं था। चूंकि मैं मेजर एच डगलस का लेख सोशल क्रेडिट बढ़ चुका था जिसमें उन्होंने हमारी अर्थ व्यवस्था का विश्लेषण किया था और तालिकाएं बना कर समझाया था कि मूल रूप से सारे फायदे वेतनों से ही आते हैं। इसलिए बेरोज़गारी का मतलब हुआ लाभ में कमी और पूंजी में गिरावट। मैं उनकी थ्योरी से 1928 में प्रभावित हुआ था और उस वक्त अमेरिका में बेरोज़गारों की संख्या एक करोड़ चालीस लाख तक जा पहुंची थी। तब मैंने अपने सारे स्टॉक और बांड बेच डाले थे और अपनी पूंजी को मैंने नकदी में बनाये रखा था।

स्टॉक मार्केट के लुढ़कने से एक दिन पहले मैं इर्विंग बर्लिन के साथ खाना खा रहा था। वे स्टॉक मार्केट को ले कर बहुत ज्यादा आशावादी थे। वे बता रहे थे कि वे जिस रेस्तरां में खाना खाया करते थे वहां की एक वेट्रेस ने बाजार में पैसे लगाये थे और एक बरस से भी कम के अरसे में अपने निवेशों से दुगुना लाभ कमाते हुए 40000 डॉलर बना लिये थे। उनकी खुद की स्टॉकों में कई करोड़ों की इक्विटी लगी हुई थी जिन पर दस लाख डॉलर से भी ज्यादा के फायदे नज़र आ रहे थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं भी स्टॉक बाजार का खिलाड़ी हूं। मैंने उन्हें बताया कि जिस वक्त एक करोड़ चालीस लाख लोग बेरोज़गार हों तो मैं स्टॉक बाजार पर भरोसा नहीं कर सकता। जब मैंने उन्हें सलाह दी कि वे अपने स्टॉक बेच डालें और उन्हें जितना भी लाभ मिल रहा है उसे ले कर एक किनारे हो जायें तो वे नाराज़ हो गये। हम दोनों में गरमा गरम बहस छिड़ गयी। "क्यों, श्रीमान जी, आप अमेरिका को कम करके आंक रहे हैं?" उन्होंने कहा और मुझ पर बहुत ज्यादा देशद्रोही होने का आरोप लगाया। अगले दिन बाजार पचास पाइंट लुढ़क गया। इर्विंग की किस्मत ने कलाबाजी खायी और वे सड़क पर थे। दो एक दिन बाद वे मेरे पास स्टूडियो में आये। वे हक्के बक्के थे और माफी मांग रहे थे। वे जानना चाहते थे कि मुझे ये जानकारी कहां से मिली थी।

आखिरकार सिटी लाइट्स पूरी हो गयी। अब सिर्फ संगीत रिकार्ड किया जाना ही बाकी था। आवाज़ के बारे में एक अच्छी बात ये थी कि मैं संगीत को नियंत्रित कर सकता था। इसलिए मैंने स्वयं संगीत रचना की।

मैं रोमानी और भव्य संगीत रचना करना चाहता था ताकि वह मेरी कॉमेडियों में ट्रैम्प के चरित्र के ठीक उल्टा जाये। मेरा ये मानना है कि भव्य संगीत मेरी कॉमेडियों को एक भावनात्मक आयाम देता है। संगीत अरेंजर शायद ही इस बात को कभी समझ पाये। वे चाहते थे कि संगीत मज़ाकिया हो। लेकिन मैं उन्हें समझाता कि मैं कोई प्रतिस्पर्धा नहीं चाहता। मैं चाहता हूं कि संगीत गरिमा और सौन्दर्य का ही हिस्सा बन कर आये, वह संवेदनाओं को अभिव्यक्त करे, जिसके बिना, जैसा कि हैज़लिट कहते हैं, कला का कोई कर्म पूरा ही नहीं होता। कई बार कोई संगीतकार मुझसे बहस करता और संगीत के आरोह और अवरोह की बंधी हुई सीमाओं की बात करता, तो मैं उसकी बात बीच में ही काट कर उसके सामने आम आदमी की राय रख देता, जो भी है संगीतात्मकता है, बाकी सब पैबंद है। अपनी एक या दो फिल्मों का संगीत तैयार कर लेने के बाद मैं किसी कन्डक्टर की संगीतबद्ध की गयी रचना की तरफ व्यावसायिक नज़रिये से और यह जानने के लिए देखने लगा कि संगीत रचना में बहुत अधिक आर्केस्ट्रा तो नहीं आ गया है। यदि मुझे पीतल वाले वाद्यों में और काष्ठ के वाद्यों में बहुत ज्यादा धुनें मिलतीं तो मैं कह देता,"यहां पीतल कुछ ज्यादा ही घनघना रहा है या काष्ठ वाद्य कलाकार कुछ ज्यादा ही व्यस्त हैं।

इससे ज्यादा रोमांचकारी और आल्हादक और कोई चीज़ नहीं होती जब आप पचास वाद्य यंत्रों के आर्केस्ट्रा पर तैयार की गयी अपनी फिल्म की धुनों को पहली बार सुनते हैं।

जब आखिरकार सिटी लाइट्स की संगीत रचना को फिल्म में पिरो लिया गया तो मैं उसका भाग्य जानने को बेचैन था। इसलिए बिना किसी घोषणा के हमने शहर से बाहर के इलाके में इसका एक प्रिव्यू रखा।

ये बहुत भयानक अनुभव था। वजह ये थी कि हमारी फिल्म आधे भरे हुए सिनेमा हॉल के परदे पर दिखायी जा रही थी। दर्शक एक ड्रामा देखने आये थे न कि कॉमेडी और वे पिक्चर के आधी चल जाने तक अपनी घबराहट से उबर नहीं पाये। कुछ हँसी के पल थे, लेकिन कमज़ोर। और इससे पहले कि फिल्म पूरी हो पाती, मैंने बीच के रास्ते से कुछ छायाओं को बाहर की तरफ जाते देखा। मैंने अपने सहायक निर्देशक को टहोका मारा,"लोग तो फिल्म छोड़ कर जा रहे हैं!"

"हो सकता है वे टायलेट के लिए जा रहे हों।" वह फुसफुसाया।

इसके बाद मैं फिल्म में अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाया। बल्कि इस बात का इंतज़ार करने लगा कि जो लोग उठ कर बाहर गये थे, वापिस आते हैं या नहीं। कुछ पलों के बाद मैं फुसफुसाया,"वे लोग वापिस नहीं आये हैं।"

"कुछ लोगों को ट्रेन पकड़नी होगी," सहायक निर्देशक ने जवाब दिया।

मैं इस भावना के साथ थियेटर से बाहर आया कि मेरी दो साल की मेहनत और बीस लाख डॉलर गये पानी में। जिस वक्त मैं थियेटर से बाहर आया तो थियेटर का प्रबंधक लॉबी में खड़ा था। उसने मेरा अभिवादन किया,"ये बहुत अच्छी है।" उसने मुस्कुराते हुए कहा, और बात पूरी करते करते एक और जुमला जड़ दिया,"अब मैं देखना चाहता हूं कि आप सवाक फिल्में बनायें और पूरी दुनिया इसी बात की राह देख रही है।"

मैंने मुस्कुराने की कोशिश की। हमारा स्टाफ थियेटर से बाहर सरक आया था और इस समय दीवारों से सट कर खड़ा था। मैं भी उनमें जा मिला। रीव्ज़, मेरे मैनेजर ने हमेशा की तरह गम्भीर बने रहते हुए मेरा अभिवादन किया और अपनी आवाज़ को लय ताल में बांधते हुए बोला,"काफी अच्छी चली। नहीं क्या! मैंने सोचा, ये देखते हुए कि - -।" उसका अंतिम शब्द स्पष्ट ही उसका शक जाहिर करता था लेकिन मैंने विश्वास के साथ सिर हिलाया।

"जब पूरा थियेटर भरा होगा तो ये महान फिल्म होगी। हां, बेशक एक आध कट करने की ज़रूरत पड़ेगी।" मैंने अपनी तरफ से जोड़ा।

अब तूफान की तरह परेशान करने वाला ये ख्याल हमारे सामने मंडराने लगा कि अब तक हमने पिक्चर बेचने की कोशिश ही नहीं की है। लेकिन इस बात को ले कर मैं बहुत ज्यादा परेशान नहीं था क्योंकि मेरे नाम का सिक्का अभी भी बॉक्स ऑफिस पर सफलता की गारंटी है, इस बात की मुझे उम्मीद थी। जो शेंक, हमारे युनाइटेउ आर्टिस्ट्स के अध्यक्ष ने मुझे चेताया कि वितरक मुझे उन्हीं शर्तों पर पैसा देने के लिए तैयार नहीं हैं जिन शर्तों पर उन्होंने द गोल्ड रश उठायी थी। और कि बड़े सर्किट अपने हाथ बांधे, इंतज़ार करो और देखो का रुख अपनाये हुए थे। इससे पहले ये होता था कि जब भी मेरी कोई नयी फिल्म आती थी तो वे दिल खोल कर दिलचस्पी लिया करते थे। अब उनकी दिलचस्पी में वो गर्मजोशी नहीं थी। इसके अलावा, न्यू यार्क में शो करने के लिए समस्याएं उठ खड़ी हुईं। मुझे ये बताया गया था कि न्‍यू यार्क के सभी थियेटर पहले से ही बुक हो चुके थे। इसलिए मुझे अपनी बारी का इंतज़ार करना पड़ेगा।

न्यू यार्क में मात्र एक ही थियेटर उपलब्ध था। ये भीड़ भाड़ वाले इलाके से काफी हट कर ग्यारह सौ पचास की बैठने की क्षमता वाला जॉर्ज एम कोहन थियेटर था और इसे सफेद हाथी समझा जाता था। देखा जाये तो ये सिनेमा घर भी नहीं था। मैं सात हजार डॉलर प्रति सप्ताह पर चार दीवारें किराये पर ले सकता था और इसके लिए आठ सप्ताह के किराये की गारंटी देनी होती, और बाकी सारी चीजों का इंतज़ाम मुझे खुद करना होता। मैनेजर, कैशियर, सीटें दिखाने वाले, प्रोजेक्टर चलाने वाले, स्टेज संभालने वाले और बिजली वाले साइन बोर्ड और प्रचार। अब चूंकि मेरे खुद के बीस लाख डॉलर दांव पर लगे हुए थे, और वो भी मेरा खुद का धन, मैंने सोचा ये पूरा जूआ भी क्यों न खेल कर देख लिया जाये और मैंने हॉल किराये पर ले लिया।

इस बीच रीव्ज़ ने लॉस एंजेल्स में हाल ही में बने एक नये थियेटर में सौदा कर लिया। चूंकि आइंस्टीन दम्पत्ति अभी भी वहीं पर थे, और उन्होंने पहला शो देखने की इच्छा व्यक्त की लेकिन मुझे नहीं लगता कि उन्हें इस बात का रत्ती भर भी गुमान होगा कि वे क्या देखने जा रहे हैं। प्रीमियर से पहले वाली रात उन्होंने मेरे घर पर खाना खाया फिर हम सब शहर की तरफ चले। मुख्य गली कई मौहल्लों तक भीड़ से अटी पड़ी थी। पुलिस कारें और एम्बुलेंस की गाड़ियां भीड़ में से रास्ता बनाने की नाकाम कोशिश कर रही थीं। भीड़ ने थियेटर के साथ वाली दुकान के शीशे तोड़ दिये थे। पुलिस की टुकड़ी की मदद से हमें किसी तरह से फोयर तक पहुंचाया गया। इन पहली रातों से मुझे कितनी कोफ्त होती है! व्यक्तिगत तनाव, खुशबुओं, अलग अलग किस्म के इत्रों की मिली जुली गंध, इन सबका असर उबकाई लाने वाला और नसें तड़काने वाला था।

मालिक ने थियेटर बहुत खूबसूरत बनाया था लेकिन उन दिनों के अधिकांश वितरकों की तरह वह फिल्मों के प्रदर्शन के बारे में बहुत कम जानता था। फिल्म शुरू हुई। क्रेडिट टाइटल दिखाये गये, पहली रात को होने वाला शोर शराबा हुआ। आखिर पहला सीन खुला। मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा। पहला दृश्य कॉमेडी का था जिसमें एक मूर्ति का अनावरण दिखाया गया था। लोग हँसने लगे। फिर ये हँसी चीखने में बदल गयी। उनकी नस अब मेरे हाथ में थी। मेरी सभी शंकाएं और डर हवा में काफूर की तरह उड़ गये। अब मैं रोना चाहता था। तीन रीलों तक लोग हँसते ही रहे। और मैं खुद अपनी शिराओं में दौड़ते रक्त में घुली उत्तेजना में उनके साथ साथ हँस रहा था।

तभी एक बहुत ही वाहियात घटना घट गयी। अचानक ही ठहाकों के बीच फिल्म रोक दी गयी। हॉल की बत्तियां जल गयीं और लाउड स्पीकार पर एक आवाज़ उभरी,"इस शानदार कॉमेडी को आगे बढ़ाने से पहले हम आपके कीमती समय में से पांच मिनट चाहेंगे और इस खूबसूरत नये थियेटर की विशेषताओं के बारे में कुछ बताना चाहेंगे।" मैं अपने कानों पर विश्वास ही न कर सका। मैं पागल हो गया। मैं अपनी सीट से कूदा और बीच वाले रास्ते पर दौड़ा,"कहां है वो हरामजादा? सूअर का पिल्ला मैनेजर, मैं उसे जान से मार डालूंगा।"

दर्शकगण मेरे साथ हो लिये और जमीन पर पैर पटकने और शोर मचाने लगे जबकि वह मूरख थियेटर के गुणगान करने में ही लगा रहा। अलबत्ता, जब दर्शकों ने हो हल्ला करना शुरू कर दिया तो उसने अपनी भाषणबाजी बंद की। एक और रील चलने के बाद ही ठहाके फिर से हॉल में गूंजने लगे। ऐसी परिस्थितियों में मेरा ख्याल है, पिक्चर ठीक ठाक चली। अंतिम सीन में मैंने देखा, आइंस्टीन साहब अपनी आंखें पोंछ रहे थे। इस बात का एक और सबूत कि वैज्ञानिक भी ठीक न हो सकने वाले संवेदनशील प्राणी होते हैं।

अगले दिन समीक्षाओं का इंतज़ार किये बिना मैं न्यू यार्क के लिए चला क्योंकि पहले प्रदर्शन से पहले मेरे पास सिर्फ चार ही दिन थे। जब मैं पहुंचा तो ये देख कर मेरे होश उड़ गये कि पिक्चर का ज़रा सा भी प्रचार नहीं किया गया था। सिर्फ औपचारिक घोषणाएं और मामूली सा प्रचार ही किया गया था- "हमारा पुरान दोस्त एक बार फिर हमारे सामने" और इसी तरह की कमज़ोर लाइनें ही आयी थीं। इसलिए मैंने अपने युनाइटेड आर्टिस्ट्स स्टाफ को कड़वी घुट्टी पिलायी,"संवेदनाओं की परवाह मत करो। उन्हें जानकारी दो। हम एक ऐसे थियेटर में फिल्म दिखा रहे हैं जो पिक्चर हॉल नहीं है और आम रास्‍ते से हट कर है।"

मैंने आधे-आधे पेज के विज्ञापन लिये, और उन्हें न्यू यार्क के सभी महत्त्वपूर्ण अखबारों में एक ही फांट साइज में प्रकाशित कराया -

चार्ली चैप्लिन

कोहन थियेटर पर

सिटी लाइट्स में

सारे दिन की दरें 50 सेंट और एक डॉलर

मैंने अखबारों पर 30000 डॉलर अतिरिक्त खर्च किये और थियेटर के आगे लगाये जाने के लिए बिजली वाला एक साइन बोर्ड किराये पर लिया और उस पर 30000 डॉलर खर्च किये। हमारे पास समय बहुत कम था और हमें बहुत काम करना था। मैं सारी रात जागता रहा और फिल्म के प्रोजेक्टशन के प्रयोग करता रहा, फिल्म के आकार के बारे में माथा पच्ची करता रहा और उसमें आयी खामियों को ठीक करता रहा। अगले दिन मैं प्रेस से मिला और उन्हें बताया कि मैंने ये मूक फिल्म क्यों और किसके लिए बनायी है।

युनाइटेड आर्टिस्ट्स के स्टाफ सदस्य मेरे प्रवेश शुल्क को ले कर शंका में पड़े हुए थे क्योंकि मैं सीधे सीधे एक डॉलर और पचास सेंट वसूल कर रहा था जबकि सभी सिनेमा हॉल शुरुआती प्रदर्शनों के लिए महंगे स्टालों के लिए पिचासी सेंट और पैंतीस सेंट लिया करते थे जबकि वे सवाक फिल्में दिखा रहे थे और फिल्म के शुरू में कलाकारों का शो भी होता। मेरा मनोविज्ञान इस प्रमुख तथ्य पर काम कर रहा था कि ये मूक फिल्म थी और इसीलिए इसकी कीमत बढ़ाये जाने की ज़रूरत थी। और अगर जनता पिक्चर देखना चाहती है तो उन्हें पिचासी सेंट और एक डॉलर के बीच के फर्क नहीं रोक पायेगा। इसलिए मैंने समझौता करने से इन्कार कर दिया।

प्रीमियर में फिल्म बहुत अच्छी गयी। लेकिन प्रीमियर तो आगे के बारे में कोई संकेत नहीं देते। आम जनता ही तो मायने रखती है। क्या वे मूल फिल्म में दिलचस्पी लेंगे। ये ख्याल आधी रात तक मुझे जगाये रहे। अलबत्ता, सुबह मुझे हमारे प्रचार प्रबंधक ने जगाया, और मेरे बेडरूम में ग्यारह बजे धड़धड़ाता हुआ घुसा,"साहब, आपने तो कमाल कर दिया! क्या हिट जा रही है! आज सुबह दस बजे से ही जो लाइनें लगनी शुरू हुई हैं वे सारी गलियों को घेरे हुए हैं और सारा ट्रैफिक रुका पड़ा है। कम से कम दस पुलिस वाले ट्रैफिक नियंत्रण में लगे हैं। लोग हैं कि किसी तरह से भीतर घुसना चाहते हैं। आपको देखना चाहिये कि वे किस तरह से हो हल्ला कर रहे हैं!"

मुझ पर सुख की, राहत की भावना तारी हो गयी और मैंने ब्रेकफास्ट मंगवाया और तैयार होने लगा। "मुझे बताओ, सबसे ज्यादा ठहाके किस सीन पर लगे थे?" पूछा मैंने, और उसने बारीकी से बताना शुरू किया कि कहां कहां लोग हँसे थे और कहाँ पेट पकड़ कर हँसे थे और कहां हँसते हँसते पागल हो रहे थे। आओ, और अपने आप देखो।" कहा उसने,"इससे आपका जी अच्छा हो जायेगा।"

मैं जाने में हिचकिचा रहा था क्योंकि कोई भी शै उसके उत्साह का मुकाबला नहीं कर सकती थी। फिर भी, मैं थियेटर में पीछे की तरफ भीड़ के साथ खड़े हो कर आधे घंटे तक फिल्म देखता रहा, लगातार जो ठहाके गूंज रहे थे, उनसे मुझे हर्ष मिश्रित राहत मिल रही थी। ये मेरे लिए काफी था। मैं संतुष्ट वापिस आया और चार घंटे तक न्यूयार्क की सड़कों पर भटकता रहा और अपनी भावनाओं को हवा देता रहा। बीच बीच में मैं थियेटर के पास से गुज़रता, और देखता, अभी भी चारों तरफ की सड़कों पर अंतहीन कतारें लगी हुई हैं।

फिल्म को गुमनाम लोगों की तरफ से भी बहुत अच्छी समीझाएं मिलीं।

1150 की क्षमता वाले हॉल से हमने तीन हफ्ते तक 80000 डॉलर प्रति सप्ताह की दर से कमायी की जबकि ठीक सामने वाली सड़क पर 3000 क्षमता वाले पैरामाउंट में सवाक फिल्म दिखायी जा रही थी और मॉरिस शैवेलियर स्वयं मौजूद थे, वहां कुल 38000 डॉलर प्रति सप्ताह ही निकल पाये। सिटी लाइट्स बारह हफ्ते तक चलती रही और सारे खर्च निकाल लेने के बाद 400000 डॉलर से भी ज्यादा का शुद्ध मुनाफा दे गयी। फिल्म उतारने का एक ही कारण था कि न्यू यार्क थियेटर सर्किट, जिन्होंने इसे अच्छी कीमत पर बुक कर रखा था, ये अनुरोध करने लगे कि वे नहीं चाहते कि उनके सर्किट में पहुंचने से पहले ऐसा न हो कि हर आदमी ने इसे देख रखा हो।

और अब मैं लंदन जाना चाहता था और वहां पर सिटी लाइट्स को लांच करना चाहता था। जब मैं न्यू यार्क में था तो द न्यू यार्कर के अपने दोस्त राल्फ बर्टन से बहुत ज्यादा मिला करता था, उन्होंने हाल ही में बालजाक की किताब ड्रॉल स्टोरीज़ का चित्रण पूरा किया था। वे सिर्फ सैंतीस बरस के थे और बेहद सुसंस्कृत और सनकी आदमी थे। उन्होंने पांच शादियां रचायी थीं। वे कुछ अरसे से हताशा में चल रहे थे और किसी चीज की ज्यादा खुराक ले कर खुदकशी करने की कोशिश भी की थी। मैंने उन्हें सुझाव दिया कि वे मेरे मेहमान के तौर पर मेरे साथ यूरोप चलें और इस बदलाव से उन्हें बेहतर महसूस होगा। इस तरह से हम दोनों ओलम्पिक में चले। ये वही जहाज था जिस पर मैंने इंगलैंड के लिए अपनी पहली यात्रा की थी।

(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा (13)
चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा (13)
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