व्यंग्य विधि का विधान- ‘ प्रारब्ध ’, एटसेट्रा... -- अनुज खरे एक परंपरागत आम भारतीय की कुछ खासियतों की तरफ ध्यान ही नहीं गया होगा आप...
व्यंग्य
विधि का विधान-‘प्रारब्ध’, एटसेट्रा...
-- अनुज खरे
एक परंपरागत आम भारतीय की कुछ खासियतों की तरफ ध्यान ही नहीं गया होगा आपका। जहां जरा दुखती रग पर हाथ रखो, जरा दर्द कुरेदो, देवदासमुखी स्टाइल में शुरू हो जाएंगे। शुरू भी क्या होंगे, कर्मफल, विधि का विधान, ‘प्रारब्ध’ आदि-आदि को बीच में लाकर ऐसे-ऐसे टल्ले देंगे कि आपको लगेगा कि आदमी तो जबर्दस्त कैलीबर का है, बस जरा उपरोक्त चीजों के चलते ‘प्रतिभा’ नहीं दिखा पा रहा है। हमारी खासियत ही ये है कि दर्द-दुख-गम-असफलता आदि के अधिकांश ‘कारणों’ को दुनियोबर व्यवस्थाओं के हवाले करते जाएंगे। हालांकि लोग भी क्या करें सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह विचार विरासत की तरह सौंपा जा रहा है। हालांकि कोई सफलता मिली नहीं कि एकदम से आंतरिक गुण दिखाई देने लगेंगे, नम्रतापूर्वक बड़प्पन सहित उसका क्रेडिट लेने लगेंगे। खैर, फिलहाल तो हम बात कर रहे हैं कैलीबर न दिखा पाने के कारणों की।
अब जैसे ‘क’ की ‘ख’ से बातचीत ही लें।
‘‘ ये क्या हाल बना रखा है चाचा’’ ‘क’ ने पूछा नहीं कि ‘ख’ शुरू -‘‘क्या बताऊं बेटा, विधि का विधान है, भुगत रहे हैं, जाने क्या कर्म करे थे, ऐसे दिन विधाता किसी को न दिखाए’’।
‘क’- चाचा ऐसा क्यों कह रहे हो, बेटा देखो कितना काबिल हो गया है, पढ-लिख गया है, तुम्हारा भार हल्का कर देगा।’’
‘ख’- ‘‘कमीना है कमीना’’, काहे का भार हल्का करेगा, खुद ही बोझ है, ईश्वर न जाने किन जन्मों के पापों की सजा दे रहा है, फिर दुख में अतिरिक्त साउंड ट्रैक भी मिलाएंगे। ‘‘हे! ईश्वर’’ सिम्पैथी अपने अतिरिक्त किसी के पक्ष में गवारा ही नहीं करते ऐसे प्राणी।
‘क’- ‘‘अरे चाचा सब ठीक हो जाएगा, बस तुम हिम्मत रखो, हां बडी बिटिया की शादी का क्या हुआ।’’
‘ख’- ‘‘ क्या बताऊं बेटा, इतनी नन्हीं सी तो बिटिया है, जो भी देखने आता है, दहेज के लिए मुंह फाड देता है, समझ नहीं आता। कहां से, कैसे व्यवस्था करूं। विधाता भी न जाने क्या-क्या दिन दिखा रहा है।’’
अब कौन इन्हें समझाए कि नन्हीं सी बिटिया है तो क्यों बाल-विवाह कर अंदर जाना चाहते हो।
फिर भी हर दुख के साथ एक टेक जरूर मारेंगे, दर्दोन्मुखी मुंह बनाकर एक अतिरिक्त दुखिया एनवायरमेंट क्रिएट कर देंगे।
‘क’- ‘‘नहीं चाचा, सब हो जाएगा। तुम धीरज तो रखो।’’
‘ख’- ‘‘अब क्या धीरज बेटा, जो ‘प्रारब्ध’ में लिखा हो।’’
इतनी ईमानदारी से तो नौकरी करता हूं, बाकी बेइमानों को देखो कितना आगे बढ गए, ईमानदारी से नौकरी की है, इज्जत कमाई है, वहीं पड़े हैं।’’ जाने क्या होगा...ब्’’
(फिर वही बात कौन समझाए कि तू इज्जत कमाने में बिजी रहा। साथ वाले नोट कमाते गए। काहे किलप रहा है?)
एक बात तो गजब रहेगी ऐसी रोतीली बातों के साथ आवाज की ऐसी-ऐसी -‘भयानक’ मिक्संग डालेंगे कि सामने वाला आदमी हिम्मती न हो तो वहीं पसर कर दहाडें मारने लगे। ईमानदारी-ईमानदारी की बार-बार तड़ी देंगे। काम नहीं करेंगे बस ईमानदारी-ईमानदारी का स्टेन्जा घुमा-घुमाकर ठोंकेंगे। अब इन्हें कौन समझाए कि भइये तू तो सिर्फ ईमानदार ही रहा काम तो किया नहीं। सामने वाले काम करते-करते खुद का, दूसरों का भला करते-करते काबिल बन गए। तू तो ईमानदारी गले में लटकाकर ऑफिस में घुसा, डर के मारे सीट पर बैठ गया, न किसी काम में हिम्मत दिखाई, न आगे बढ़कर कोई काम किया, न साहब को दबंगता से कोई चीज समझाई। सामने वालों ने ऐसा कुछ किया तो तत्काल उन्हें बेईमान घोषित कर, ईमानदारी के खोल में घुस कर दुखिया घोंघे बने पडे रहे। फिर सामने वाले ने कोई सफलता पाई नहीं कि दुनियोबर व्यवस्था को बीच में लाकर कोसने की महफिल जमा ली। कोई आया नहीं, श्रोता दिखा नहीं कि बात घुमा-घुमा कर बातें अपने दर्द-दुख-जख्मों की तरफ लाएंगे, ताकि प्रिय ट्रेक पर वही दर्द भरी शहनाई वादन सुना सकें। हर चीज में ऊपर वाले का कसूर ढूंढेंगे। अभ्यास भी इतना तगड़ा कर लेंगे पट्ठे कि ऐसा जतलाएंगे जैसे ईश्वर हर दुख को असफलता के पीछे कर्म-प्रारब्ध्य-विधान आदि को यथास्थान फिट करने में करते हैं। उसकी हर सफलता के पीछे तिकड़म है, साबित कर ही देंगे। अपनी हर असफलता के पीछे पिछले जन्म के कर्म, ईमानदारी, अच्छाई आदि पूर्वजन्मीय व्यवस्थाओं- सद्गुणों का ‘हाथ’ बताएंगे। खुद भले ही सालों तक एक ही जगह पर अटके रहें, सामने वाले के हर प्रमोशन में, ऊपर उठते जाने में उसके गिरे हुए तरीकों का राजफाश करने में ही अपना कर्तव्य निर्वहन मानेंगे।
लगातार प्रयासों से ये प्रमोशन-डिमोशन-एजइटिज्म का नितांत मौलिक मैनेजमेंट मॉडल ही तैयार कर लेते हैं, जिसे गाहे-बगाहे हर स्थिति में फिट करने के लिए मामूली से रद्दो-बदल की ही जरूरत पड़ती है। फिर लगातार इस मॉडल की संशोधित-परिवर्तित जानकारी दे-देकर एक विश्लेषक के रूप में ‘प्रखर-मेधा’ के धनी जैसा तंबू भी तान लेंगे, ताकि नवोदितों को इसके तले लाया जा सके। इन सब मामलों में तो मेहनत में कोई कमी ही नहीं छोड़ते पट्ठे। जरा भी सहन नहीं कि पूरी सृष्टि की व्यवस्था भेदभाव रहित संतुलित है। मान के ही चलते हैं कलियुग है, कौव्वों को खीर पीना ही है, हंस तो साले घूरे से ही खाने का जुगाड़ करते फिरेंगे। जहां रहेंगे, वहां के वातावरण में अदृश्य प्रभाव छोड़कर ही रहेंगे। संख्याबल में भले ही कम हो, लेकिन अतिशीघ्र अपने जैसों की पूरी श्रृंखला का वैचारिक उत्पादन कर देते हैं। ये उत्पादन भी चैन रिएक्शन की प्रक्रिया अपना द्विगुणित-त्रिगुण बढ़ता ही चला जाता है। बेचारगी का बहुमत बढ़ता है, तो हर दूसरा-तीसरा चेहरा सताया हुआ सा, हर पांचवीं-आठवीं शक्ल दुखियारी दिखने लगती है। इसी प्रक्रिया का ही तो प्रतिफल है कि दुनिया दुख की खान... रे मनवा दुनिया दुख की खान... जैसी बातें संसार में आकर माहौल कैप्चर करने लगती हैं, दुखियारों का एक मार्केट निर्मित होने लगता है। फिर ये लोग निरंतर अपने स्वांतः दुखाय पर चिंतन-मनन-संभाषण आदि देते-देते एक दिन दुनियाभर को इन्हीं से मुक्त दिलाने के बिजनेस में संलग्न हो जाते हैं। ऑफ्टर-ऑल यू नो इट्स अ लांग एक्सपीरियंस ऑफ ‘देखा-समझा-भोगा-यथार्थ’ विच कन्वर्ट इन ए मिशन फॉर पीस फॉर मैन काइंड। इसलिए भविष्य में याद रखें, मॉडर्न एज में दुख-दर्द-प्रारब्ध में भी ‘एटसेट्रा... एटसेट्रा...एक्सट्रा’ की भरपूर गुंजाइश है।
इति।
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ए मिशन फॉर पीस फॉर मैन काइंड--हा हा!! बहुत मजेदार!!बेहतरीन..आभार.
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