मैल धुले मन के... रंगी श्याम... -- अनुज खरे पं. जसराज की मधुर आवाज फिजां में गूंज रही थी पिया मोहे अंग लगई लो... पिया मोहे अंग...
मैल धुले मन के... रंगी श्याम...
-- अनुज खरे
पं. जसराज की मधुर आवाज फिजां में गूंज रही थी पिया मोहे अंग लगई लो... पिया मोहे अंग लगई लो.... टेप के सामने बैठे ठाकुर साब का सिर भी उसी रिद्म में ताल दे रहा था, आंखे मिंची-मिंची जा रही थी, मुट्ठियां भिंची-भिंची जा रही थीं। थानेदारी से रिटायरमेंट के बाद उनका ये शौक खासा उबालें मारने लगा था। पूरे जीवन में उन्हें किसी की तबियत से ठुकाई करने और जमकर क्लासिकल संगीत सुनने में जितने आनंद की अनुभूति होती थी उसकी तुलना तो बकौल रिटायर्ड हवलदार लपटन छोटे ‘हर केस में धारा 3॰2, 376, 12॰, 42॰ आदि की गुंजाइश की तन्मयता के तलाश से ही की जा सकती है’’ हालांकि ठाकुर सा’ब प्रायोरिटी के तौर पर संगीत-साधना, पिटाई की कामना, सुविधाशुल्क की भावना को क्रमानुसार समायोजित करते थे, जिसे वे परिस्थिति व जगह की सुविधानुसार ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर के क्रम में व्यवस्थित करते रहते थे। ‘’
...तो फिलहाल वे संगीत सुन रहे थे। घरवाले और मोहल्ले वासियों का मानना था कि वे किसी को तडपाने और ‘टार्चर’ करने की अपनी प्रैक्टिस को नियमित जारी रखने की भावना के अंतर्गत इस महफिल का आयोजन करते रहते हैं। बल्कि कई शातिरों का तो मानना था कि दालान में डेरा जमाए बैठे ठाकुर सा’ब दूर से आने-जाने वाले के आधार पर ‘टार्चर’ की वांछित ‘डिग्री’ का कैसिट लगाकर वॉल्यूम के ट्रेगर को दबाते हैं। आरोपी के नजदीक आते ही उसे जबर्दस्ती रोककर पास वाली खटिया पर बिठा लेते ह। फिर जब तक दो-तीन ‘डिग्रियों’, उनका वांछित प्रभाव, उससे सामने वाले के चेहरे पर उभरी पीड़ा की लकीरें, ‘अपने जमाने’ के किस्सों का आर्तनाद इन सबका मिलाजुला प्रभाव उसके चेहरे पर हर कोण से देख नहीं लेते है। उसका छूट पाना असंभव ही था।
...तो बकौल इन शातिरों के ठाकुर सा’ब सेडिस्ट थे, परपीडक जो रिटायरमेंट के बाद भी पेंशन की एवज में अपनी नकरी बामुलाहिजा बजा रहे थे। पैर में लगी किसी गोली के कारण लंगडते रहने के चलते दूर-दूर तक ‘शिकार’ खोजने नहीं जा पाते थे, सो नजदीकी निरीह लोगों पर ही जुल्म ढा रहे थे। बल्कि कुछ अतिरिक्त शातिरों का तो मानना था कि एसपी न बन पाने के मलाल के कारण वे आज भी ड्यूटी बजाने में लगे हैं, ताकि मरते-मरते ही सही डिपार्टमेंट उन्हें ‘मानद’ एसपी की पदवी जैसे कुछ व्यवस्था निकाल कर थमा सके।
...तो अब दृश्य परिवर्तन के तहत वे दालान में बैठे हैं। संगीत सुन रहे हैं, सरौंते से सुपारी काट रहे हैं। सो मुट्ठियां भिंच नहीं पा रही हैं। अंगुली कटने का डर है, जिस कारण आंख भी मिंच नहीं पा रही है। लपटन छोटू पास में बैठे हैं, उनके जमाने से राजदार-साझीदार, वसूली-एजेंट, मुखबिर, ठुकाई-पिटाई, वसूली के प्रत्येक मौकों के आयोजन के संयोजनकर्ता। रिटायरमेंट के बाद भी वे खुद को ड्यूटी में ही मानने की मंशा के तहत ठाकुर सा’ब के ‘कृत्यों’ में सहयोगी की हैसियत से आज भी खडे नजर आते हैं। शिकार की पकड और उसकी ‘आकारिकी’ में प्रारंभिक परिवर्तन का महती दायित्व भी वर्षों उन्हीं के पास रहा है। इसी के चलते वे अभी भी ‘समाज के दुश्मनों’, रिश्तेदारों में अपने विरोधियों को गाहे-बगाहे लेकर ठाकुर सा’ब के पास पहुंचते रहते हैं, ताकि सम्मिलित आयोजन के माध्यम से किसी सीमा तक अपनी ड्यूटी भी पूरी कर लें और पुराने जमाने का रौब गालिब कर उसके दिल में दहशत भी बैठाई जा सके। पास पहुंचने वालों के लिए ठाकुर सा’ब के पास अपने जमाने के किस्सों के अलावा हर मुद्दे पर मौलिक विचार भी थे, जिसे वे पुलिसिया विनम्रता से प्रस्तुत कर सामने वाले को अभिभूत करा देते थे।
आज छोटू को सा’ब बेहद उदास लग रहे थे। ऐसा तो उन्होंने सा’ब एक-दो मौकों पर ही देखा था, जबकि मैनाबाई रम्मू के साथ भाग गई थी या जब उन्हें मिले मोटे माल का काफी हिस्सा ऊपर साहब के लिए भिजवाना पड़ा था। दोन ही अवसरों पर उनका वैराग्य जागा था, संसार नश्वर लगा था। तब छोटू ने ही गम में घुलते सा’ब के सामने दो ‘पकड़’ प्रस्तुत की थीं, जिनकी तबियत से धुलाई करने के पश्चात सा’ब वैराग्याश्रम से वापस लौट पाए थे, अन्यथा तो पुलिस डिपार्टमेंट से एक अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्तित्व की असमय ही रुखसती होती दिख रही थी।
‘‘साला! देश डूबेगा, गर्त में ही जाएगा।’’ इसके पहले की छोटू पूछते ठाकुर सा’ब बोल पड़े छोटू ने आंखें फैलाईं, सिर हिलाया, बात का सिर पकड़ने की असफल कोशिश की।
‘देखो, सांसदों को, रुपए ले लिए संसद में गड्डियां लहरा दीं। दूसरी पार्टियों पर रिश्वत देने के आरोप लगा दिए। कैसी अंधेरगर्दी चल रही है’, ठाकुर सा’ब ने फिर कहा।
‘‘हां, सा’ब’’ छोटू ने फिर सिर घुमाया, गर्दन हिलाई जैसा वे समझ में आने के बावजूद भी सा’ब की ड्यूटी पूरी करने के लिए पहले से फिक्स आदत के मुताबिक करते रहे हैं।
‘‘ईमान-धरम की कैसी ऐसी-तैसी कर रहे हैं’’, ठाकुर सा ’ब ने अपना वॉल्यूम तेज करके टेप का धीमा किया।
‘‘हुजूर ने दुरुस्त फरमाया’’ छोटूबोला।
‘‘तय कर के रुपए लेकर जबान से मुकरते हैं, ऐसे तो लेन-देन से साला भरोसा ही उठ जाएगा, लेन-देन के बाद भी काम की तसल्ली नहीं रह जाएगी। ऐसा दुनिया से भरोसा विश्वास नाम की चीज खत्म हो जाएगी।’’ ठाकुर सा’ब ने कहा। फिर बोले- ‘‘तुझे रुक्कन हलवाई याद है’’,
‘‘हां, सा’ब’’-छोटू बोला।
‘‘जिसे झगड़ा करने के जुर्म में पकड़ा गया था।’’
‘‘हां सा’ब’’
‘‘पता है उससे मारपीट किस बात पर की थी? ’’
‘‘हां साब’’
‘‘अबे, हां सा’ब। हां सा’ब....। पता है तो बोल न’’ ठाकुर सा’ब गुस्से में भुनभुनाए।
‘‘हां सा’ब, वो रुक्कन और दम्मू तेली ने किसी की पिटाई का ठेका लिया था, फिर दम्मू ने पैसा लेकर भी पुलिस को खबर कर दी थी। इसी बात पर तो रुक्कन ने उसे खूब मारा था। हैं ना सा’ब’’ छोटू बोला।
‘अबे, फिर रुक्कन ने थाने में इस बात को लेकर हंगामा मचाया था कि दम्मू पक्षद्रोही है, मुकदमा उसके खिलाफ होना चाहिए, एक बार जुबान देने के बार उसने काम तो पूरा किया नहीं। शिकायत की सो अलग’। ‘‘पूरे थाने ने उसकी इस बात पर हामी भरी भी कि नहीं?’’
‘‘हां, भरी तो थी सा’ब’’
फिर कैसे अपने काम पूरा न किए जाने का स्वतः संज्ञान लेते हुए दोनों पक्षों का पैसा लावारिस मानकर उसे छीनकर पुलिस के खाते में डाल लिया था। ‘‘क्या आरोप लगाया था दोनों पर।’’
‘‘सा’ब, चार सौ बीसी का। काम ईमानदारी से पूरा न करने का, धोखा देने और शांतिभंग करने का।’’ छोटू ने कहा।
‘फि र कैसे लोगों की ईमानदारी इतनी कम होती चली जा रही है कि दाम लेते हैं, काम पूरा नहीं करते।’
‘‘लेकिन सा’ब सामने वाली पार्टी भी तो मना कर रही है कि उसने पैसा दिया ही नहीं।’’
‘‘ओ...! हो..! लपटन तू साला जिंदगीभर हवलदार ही रहेगा।’’ अबे मैं काहे के लिए उदास हूं। सामने वाली पार्टी कह रही है दिया नहीं है, ये वाले जमा कराने पहुंच गए। ‘अबे पैसा तो लावारिस हुआ न, लावारिस पैसा यानि जब्ती बनेगी, यानि पुलिस की जरूरत, यानि हमारी जरूरत और हम हैं रिटायर्ड।’ ‘अब समझा मैं क्यों उदास हूं ठाकुर सा’ब ने कुछ तान मिलाने के अंदाज में समझाया।’
हैं...!, लपटन छोटू की आंखें फिर फैली।
‘‘करोडों रुपए पड़े हैं मार्कट में जब्ती बनकर जमा भी हो गए और हम यहां बैठे हैं उस जब्ती में अपना ‘अनुभव’ नहीं दिखा पाए। पता नहीं सक्षम-सक्रिय-कर्मठ लोगों को क्यों जल्दी रिटायर कर देती है सरकार।’’ ठाकुर सा’ब शहनाई के सेड वर्जन वाली आवाज में बोले
‘ये तो उसूल है जनाब।’ जनता की इतनी ‘कर्मठता’ से सेवा करने के बाद उस आदमी को भी तो आराम की जरूरत पडती होगी। इस कारण सरकार उसे रिटायर करके घर बिठा देती है।’ लपटन ने ऐसे बोला कि ठाकुर सा’ब को उसका चेहरा गर से देखना पडा कि कहीं इसमें वर्मा डिप्टी साहब की आत्मा तो नहीं आ गई। ऐसी ज्ञान की बातें तो वे ही करते थे। जिनके कारण ही निकाले गए थे नौकरी से, फिर कहीं खेती-बाड़ी जैसा कुछ-कुछ करने लगे थे उन्हें याद आया।
‘‘अबे, तो जब हम जैसे सक्रिय को एक उमर के बाद आराम के नाम पर घर बिठा देते हैं, तो जनता की चौबीस घंटे सेवा करने वाले जनप्रतिनिधि तो हमसे ज्यादा नहीं थक जाते होंगे। उन्हें क्यों नहीं आराम दिया जाता। ये क्यों विलंबित राग सारी उमर छेड़ते रहते हैं। इनके खिलाफ पब्लिक भी कोई माहौल नहीं बनाती।’’
‘सा’ब पब्लिक का काम तो हर राग पर तालियां बजाना है। पब्लिक राग की बारीकियां समझने लगे तो सेवकों, विशेषज्ञों की दुकानें ही ना बंद हो जाएं।’ छोटू ने गले को साधकर पेट से कमाल का स्वर निकाला।
‘अबे, लपटन तूने तो क्या कोमल-स्वर लगाया है?’ ठाकुर सा’ब ने कहा।
‘बस, सा’ब आफ साथ रहते-रहते ये ‘कोमल-मध्यम’ सुरों की मामूली समझ बैठ गई है, नहीं तो मेरे लिए तो मियां की तोडी और टांग तोडी एक ही बात थी।’ छोटू ने किसी साजिंदे की तरह गर्दन को हल्के से झुकाकर कहा।
‘सही कहा तूने लपटन, हमीं ने तुझे काबिल बनाया है। हमारे जैसे देश के प्रत्येक अफसर का कर्त्तव्य है अपने सहयोगी को काबिल बनाना, ताकि उसकी विरासत को और आगे बढा सके, है कि नहीं।’’ ठाकुर सा’ब ने गली की तरफ देखते हुए बात पूरी की।
‘हुजूर...।’ छोटू बोला।
इतने में ठाकुर सा’ब ने देखा दूर से खद्दर में बदरी भइया चले आ रहे हैं। लपकते हुए आंखों में चमक लिए छोटू से बोले-‘देख, इस नेता की चाल तो देख’,
इतने में बदरी भइया लपक के खटिया पर पसर गए। नेता थे, सो किसी भी ऐरे-गैरे से भी बिना मिले निकल जाने को ‘नेता में खोट, वोट में चोट’ की उक्त के आइने से देखते थे। वहीं, मोहल्लेवासी थे, सो जानते थे कि ठाकुर सा’ब के राडार में आ जाने के बाद खिसक जाने की किसी की मजाल नहीं। बिना किसी निमंत्रण के आकर बिराज गए।
बोले- ‘पांओं लागन ठाकुर सा’...
‘पांओं को भी हाथ लगाओगे कि यूं ही ‘पांव लागन’ का आश्वासन मार्केट में उछाल रहे हो, बदरी। कैसेट के ढेर में ‘खास’ कैसिट ढूंढते-ढढते ठाकुर सा’ब ने कहा।
‘‘जे भली कही, ठाकुर सा’ब, पांव लागन से तो जैसे आदरभाव चला ही गया है।’’ खटिया पर बैठे-बैठे फिर बोले बदरी।
‘अबे, परंपरा को गाली भी दे रहा है और पांव को हाथ भी नहीं लगा रहा है’, ठाकुर सा’ब कैसिट मिलने की खुशी और गुस्से के मिश्रित स्वर में एक साथ बोले।
‘न ठाकुर सा’ब देखो, श्रद्धा तो मन में होती है, बाकी सब तो ढोंग-धतूरा है’ बदरी भइया भी पुराने घाघ।
‘अबे, ये संसद में क्या हंगामा कर रहे हो तुम लोग।’ कैसिट बजते ही ठाकुर सा’ब का पूछताछ का क्रम भी शुरू हो गया।
‘कुछ नहीं ठाकुर सा’ बस सहमति-सहमति जैसा कुछ बनाने का प्रयास कर रहे हैं, मामला कुछ बैठा नहीं।’
‘अबे, तो तुम किस मर्ज की दवा हो, तुम जाकर बैठा आते।’ यहां तो हर लेबल के चुनाव में मामला बिठाने का दम भरते हो’, जहां झगडा-टंटा दिखा तुम्हारी सूरत जरूर दिख जाती है।’ ठाकुर सा’ब ने लपटन को बदरी की ‘हिस्टीशीट’ बताना शुरू की। ‘फिर मामला जमाने के नाम पर दोनों पार्टिर्यों से ‘मामला’ जमा लेते हो’।
‘‘जे फिर भली कही ठाकुर सा’ब, बदरी भइया ने दांत निपोरे, ‘‘वो तो का है कि इस बार मामला जरा ऊंचे लेबल का है। हम ठहरे जिला स्तरीय नेता तो मामले में ‘इंटी’ बैठ नहीं पाई।’
‘‘अबे तो क्या तुम्हारे भी ‘लेबल’ होते हैं, हम तो सारे ‘शरीफों’ को एक ही श्रेणी में रखकर धुनकते थे, कभी अंतर नहीं किया, लेन-देन में त अपने-पराए तक का लिहाज नहीं किया, इतने पक्के थे उसूलों के, अब तो उसूल, नियम-कायदे सबके सब जैसे ‘संविधान’ बनते जा रहे हैं। केवल संशोधन के लिए भर जरूरत रह गई है। हम तो जबान के इतने पक्के थे कि बस कह दी सो कह दी, रुपए ले लिए सो ले लिए। फिर भले ही हवलदार को हवालात में क्यों न ठूंसना पड़े, अब तो लोग का वचन-धरम कुछ में भी यकीन रह ही नहीं गया है। ठाकुर सा’ब ने कहा फिर छोटू की तरफ सिर किया।
‘‘खरी बात कही सा’ब।’’ छोटू ने तस्दीक की
‘‘अब लपटन से ही पूछ लो।’’ ठाकुर सा’ब ने बदरी भइया की तरफ गर्दन घुमाकर कहा
‘हमारे तो हर चीज के रेट ‘फिक्स’ थे, झगड़ा-फसाद, मारपीट, लूट-खसोट। जैसा काम वैसा दाम, कई बार तो लोग पेशगी दे जाते थे, बाकी काम के बाद, कोई टंटा नहीं। मोलभाव से तो हमारी शान घटती थी, क्यों? लपटन
‘‘बिल्कुल, हुजूर’’ छोटू ने कहा।
‘बस, एक ही बात से हमें चिढ़ थी किसी महिला की इज्जत आबरू पर हाथ डालने वाले और उससे छेड़छाड़ करने वाले को त हम किसी कीमत पर नहीं बख्शते थे। थाने में ही उल्टा टांग कर सारे कसबल निकाल देते थे। ठाकुर सा’ब ने हवा में हाथ लहराकर ‘एक्शन रिप्ले’ किया।
‘पर हुजूर इन दिनों देश में नेता जो कर रहे हैं उससे तो पूरी दुनिया में भारतमाता की इज्जत तार-तार हो रही है।’ लपटन ऊंची तान में बोला।
‘‘क्या कहा तूने लपटन’’ ठाकुर सा’ब गुर्राए।
‘वही हुजूर, सदन से सड़क तक राजनीति में जो चल रहा है उससे तो भारतमाता की आंखें जार-जार हो रही होंगी।’
लपटन ने ऊंची तान पर सुर को ठहराव दिया।
‘‘ठीक कहा तूने, हम जैसे अधम काम करने वाले तक मां-बहनों की इज्जत सिर आंखों पर रखते हैं। एक ये हैं, दुनिया हंस रही है इन्हें लाज नहीं आ रही।’’ ठाकुर सा’ब ने जिंदगी में पहली बार सच्चा सुर लगाया।
‘‘सुन रहे हो बदरी भइया साब की बात को।’’ लपटन ने बदरी भइया की तरफ देखा।
बदरी भइया दालान से उतरकर सुरेश पंसारी की दुकान की ओर जाते दिख रहे थे, एक ‘मामला’ जमाने का कुछ पैसा उस पर बकाया था, ठाकुर सा’ब और लपटन की ऐसी फिजूल बातें सुनने के बजाए वे ‘वोट में चोट’ का खतरा उठाने को तैयार थे।
ठाकुर सा’ब सकते की हालत में बैठे थे। पीछे फिर पं. जसराज फिर ‘‘मैल धुले मन के, रंगी श्याम के रंग’’ का आलाप छेड़े थे। लपटन तान के साथ सिर हिला रहा था, उसे न जाने क्यों ये संगीत-राग अच्छा लग रहा था, बेहद अच्छा.....।
इति।
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अनुज खरे
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जयपुर
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