मेरी आत्म कथा चार्ली चैप्लिन चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा -अनुवाद : सूरज प्रकाश ( पिछले अंक 9 से जारी …) फ्रैंक हैरीज़,...
मेरी आत्म कथा
चार्ली चैप्लिन
चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा
-अनुवाद : सूरज प्रकाश
(पिछले अंक 9 से जारी…)
फ्रैंक हैरीज़, जिनकी किताबें मैंने पढ़ी और सराही थीं, मेरे आदर्श थे। फ्रैंक हमेशा ही आर्थिक संकटों से जूझते रहते थे। हर बार एक आध हफ्ते को छोड़ कर उनकी पत्रिका पीअरसन मैगज़ीन बंद होने के कगार पर होती। एक बार जब उनकी अपील प्रकाशित हुई थी तो मैंने उन्हें कुछ राशि भेजी थी और आभार स्वरूप उन्होंने ऑस्कर वाइल्ड पर अपनी किताब के दो खंड भेजे थे। उस पुस्तक पर उन्होंने निम्नलिखित पंक्तियां लिखी थीं:
चार्ली चैप्लिन को
उन कुछ व्यक्तियों में से एक जिन्होंने बिना परिचय के भी मेरी सहायता की थी, एक ऐसे शख्स, हास्य में जिनकी दुर्लभ कलात्मकता की मैंने हमेशा सराहना की है, क्योंकि लोगों को हँसाने वाले व्यक्ति लोगों को रुलाने वाले व्यक्तियों से श्रेष्ठ होते हैं, फ्रैंक हैरीज़ अपनी स्वयं की प्रति भेजते हैं,
अगस्त 1919
मैं केवल ऐसे लेखक की प्रशंसा करता हूं और मान देता हूं जो अपनी आंखों में आंसू भरे हुए, इन्सानों के बारे में सच बयान करता है - पास्कल।
उस रात मैं फ्रैंक से पहली बार मिला। वे छोटे कद के, थोड़े थुल थुल, गर्व से ऊपर उठे सिर वाले और अच्छे चेहरे मोहरे वाले शख्स थे। उनकी नुकीली मूंछें थीं और ये बात थोड़ा बेचैन करती थी। उनकी गहरी, गूंजती आवाज़ थी और वे इसे बहुत प्रभाव के साथ प्रयोग करते थे। उनकी उम्र सड़सठ बरस की थी। उनकी लाल बालों वाली बेहद खूबसूरत पत्नी थी। पत्नी उनके प्रति पूरी तरह से समर्पित थी।
फ्रैंक हालांकि समाजवादी थे, वे बिस्मार्क के बहुत बड़े प्रशंसक थे और कुछ हद तक समाजवादी नेता कार्ल लीबनेख्त§ को बहुत पसंद नहीं करते थे। वे जब जर्मन संसद में लीबनेख्त का उत्तर देते हुए बिस्मार्क की नकल करते और उसमें जर्मन की प्रभावशाली हकलाहट ले आते तो नज़ारा देखने लायक होता। फ्रैंक बेहतरीन अभिनेता हो सकते थे। हम सुबह चार बजे तक बातें करते रहे और ज्यादातर बातें फ्रैंक ने ही कीं।
उस शाम मैंने सोचा कि हो सकता है कि इस वक्त भी सम्मन वाहक वहीं होटल के आस पास मंडरा रहे होंगे, मैंने दूसरे होटल में रहने का फैसला किया। लेकिन न्यू यार्क में सभी होटल भरे हुए थे। एक घंटे तक इधर उधर टैक्सी में भटकने के बाद लगभग चालीस बरस की उम्र के, खुरदरे चेहरे वाले टैक्सी ड्राइवर ने पीछे मुड़ कर मेरी तरफ देखा और कहा,"सुनिये, आपको इस वक्त तो कोई होटल मिलने से रहा। आपके लिए यही बेहतर होगा कि आप मेरे साथ मेरे घर चलें और सुबह होने तक वहीं सोयें।"
पहले तो मुझे खटका लगा, लेकिन जब उसने अपनी पत्नी और परिवार का जिक्र किया तो मैंने सोचा कि यही ठीक रहेगा, इसके अलावा, मैं वहां पर सम्मन वाहकों से भी सुरक्षित रहूंगा।
"ये तो आपकी बहुत मेहरबानी होगी," मैंने कहा और अपना परिचय दिया।
वह हैरान हुआ और हँसा,"मेरी बीवी तो ये सुन कर बेहोश ही हो जायेगी।"
हम भीड़ भरे इलाके में ब्रांक्स के कहीं आसपास ही पहुंचे। वहां पर लाल भूरे पत्थर की दीवारों वाले मकानों की कतारें थीं। हम उन घरों में से एक घर में गये जिसमें फर्नीचर तो नाम मात्र का था लेकिन घर एकदम साफ सुथरा था। वह मुझे पिछवाड़े की तरफ के एक कमरे में ले गया। वहां एक बड़ा सा बिस्तर बिछा हुआ था और उस पर बारह बरस का उसका बेटा सोया हुआ था।
"रुकिये एक मिनट," कहा उसने और उसने अपने बेटे को उठाया और बिस्तर पर एक तरफ सरका दिया। बच्चा उसी तरह गहरी नींद में सोता रहा। तब ड्राइवर मेरी तरफ मुड़ा, "आराम से लेट जाइये।"
मैं फिर से अपने फैसले पर सोचने वाला था लेकिन उसकी आवभगत इतनी छू लेने वाली थी कि मैं मना कर ही नहीं सका। उसने मुझे एक साफ सुथरी रात को पहनने वाली कमीज़ दी और मैं डरते डरते बिस्तर में सरक गया। मैं डर रहा था कि कहीं बच्चा मेरी वज़ह से जाग न जाये।
मैं एक पल के लिए भी नहीं सो सका। आखिरकार जब बच्चा जागा तो वह उठा, तैयार हुआ और मैंने अपनी अधमुंदी आंखों से देखा कि उसने मेरी तरफ उचटती सी निगाह डाली तथा बिना किसी और प्रतिक्रिया के चला गया। कुछ ही पल बाद वह आठेक बरस की उम्र की एक और लड़की के साथ कमरे में चुपके से आया। वह लड़की उसकी बहन रही होगी। मैं अभी भी सोने का नाटक कर रहा था और उन्हें अपनी ओर देखते हुए देख रहा था। उनकी आंखें हैरानी से फैल रही थीं। तब छोटी लड़की ने अपने मुंह पर हाथ रख लिया ताकि अपनी खिलखिलाहट को दबा सके। दोनों तब कमरे से बाहर चले गये।
अभी कुछ ही पल बीते थे कि गलियारे में थोड़ी ऊंचे स्वर में फुसफुसाहट की आवाज़ें आनी लगीं। इसके बाद टैक्सी ड्राइवर की दबी हुई आवाज़ आयी। उसने यह देखने के लिए हौले से दरवाजे में से झांका कि क्या मैं जग गया हूं। मैंने उसे आश्वस्त किया कि मैं जाग गया हूं।
"आपके लिए नहाने का सामान तैयार कर दिया है हमने," कहा उसने,"स्नानघर सीढ़ियों के दूसरे सिरे पर है।" वह मेरे लिए एक ड्रेसिंग गाउन, स्लीपर और तौलिया ले कर आया।
"आप नाश्ते में क्या लेना चाहेंगे?"
"कुछ भी," मैंने जैसे माफी मांगते हुए कहा।
"जो भी आप चाहें, बेकन और अंडे, टोस्ट और कॉफी?"
"एकदम शानदार रहेगा।"
काम करने की उनकी गति एकदम शानदार थी।
जैसे ही मैंने कपड़े पहने, उसकी पत्नी पहले वाले कमरे में गरमा गरमा नाश्ता ले कर हाज़िर हो गयी।
इस कमरे में बहुत ही कम फर्नीचर था। बीच में एक मेज, एक आराम कुर्सी और एक दीवान। आतिशदान के ऊपर परिवार के सदस्यों की फ्रेम में मढ़ी हुई कई तस्वीरें लगी हुई थीं। जिस वक्त मैं अकेले ही नाश्ता कर रहा था, मैं घर के बाहर बच्चों और बड़ों की बढ़ती हुई भीड़ की आवाज़ें सुन पा रहा था।
"लोगों को पता चलना शुरू हो गया है कि आप यहां पर हैं!" उसकी पत्नी कॉफी लाते हुए मुस्कुरायी। तभी टैक्सी ड्राइवर आया। वह बहुत उत्तेजित था,"देखिये," वह बोला,"घर के बाहर बहुत भीड़ जुट आयी है और हर पल ये बढ़ती जा रही है। अगर आप बच्चों को एक झलक अपने आपको देख लेने देंगे तो वे लोग चले जायेंगे, नहीं तो प्रेस को आपके बारे में पता चल जायेगा और तब आप गये काम से!"
"बेशक, आप सबको अंदर आने दे सकते हैं।" मैंने जवाब दिया।
और इस तरह से बच्चे अंदर आते, खींसें निपोरते, और मेज के पास लाइन लगा कर खड़े हो जाते। मैं अभी भी कॉफी के घूंट ले रहा था। बाहर टैक्सी ड्राइवर की आवाज़ सुनायी दे रही थी: "ठीक है, ठीक है, ज्यादा जोश में नहीं आने का। लाइन से, लाइन से आओ, एक बार में दो ही।"
एक युवती भीतर आयी। उसका चेहरा तनाव से कसा हुआ और गम्भीर था। वह मेरी तरफ खोजी निगाहों से देखने लगी। और फिर उसने दहाड़ें मार कर रोना शुरू कर दिया।
"नहीं, ये वो नहीं है। मैंने सोचा था कि ये वही होगा।" वह सुबकने लगी।
ऐसा लगता है कि उसकी किसी सखी ने उसे भेद भरे तरीके से बता दिया होगा,"तुम्हें क्या लगता है कि कौन आया हुआ है यहां? तुम्हें कभी विश्वास ही नहीं होगा।" तब उसे मेरे सामने लाया गया था और वह मुझे अपना खोया हुआ भाई मान रही थी जिसके बारे में बाद में बताया गया कि वह युद्ध में लापता हो गया है।
मैंने रिट्ज होटल में लौटने का फैसला कर लिया भले ही अदालत के कागज़ात मुझे थमा दिये जायें। अलबत्ता, मेरा सामना किसी भी सम्मन वाहक से नहीं हुआ। लेकिन कैलिफोर्निया से मेरे वकील से आया एक तार मेरी राह देख रहा था कि सब कुछ निपटा लिया गया है और मिल्ड्रेड ने तलाक के लिए अर्जी दे दी है।
अगले दिन टैक्सी ड्राइवर और उसकी पत्नी, खूब सज धज कर मुझसे मिलने के लिए आये। उसने बताया कि प्रेस उसे इस बात के लिए परेशान कर रही है कि वह रविवार के अखबारों के लिए उसके घर पर मेरे ठहरने के बारे में फीचर लिख कर दे। लेकिन उसने दृढ़तापूर्वक कहा,"जब तक आपकी अनुमति न हो, मैं उन्हें एक शब्द भी नहीं बताने वाला।"
"लिख डालो।" मैंने उसे हरी झंडी दे दी।
और अब फर्स्ट नेशनल के महानुभाव मेरे पास आये। अलंकार की भाषा में कहूं तो वे विनम्रता की मूर्तियां लग रहे थे। उनमें से एक, उपाध्यक्ष मिस्टर गोर्डन, जो कि पूर्वी इलाकों में थियेटरों के बहुत बड़े मालिक थे, ने कहा,"आप पन्द्रह लाख डॉलर अपनी फिल्म के लिए चाहते हैं और हमने फिल्म देखी तक नहीं है।" मैंने स्वीकार किया कि उनकी बात में दम है और इस तरह से फिल्म के प्रदर्शन की व्यवस्था की गयी।
ये एक उदास शाम थी। फर्स्ट नेशनल के पच्चीस वितरक प्रोजेक्शन रूम में लाइन बना कर इस तरह से आये मानो किसी की मय्यत में जा रहे हों। ये गरिमाविहीन आदमियों का जमावड़ा था जो शक से भरे हुए और सहानुभूति से शून्य थे।
तभी फिल्म शुरू हुई। शुरुआती टाइटल था:
"मुस्कान और शायद एक आंसू के साथ एक पिक्चर।"
"बुरी नहीं है," गोर्डन साहब ने अपनी महानता का प्रदर्शन करते हुए कहा।
साल्ट लेक सिटी में प्रिव्यू के बाद मुझमें थोड़ा-सा आत्मविश्वास आ गया था लेकिन यहां प्रदर्शन अभी आधा ही चला होगा कि मेरा विश्वास डगमगा चुका था। प्रिव्यू में तो ये हो रहा था कि वहां लोगों के चीखनें की आवाज़ें आ रही थीं और अब एकाध ही खी खी ही सुनायी पड़ रही थी। जब फिल्म पूरी हो गयी और रोशनियां जला दी गयीं तो एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। इसके बाद उन्होंने अंगड़ाइयां लेना, जम्हाइयां लेना और दूसरे मामलों पर बात करना शुरू कर दिया।
"आप डिनर के लिए क्या कर रहे हैं हैरी?"
"मैं अपनी बीवी को प्लाज़ा में ले जा रहा हूं और उसके बाद हम ज़िगफेड थियेटर में शो में जायेंगे।"
"मेरा ख्याल है ये तो बहुत ही बढ़िया कार्यक्रम है।"
"क्या आप भी हमारे साथ आना चाहते हैं?"
"नहीं, मैं आज रात ही न्यूयार्क से जा रहा हूं। मैं अपने बेटे के ग्रेजुएशन के लिए वापिस जाना चाहता हूं।"
इस सारी बतकही के दौरान मुझे ऐसा लग रहा था, मानों मैं तलवार की धार पर खड़ा हूं।
आखिरकार मैंने चुटकी ली,"तो सज्जनो, आप लोगों का क्या फैसला है?"
कोई सचेत हो कर हिलने-डुलने लगा तो बाकी दूसरे लोग ज़मीन की तरफ देखने लगे। मिस्टर गोर्डन, जो कि स्पष्ट ही उनके प्रवक्ता थे, हौले-हौले चहल कदमी करने लगे। वे अच्छी-खासी कद काठी के, गोल, उल्लुओं के से चेहरे वाले और मोटे कांच का चश्मा लगाने वाले शख्स थे, बोले, "बात ये है चार्ली, कि मुझे अपने साथियों के साथ ही चलना पड़ेगा।"
"हां, मैं जानता हूं," मैंने जल्दी से टोका,"लेकिन आप लोगों को फिल्म कैसी लगी?"
वे हिचकिचाये और फिर खींसे निपोरने लगे,"चार्ली, हम यहां इसे खरीदने के लिए आये हैं। ये कहने के लिए नहीं कि ये हमें कितनी पसंद है।" उनके इस जुमले से एकाध ज़ोर का ठहाका लगा।
"आपको ये पसंद आये, इसके लिए मैं आपसे ज्यादा पैसे नहीं लूंगा।"
वे हिचकिचाये,"सच कहूं तो मैं कुछ और ही उम्मीद कर रहा था।"
"आप क्या उम्मीद कर रहे थे?"
वे हौले से बोले, "बात ये है चार्ली, पंद्रह लाख डॉलर में . . मेरे ख्याल से ये उतनी ऊंची चीज़ तो नहीं ही है।"
"तो आप क्या चाहते हैं कि लंदन ब्रिज को गिरते हुए दिखा दूं?"
"नहीं, लेकिन पंद्रह लाख डॉलर में . . ." उनकी आवाज़ असाधारण रूप से ऊंची हो गयी।
"तो ठीक है सज्जनो, कीमत तो यही रहेगी, आप खरीदें या फिर छोड़ दें।" मैंने अधीर होते हुए कहा।
जे डी विलियम्स, अध्यक्ष महाशय सामने आये और बातचीत की बागडोर अपने हाथ में लेते हुए मुझे मक्खन लगाने लगे,"चार्ली, मेरे ख्याल से ये बहुत ही शानदार फिल्म है। इसमें मानवीयता है, ये अलग है -" मुझे "अलग" अच्छा लगा। -"जरा धैर्य धरो और हम इस मामले को भी सुलटा लेंगे।"
"अब सुलटाने को कुछ भी बाकी नहीं है," मैंने तीखेपन के साथ कहा,"मैं आप लोगों को एक सप्ताह का समय देता हूं और इस बीच आप लोग फैसला कर लें।" जिस तरह का व्यवहार उन्होंने मेरे साथ किया था, उसके बाद तो मेरे मन में उनके प्रति कोई सम्मान नहीं रह गया था। अलबत्ता, उन्होंने जल्दी ही फैसला कर लिया और मेरे वकील ने इस आशय का करार तैयार कर दिया कि जब वे अपने पंद्रह लाख डॉलर निकाल लेंगे तो मुझे लाभ में से पचास प्रतिशत मिलेंगे। फिल्म पांच बरस के लिए किराये के आधार पर रहने वाली थी और इसके बाद फिल्म मेरे पास वापिस लौट आने वाली थी जैसा कि मैं अपनी दूसरी फिल्मों के लिए किया करता था।
घरेलू और कारोबारी मसलों के बोझ से अपने-आपको हलका कर लेने के बाद मुझे ऐसा लगा मानो मैं हवा में तैर रहा होऊं। किसी संन्यासी की तरह मैं अज्ञातवास में रहा था और हफ्तों तक मैंने अपने होटल के कमरे की चारदीवारों के अलावा कुछ भी नहीं देखा था। टैक्सी ड्राइवर के साथ मेरे रोमांचकारी अनुभवों के बारे में आलेख पढ़ कर मेरे दोस्तों ने फोन करने शुरू कर दिये और अब एक मुक्त, बिना किसी बोझ के शानदार ज़िंदगी फिर से शुरू हुई।
न्यू यार्क की मेहमाननवाज़ी ने मुझे अपनी गिरफ्त में ले लिया। फ्रैंक क्राउनिनशील्ड, जो कि वोग और वैनिटी फेयर जैसी पत्रिकाओं के संपादक थे, ने मेरा परिचय न्यू यार्क की चमक-धमक से जगमगाती ज़िंदगी से कराया और कोंडे नास्ट, इन पत्रिकाओं के प्रकाशक ने मेरे सम्मान में अत्यंत भव्य पार्टियां दीं। वे मैडिसन एवेन्यू में एक बड़े से पैंट हाउस में रहते थे। ये वो इलाका था जहां कलाओं के और धन दौलत की दुनिया के धनाड्य वर्ग के लोग जमा होते। उनकी बगल में ज़िगफेल्ड थियेटर की नाचने गाने वाली मंडलियों की लड़कियां होतीं और इन लड़कियों में कमनीय ऑलिव थॉमस और खूबसूरत डोलोरस जैसी नवयौवनाओं का शुमार रहता।
रिट्ज, जहां मैं रहता था, में मैं दिन भर उत्तेजनापूर्ण घटनाओं के झूले में झूलता रहता। सारा दिन फोन बजता रहता और हर तरह के न्यौते आते रहते। मैं अपना सप्ताहांत फलां जगह गुज़ारूं, फलां जगह घोड़ों का प्रदर्शन देखूं। ये सब ताम-झाम देहातीपन लगता था लेकिन मुझे अच्छा लगता था। न्यू यार्क रूमानी रहस्यों से भरा-पूरा शहर था। आधी रात की दावतों, लंच पार्टियों के लिए, डिनर के लिए हर पल बुलावे आते रहते। यहां तक कि सुबह के नाश्ते के लिए भी न्यौते तय रहते। न्यू यार्क सोसाइटी की सतह पर तैर लेने के बाद अब मेरी इच्छा होने लगी थी कि ग्रिनविच विलेज§ के बौद्धिक वर्ग के सम्पर्क में आया जाये।
सफलता की पायदानें चढ़ते हुए कई कॉमेडियन, जोकर और क्रूनर अपनी ज़िंदगी में एक ऐसी अवस्था में आते हैं जब उन्हें अपने दिमाग को और बेहतर बनाने की चाह महसूस होती है। वे बौद्धिक प्यास बुझाने के लिए छटपटाने लगते हैं। जहां उम्मीद भी नहीं कर सकते, वहां भी विद्यार्थी को गुरू के दर्शन हो जाते हैं। दर्जी, सिगार बनाने वाले, पूरा कुश्तियां लड़ने वाले, वेटर, ट्रक ड्राइवर।
मुझे याद है, ग्रिनविच विलेज में अपने एक दोस्त के यहां मैं उस हताशा की बात कर रहा था जब व्यक्ति के विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए सही शब्द तलाशने में दिक्कत महसूस होती है और बता रहा था कि साधारण शब्दकोष नाकाफी होता है।
मैंने कहा,"ऐसा कोई तरीका निश्चित ही अपनाया जा सकता है जिसमें आपके विचारों की खूबसूरत लगने वाली तालिकाएं बनायी जायें, अमूर्त शब्दों से ठोस शब्दों में और घटाने और जोड़ने की ऐसी प्रक्रियाएं हों कि आप अपने विचारों के लिए सही शब्द तक पहुंच जायें।"
"एक ऐसी ही किताब है," नीग्रो ट्रक ड्राइवर ने कहा, "जिसे रोजेट थेसारस कहते हैं।"
एलेक्जेंड्रिया होटल में एक ऐसा ही वेटर था जो, जब भी मुझे कोई डिश परोसता, अपने पुरखे कार्ल मार्क्स और विलियम ब्लेक के उद्धरण देने से न चूकता।
ब्रुकलिन के साथ एक कॉमेडी कलाकार था जो, ये की जगह जे, स की जगह श, और श की जगह स का उच्चारण किया करता था, ने बर्टन की किताब एनाटमी ऑफ मैलनकली की सिफारिश की और बताया कि सेक्सपीयर पर उसका असर था और सैम जॉनसन पर भी उसका प्रभाव रहा,"हां, आप लेटिन को छोड़ सकते हैं।"
उनमें से जो बाकी थे, उनके लिए मैं एक बौद्धिक सहयात्री था। रंगारंग कलाकारी के अपने दिनों से मैंने बहुत कुछ पढ़ा था लेकिन ये पढ़ना सिलसिलेवार नहीं था। धीमी गति का पाठक होने के कारण मैं सिर्फ पन्ने पलटता था। एक बार मुझे लेखक की विचारधारा और शैली का पता भर चल जाये तो तय था कि किताब में मेरी दिलचस्पी खत्म हो जायेगी। मैंने प्लूटार्च के लाइव्स के पांचों खंडों का एक एक अक्षर पढ़ा है। लेकिन मुझे ये लगा कि मैंने उन्हें पढ़ने में जितनी मेहनत की है, दरअसल वे उस लायक थे नहीं। मैं विवेकपूर्ण तरीके से पढ़ता हूं। कई किताबें तो बार-बार पढ़ता हूं। पिछले बरसों के दौरान मैंने प्लेटो, लोके, कांट, बर्टन की एनाटॉमी ऑफ मैलनकली के पन्ने पलटे हैं और इस टुकड़ा-टुकड़ा पठन से मैंने उतना हासिल कर लिया है जितना मैं चाहता था।
ग्रिनविच विलेज में मैं निबंधकार, इतिहासकार और उपन्यासकार वाल्डो फ्रैंक से मिला। मेरी मुलाकात कवि हार्ट क्रेन से हुई। मॉसेस के संपादक मैक्स ईस्टमैन, बेहतरीन वकील और न्यू यार्क के पत्तन के नियंत्रक फील्ड मालोन और नारी मताधिकार के लिए काम करने वाली उनकी पत्नी मार्गरेट फोस्टर से भी मिला। मैंने क्रिस्टीन रेस्तरां में भोजन भी किया और वहां पर मैं प्राविंसटाउन प्लेयर्स§ के कई सदस्यों से मिला। वे लोग युवा नाटककार यूजीन ओ'नील (बाद में मेरे ससुर) द्वारा लिखित नाटक एम्परर जोन्स की रिहर्सलों के दौरान लंच करने के लिए आया करते थे। मुझे उनका थियेटर दिखाया गया था जो कि छ: घोड़ों के अस्तबल जितनी खलिहान जैसी जगह थी।
मुझे वाल्डो फ्रैंक के बारे में 1919 में प्रकाशित उनकी निबंधों की किताब ऑवर अमेरिका के जरिये पता चला। मार्क ट्वेन के बारे में एक निबंध मनुष्य का गहरा, बेधक विश्लेषण है: संयोग से वाल्डो ही वे पहले शख्स थे जिन्होंने सबसे पहले मेरे बारे में गम्भीरता से लिखा था। इसलिए स्वाभाविक ही था कि हम अच्छे दोस्त बन गये। वाल्डो रहस्यवाद और इतिहास के मिश्रण हैं और उनकी दृष्टि उत्तरी और दक्षिणी, दोनों अमेरिका की आत्मा में गहरे तक उतरी है।
ग्रिनविच विलेज में हम लोगों की शामें बहुत अच्छी गुज़रतीं। वाल्डो के जरिये मैं हार्ट क्रेन से मिला और हमने विलेज में वाल्डो के छोटे से फ्लैट में खाना खाया और हम अगली सुबह तक बातें करते रहे। हमारी वे गप्प गोष्ठियां बहुत उत्तेजनापूर्ण होतीं। हम तीनों अपने विचारों की बारीक परिभाषाएं करने के लिए मानसिक रूप से भिड़ते रहते।
हार्ट क्रेन बेहद गरीब थे। उनके पिता, जो कैंडी के अरबपति कारोबारी थे, चाहते थे कि हार्ट उनके कारोबार में आ जाये और उन्होंने अपने बेटे को कविता करने से विमुख करने के लिए उन्हें वित्तीय रूप से बेदखल तक कर दिया था। हालांकि मैं न तो आधुनिक कविता का अच्छा श्रोता हूं और न ही गुण ग्राहक ही, लेकिन इस किताब को लिखते हुए मैं हार्ट की द ब्रिज पढ़ रहा हूं। ये किताब संवेदनापूर्ण अभिव्यक्ति है, अनजानी और ड्रामाई, जो बेधने वाले आक्रोश और हीरे सरीखी धारदार कल्पनाशीलता से भरी हुई है। ये मेरे लिए कुछ ज्यादा ही तीखी है। लेकिन शायद ये तीखापन खुद हार्ट क्रेन में था। इसके बावजूद उनमें विनम्र मिठास थी।
हमने कविता के प्रयोजन पर चर्चा की। मैंने कहा कि कविता दुनिया के नाम एक प्रेम पत्र है। "एक बहुत ही छोटी दुनिया" हार्ट ने तिक्तता से कहा। उन्होंने मेरे काम के बारे में यह कहा कि ये ग्रीक कॉमेडी की परम्परा में आता है। मैंने बताया कि मैंने अरिस्टोफेन्स के अंग्रेजी अनुवाद पढ़ने की कोशिश की थी लेकिन उसे कभी पूरा नहीं कर पाया।
बाद में हार्ट को गगेनहेम फैलोशिप दी गयी थी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। बरसों की मुफलिसी और उपेक्षा की वजह से वे शराबखोरी और हताशा की तरफ मुड़ गये थे और एक यात्री नाव में मैक्सिको से स्टेट्स लौटते समय उन्होंने समुद्र में छलांग लगा ली थी।
खुदकुशी करने से कुछ बरस पहले उन्होंने बोनी एंड लिवराइट द्वारा प्रकाशित अपनी छोटी कविताओं की व्हाइट बिल्डिंग्स नाम की एक किताब भेजी थी। किताब के भीतरी कवर पर उन्होंने लिखा था, "द किड की याद में हार्ट क्रेन की तरफ से चार्ल्स चैप्लिन को। 20 जनवरी, 1928"
एक कविता का शीर्षक था "चैप्लिनेस्क्यू।"
जीवन में हम विवश समझौते कर
अर्थहीन दिलासाओं से स्वयं को बेमानी संतोष से ऐसे भर लेते हैं
जैसे जेबों में फिसलती हवा एकत्र हो कर उन्हें विशालकाय बना
भरे होने का अहसास कराती है।
फिर भी हम जीवन से लगाव रखते हैं
इसके मायाजाल में बंधे रहते हैं
कभी पैड़ी पर पसरे बिल्ली के नन्हें भुखमरे बच्चे को
भीड़ भरी सड़क के आवेश से दूर
एक शांत विश्रांति स्थल दे देते हैं
तो कभी किसी घायल कुहनी को सहला कर आराम देते हैं।
कभी हम यूं ही, यूं ही बचकानी मुसकान ओढ़े
'होनी' को नकारते हैं
उस परम शक्ति के विधान से खिलवाड़ पर
आमादा होते हैं
अपरिहार्य नियति से निरर्थक ही खेलने का प्रयास करते हैं
जो आहिस्ता आहिस्ता अपनी झुर्री भरी, बल पड़ी, तर्जनी को
खींच कर हमारी ओर उठाता है
हमारी गलतियों की तरफ इशारा करने वाले
उस नियंता की 'तिर्यक दृष्टि' का
तब हम कभी हम भोलेपन, कभी सादगी और कभी अचरज से सामना करते हैं, खेलते हैं;
और जीवन का स्पष्ट नज़र आता ये पल पल ढहना
असत्य नहीं है
लचीली बेंत के रफ्तार से अधिक
घिन्नी देने वाला कठोर सत्य है
हम महसूस करते हैं जीवन के उत्साहहीन
पलों को
हम जानते हैं कि हर दिन हर पल
हम अंतिम यात्रा के पथ पर
निरंतर अग्रसर हैं
हम तुम्हें, उसे और सबको वंचित कर सकते हैं-
बच सकते हैं, टाल सकते हैं,
पर दिल को नहीं
यदि दिल अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ
जीवंत बना रहता है तो
इसमें हमारा क्या दोष?
जीवन का ये सारा खेल हमें
मुस्कुराने के लिए विवश करता है
जीवन के अंत की तरह
'खाली और खोखली'
मुस्कुराहट
फिर भी हम इस शून्य जीवन के
उस भरे पूरे सौन्दर्य को
नज़रअंदाज नहीं कर सकते
जो चांद द्वारा सूनी गलियों में
राख के बर्तन जैसी
साधारण चीख को रूपहली ढक दिये जाने पर
आनंद और उत्फुल्लता की अनुभूति देता है
इस जीवन में सुख, दुख, रुदन और हास
हमें
प्रतिपल अपने पाश में आबद्ध करता है
कभी आमोद प्रमोद हमें खींचता है
तो कभी सन्नाटे में नन्हें बिल्लौटे की
सहमी आवाज हमें खींचती है!!!
डुडले फील्ड मालोने ने ग्रीनविच विलेज में एक रोचक पार्टी दी और उसमें जान बोइसवेन्न, डच उद्योगपति, मैक्स ईस्टमैन और दूसरे लोगों को आमंत्रित किया। वहां एक मज़ेदार आदमी आया था, जिसका परिचय "जॉर्ज" के रूप में कराया गया था (मैं कभी भी उसका वास्तविक नाम नहीं जान पाया), बहुत नर्वस और उत्तेजित लग रहा था। बाद में किसी ने बताया कि वह बुल्गारिया के राजा का बहुत बड़ा प्रशंसक था और राजा ने सोफिया विश्वविद्यालय में उसकी पढ़ाई के लिए राशि अदा की थी लेकिन जॉर्ज ने उस संरक्षण को लात मार दी और बागी हो गया, स्टेट्स में चला आया और आइ डब्ल्यू डब्ल्यू§ में शामिल हो गया। बाद में उसे बीस बरस की सज़ा सुनायी गयी। उसने दो बरस की सज़ा पूरी कर ली थी और नये सिरे से मुकदमे की सुनवाई की लिए उसने अपील जीत ली थी और इस समय ज़मानत पर छूटा हुआ था।
वह चेराड्स§ खेल रहा था और जब मैं उसे देख रहा था तो डुडले फील्ड मलोने मेरे कान में फुसफुसाये, "इस बात के आसार तो नहीं लगते कि वह अपील जीत पायेगा।"
जॉर्ज, जिसने अपने बदन पर मेजपोश लपेट रखा था, साराह बर्नहार्ट के अभिनय की नकल कर रहा था। हम सब हँसे, लेकिन मन ही मन, कई लोग सोच रहे थे और मैं भी सोच रहा था कि उसे और अट्ठारह बरसों के लिए सज़ा भुगतने के लिए जाना ही पड़ेगा।
ये एक बहुत ही अफरा-तफरी भरी शाम थी और जिस वक्त मैं वहां से जाने के लिए निकला तो जॉर्ज ने पीछे से पुकारा, "जल्दी क्या है चार्ली? इतनी जल्दी घर क्यों जा रहे हैं?" मैं उसे एक किनारे ले गया। यह तय कर पाना बहुत मुश्किल था कि आखिर कहा ही क्या जाये!
"क्या कुछ ऐसा है जो मैं कर सकूं?" मैं फुसफुसाया।
उसने अपना हाथ हिलाया मानो इस ख्याल को ही एक तरफ सरका रहा हो। तब उसने मेरा हाथ थामा और भावुक होते हुए कहा,"मेरे बारे में चिंता मत करो चार्ली, कुछ नहीं होगा मुझे।"
मैं न्यू यार्क में कुछ और अरसा रुकना चाहता था लेकिन मुझे कैलिफोर्निया में जा कर काम निपटाने थे। पहली बात तो मैं फर्स्ट नेशनल के साथ फटाफट अपना करार पूरा करना चाहता था क्योंकि मैं इस बात के लिए बहुत आतुर था कि युनाइटेड आर्टिस्ट्स के साथ काम शुरू करूं।
कैलिफोर्निया लौटने का मतलब अपनी आज़ादी, हल्केपन और बेहद मज़ेदार बीते समय को छोड़ आना था जो मैंने न्यूयार्क में बिताया था। फर्स्ट नेशनल के लिए दो-दो रील वाली चार कॉमेडी फिल्में पूरी करने की समस्या मेरे सिर पर तलवार की तरह लटक रही थी। कई-कई दिन तक मैं सोचने की आदत का अभ्यास करने के लिए स्टूडियो में बैठा रहता। वायलिन या पिआनो बजाने की तरह सोचने के लिए भी रोज़ाना रियाज करने की ज़रूरत होती है और अब मुझे सोचने की आदत ही नहीं रही थी।
मैंने न्यू यार्क की रंग बिरंगी ज़िंदगी के खूब गुलछर्रे उड़ाये थे और अब मैं उससे बाहर नहीं आ पा रहा था। इसलिए मैं अपने अंग्रेज़ दोस्त सेसिल रेनॉल्ड्स के साथ ये सोच कर निकल पड़ा कि कैटेलिना में थोड़ी बहुत मछली मारी जाये।
अगर आप मछुआरे हैं तो कैटेलिना आपके लिए स्वर्ग है। उसके उनींदे से, छोटे से गांव एवलॉन में सिर्फ दो ही छोटे होटल थे। सारा साल वहां पर मछली मारने का बढ़िया सिलसिला रहता। अगर टूना मछली वहां पर होती तो एक भी नाव किराये पर मिलने का सवाल ही नहीं उठता था। सुबह सवेरे ही कोई चिल्ला उठता, "टूना है, टूना है!" तीस से तीन सौ पौंड तक की टूना, जहां तक आंखें देख पातीं, पानी पर उछल रही होती और छपाके ले रही होती। उस उनींदे से होटल में अचानक ही हंगामा मच जाता और इतना भी समय न मिल पाता कि आदमी कपड़े ही बदल ले। और अगर आप उन खुशनसीब लोगों में से हों जिन्होंने पहले से नाव बुक करवा रखी हो तो, आप हड़बड़ाते हुए नाव में सवार होते और अभी भी अपनी पैंट के बटन ही बंद कर रहे होते।
ऐसे ही एक मौके पर मैंने और डॉक्टर ने लंच से पहले ही आठ टूना मछलियां पकड़ीं। हरेक मछली तीस पौंड से भी ज्यादा वज़न की थी। लेकिन टूना जितनी तेज़ी से नज़र आती, उतनी तेज़ी से गायब भी हो जाती और हम फिर से सामान्य किस्म के मच्छी मार अभियान में लग जाते। कई बार हम पतंग की मदद से टूना पकड़ते। पतंग को डोरी से बांध दिया जाता और इसमें कांटा लगा दिया जाता और फ्लाइंग फिश पानी की सतह पर पूंछ फटकारती रहती। इस तरह की मछली मारना बहुत उत्तेजना पूर्ण होता क्योंकि तब आप टूना को हमला करते, कांटे के चारों तरफ झाग की भंवरें बनाते और फिर सौ या दो सौ फुट दूर तक दौड़ लगाते देख सकते हैं।
कैटेरिना में पकड़ी जाने वाली तेगा मछली एक सौ पौंड से ले कर छ: सौ पौंड तक की होती हैं। इस तरह का मछली मकड़ना बहुत नाज़ुक होता है। डोरी को ढील दी गयी होती है और तेगा मछली चुपके से आ कर कांटे पर मुंह मारती है। इसमें चुग्गे के तौर पर छोटा-सा अलबाकोर या उड़न मछली होती है। तेगा मछली इसे लेती है और तकरीबन सौ गज़ तक खींचे लिये जाती है। जब मछली रुकती है और आप नाव रोकते हैं। मछली को पूरा एक मिनट देते हैं कि वह चुग्गा खा ले। आप डोरी को हौले हौले ढील दिये जाते हैं यहां तक कि डोरी कसने लगती है। तब आप दो तीन झटके दे कर उस पर प्रहार करते हैं और अब शुरू होता है तमाशा। मछली दो-तीन सौ गज की दौड़ लगाती है और आपकी घिर्री चिंघाड़ने लगती है। तभी मछली रुकती है, आप तुरंत ढीली डोरी को घिर्री पर लपेटना शुरू करते हैं नहीं तो डोरी सूत की तरह टूट जायेगी। अगर मछली दौड़ते वक्त अचानक तीखा मोड़ ले ले तो पानी के घर्षण से डोरी टूट सकती है। अब मछली पानी के ऊपर बीस से चालीस बार पानी के ऊपर कूदना शुरू कर देती है और अपना सिर बुगडॉग की तरह हिलाती है। तभी आप पाते हैं कि वह तो पानी में गोता लगा गयी। अब शुरू होता है कठिन परिश्रम। मछली को खींच कर ऊपर लाना। मेरी खुद की पकड़ी मछली एक सौ छब्बीस पौंड की थी और उसे तट तक लाने में मुझे मात्र बाइस मिनट लगे।
वे शांत दिन थे। डॉक्टर और मैं उन खूबसूरत सुबहों में नाव के पेंदे में बैठे अपनी अपनी रॉड थामे ऊंघते रहते। समुद्र में चारों तरफ धुंध छायी होती और दूर कहीं क्षितिज अनंत आकाश में मिल रहा होता। दूर-दूर तक पसरा मौन सीगल पक्षिओं के कलरव को और हमारी मोटर बोट की सुस्त घरघराहट को और मुखर कर देता।
डॉक्टर रेनॉल्ड्स ब्रेन सर्जरी के जीनियस थे और उन्होंने इस क्षेत्र में जादुई नतीजे हासिल करके दिखाये थे। मैं उनके कई मामलों के इतिहास से वाकिफ था। एक बच्ची को ब्रेन ट्यूमर था। उसे एक दिन में बीस-बीस बार दौरे पड़ते और वह पागलपन की हद तक जा पहुंची थी। सिसिल की सर्जरी से वह पूरी तरह चंगी हो गयी थी और बाद में चल कर वह बहुत ही होशियार स्कॉलर बनी।
लेकिन सिसिल भी एक ही सनकी थे। उन्हें अभिनय करने की धुन थी। उनकी यह दुर्दमनीय झख उन्हें मेरे पास दोस्त की तरह लायी। "थियेटर आत्मा को जिलाये रखता है।" वे कहा करते। मैं अक्सर उनसे बहस करता कि उनका चिकित्सा का क्षेत्र भी उन्हें काफी हद तक जीवनी शक्ति देता होगा। किसी जड़ मूरख को उत्कृष्ट स्कॉलर में बदलने से ज्यादा ड्रामाई बात जीवन में और क्या हो सकती है?
"वो तो इतना जानना भर होता है कि कौन-सी नस कहां पर है।" कहा रोनाल्ड्स ने, "लेकिन अभिनय करना मानस: अनुभव होता है जो आत्मा को विस्तार देता है।"
मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने आखिर ब्रेन सर्जरी का क्षेत्र ही क्यों चुना था।
"बस, उसके ड्रामा के लिए ही तो।" उनका जवाब था।
वे अक्सर पसाडेना में एमेचर प्लेहाउस नाम की नाटक मंडली में छोटे-मोटे रोल किया करते थे। उन्होंने मेरी कॉमेडी माडर्न टाइम्स में उस व्यक्ति की भूमिका अदा की थी जो जेल में जाता है।
जब मैं मछली मारने के अभियान से लौटा तो खबर मिली कि मां की सेहत अब बेहतर है और अब चूंकि युद्ध समाप्त हो चुका है, उन्हें सुरक्षित तरीके से कैलिफोर्निया ला सकते हैं। मैंने टॉम को इंगलैंड भेजा ताकि वह मां को नाव के जरिये लिवा लाये। मां को यात्रियों की सूची में किसी दूसरे नाम से रखा गया था।
समुद्री यात्रा के दौरान वह एकदम ठीक थी। वह हर रात मुख्य सैलून में खाना खाती और दिन के वक्त वह डेक पर खेले जाने वाले खेलों में हिस्सा लेती। न्यू यार्क में पहुंचने पर बहुत चंगी और अपने आप में संतुष्ट लग रही थी कि तभी आप्रवास विभाग के प्रमुख ने उसका अभिवादन किया, "आइये, आइये मिसेज चैप्लिन, आपको देखना कितना सुखद लग रहा है! तो आप हैं हमारे मशहूर चार्ली की मां!"
"हां" मां ने मिश्री घोलते हुए कहा, "और आप यीशू मसीह हैं?"
अधिकारी का चेहरा देखने लायक था। वह हिचकिचाया, टॉम की तरफ देखा, और विनम्रता से बोला,"मिसेज चैप्लिन, आप जरा एक मिनट के लिए एक तरफ आयेंगी?"
टॉम समझ चुका था कि वे लोग मुसीबत में फंस चुके हैं।
अलबत्ता, ढेर सारी लालफीता शाही के बाद आप्रवास कार्यालय ने इतनी दयालुता दिखायी कि मां को वर्ष-दर-वर्ष आधार पर रहने की अनुमति दे दी लेकिन शर्त लगा दी कि वह सरकार पर निर्भर नहीं रहेगी।
मैंने उसे तब से नहीं देखा था जब मैं आखिरी बार इंगलैंड में था। इस बीच दस बरस का अरसा बीत चुका था। इसलिए जब मैंने पसाडेना में बेचारी वृद्धा मां को देखा तो मुझे थोड़ा-सा झटका लगा। उसने सिडनी और मुझे तुरंत पहचान लिया और अब वह एकदम सामान्य थी।
हमने उसके रहने का इंतज़ाम समुद्र के किनारे अपने आस-पास ही किया। उसके पास घर-बार का काम करने के लिए एक शादीशुदा दम्पति रखा और उसकी व्यक्तिगत देखभाल के लिए एक प्रशिक्षित नर्स रखी। सिडनी और मैं अक्सर उसके पास चले जाते और शाम के वक्त उसके साथ खेल खेलते। दिन के वक्त वह पिकनिक पर जाना पसंद करती और अपनी कार में सैर-सपाटे करती। कई बार वह स्टूडियो आ जाती तो मैं उसके लिए अपनी कॉमेडी फिल्में चला देता।
आखिरकार द किड के प्रदर्शन न्यू यार्क में शुरू हुए और फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिये। और जैसा कि मैंने जैकी कूगन के पिता के सामने पहले दिन की मुलाकात में ही भविष्यवाणी की थी, उसने सनसनी पैदा कर दी थी। द किड में अपनी सफलता के बलबूते पर चालीस लाख डॉलर से भी ज्यादा का कैरियर उसने अपनी जेब में कर लिया था। हर दिन हमें हैरान कर देने वाली समीक्षाओं की कतरनें मिलतीं। द किड को क्लासिक फिल्म घोषित कर दिया गया था। लेकिन मैं कभी भी हिम्मत नहीं जुटा पाया कि न्यू यार्क जाऊं और फिल्म देखूं। मैंने यही बेहतर समझा कि कैलिफोर्निया में ही रहूं और उसके बारे में सुनता रहूं।
इस बेसिलसिलेवार आत्मकथा में फिल्म बनाने के बारे में कुछ टिप्पणियों को शामिल न करना अनुचित होगा। हालांकि इस विषय पर बहुत सारी महत्त्वपूर्ण किताबें लिखी जा चुकी हैं, मुसीबत ये है कि इनमें से ज्यादातर किताबें लेखक के सिनेमाई आस्वाद को ही लादती हैं। इस तरह की किताब तकनीकी पाठमाला से ज्यादा नहीं होनी चाहिये जिसमें आदमी को ये सिखाया जाये कि ट्रेड के जो औजार हैं, उनकी जानकारी कैसे पायी जाये। इसके आगे जा कर कल्पनाशील विद्यार्थी को ड्रामाई प्रभावों के बारे में अपनी खुद की कला ज्ञानेन्द्रिय का इस्तेमाल करना चाहिये। अगर कोई शौकिया व्यक्ति सर्जनात्मक दृष्टि से सम्पन्न है तो उसका काम कम से कम तकनीकी जानकारियों से चल जायेगा। किसी भी कलाकार के लिए परम्परा के विरुद्ध काम करने की आज़ादी ही आम तौर पर सबसे ज्यादा उत्तेजना देने वाली होती है और यही कारण है कि कई निदेशकों की पहली फिल्म ताज़गी और मौलिकता लिये हुए होती है।
लाइन और स्पेस, कम्पोजीशन, टैम्पो आदि को बौद्धिकता से भर देना, ये सारी बातें बहुत भली लगती हैं लेकिन इनका अभिनय से कुछ खास लेना-देना नहीं होता और हो सकता है ये सारी बातें शुष्क हठधर्मिता बन कर रह जायें। नज़रिये की सादगी ही हमेशा सर्वोत्तम रहती है।
व्यक्तिगत रूप से कहूं तो मुझे करतब भरे, ट्रिक वाले प्रभावों, इफेक्ट्स से कोफ्त होती है। किसी कोयले के टुकड़े के नज़रिये से फायरप्लेस के पीछे से फोटोग्राफी, या होटल के गलियारे में से होते हुए कलाकार के साथ-साथ चलना मानो आप साइकिल पर उसकी अगवानी कर रहे हों; ये दृश्य मेरे लिए सीधे और स्पष्ट होते हैं। जब तक दर्शकगण सेट से वाकिफ हैं, उन्हें स्क्रीन के आर-पार देखने के लिए अपनी निगाहों को दौड़ाने की ज़रूरत नहीं पड़ती कि कोई कलाकार एक सिरे से दूसरे सिरे की तरफ जा रहा है। इस तरह के भड़कीले प्रभाव, एक्शन की गति को धीमा करते हैं और ये बोर करने वाले और खीज पैदा करने वाले हो जाते हैं। सबसे बड़ी बात, इन्हीं को एक थके हुए शब्द "कला" के रूप में मान लिया जाता है।
मेरा खुद का कैमरा सेट-अप इस तरह का होता है कि वह अभिनेता के चलने फिरने, मूवमेंट के लिए संगीत रचना का-सा काम करे। जब कोई कैमरा ज़मीन पर रखा जाता है या कलाकार की नासिका दिखाता लगता है तो ये कैमरा ही होता है जिसका अभिनय हम देख रहे होते हैं न कि कलाकार का। कैमरे को बाधक नहीं बनना चाहिये।
फिल्मों में समय बचाना अभी भी मूल विशेषता है। आइंस्टीन और ग्रिफिथ, दोनों ही इसे जानते थे। चुस्त संपादन और एक दृश्य का दूसरे दृश्य में घुल कर मिल जाना फिल्म तकनीक का गतिविज्ञान हैं।
मुझे हैरानी होती है जब कुछ समालोचक कहते हैं कि मेरी कैमरा तकनीक बाबा आदम के ज़माने की है और कि मैं वक्त के साथ-साथ नहीं चला हूं। कौन से वक्त? मेरी तकनीक मेरे खुद के लिए, अपने तर्क के लिए और ऩज़रिये के लिए सोचने का नतीजा है; दूसरे जो कुछ कर रहे हैं, ये उनसे उधार ही हुई चीज नहीं है। यदि कला में आदमी को समय के साथ-साथ ही चलना हो तो रेम्ब्रां, वॉन गॉग की तुलना में बहुत पिछड़े हुए माने जायेंगे।
फिल्मों के विषय पर बात करते हुए यहां पर संक्षेप में कुछ टिप्पणियां उन लोगों के लिए फायदेमंद हो सकती हैं जो सुपर-डुपर फिल्म बनाने के लिए जोड़-तोड़ कर रहे हैं। सच कहा जाये तो ऐसी फिल्म बना लेना सबसे आसान होता है। इसमें अभिनय या निर्देशन में कल्पना शक्ति या प्रतिभा की बहुत कम ज़रूरत होती है। इसके लिए तो बस, आदमी को एक करोड़ डॉलर, बहुत ज्यादा भीड़, कॉस्ट्यूम, बहुत बड़े-बड़े सेट, और सीनरी की ज़रूरत होती है। गोंद और कैन्वास के कमाल के ज़रिये आदमी निढाल क्लोपेट्रा को नील नदी पर तैरा सकता है, बीस हज़ार एक्स्ट्रा लोगों की फौज से लाल सागर में परेड करवा सकता है या जेरिको महल की दीवारों को हवा में उड़ा सकता है। ये सब और कुछ नहीं, बस, इमारतों का काम करने वाले ठेकेदारों का हुनर ही होगा। और फील्ड मार्शल तो अपनी निर्देशक वाली कुर्सी पर पटकथा और टेबल तालिका लिये बैठा होगा, ड्रिल सार्जेंटों की उसकी फौज पसीना बहाती, और लैंडस्केप पर भुनभुनाती, अपनी टुकड़ियों पर आदेश पर आदेश दे रही होगी। एक सीटी का मतलब दस हज़ार बायीं तरफ से, दो सीटियों का मतलब दस हज़ार दायीं तरफ से, और तीन सीटियों का मतलब सब के सब आगे बढ़ें।
इनमें से अधिकांश विशालकाय फिल्मों की थीम आम तौर पर सुपरमैन ही होती है। नायक जो है, फिल्म में किसी से भी लम्बी छलांग मार सकता है, किसी से भी ज्यादा ऊपर कूद सकता है, किसी से भी ज्यादा दूर तक गोली चला सकता है, लड़ाई में किसी को भी हरा सकता है, और किसी से भी ज्यादा प्यार कर सकता है। सच तो ये है कि इन तरीकों से कोई भी मानवीय समस्या सुलझायी जा सकती है, सिवाय सोचने के।
संक्षेप में कुछ बातें निर्देशन के बारे में भी। किसी दृश्य में अभिनेताओं से काम लेने में मनोविज्ञान बहुत मदद करता है। उदाहरण के लिए, ऐसी स्थिति आ सकती है कि कोई कलाकार किसी कम्पनी में फिल्म निर्माण के उस स्तर पर शामिल हुआ हो, जब फिल्म आधी बन चुकी हो। बेहतरीन कलाकार होने के बावजूद वह अपने नये माहौल में शुरू में नर्वस हो सकता है। यही वह बिन्दु है जहां पर निर्देशक की मानवीयता बहुत मददगार साबित हो सकती है, जैसा कि मैंने ऐसी परिस्थितियों में अक्सर पाया है। यह जानते हुए भी कि मैं क्या चाहता हूं, मैं उस नये सदस्य को एक किनारे ले जाऊंगा और उसे विश्वास में लेते हुए कहूंगा कि ये सोच-सोच कर थक गया हूं, परेशान हूं और समझ नहीं पा रहा हूं कि इस सीन को कैसे करूं। जल्द ही वह अपनी हड़बड़ाहट भूल जायेगा और मेरी मदद करने की कोशिश करेगा और आप पायेंगे कि मैं उससे बेहतरीन काम करवा पाया।
नाटककार मार्क कोनेली ने एक बार ये प्रश्न पूछा था: थियेटर के लिए लिखते समय लेखक का नज़रिया क्या होना चाहिये। क्या ये बौद्धिक हो या फिर भावुक। मैं व्यक्तिगत रूप से सोचता हूं कि नज़रिया मूलत: तो भावुक ही होना चाहिये क्योंकि थियेटर में बौद्धिकता के बजाये रोचकता ज्यादा होती है। थियेटर बना ही इसके लिए होता है। उसका मंच, उसकी यवनिका और उसके लाल परदे, उसका समस्त वास्तुकला का ढांचा, ये सारी बातें भावनाओं को ध्यान में रख कर ही तैयार की जाती हैं। ये स्वाभाविक है कि इनमें बौद्धिकता की हिस्सेदारी रहती है लेकिन ये गौण होती है। चेखव इस बात को जानते थे और मोलियर और अन्य कई नाटककार भी इस बात से वाकिफ थे। वे थियेटरवाद की महत्ता को भी जानते थे जो कि मूलत: नाटक लेखन में कला के रूप में होती है।
मेरे लिए थियेटर कला का अर्थ है ड्रामाई परिपूर्णता। अचानक बोलते हुए रुक जाने की कला; किसी किताब को अचानक बंद कर देना, सिगरेट जलाना, स्टेज के बाहर की गतिविधियां, पिस्तौल से गोली चलना, रोना, गिरना, टकराना, प्रभावशाली ढंग से प्रवेश करना या प्रभावशाली ढंग से स्टेज से जाना, ये सारी बातें सस्ती और स्पष्ट लग सकती हैं लेकिन अगर इनका निर्वाह संवेदनशीलता और विवेक के साथ किया जाये तो ये थियेटर की कविता बन सकती हैं।
थियेटर के भाव के बिना कोई भी विचार कोई भी मूल्य नहीं रखता। ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है प्रभावशाली होना। अगर व्यक्ति में थियेटर की समझ है और उसका भाव उपयोग में लाने की क्षमता है तो वह शून्य को भी प्रभावशाली बना सकता है।
प्रस्तावना या प्रोलॉग के माध्यम से मैं जो कहना चाह रहा हूं उसका एक उदाहरण देता हूं जो मैंने न्यू यार्क में अपनी फिल्म अ वूमेन ऑफ पेरिस में एक डाला था। उस दिनों सभी फिल्मों में प्रस्तावना अनिवार्य रूप से हुआ करती थी और लगभग आधा घंटे तक चलती रहती थी। मेरे पास कोई कहानी या पटकथा नहीं थी लेकिन मुझे एक भावुक कर देने वाले रंगीन प्रिंट की याद थी जिसका शीर्षक था,"बीथोवन का सोनाटा" जिसमें एक कलात्मक स्टूडियो और बोहेमियन लोगों का एक समूह दिखाया गया था जो मूड में अध रौशनी में बैठे हुए हैं और वायलिन वादक को बजाते हुए सुन रहे हैं। इसलिए मैंने इस दृश्य को मंच पर प्रस्तुत कर दिया। और मज़े की बात, इसकी तैयारी के लिए मेरे पास सिर्फ दो ही दिन थे।
मैंने एक पिआनोवादक, एक वायलिनवादक, अपाशे जनजाति के नर्तक और एक गायक को लिया। और इसके बाद मैंने थियेटर की वे सभी तरकीबें आजमायीं जो मैं जानता था। मेहमान दीवानों पर चारों तरफ बैठे या फर्श पर इस तरह से बैठे कि उनकी पीठ दर्शकों की तरफ थी मानो वे दर्शकों की उपेक्षा कर रहे हों। वे स्कॉच पी रहे थे। जिस वक्त वायलिनवादक अपना सोनाटा बजा रहा था, एक शराबी सुरीले ठहराव के साथ खर्राटे भर रहा था। वायलिन वादक के बजा लेने के बाद अपाशे नर्तकों ने नृत्य किया और गायक ने गीत गाया। गीत की केवल दो ही पंक्तियां गायी गयीं।
एक मेहमान ने कहा,"तीन बज रहे हैं। अब हमें चलना चाहिये।" दूसरे ने कहा,"हां, अब हम सब को चलना चाहिये।" और ये शब्द बोलने का अभिनय करते हुए सब के सब चल दिये। जब अंतिम मेहमान भी चला गया तो मेज़बान ने एक सिगरेट जलायी और स्टूडियो की बत्तियां बंद करनी शुरू कीं। तभी हम बाहर गली में उसी गीत के बोल गाये जाते हुए सुनते हैं। जब मंच पर अंधेरा हो जाता है और बीच की खिड़की से आती चांदनी ही रह जाती है तो मेज़बान भी जाता है और गीत के बोल धीमे होते चले जाते हैं। परदा धीरे धीरे नीचे आता है।
इस वाहियात से लगने वाले दृश्य में इतना सन्नाटा था कि आप दर्शकों के बीच सुई गिरने की आवाज़ भी सुन सकते थे। आधे घंटे तक कुछ भी नहीं कहा गया था, कुछ भी नहीं, सिर्फ कुछ सामान्य से लगने वाले मज़ाकिया अभिनय मंच पर किये गये थे। लेकिन आप यकीन करेंगे कि कलाकारों को पहली ही रात दर्शकों की मांग पर नौ बार परदा हटा कर इस दृश्य को करना पड़ा था।
मैं इस बात का दिखावा नहीं कर सकता कि मैं थियेटर में शेक्सपीयर का आनंद लेता हूं। मेरी भावनाएं बहुत ज्यादा समकालिक हैं। इसके लिए एक खास तरह के आडम्बरपूर्ण अभिनय की ज़रूरत होती है जिसे मैं पसंद नहीं करता और जिसमें मेरी रुचि नहीं है। मुझे लगता है कि मैं किसी विद्वान का भाषण सुन रहा हूं।
मेरे प्यारे चंचल परी बच्चे, आओ मेरे पास
जब से मैं बैठा था एक उतुंग शिखर पर
और सुनी थी मत्स्य कन्या की आवाज़
बैठी थी वह पीठ पर डॉल्फिन की
बोलती थी इतने मीठे बोल और लेती थी संगीतमय सांसें
हो गया अक्खड़ समन्दर भी सभ्य गीत सुन कर उसका
और कई तारे गिर गये अपने नीड़ों से
सुनने को सागर कन्या का अद्भुत संगीत।
हो सकता है कि ये बेहद सुंदर पंक्तियां हों लेकिन मैं थियेटर में इस तरह की कविता का आनंद नहीं ले पाता। इसके अलावा, मुझे शेक्सपीयर की थीम ही अच्छी नहीं लगती जिसमें राजे, रानियां, महान व्यक्ति, और उनके सम्मान जनक पद होते हैं। शायद मेरे ही भीतर कोई मनोवैज्ञानिक समस्या होगी। शायद मेरा अजीब सा अहंवाद। अपनी रोज़ी रोटी के चक्कर में सम्मान जैसी बातें मेरे भेजे में कभी आ ही नहीं पायीं। मैं खुद को किसी राजकुमार की समस्याओं के साथ खड़ा हुआ नहीं पाता। हो सकता है कि हैमलेट की मां राज दरबार में हरेक के साथ सोयी हो, लेकिन फिर भी मैं अपने आपको हैमलेट को होने वाली तकलीफ में नि:संग ही पाता हूं।
जहां तक किसी नाटक को प्रस्तुत करने में मेरी पसंद का सवाल है, मैं परम्परागत मंच ही पसंद करता हूं। उसमें यवनिका हो जो दर्शकों को झूठ मूठ की दुनिया से अलग करती है। मैं इस बात का कायल हूं कि परदे के हटने से या ऊपर उठने से ही दृश्य अपने आपको खोले। मैं ऐसे नाटकों को नापसंद करता हूं जो मंच के आगे लगी बत्तियों, फुट लाइट तक चले आते हैं या दर्शकों के साथ हिस्सेदारी करने लगते हैं। जिसमें कोई चरित्र यवनिका के साथ टिक कर खड़ा हो जाता है और नाटक का प्लॉट समझाने लगता है। ये उपदेशात्मक तो लगता ही है, इस तरह की तिकड़मों से थियेटर का आकर्षण चला जाता है। ये तरीका अपने आपको ज़रूरत से ज्यादा दिखाने, एक्पोज़र पाने का बाबा आदम का तरीका है।
जहां तक मंच सज्जा का प्रश्न है, मैं ऐसी सज्जा का कायल हूं जो दृश्य को वास्तविकता दे और कुछ नहीं। अगर ये दिन प्रतिदिन का जीवन दर्शाने वाला कोई आधुनिक नाटक है तो मुझे ज्यामितीय डिजाइन वाले मंच की ज़रूरत नहीं होती। इस तरह के अचरज भरे प्रभाव मेरे झूठ की भावना को ठेस पहुंचाते हैं।
कुछ बहुत ही शानदार कलाकारों ने अपने सजीव प्रवाह को अभिनेता और नाटक, दोनों को ही धराशायी कर देने तक के स्तर तक हावी होने दिया है। दूसरी तरफ, केवल परदे और यहां से वहां की चहल कदमी, मानो अनंत की यात्रा की जा रही हो, भी बेहद खराब अवरोधक होते हैं। वे विद्वता और शोर की बू ही सामने रखते हैं। "हम बहुत कुछ अभिजात्य संवेदनशीलता और कल्पना पर छोड़ देते हैं।" मैंने एक बार लॉरेंस ऑलिवर को शाम की पोशाक में एक लाभार्थ आयोजन में रिचर्ड III में से अंश पढ़ते हुए देखा। हालांकि वे अपनी अभिनय कला की बदौलत मध्यकालिक मूड हासिल कर पाये लेकिन उनकी सफेद टाई और कोट के पीछे लटकता हिस्सा उनकी चुगली खा रहे थे।
किसी ने कहा है कि अभिनय कला आराम करने की, रिलैक्स करने की कला है। बेशक ये मूल सिद्धांत सभी कलाओं पर लागू किया जा सकता है, लेकिन एक अभिनेता में अनिवार्य रूप से अपने आपको रोकने की ताकत और भीतरी संतोष का भाव होना चाहिये। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि दृश्य कितना आवेश भरा है, अभिनेता के भीतर जो तकनीक का जानकार मौजूद रहता है, वह शांत और आराम की मुद्रा में होना चाहिये। वह उसकी भावनाओं के उतार चढ़ाव को संपादित करता चले और उन्हें दिशा देता चले। उसका बाहरी व्यक्तित्व उत्तेजित हो लेकिन भीतरी तौर पर वह नियंत्रण में बना रहे। केवल आराम से रह कर, तनाव मुक्त रह कर ही अभिनेता इसे हासिल कर सकते हैं। लेकिन व्यक्ति आराम से, तनाव मुक्त रहता कैसे है, ये मुश्किल काम होता है। मेरा खुद का तरीका थोड़ा व्यक्तिगत है। मंच पर जाने से पहले मैं हमेशा बहुत अधिक नर्वस और उत्तेजित होता हूं और इसी हालत में मैं इतना थक कर चूर हो जाता हूं कि जिस वक्त मंच पर जाने का वक्त आता है, मैं तनावमुक्त हो चुका होता हूं।
मैं इस बात को नहीं मानता कि अभिनय सिखाया जा सकता है। मैंने देखा है कि बहुत होशियार आदमी इसमें कोई तीर नहीं मार पाते और एकदम भोंदू भी बहुत अच्छा अभिनय कर लेते हैं। लेकिन अभिनय के लिए अनिवार्य रूप से भावनाओं की ज़रूरत होती है। वेनराइट, जो कि सौन्दर्यशास्त्र के विद्वान थे, चार्ल्स लैम्ब और उस वक्त के साहित्यकारों के मित्र थे, एक बेरहम शख्स थे और उन्होंने आर्थिक कारणों से अपने चचेरे भाई को ज़हर दे कर दिन दहाड़े मार दिया था। यहां एक ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति का उदाहरण है जो एक अच्छा अभिनेता नहीं हो सकता था क्योंकि उसमें भावनाएं ही नहीं थीं।
बहुत सारी बुद्धिमता और न के बराबर भावनाएं किसी शातिर अपराधी की विशेषताएं हो सकती हैं, और ढेर सारी भावनाएं तथा जरा सी बुद्धि का मतलब होता है नुक्सान न पहुंचाने वाला मूरख। लेकिन जब बुद्धिमानी और भावनाओं का सही अनुपात में संतुलन होता है तो हमें एक उत्कृष्ट अभिनेता के दर्शन होते हैं।
किसी महान अभिनेता का मूल अनिवार्य तत्व यह होता है कि वह अभिनय करते समय स्वयं को प्यार करे। मैं इसे अपमानजनक तरीके से नहीं कह रहा हूं। कई बार मैंने अभिनेताओं को ये कहते सुना है,"मुझे ये भूमिका करना कितना अच्छा लगता!" इसका मतलब यही हुआ न कि वह अपने आपको उस भूमिका में कितना पसंद करता। ये बात अहंकेन्द्रित हो सकती है लेकिन महान अभिनेता मुख्य रूप से अपनी खुद की नेकी से ही घिरा होता है। द बैल्स में इर्विंग, सेवांगाली के रूप में ट्री, ए सिगरेट मेकर्स रोमांस में मार्टिन हार्वे, ये तीनों बेहद साधारण नाटक थे लेकिन बहुत अच्छी भूमिकाएं थीं। थियेटर से पागलपन की हद तक प्यार करना ही काफी नहीं होता। अपने आप के प्रति प्यार और अपने आप पर भरोसा भी उतना ही ज़रूरी होते हैं।
अभिनय को पाठ की तरह सिखाने वाले सम्प्रदाय के बारे में मैं बहुत कम जानता हूं। मैं यह समझता हूं कि ये व्यक्तित्व के विकास की ओर ध्यान देता है। ये कुछ अभिनेताओं में अलग अलग भी हो सकता है और इसे बहुत कम विकसित किया जा सकता है। आखिर अभिनय क्या होता है? यही जतलाना न कि हम दूसरे व्यक्ति हैं। व्यक्तित्व एक ऐसा अपरिभाषेय तत्व है जो किसी भी तरह से प्रदर्शन से निखरता ही है। लेकिन कुछ ऐसी बात होती है जो सभी विधियों में होती है। उदाहरण के लिए, स्तानिस्लावस्की 'भीतरी सत्य' की तलाश पर ज़ोर देते थे जो कि मेरे ख्याल से होता है वह "होना" न कि "उसका अभिनय" करना। इसके लिए अनुभूति की, चीजों के लिए भावना की आवश्यकता होती है। व्यक्ति में ये महसूस करने की क्षमता होनी ही चाहिये कि शेर होना या गिद्ध होना कैसा होता है। ये किसी चरित्र की आत्मा को भीतर से महसूस करना, सभी परिस्थितियों में यह जानना कि उसकी प्रतिक्रियाएं क्या होंगी, होता है। अभिनय के इस हिस्से को सिखाया नहीं जा सकता।
किसी सच्चे अभिनेता या अभिनेत्री को किसी चरित्र के बारे में बताते हुए अक्सर एक शब्द या जुमला कहा जाता है, ये फलां ऐतिहासिक व्यक्ति की तरह है या ये आधुनिक मादाम बोवेरी है। ये कहा जाता है कि जेड हैरिस ने किसी अभिनेत्री से कह दिया था,"इस चरित्र में लहराते ब्लैक ट्युलिप फूल की सी चपलता है।" ये कुछ ज्यादा ही हो गया।
ये सिद्धांत कि व्यक्ति को चरित्र की जीवन कहानी का अवश्य ही पता होना चाहिये, बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं है। कोई भी व्यक्ति न तो किसी नाटक में ऐसा लिख ही सकता है और न ही उन शानदार अर्थ छवियों को अभिनीत ही कर सकता है जो ड्यूस ने अपने दर्शकों के सामने प्रस्तुत कीं। वे सब कुछ लेखक की संकल्पना से मीलों दूर रहे होंगे। और जहां तक मैं समझता हूं कि ड्यूस बौद्धिक वर्ग से नहीं थे।
मैं नाटक सिखाने वाले ऐसे स्कूलों से नफ़रत करता हूं जो सही संवेदनाएं जगाने के लिए वाचिक आलोचना और स्व मूल्यांकन में व्यस्त हो जाते हैं। ये सीधा सादा तथ्य कि किसी विद्यार्थी का अनिवार्य रूप से मानसिक आपरेशन किया जाये, अपने आप में इस बात का सबूत है कि उसे अभिनय छोड़ देना चाहिये।
जहां तक बहु चर्चित तत्वमिमांसा संबंधी शब्द "सत्य" का प्रश्न है, इसके अलग अलग रूप हैं और एक सत्य उतना ही अच्छा होता है जितना दूसरी तरह का सत्य होता है। फ्रैंच कॉमेडी में कोई परम्परागत अभिनय उतना ही विश्वसनीय होता है जितना इब्सन के किसी नाटक में तथाकथित यथार्थवादी अभिनय। दोनों ही कृत्रिमता के दायरे में आते हैं और दोनों का ही प्रयोजन सत्य का आभास कराना है। आखिरकार सत्य कैसा भी हो, उसमें असत्यता के बीज होते ही हैं।
मैंने कभी भी अभिनय का अध्ययन नहीं किया है लेकिन लड़कपन में ये मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे कई महान अभिनेताओं के युग में रहने का मौका मिला और मैंने उनके ज्ञान और अनुभव के विस्तार को हासिल किया। हालांकि मुझे अभिनय ईश्वरीय देन की तरह मिला है, रिहर्सलों में मैं ये देख कर हैरान होता था कि मुझे तकनीक के बारे में कितना कुछ सीखने की ज़रूरत है। ऐसे शुरुआती अभिनेता, जिसके पास मेधा हो, को भी तकनीकें पढ़ायी जानी चाहिये क्योंकि भले ही कितनी ही महान उसमें ईश्वरीय देन हो, उसमें ये कौशल होना ही चाहिये कि उन्हें किस तरह से प्रभावशाली बनाये।
मैंने पाया है कि दिशा-बोध, ओरिएन्टेशन इस कला को हासिल करने का सबसे महत्त्वपूर्ण तरीका है। इसका मतलब ये हुआ कि जितनी देर के लिए भी आप मंच पर हैं, ये जानना कि आप कहां हैं और आप क्या कर रहे हैं। किसी दृश्य में चलते समय आप में ये जानने का अधिकार होना ही चाहिये कि कहां रुकना है, कब मुड़ना है, कहां खड़ा होना है, कब और कहां बैठना है, किस चरित्र से सीधे बात करनी है या परोक्ष रूप से। दिशा-बोध से आपको ताकत मिलती है और इसके साथ किसी व्यावसायिक और शौकिया अभिनेता में फर्क किया जा सकता है। मैंने अपनी फिल्मों का निर्देशन करते समय अपने कलाकारों के साथ हमेशा दिशा बोध के इसी तरीके पर ज़ोर दिया है।
अभिनय करते समय मैं बारीकी तथा अपने आपको रोकना, आत्म नियंत्रण पसंद करता हूं। बेशक जॉन ड्रियू में ये खासियत थी। वे सुदर्शन थे, मज़ाकिया थे, परिष्कृत थे और उनमें गज़ब का आकर्षण था। भावुक होना आसान होता है और इस बात की हरेक अभिनेता से उम्मीद की जाती है, और निश्चित ही, उच्चारण और आवाज़ तो ज़रूरी होते ही हैं। हालांकि डेविड वारफील्ड शानदार आवाज़ के मालिक थे, और उनमें भावनाओं को अभिव्यक्त करने की योग्यता थी, फिर भी सामने वाले को लगता था कि जो भी वे कहते थे, उनके अंतिम आदेशों की तरह होते थे।
मुझसे अक्सर पूछा जाता है कि अमेरिकी मंच पर मेरे प्रिय अभिनेता और अभिनेत्रियां कौन थे। इस प्रश्न का उत्तर देना ज़रा मुश्किल है। क्योंकि अपनी पसंद गिनाने का मतलब ये हुआ कि बाकी लोग कमतर थे। जबकि ऐसी बात नहीं है। मेरे प्रिय अभिनेताओं में सभी के सभी गम्भीर लोग नहीं थे। उसमें से कुछ कॉमेडियन थे और कुछ तो मनोरंजन करने वाले, इंटरटेनर भी थे।
मिसाल के तौर पर, अल जॉन, जादू और जोश लिये महान जन्मजात कलाकार थे। वे अमेरिकी मंच पर सर्वाधिक प्रभावशाली मनोरंजन करने वाले माने जाते थे। उनका चेहरा चारणों की तरह सांवला था और वे भारी आवाज में मध्यम सुर में गाते थे। वे जाने पहचाने चालू लतीफे सुनाते, और भावुक गीत गाते। वे जो भी गाते, वे आपको अपने स्तर के हिसाब से ऊपर या नीचे ले आते थे। यहां तक कि उनका वाहियात गाना मैम्मी सभी को रोमांचित कर जाता। फिल्मों में उनके स्व की, व्यक्तित्व की छाया मात्र ही आ पायी थी, लेकिन 1918 में वे अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर थे और श्रोताओं में बिजली सी भर देते। अपनी लचीली काया, बड़े से सिर और गहरी आंखों के साथ उनमें एक अजीब सी अपील थी। जब वे मेरे कंधे के पीछे है इंद्रधनुष (देयर इज़ रेन्बो राउंड माय शोल्डर) और मैं छोड़ता हूं जब अपने पीछे जग (व्हैन आय लीव द वर्ल्ड बिहाइंड) जैसे गाने गाते तो श्रोताओं को अपनी पवित्र ताकत से ऊपर उठा देते। उन्होंने ब्रॉडवे की कविता का, उसकी ऊर्जा का और उसकी अश्लीलता का, उसके लक्ष्यों का और उसके सपनों का मानवीकरण कर दिया था।
एक और शानदार कलाकार, डच कॉमेडियन सैम बरनार्ड सब कुछ के बारे में नाराज़ रहा करते थे। "अंडे!, साठ सेंट में एक दर्जन - और सड़े हुए अंडे! और नमक मिले गोमांस की कीमत! आप दो डॉलर अदा करते हैं। दो डॉलर ज़रा से गोमांस के लिए! यहां पर वे मांस के छोटे होने के बारे में अभिनय करके बताते, मानो सुई में धागा डाल रहे हों, और फिर वे फट पड़ते, मैत्री भाव से विरोध करते हुए और अपने आपको चारों दिशाओं में फेंकते हुए: "मुझे वह वक्त भी याद है जब आप दो डॉलर का नमकीन गो मांस उठा कर घर नहीं ला सकते थे!"
स्टेज से बाहर वे दार्शनिक थे। जिस वक्त फोर्ड स्टर्लिंग उनके पास रोते हुए गये और ये बताने लगे कि उनकी बीवी उन पर डबल क्रॉस कर रही है तो सैम ने कहा,"तो क्या हुआ, लोगों ने नेपालियन को भी डबल क्रॉस किया था!"
फ्रैंक टिने को मैंने तब देखा था जब मैं पहली बार न्यू यार्क आया था। वे विंटर गार्डन थियेटर के खास पसंदीदा अभिनेता थे और श्रोताओं से उनकी गहरी आत्मीयता थी। वे फुटलाइट पर झुकते और फुसफुसाते,"प्रमुख नायिका एक तरह से मुझ पर फिदा है।" तब वे सतर्क हो कर स्टेज से परे देखते कि कोई सुन तो नहीं रहा है। तब वे वापिस श्रोताओं की तरफ मुड़ते और उन्हें भेदभरी आवाज़ में बताते,"ये दुखद मामला है; जब वह आज मंच के दरवाजे से आ रही थी तो मैंने कहा,'गुड ईवनिंग,' लेकिन वह तो मुझ पर इतनी फिदा है कि जवाब ही नहीं दे सकी।"
ठीक इसी वक्त प्रमुख नायिका मंच पर एक तरफ से दूसरी तरफ जाती है। और टिने तुरंत अपने होठों पर उंगली रख देते हैं, श्रोताओं को चेताते हुए कि वे उन्हें धोखा न दें, खुश हो कर वह नायिका से कहते हैं: "हाय कैसी हो?" वह मुंह बिचका कर मुड़ती है और हड़बड़ी में स्टेज से लपक कर वापिस चली जाती है, और उसकी कंघी गिर जाती है।
तब वे श्रोताओं को फुसफुसा कर बताते हैं: "मैंने क्या कहा था? लेकिन निजी रूप से हम ऐसे ही हैं।" तब वे अपनी दो उंगलियां मोड़ते हैं और कंघी उठाते हैं। तब वे मैनेजर को बुलाते हैं: "हैरी, ज़रा इसे हमारे ड्रेसिंग रूम में तो रखवा दो!"
मैंने दोबारा उन्हें मंच पर कुछ बरस बाद देखा था और उन्हें देख कर मुझे धक्का लगा था। उनकी मज़ाकिया काव्य प्रतिभा ने उनका साथ छोड़ दिया था। वे इतने आत्म सजग थे कि मैं इस बात पर विश्वास ही न कर सका कि वे वही व्यक्ति थे। उनमें ये बदलाव देख कर ही मुझे कई बरसों के बाद अपनी फिल्म लाइमलाइट के लिए विचार आया था। मैं ये जानना चाहता था कि आखिर वे अपनी मूल भावना और आश्वसित क्यों खो बैठे थे। लाइमलाइट में मामला उम्र का था। काल्वेरो बूढ़ा और अंतर्मुखी हो जाता है और उसमें आत्म सम्मान की भावना घर कर जाती है। और इसी बात ने उन्हें श्रोताओं के साथ उनकी सारी आत्मीयता से वंचित कर दिया था।
जिन अमेरिकी अभिनेत्रियों की मैं सर्वाधिक प्रशंसा करता था, उनमें शोख, मज़ाकिया और विदुशी, मिसेज़ फिस्के, और उनकी भतीजी एमिली स्टीवेंस थीं। एमिली शैली और स्पर्श के हल्केपन वाली बेहतरीन अदाकारा थी। जेन कॉल में आगे बढ़ने की प्रतिभा और सघनता थी और मिसेज़ लेस्ली में भी बांध लेने की उतनी ही क्षमता थी। कॉमेडियनों में मुझे ट्रिक्सी फ्रिगांजा अच्छी लगती थीं और हां, फानी ब्राइस, जिनमें स्वांग भरने की महान मेधा के साथ साथ अभिनय की भावना का अद्भुत मेल था। हम अंग्रेजों की चार महान अभिनेत्रियां रही हैं: ऐलन टेरी, एडा रीव, इरीन वेनब्रूह, सिबिल थॉर्नडाइक और समझदार मिसेज़ पैट कैम्पबेल। इनमें से पैट को छोड़ कर बाकी सबको मैंने देखा था।
जॉन बेरीमोर एक अकेले ऐसे अभिनेता थे जो थियेटर की परम्परा के सच्चे वाहक थे लेकिन एक बात उन्हें खा गयी कि वे अपनी दक्षता को अश्लीलता की हद तक उतार लाये थे। एक ऐसी उदासीनता की भावना जो सारी चीजों को एक ही तरह से लेती है। चाहे ये हैमलेट का अभिनय हो या किसी डचेज के साथ सोने का मामला हो, उनके लिए ये सब मज़ाक की तरह था।
जेने फावलर द्वारा लिखी गयी उनकी जीवनी में उनके बारे में एक किस्सा है कि खतरनाक हद तक शैम्पेन भीतर उतार लेने के बाद उन्हें गरम बिस्तर से बाहर खींचा जाता है और हैमलेट का अभिनय करने के लिए मंच पर धकेल दिया जाता है। उन्होंने ये भूमिका बीच बीच में विंग्स में जा कर उल्टियां करने और शराब पी कर ही ताकत जुटाने के बीच निभायी। अंग्रेजी समीक्षक उस रात उनके अभिनय की अपने काल के सर्वश्रेष्ठ हैमलेट के रूप में तारीफ करने वाले थे। इस तरह के वाहियात किस्से से हरेक की बुद्धिमता का अपमान होता है।
मैं पहली बार जब उनसे मिला था तो वे अपनी सफलता के शिखर पर थे। वे उस वक्त युनाइटेड आर्टिस्ट्स बिल्डिंग के एक दफ्तर में ध्यानावस्था में बैठे हुए थे। एक दूसरे के साथ परिचय कराये जाने के बाद जब हम दोनों अकेले रहे गये तो मैंने हैमलेट के रूप में उनकी जीत के बारे में बात करना शुरू कर दिया। मैंने कहा कि शेक्सपीयर के किसी भी अन्य चरित्र की तुलना में हैमलेट अपनी स्वयं की जवाबदेही अधिक देता है।
वे एक पल के लिए मज़ाक के मूड में आ गये,"हालांकि राजा की भूमिका भी खराब नहीं है, लेकिन दरअसल मैं हेमलेट को पसंद करता हूं।"
मुझे ये अजीब-सा लगा और मैं हैरानी से सोचने लगा कि वे कितने ईमानदार हैं। अगर वे कम असफल होते और ज्यादा सरल होते तो वे बूथ, इर्विंग, मैन्सफील्ड और ट्री जैसे महान अभिनेताओं की परम्परा में आते। लेकिन उन सबमें पवित्र भावना और संवदेनशील नज़रिया थे। जैक के साथ तकलीफ यह रही कि उनका अपने बारे में कैशोर्य, रूमानी अहसास था और जैसे कि जीनियस आत्मघाती होते चले जाते हैं, उन्होंने अंतत: अश्लील तरीके अपना लिये। उन्होंने शराब पी पी कर अपने आपको खत्म कर डाला था।
हालांकि द किड फिल्म सफलता के झंडे गाड़ रही थी, मेरी समस्याएं अभी भी खत्म नहीं हुई थीं। मुझे अभी भी फर्स्ट नेशनल को चार फिल्में बना कर और देनी थीं। चरम हताशा के आलम में मैं इस उम्मीद में फिल्म की प्रापर्टी रखने वाले कमरे में चक्कर काटता रहता कि शायद किसी पुरानी प्रापर्टी, पुराने सेटों के काठ कबाड़, जेल का दरवाजा, कोई पिआनो या कोई मुड़ा तुड़ा टुकड़ा ही सही, को देख कर मुझे कोई विचार सूझ जाये। मेरी निगाह गोल्फ के क्लबों के एक पुराने सेट पर पड़ गयी। काम बन गया। ट्रैम्प गोल्फ खेलता है: द आइडल क्लास।
प्लॉट बहुत सीधा सादा था। ट्रैम्प जो है अमीरों के सभी चोंचलों में अपनी टांग अड़ाता रहता है। वह गरम मौसम के चक्कर में पश्चिम की तरफ जाता है लेकिन ट्रेन के भीतर यात्रा करने के बजाये ट्रेन के नीचे यात्रा करता है। उसे गोल्फ क्लब में पड़ी हुई गेंदें मिल जाती हैं और वह उनसे गोल्फ खेलना शुरू कर देता है। एक फैन्सी ड्रेस आयोजन में वह ट्रैम्प की सज धज में अमीरों में जा मिलता है और वहां पर वह एक खूबसूरत ल़ड़की से नैन लड़ा बैठता है। एक रोमांटिक हादसे के बाद वह गुस्साये मेहमानों से जान छुड़ा कर भागता है और एक बार फिर अपनी राह पर होता है।
एक दृश्य के दौरान एक मशाल की वजह से मेरे साथ एक छोटी-सी दुर्घटना हो गयी। उसकी गर्मी मेरी एसबेस्टॉस की पैंट के भीतर चली आयी। इसलिए हमने एस्बेसटॉस की एक और परत लगायी। कार्ल रौबिनसन ने इसमें प्रचार की गुंजाइश देखी और ये कहानी प्रेस को दे दी। उस शाम मैं ये अखबारों में ये हैडलाइनें पढ़ कर दंग रह गया कि मेरा चेहरा, हाथ और शरीर बुरी तरह से जल गये हैं। सैकड़ों की संख्या में पत्र, तार, और टेलीफोन स्टूडियो में आ गये। मैंने इसका खंडन पत्र जारी किया लेकिन उसे कुछ ही अखबारों ने छापा। इसका परिणाम ये हुआ कि मुझे एच जी वेल्स से इस आशय का एक खत मिला कि उन्हें मेरी दुर्घटना के बारे में पढ़ कर गहरा धक्का लगा है। उन्होंने यहां तक लिख डाला कि वे मेरे काम के कितने बड़े प्रशंसक हैं और ये कितनी अफसोस की बात होगी अगर मैं आगे काम करने लायक न रहूं।
मैंने उन्हें सच्चाई बयान करते हुए तत्काल वापसी तार भेजा।
द आइडल क्लास के पूरी हो जाने पर मैं दो रील की एक और फिल्म बनाना चाहता था और नलसाजों के शानदार धंधे पर एक प्रहसन करना चाहता था। पहले सीन में दिखाया जाता कि वे शोफर द्वारा चलायी जा रही लिमोजिन कार से नीचे उतरते हैं। नीचे उतरने वालों में मैं और मैक स्वैन होते। घर की मालकिन एडना पुर्विएंस हमारी खूब खातिर तवज्जो करती है और हमारे साथ शराब पी लेने और खाना खा लेने के बाद वह हमें बाथरूम दिखाती है जहां मैं स्टेथस्कोप के साथ तुरंत काम पर लग जाता हूं। मैं स्टेथस्कोप जमीन पर लगा कर देखता हूं, पाइपों की आवाज़ सुनता हूं और उन्हें वैसे ही ठकठकाता हूं जिस तरह से डॉक्टर मरीजों को ठकठकाता है।
मैं यहीं तक सोच पाया था। इससे आगे मैं ध्यान केन्द्रित ही नहीं कर पाया। मैं इस बात को महसूस ही नहीं कर पाया था कि मैं कितना थका हुआ हूं। इसके अलावा, पिछले दो महीनों से मेरे मन में लंदन जाने की न दबायी जा सकने वाली चाह जोर मार रही थी। मैंने इसके बारे में एक सपना देखा था। और एच जी वेल्स साहब का पत्र आग में घी का काम कर रहा था। इसके अलावा, दस बरस बाद मुझे हेट्टी केली से एक पत्र मिला था जिसमें उसने लिखा था: "क्या मुझे अभी भी उस मूरख लड़की की याद है. . .?" अब उसकी शादी हो गयी थी और वह पोर्टमैन स्क्वायर में रह रही थी। और कि कभी मैं लंदन आऊं तो क्या मैं उससे मिलने आऊंगा। पत्र में कोई सुर नहीं थे और इससे जरा-सी भी संवेदनाएं फिर से जगाने की गुंजाइश नहीं थी। आखिरकार, इस बीच दस बरस का अरसा बीत चुका था और मैं इस बीच कई बार प्यार के भीतर और बाहर हो चुका था। अलबत्ता, मैं उससे ज़रूर मिलना चाहूंगा।
मैंने टॉम से कहा कि मैरा सामान पैक करे और रीव्ज़ से कहा कि वह स्टूडियो बंद करे और कम्पनी को छुट्टी दे दे। मैं इंगलैंड जाना चाहता था।
§ कार्ल लीबनेख्त का जन्म अगस्त 1871 में और मृत्यु जनवरी 1919 में हुई। वे फ्रेडरिक एबर्ट की सरकार के खिलाफ तथाकथित जर्मन क्रांति के नेतृत्व के कारण रातों रात प्रसिद्ध हो गये थे। अनु.
§ लगभग सौ बरस से न्यू यार्क में 14वीं स्ट्रीट के नीचे की तरफ और ब्रॉडवे के पश्चिम की तरफ का ये छोटा सा इलाका रचनात्मक, विद्रोही और बोहेमियन वर्ग का मक्का मदीना माना जाता रहा है। अब ये इलाका इतना महंगा हो चुका है कि इस वर्ग का कोई कलाकार वहां रहने के बारे में सोच भी नहीं सकता, अलबत्ता, वहां की फिजां में अभी भी उन पुराने दिनों की गूंज बाकी है। अनु.
§ प्राविंसटाउन प्लेयर्स, एक अमेरिकी थियेटर कम्पनी जिसने सबसे पहले 1916 में नाटककार यूजीन ओ'नील ने नाटक खेले। बाद में वे लोग न्यू यार्क में ग्रिनविच विलेज के साथ मिल कर नाटक खेलते थे। अनु.
§ इंडस्ट्रियल वर्कर्स ऑफ द वर्ल्ड संस्था
§ चैरेड्स मूक अभिनय का खेल होता है। इसमें जिस खिलाड़ी का नम्बर आता है, उसे बिना बोले उस अभिव्यक्ति का अभिनय करके दिखाना होता है और तब आपकी टीम के बाकी सदस्य इस बात का अंदाजा लगाते हैं कि आपने कौन सी अथिभव्यक्ति या वाक्यांश सोचा था। लक्ष्य यहीहोता है कि अपनी टीम के लिए यथाशीघ्र उसका वाक्यांश का अर्थ निकाला जाये। उन दिनों अमेरिका में छोटे बड़े, सभी लोगों में अत्यंत लोकप्रिय खेल। अनु.
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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