पिछले अंक से जारी … हिंदी कंप्यूटरी सूचना प्रौद्योगिकी के लोकतांत्रिक सरोकार वेद प्रकाश विषय सूची भूमिका ...
हिंदी कंप्यूटरी
सूचना प्रौद्योगिकी के
लोकतांत्रिक सरोकार
वेद प्रकाश
विषय सूची
भूमिका
अपनी बात
1 सूचना प्रौद्योगिकी और हिंदी समाज
2 हिंदी समाज के लिए सूचना प्रौद्योगिकी क्यों आवश्यक है?
3 हिंदी का मानक कोड क्यों?
4 यूनिकोड- समस्याएँ अनेक समाधान एक
5 ये हिंदी फोंट क्या हैं?
6 विंडोज़ 2000 और विंडोज़ एक्सपी में हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं को सक्रिय कैसे करें?
7 हिंदी में टाइप कैसे करें?
8 परिवर्धित देवनागरी बनाम इंस्क्रिप्ट कुंजीपटल- राष्ट्रीय एकता की और बढ़ता कदम.
9 हिंदी सॉफ्टवेयर उपकरण – देर आयद दुरस्त आयद
अध्याय 1
सूचना प्रौद्योगिकी और हिंदी समाज
हमारी सदी सूचना क्रांति की सदी है. आज पूरी दुनिया में सूचना प्रौद्योगिकी का डंका बज रहा है. ‘वसुधैव कुटुम्बकं’ का आदर्श और कहीं चरितार्थ होता हो या नहीं, कम से कम सूचना प्रौद्योगिकी की दुनिया में तो चरितार्थ होता ही है. मोबाइल फोन, कंप्यूटर और इंटरनेट इस क्रांति के वाहक हैं. हालाँकि हमारे देश में सामान्यतः सूचना प्रौद्योगिकी का मतलब कंप्यूटर समझा जाता है. यह कुछ ग़लत भी नहीं है. क्योंकि कंप्यूटर चिप ही सूचना क्रांति का आधार है.
जैसे एक समय में अंग्रेज़ी टाइप सीखना सरकारी नौकरी की गारंटी समझा जाता था वैसे ही आज कंप्यूटर सीख लेना रोज़गार की गारंटी समझा जाता है. इसीलिए सब लोग इस दौड़ में शामिल होना चाहते हैं. जब ग़रीब आदमी ही अपने बच्चों को इस दौड़ में शामिल कराने के लिए कुछ भी करने को तैयार है तो फिर मध्यवर्गीय आदमी का तो कहना ही क्या.
इस समझ की कई सीमाएँ हैं और यह कुछ सवाल भी पेश करती है. जिसमें सबसे अहम सवाल यह है कि सूचना प्रौद्योगिकी या कंप्यूटर हमारे लिए हैं या हम इनके लिए हैं. यानी जूता पैर के लिए है या पैर जूते के लिए. यानी कि क्या कंप्यूटर पर कुछ भी सीख लेना काफी है? क्या मात्र कंप्यूटर खोलना-बंद करना सीखते ही हम सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लेंगे? क्या यह वाकई संपन्नता और समृद्धि की चाबी है? क्या यह जादू की मशीन है जिसके पास हर चीज़ का इलाज है? या हमें पहले अपनी ज़रूरतों को समझना होगा और फिर उसके अनुसार अपने लिए उपकरण या साधन जुटाने होंगे. थोड़े शब्दों में कहें तो हमें खुद को सूचना क्रांति के अनुसार ढालना होगा या सूचना क्रांति को हमारी जरूरतों के हिसाब से ढलना होगा. सवाल तो यह भी अहम है कि यदि हम खुद को इसके अनुसार ढाल लें तो क्या हम एक बड़ी संपन्न दुनिया हासिल कर सकते हैं. क्या भारत में यह भारतीय भाषाओं को बिना अपनाए और अपना स्थानीयकरण किए बिना भारत को एक समृद्ध और शक्तिशाली देश बना सकती है?
तो आइए, इस अहम और बुनियादी सवाल से शुरू करें कि सूचना क्रांति आखिर पैदा कैसे हुई? मसल मशहूर है- “आवश्यकता आविष्कार की जननी है.” उत्पादन के साधनों के विकास ने औद्योगीकरण को पैदा किया. औद्योगीकरण का मतलब है बड़े पैमाने पर उत्पादन करना. बड़े पैमाने पर उत्पादन से योजनाएँ बनाने, कच्चा माल इकट्ठा करने, उनका भंडारण करने और उत्पादों के वितरण की व्यवस्था करने, उनके रिकार्ड रखने आदि की ज़रूरतें पैदा हुईं. इससे बड़े पैमाने पर आँकड़ों को इकट्ठा करने, उनका विश्लेषण करने और रखरखाव करने की जरूरतें महसूस की गईं. इस प्रक्रिया का समाज पर बड़ा व्यापक और गहरा प्रभाव पड़ा. धीरे-धीरे इन आँकड़ों का महत्त्व बढ़ता गया. इन आँकड़ों और जानकारियों के बढ़ते सैलाब ने आदमी को मज़बूर किया कि इनको संभालने, विश्लेषण करने और इनकी सटीकता बनाए रखने के लिए उपाय करे. इन उपायों के उत्तरोत्तर विकास के फलस्वरूप ही कंप्यूटर का जन्म हुआ. इसने अपनी मूल ज़रूरत—यानी आंकड़ों के रखरखाव, एकत्रीकरण और विश्लेषण करने आदि— को तो भली-भाँति पूरा किया ही, साथ ही इंटरनेट के रूप में इनमें साझेदारी करने का ऐसा मुक्त वातावरण भी पैदा किया जिससे लोकतंत्र में एक नया आयाम जुड़ गया. इस साझेदारी के माध्यम यानी इंटरनेट ने ज्ञान, कारोबार, शासन और मनोरंजन की दुनिया में भारी परिवर्तन कर दिए. कंप्यूटर के साथ मोबाइल और अन्य तकनीकों के जुड़ाव यानी संचार प्रौद्योगिकी के जुड़ाव ने सूचना क्रांति का विस्फोट कर दिया. इसीलिए यह आज जीवन के हर क्षेत्र में पैठती जा रही है.
सूचना प्रौद्योगिकी के कारोबार का माध्यम बनने ने अनंत संभावनाओं के द्वार पहले ही खोल दिए थे, रही-सही कसर इसके मनोरंजन का साधन बनने ने पूरी की, जिसने छोटे-छोटे बच्चों से लेकर प्रौढ़ों तक को अपने सम्मोहन में जकड़ लिया. इंटरनेट ने तो गृहणियों और बुज़ुर्गों तक पर अपना रंग चढ़ा दिया.
भारत में जहाँ इसका असर जन साधारण पर पड़ा, वहीं इसकी मलाई बहुत छोटे से अंग्रेज़ीदाँ वर्ग ने खाई, बेशक कुछ खुरचन दूसरों के पल्ले भी पड़ी. नई आर्थिक नीति ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भारत के बाज़ार को खोला. विकास का लक्ष्य ‘आम आदमी’ के स्थान पर ‘नव धनाढ्य वर्ग’ बन गया. बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बाज़ार पर कब्जा जमाने की गलाकाट प्रतियोगिता ने उन्हें मज़बूर किया कि वे लागत घटाएँ. भारतीय मध्यवर्ग के अंग्रेज़ी पढ़ा लिखा और ग़ैर-महत्त्वाकांक्षी होने ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सस्ते मज़दूर उपलब्ध कराए. यह सही है कि इसके बावजूद हमने अपनी कमज़ोरी को ताकत में बदल डाला. वाई2के समस्या के समय पूरी दुनिया ने हमारा लोहा माना था. अपने अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण दक्षिण भारत के लोगों ने इसमें शीघ्र ही अपना दबदबा बना लिया. इस दबदबे को भारत में ही नहीं, अमरीका में भी महसूस किया जाता है.
भारतीय अभिजात्य वर्ग के जातिगत अभिमान और उनकी शारीरिक श्रम के प्रति चिरस्थायी घृणा का सूचना प्रौद्योगिकी के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. इसके चलते कंप्यूटर तंत्र के विकास में हार्डवेयर की घोर उपेक्षा हुई. नतीजतन हार्डवेयर का मूल्य अन्य देशों की अपेक्षा खासा ज्यादा रहा. जिससे मध्यमवर्ग के आदमी के लिए भी कंप्यूटर खरीदना एक विलासिता ही रहा. दूसरी तरफ, हमारे अभिजात वर्ग की जनभाषा से घृणा ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को कंप्यूटर से दूर रखा. कंप्यूटरी में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के विषय में जो प्रयास किए भी गए, उनका भी इन्होंने प्रचार नहीं किया. और हिंदी कंप्यूटरी के संबंध में भ्रमजाल फैलाया. उक्त दोनों कारणों से कंप्यूटर संस्कृति की पैठ समाज में व्यापक और निम्न स्तरों तक नहीं हो पाई. फलस्वरूप इसने भारत में डिज़िटल विभाजन पैदा किया, जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है. इसने एक ओर कुशल और महँगे श्रम का बढ़ता बाज़ार बनाया तो दूसरी ओर अकुशल रोज़गार का लगभग पूरी तरह खात्मा कर दिया. जिससे हमारे यहाँ पहले से ही मौजूद आर्थिक असमानता की खाई और भी तेज़ी से चौड़ी होती चली गई.
इसका एक बुरा असर खुद भारतीय कंप्यूटरी पर भी पड़ा. अपने अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण शुरुआती दौर में दूसरे एशियाई देशों पर बढ़त बनाने के बावजूद इसने अंततः हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के प्रसार को अवरुद्ध किया. साथ ही हिंदी भाषियों को हीनता ग्रस्त बनाया. जिससे सूचना प्रौद्योगिकी में हमारी चुनौती काफी सीमित रह गई. हार्डवेयर में तो जापान, कोरिया और चीन का दबदबा पहले से ही है, अब सॉफ्टवेयर में भी चीनियों ने चुनौती पेश कर दी है. भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी के सॉफ्टवेयर तक सीमित रहने और उसमें भी अंग्रेज़ी तक सीमित रहने के कारण सूचना प्रौद्योगिकी का प्रसार समाज के आम तबके नहीं पहुँचा जिससे इसके रचनात्मक विकास में हम अपना योगदान नहीं दे पाए. इतनी बड़ी संख्या में हमारे सूचना प्रौद्योगिकी इंजीनियर होने के बावजूद हम विश्व में चुनौती देने वाले सॉफ्टवेयरों के निर्माण में अभी बहुत पीछे हैं. इस क्षेत्र में हमारी ओर से जो थोड़े बहुत काम हुए भी हैं वे या तो सरकारी निकायों ने किए हैं या भाषाई प्रौद्योगिकी में किए गए हैं. हालाँकि इसका एक अच्छा परिणाम यह हुआ कि इससे भारत में अच्छी क्वालिटी के उत्पाद आए. और प्रतिद्वंद्विता ने भारतीय कंपनियों को भी क्वालिटी प्रोडक्ट बनाने के लिए बाध्य किया.
आम हिंदी भाषी में जहाँ कंप्यूटर के प्रति आकर्षण है, वहीं अंग्रेज़ी के वर्चस्व के कारण असहायता भी दिखाई देती है. इस असहायता और हीन भावना को बढ़ाने में अंग्रेज़ी परस्त लोगों के फैलाए झूठों का भी योगदान है. जिनमें से सबसे ज़्यादा प्रचारित और प्रचलित झूठों में से कुछ इस प्रकार हैं—
एक तरफ तो यह कि
एक, हिंदी में कंप्यूटर पर काम करना संभव ही नहीं है.
दो, यदि है भी तो केवल निचले स्तर का काम ही संभव है.
तीन, उच्च स्तर की सारी कंप्यूटरी केवल अंग्रेज़ी में होती है.
चार, सारे मूल सॉफ्टवेयर अंग्रेज़ी में बनते हैं और प्रोग्रामिंग तो केवल अंग्रेज़ी में होती है.
और यदि आप यह साबित कर दें कि यह संभव है तो दूसरी तरफ यह कि—
हिंदी में काम करना बहुत मुश्किल है. क्योंकि पहले तो तुम्हें हिंदी टाइप करना नहीं आएगा.
दूसरे, अगर आ भी गई तो हिंदी फोंट नहीं मिलेगा.
तीसरे, यदि मिल भी गया तो तुम इंटरनेट ब्राउज़ नहीं कर सकोगे, ई-मेल नहीं भेज सकोगे.
चौथे, ऑपरेटिंग सिस्टम तो केवल अंग्रेज़ी में चलता है. यदि तुमने हिंदी का ऑपरेटिंग सिस्टम जुगाड़ भी लिया तो दूसरे कंप्यूटरों से कनेक्ट कैसे करोगे क्योंकि वे तो अंग्रेज़ी के ऑपरेटिंग सिस्टम पर चल रहे हैं.
यदि आप यह भी झेल लें तो उनका ब्रह्मास्त्र तैयार है कि तुम्हें कंप्यूटर की हिंदी ही समझ में नहीं आएगी.
यह हौवा खड़ा कर अंग्रेज़ीदाँ लोग झूठ के इस पुलिंदें को कुछ यूँ प्रचारित करने में सफल रहे हैं कि यदि तुम हिंदी-हिंदी चिल्लाओगे तो देश तो पीछे रह ही जाएगा, तुम खुद भी मोटी तनख्वाहों और विदेशी दौरों से वंचित रह जाओगे. इसलिए बेहतर यही है कि तुम अंग्रेज़ी ही सीख लो और उसी में अपना काम करो.
इनमें से कुछ झूठ अपने निहित स्वार्थों की रक्षा के लिए फैलाए गए तो कुछ अज्ञानतावश. ख़ैर, यह कौआरौर ज़्यादा समय तक समाज को नहीं बरगला सकती. खासकर इसलिए भी कि इसने सूचना क्रांति के प्रसार को बुरी तरह महानगरों तक सीमित कर दिया है. आज भारतीय कंपनियों से ज्यादा अमरीकी कंपनियों को हिंदी की चिंता सता रही है. क्योंकि वे जानती हैं कि हिंदी के ज़रिए पूरे दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप के बाज़ार के दरवाज़े और तेज़ी से खुलते हैं. कारोबार और मनोरंजन की दुनिया आम जनता की दुनिया है. यह केवल कुछ सरकारी नौकरशाहों और अभिजात्य लोगों की सनक पर टिकी नहीं रह सकती. यही कारण है कि आज लगभग हर अमरीकी और यूरोपीय कंपनी अपने उत्पादों में हिंदी समर्थन दे रही है. और उनके हिंदी संस्करण बाज़ार में उतार रही है.
इस वास्तविकता के बारे में हमारा हिंदी समाज क्या सोचता है? तकनीक और विज्ञान विरोधी हिंदी समाज को ऐसा लगा—‘दीवान-ए-सराय 01 के संपादक के शब्दों में कहें तो’ –
“जैसे कलिकाल आ धमका है. अपनी जानी-पहचानी दुनिया ध्वंस के कगार पर है, नैतिक वज्रपात हो रहे हैं, दैनंदिन ‘नंगई’ हो रही है, अपसंस्कृति फैल रही है और न जाने क्या-क्या. कुल मिलाकर लगता है कि ‘विश्वायन’ या वैश्वीकरण के रूप में सर्वथा शत्रु-जीवी हिंदी को एक नया शत्रु, सर्वशक्तिमान, सर्वोपस्थित खलनायक मिल गया है. इस विचार दृष्टि के प्रभुत्व का एक साफ़ घाटा यह हुआ है कि संचार के अभिनव रूप भी अविच्छिन्न तौर पर विश्वायन-जन्य दीगर हिंसाओं से जुड़कर एकमुश्त निंदा के शिकार हो गए हैं.”(1)
जहाँ दक्षिण भारतीय लोगों ने अपने अंग्रेज़ी ज्ञान और सॉफ्टवेयर में अपनी दक्षता से अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भारत की चुनौती पेश की वहीं प्रबुद्ध हिंदी समाज (विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के प्राध्यापकगण, हिंदी अधिकारी और हिंदी के नाम पर पलने वाले विभिन्न लोग) को सूचना प्रौद्योगिकी हिंदी-विरोधियों की साज़िश सरीखी लगी. यह समाज सूचना प्रौद्योगिकी के फैलाव और असर को देख कर ठगा सा महसूस करता है.
भारत के टैक्नोक्रेटों, नौकरशाहों आदि उच्च मध्यवर्ग को यह राम बाण लगता है. बकौल दीवाने-सराय—
“टेक्नोशाहों और प्रोग्रामिंग के अभिजातों द्वारा फैलाए गए इस भारतीय संस्करण में पश्चिमी आधुनिकता (और प्रगति) तक भारत की पहुँच एक विशाल आभासी ब्रह्मांड में संपन्न होगी और उसे खुद भारतीयों द्वारा ही विकसित किया जाएगा. मॉडल यह है- अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ मिलकर आभासी समय में मौजूद ऐसे टेक्नो नगर विकसित करना जहाँ बैठ कर भारतीय प्रोग्रामर नवोदित वैश्विक तकनीकी पटल पर कम लागत के सामान मुहैया कराएँगे.” (2)
तो सच्चाई का एक पहलू यह भी है—
“आभासी वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की पैठ असमान विनिमय के परंपरागत ढर्रे पर आधारित है. भारतीय प्रोग्रामर बहुराष्ट्रीय निगमों की समस्याओं का एक अल्प लागत समाधान मुहैया कराता है.”(3)
लेकिन जब हिंदी समाज को सूचना क्रांति में रोज़गार के अवसर, विदेशी दौरे और अनाप-शनाप पैसा दिखा तो फिर शुरू हुआ, किसी तरह इस भीड़ में ठस जाने का सिलसिला. यानी कैसे भी अपने बिचुवा को कोई कंप्यूटर कोर्स करा दो, फिर उसे कहीं फिट करा दो, बस हो गए वारे न्यारे. बदकिस्मती से कंप्यूटर की दुनिया में फिट करना उतना आसान नहीं है. यहाँ आपकी काबलियत और मेहनत ही आपको टिका के रख सकती है.
जहाँ तक उच्च प्रोग्रामिंग का प्रश्न है, उसमें हिंदी की कुछ सीमाएँ हो सकती हैं. पर पूरे समाज में कंप्यूटर के जो अनुप्रयोग फैल रहे हैं, जो हमारे रोज़मर्रा के कामकाज में सुविधाएँ प्रदान कर रहे हैं. और जिनका उपयोग करने के लिए किसी तरह की महारथ की आवश्यकता नहीं होती, उनमें क्यों हिंदी पिछड़ रही है. आप अपना पत्र या लेख टाइप करते हैं, तो हिंदी में क्यों नहीं. जब आप ई-मेल भेजते हैं. तो हिंदी में क्यों नहीं. आप कंप्यूटर पर फिल्म देखना चाहते हैं तो फाइल खोलने के लिए हिंदी का प्रयोग क्यों नहीं करते. आप मोबाइल पर समस भेजते हैं तो हिंदी में क्यों नहीं. आप अपनी हिंदी को बेहतर बनाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक या ऑनलाइन हिंदी शब्दकोश या समांतर कोश का प्रयोग क्यों नहीं करते. अपनी अंग्रेज़ी को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक या ऑनलाइन अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश क्यों नहीं देखते. जब आप कंप्यूटर खरीदते हैं तो हिंदी की-बोर्ड क्यों नहीं खरीदते. आदि, आदि.
यदि मैं उपरोक्त सवाल किसी अच्छे-खासे पढ़े-लिखे हिंदी भाषी आदमी से पूछूँ तो वह कहेगा कि
एक, हिंदी में ये सब काम करना संभव ही नहीं है,
दो, यदि संभव है भी तो हिंदी में यह सब करना महँगा पड़ता है,
तीन, हिंदी में करने में समय ज्यादा लगता है. और
चार, दूसरे कंप्यूटरों पर मेरी मेल खोलने या उनकी मेल अपने कंप्यूटर पर खोलना काफी दिक्कत भरा है.
लेकिन क्या यह सच है? नहीं. कतई नहीं, इन पर आगे के अध्यायों में विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है. फिलहाल इतना ही कि ये बातें पूरी तरह अधकचरी जानकारी और हीन भावना पर आधारित हैं. सच तो यह है कि हिंदी समाज की सूचना प्रौद्योगिकी की नई तकनीकों और हिंदी भाषाई साधनों के बारे में जानकारी बहुत ही सीमित है. वह जानता ही नहीं है कि समर्पित हिंदी सॉफ्टवेयर इंजीनियरों/प्रोग्रामरों ने अंग्रेज़ी की हर चुनौती का सामना किया है. जब उन्हें अंग्रेज़ी में चिल्लर काम करने पर मोटी तनख्वाहें मिल सकती थीं, उन्होंने हिंदी और भारतीय भाषाओं को विकसित करने के लिए मेहनतें कीं.
आज हिंदी कंप्यूटरी सूचना प्रौद्योगिकी में विस्फोट के लिए तैयार है. इसके लिए न उपकरणों की कमी है, न साधनों की. जरूरत है तो सिर्फ इस बात की कि हिंदी समाज और इसका प्रबुद्ध वर्ग, खासकर सरकारी हिंदी विभागों के लोग और विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों के लोग इनके प्रति जागरूक और संवेदनशील हो.
पाद टिप्पणी
1. दीवान-ए-सराय 01: मीडिया विमर्श://हिंदी जनपद, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2002, भूमिका, पृ.IV
2. उपरोक्त, पृ. 153
3. उपरोक्त, पृ. 153
अध्याय 2
हिंदी समाज के लिए सूचना प्रौद्योगिकी क्यों आवश्यक है?
सूचना प्रौद्योगिकी के सर्वव्यापी रूप को देखते हुए किसी भी समाज के लिए इसकी उपेक्षा करना संभव नहीं है. लेकिन यह तो हमें ही तय करना होगा कि हम सूचना प्रौद्योगिकी के उत्पादों के बाज़ार और ग्राहक बनें या उसके इस्तेमाल से अपनी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के समाधान खोजें और समृद्धि के पथ पर अग्रसर हों. यदि हम यह चाहते हैं कि हम सूचना क्रांति के केवल बाज़ार, उपभोक्ता और ग्राहक ही बनें, उसकी उन्नति में योगदान भी दें, उसकी समृद्धि से लाभ भी उठाएँ तो हमें इससे जुड़ना होगा. यह जुड़ाव कंप्यूटर या सॉफ्टवेयर इंजीनियरों के रूप में तो होगा ही, एक बैंकर, बीमाकर्ता, साहित्यकार, पत्रकार, अधिकारी, वकील, न्यायाधीश, मनोरंजनकर्ता, संगीतकार, कलाकार, किसान, मज़दूर, दूधवाला, रिक्शावाला, चायवाला, कहने का अभिप्राय है कि हर स्तर, हर पेशे के स्तर पर भी होना होगा. इसके लिए यह जानना जरूरी है कि यह सूचना प्रौद्योगिकी क्या है?
सूचना प्रौद्योगिकी विभिन्न सूचनाओं और जानकारियों को व्यवस्थित रूप से एकत्र, विश्लेषित, स्टोर और शेयर करने का एक तंत्र है. किसी भी समाज को अपने विकास और समृद्धि के लिए सूचनाओं के व्यवस्थित तंत्र की बहुत ज़रूरत होती है. योजनाओं का आधार यही सूचनाएँ होती हैं. ये सूचना जितनी सटीक और अल्प समय में प्राप्त होंगी, योजनाओं के सफल होने की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है. मान लीजिए, पीने के पानी की समस्या का हल खोजना है. तो हमें कितने स्थानों पर पीने का पानी उपलब्ध है और कितने पर नहीं, यह जानना होगा. ताकि शेष स्थानों पर पीने की पानी की समुचित व्यवस्था करनी होगी. जिन स्थानों पर पीने का पानी उपलब्ध नहीं है, वहाँ जल स्तर कितना नीचे हैं, या पानी का अन्य स्रोत, जैसे नदी वहाँ से कितना दूर है, फिर यह जानकारी भी कि वहाँ का पर्यावरण किसी भी परियोजना की पूर्ति के कितना अनुकूल है, इत्यादि किस्म की जानकारियों की जरूरत होगी. और ये भी कि वहाँ किस तरह की कंपनियाँ या संगठन इस मामले में सहयोग दे सकते हैं, उनके नाम, पते, फोन नं. आदि, फिर परियोजना का संभावित खर्च. कहने का मतलब यह कि किसी भी परियोजना को साकार करने के लिए काफी मात्रा में जानकारियों की आवश्यकता होती है. यदि ये जानकारियाँ ठीक से व्यवस्थित नहीं होंगी तो समस्या की विकरालता का विश्लेषण ठीक से नहीं किया जा सकेगा. नतीजतन परियोजना का खाका ही ठीक नहीं बन पाएगा.
इस तरह की सूचनाओं को एकत्र, स्टोर और विश्लेषित करने के काम में ही सूचना प्रौद्योगिकी सहायक साबित होती है और इंटरनेट का प्रयोग बढ़ने के बाद से तो सूचनाओं को विश्व स्तर पर शेयर करना बहुत ही सहज हो गया है. चूँकि जीवन के सभी प्रशासनिक, आर्थिक, वित्तीय, सांस्कृतिक, सामाजिक, शैक्षणिक क्षेत्रों में, यानी जीवन के सभी क्षेत्रों में सूचनाओं का महत्व होता है और यह बढ़ता ही जा रहा है. इसीलिए सूचना प्रौद्योगिकी का महत्व भी बढ़ता जा रहा है. जब से सूचना प्रौद्योगिकी ने मनोरंजन के क्षेत्र में पदार्पण किया है तब से तो मानों इस क्षेत्र में रोज़गार का सैलाब ही आ गया है.
इसका एक रूप इंटरनेट लोकतंत्र के नए आयाम खोलता है जहाँ पूरे विश्व का सोच-विचार का मुक्त वातावरण उपलब्ध होता है. इसके लगातार प्रसार से, ख़ासकर निचले और ग़रीब तबकों तक प्रसार से, एक नई मुक्त संस्कृति पनपेगी जो राष्ट्र निरपेक्ष होगी, जिसमें नौकरशाहों और अभिजातों की दख़लंदाज़ी बिल्कुल नहीं होगी. एक नए मानव का उदय होगा.
परंतु यह संपूर्ण विकास केवल अंग्रेज़ी के जरिए हो रहा है. जिससे सूचना प्रौद्योगिकी की शक्ति का लाभ हिंदी समाज का एक बहुत छोटा सा वर्ग ही उठा पा रहा है. अगर सूचना प्रौद्योगिकी से यह जुड़ाव केवल अंग्रेज़ी के जरिए होना जारी रहा, जैसा कि अभी तक हो रहा है, तो समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा इसके लाभों से तो वंचित हो ही जाएगा, कालांतर में इसके प्रति द्वेषभाव भी रखने लगेगा. जो अंततः समाज के तान-बाने को छिन्न-भिन्न कर देगा. समाज के विभिन्न वर्गों के बीच बढ़ते विकराल अंतर को यदि समय रहते नहीं रोका गया तो इस समाज को बहुत समय तक बिखरने से नहीं रोका जा सकेगा.
और अब तो आम जनता की भागीदारी न होने से इसका स्वयं का विकास भी अवरुद्ध होने लगा है. इसके आधार के अंग्रेज़ी जानने वालों तक सीमित होने के बावजूद इसमें रोज़गार का विस्फोट यदि अभी भी दिखाई दे रहा है तो इसका श्रेय अधिकांश में विदेशी कंपनियों के भारतोन्मुख होने के कारण है. और देर सबेर इसमें ब्रेक लगेगी ही. तब स्थितियाँ भयावह हो जाएँगी. इसलिए समय रहते इसे नाथना जरूरी है.
इस अंतराल को भरने का काम सूचना प्रौद्योगिकी की मदद से किया जा सकता है. इसके लिए सस्ते हार्डवेयर और हिंदी कंप्यूटरी की बहुत आवश्यकता है. सूचना प्रौद्योगिकी को एक परिघटना के रूप में देखे जाने की भी आवश्यकता है, जो लगभग हर चीज़ को, हर संकल्पना को आमूल-चूल बदल रही है. लोकतंत्र को मज़बूत करने और उनकी पहुँच को आम जनता तक पहुँचाने के लिए इसका इस्तेमाल करना होगा, सरकारी कामों में पारदर्शिता लाने और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में इसकी बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है, पर इसके लिए समाज को सजग होना पड़ेगा.
जहाँ तक हार्डवेअर का मामला है, अब इसकी कीमतों में भारी कमी आ गई है. और इसमें अभी भी गिरावट जारी है. लेकिन हिंदी कंप्यूटरी का प्रयोग डीटीपी की दुकानों या सरकार के हिंदी विभागों तक ही सीमित है. डीटीपी में तो इसका काफी ज्यादा प्रसार हुआ है. इससे संबद्ध मीडिया, विज्ञापन और मनोरंजन की दुनिया में भी हिंदी कंप्यूटरी काफी तेज़ी से फैल रही है. सरकारी विभागों में हिंदी कंप्यूटरी का विकास खासा सीमित है, एक तरह से रस्मनिबाही तक. विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों की स्थिति का तो ज़िक्र ही न करें तो बेहतर होगा. आम जनता की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है.
कंप्यूटर पर हिंदी के विकास की अवरुद्धता को समझने के लिए एक तरफ अंग्रेज़ी परस्तों द्वारा फैलाए झूठ से बचने की ज़रूरत है तो दूसरी तरफ हिंदी सॉफ्टवेयर निर्माताओं द्वारा अपने क्षुद्र लाभ के लिए हिंदी सूचना प्रौद्योगिकी के विकास को बाधित करने की कोशिशों का जायजा लेने की भी ज़रूरत है.
अंग्रेज़ी परस्तों ने एक झूठ यह फैलाया कि कंप्यूटर पर हिंदी में काम संभव ही नहीं है. जो थोड़ी बहुत चीज़ें संभव हैं भी उनके चक्कर में पड़कर हम अपने देश को संपन्नता की दौड़ में पिछाड़ देंगे. उनका कहना है कि चूँकि मूल सॉफ्टवेयर अंग्रेज़ी में बनता है, सारी प्रोग्रामिंग अंग्रेज़ी में होती है, इसलिए हिंदी में काम करने वाले इस दौड़ में पीछे रह जाएँगे. वे मोटी तनख्वाह वाली नौकरियाँ हासिल नहीं कर पाएँगे.
यह ठीक है कि मूल सॉफ्टवेयर अंग्रेज़ी में बनते हैं. लेकिन अधिकांश लोगों के लिए कंप्यूटर उनके कारोबार या मनोरंजन का एक उपकरण भर है. और इसके लिए लोगों को सॉफ्टवेयर निर्माण या प्रोग्रामिंग की कोई ज़रूरत नहीं है. जहाँ तक मोटी तनख्वाह वाली नौकरियों का सवाल है तो वे अब इस क्षेत्र में काफी सीमित हो गई हैं तथा वित्त, बीमा, जैव-प्रौद्योगिकी, कारोबार प्रबंधन आदि में भी काफी मोटी तनख्वाह वाली नौकरियाँ आ गई हैं. दूसरे, जैसा कि हम अच्छी तरह जानते हैं कि जूता पैर के लिए होता है, पैर जूते के लिए नहीं. भारत में सूचना प्रौद्योगिकी में अवरुद्ध होते विकास को फिर से खोलने का एक ही तरीका है. भारतीय भाषाओं में सूचना प्रौद्योगिकी के उपकरण और सुविधाएँ विकसित होना.
विश्व समाज आज उत्तरोत्तर सूचना टैक्नॉलॉजी की ओर अग्रसर होता जा रहा है। अगर समाज के लोगों को अपनी प्राकृतिक भाषा में कंप्यूटर से सूचना का आदान-प्रदान करना संभव हो सके तो वे इस सूचना क्रांति में अधिक सक्रिय रूप से भागीदारी कर सकते हैं. भारत के लिए यह क्रांति केवल इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं है कि हमारा समाज बहुभाषी है, बल्कि इसलिए भी कि हमारा समाज विभिन्न आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्तरों पर भी बँटा है। इसलिए मानव-मशीन के बीच संवाद की स्थिति पैदा करने के लिए यह जरूरी है कि उपयुक्त सूचना प्रणाली और बहुभाषा प्रौद्योगिकी के उपकरणों का विकास किया जाए और वे लोगों को किफायती कीमतों पर सुलभ हों. इसके साथ ही हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में कंप्यूटर उपकरणों के प्रयोग को बढ़ावा देना भी बहुत जरूरी है.
आज भारत की सौ करोड़ की आबादी का केवल पाँच प्रतिशत ही अंग्रेज़ी बोलता या समझता है। आज इसलिए केवल यही छोटा जनसमुदाय विश्व में घटित सूचना क्रांति की उपलब्धियों का फायदा उठा रहा है। समाज के बाकी पचानवें प्रतिशत लोगों को भी इस सूचना क्रांति तथा इससे होने वाली नव विकसित डिज़िटल अर्थ-व्यवस्था में शामिल होने का पूरा अधिकार है। इस कारण से भी भारतीय भाषाओं पर आधारित सूचना प्रणाली और प्रौद्योगिकी विकसित करने की आवश्यकता और भी अधिक महसूस होती है।
यहाँ यह जानने की भी जरूरत है कि इस विषय में क्या-क्या कदम उठाए जा चुके हैं. यह इसलिए भी कि हिंदी भाषियों में अज्ञानता एक ऐसे मूल्य के रूप में प्रतिष्ठापित हो गई है कि वे इस बारे में उपलब्ध सुविधाओं की न तो जानकारी रखते हैं और न ही जानना चाहते हैं.
इस दिशा में प्रौद्योगिकी के विकास के लिए सरकार ने पिछले सालों में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं. ये कदम सरकारी और निजी दोनों स्तरों पर उठाए गए हैं. इस विषय में किए गए प्रयासों पर हम अगले अध्यायों में चर्चा करेंगे यहाँ फिलहाल इतना ही कि आज भारतीय भाषाओं में विकास का स्तर इतना बढ़ गया है कि अंग्रेज़ी में उपलब्ध वे सभी अनुप्रयोग जिन पर काम करने के हम आदी हैं, हिंदी और सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में भी उपलब्ध हैं. वास्तव में अब न केवल प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बल्कि भारतीय भाषाओं में विषय सामग्री विकसित करने और उनके प्रयोग को व्यापक बनाने की दिशा में भी कार्य करने की बहुत गुंजाइश है जिससे साधारण से साधारण मनुष्य या उपभोक्ता को भी भारतीय भाषाओं में सूचना प्रणाली सुलभ हो सके. इसके फलस्वरूप बहुभाषा उत्पादों का बाज़ार, जो गत वर्ष अनुमानतः 30 करोड़ रुपए से ऊपर का था, आने वाले समय में सेवाओं और अनुप्रयोगों के विस्तार के फलस्वरूप कई गुना अधिक हो सकता है.
यह भी हर्ष का विषय है कि आज उद्योग, अनुसंधान और विकास तथा शिक्षण के क्षेत्रों में अनेक संस्थाएँ हिंदी तथा भारतीय भाषाओं में सॉफ्टवेयर विकास के कार्यों में संलग्न हैं. वास्तव में अब हमें उपकरणों के बजाय अनुप्रयोगों के विकास पर ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि अब काफी उपकरण उपलब्ध हैं. जिन पर हम आगे विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे. सरकारी और निजी क्षेत्रों में कंप्यूटरीकरण की बढ़ती गति को देखते हुए भारतीय भाषाओं में इस प्रकार के अनुप्रयोगों की बहुत अधिक जरूरत महसूस होती है. आगे के अध्यायों में फिलहाल उपलब्ध अनुप्रयोगों की चर्चा भी की गई है.
अंत में यही कहा जा सकता है कि वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में सूचना प्रौद्योगिकी के विकास और अनुप्रयोगों के संदर्भ में भारतीय भाषाओं के प्रयोग का अपना विशेष महत्व है, क्योंकि केवल इसी के जरिए भारत के सामान्य लोगों तक सूचना क्रांति के लाभ पहुँचाए जा सकते हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में जनसाधारण की महत्वपूर्ण सहभागिता प्राप्त की जा सकती है.
अध्याय 3
हिंदी का मानक कोड क्यों?
एक ज़माना था जब मैं कंप्यूटर के पर्दे पर हिंदी के अक्षर चमकते देख कर भौंचक्का रह गया था। तब तो मेरे आश्चर्य की कोई सीमा ही नहीं रही थी जब एक हिंदी सॉफ्टवेयर विक्रेता ने मुझे बताया था कि जो कुछ कंप्यूटर पर अंग्रेज़ी में संभव है वह सब कुछ उसके सॉफ्टवेयर की मदद से हिंदी में भी संभव है। हालाँकि यह बात उस समय पूरी तरह सही नहीं थी। पर फिर भी कार्यालयों के रोज़मर्रा के कामों के लिए तो यह काफी हद तक ठीक थी। और यहीं से शुरू हुई मेरी हिंदी कंप्यूटरी की यात्रा, जिसे चूहा-बिल्ली की दौड़ भी कहा जा सकता है। मैं हिंदी सॉफ्टवेयर निर्माताओं के जवाबों से अभिभूत अपने कार्यालय के कंप्यूटर विभाग में जाता तो वे मेरे सामने एक नई समस्या पेश कर देते। जब मैं साफ्टवेयर निर्माताओं से पुनः उसका समाधान लेकर उत्साह से भरा कंप्यूटर विभाग में पहुँचता तो वे फिर एक नई समस्या पेश कर देते। इनमें से कुछ समस्याएँ वास्तविक होतीं और कुछ मुझे किसी तरह टरकाने के लिए होतीं। मैं एहसानमंद हूँ इन समस्याओं का जिनके कारण मुझे हिंदी कंप्यूटरी की दुनिया में प्रवेश करने का अवसर मिला।
हिंदी कंप्यूटरी की समस्याओं को यदि हम तकनीकी भाषा में सूत्रबद्ध करें तो वे इस प्रकार होंगीं।
1. हिंदी कोड व्यवस्था की समस्या
2. हिंदी फोंट की समस्या
3. हिंदी कुंजी पटल की समस्या
4. हिंदी के भाषाई उपकरणों की समस्या
आइए, इन पर सिलसिलेवार चर्चा करें।
हिंदी कोड व्यवस्था
जब हम किसी को अंग्रेज़ी में तैयार कोई सामग्री फ्लॉपी या मेल के द्वारा भेजते हैं तो उसे पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं आती। वहाँ तो हम किसी भी सॉफ्टवेयर में तैयार फाइल को किसी भी कंप्यूटर में पढ़ सकते हैं, उसमें कुछ भी जोड़-घटा सकते हैं। सॉफ्टवेयर के कारण अगर कठिनाई आती भी है तो उस सामग्री को टैक्स्ट फाइल (*.txt) में कनवर्ट करके पढ़ लिया जाता है। परंतु जब हम हिंदी में कोई मेल भेजते हैं या फ्लॉपी पर हिंदी की कोई फाइल भेजते हैं तो अमूमन जंक कैरेक्टर स्क्रीन पर हमारा स्वागत करते हैं। जिनमें अंग्रेज़ी के परिचित चिह्नों के साथ कुछ अपरिचित निशान भी मिलते हैं। आजकल हिंदी सामग्री के स्थान पर वर्ग या प्रश्नवाचक चिह्न भी दिखाई देने लगे हैं। इसीलिए हिंदी में कंप्यूटर पर काम करने के अनुभवी लोग हिंदी की फाइल को फ्लॉपी या ई-मेल पर देखते ही सबसे पहले उसके फोंट की जानकारी चाहते हैं। यदि उनके पास वह फोंट होता है तो कोई बात नहीं, पर यदि नहीं होता तो उनकी माँग होती है कि दस्तावेज के साथ उस फोंट को भी कॉपी करके उन्हें दे दिया जाए ताकि वे उस सामग्री को देख पाएँ।
इसी तरह यदि आप हिंदी की कोई वैबसाइट देखते हैं तो सामान्यतः उसके ऊपरी दाएँ कोने में अंग्रेज़ी में या हिंदी में एक वाक्य लिखा होता है—यदि आप इस बैवसाइट की सामग्री को नहीं देख पा रहे हैं तो कृपया यहाँ से फोंट डाऊनलोड कर लें। इसके साथ ही उस फोंट विशेष को लोड करने की विधि भी दी होती है। यानी की हिंदी में तैयार सामग्री को यदि आप दूसरों से साझी करना चाहते हैं तो आपको हर बार नया फोंट आने पर उसे संस्थापित (इंस्टाल) भी करना पड़ेगा। नहीं तो काला अक्षर भैंस बराबर।
यहाँ दो सवाल पैदा होते हैं। पहला यह है कि यह समस्या अंग्रेज़ी में क्यों नहीं आती? दूसरा यह कि इसके लिए कौन जिम्मेवार है—हिंदी भाषा की संरचना, कंप्यूटर की तकनीकी भाषा या हिंदी के सॉफ्टवेयर निर्माता। और इस समस्या को सुलझाने में हिंदी समाज और भारत सरकार की क्या भूमिका रही है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि इसका क्या समाधान है? उस समाधान में एक हिंदी भाषी के रूप में मेरी क्या कोई भूमिका हो सकती है?
पाठकगणों, कंप्यूटरी हिंदी आज जिस चक्रव्यूह में फँस गई है, उससे उसे हिंदी समाज ही निकाल सकता है। हालाँकि बाज़ार की ज़रूरतों ने चक्रव्यूह के कई द्वार तोड़ दिए हैं। पर अभी अभिमन्यु को चक्रव्यूह से बाहर आना है।
आप सोच रहे होंगे कि यदि समस्या हिंदी फोंट के साथ है तो हम हिंदी कोड व्यवस्था की बात क्यों कर रहे हैं?
हम हिंदी कोड व्यवस्था की इसलिए बात कर रहे हैं क्योंकि यही समस्या का आधार है। कंप्यूटर एक इलेक्ट्रॉनिक यंत्र है। वह किसी भी भाषा को नहीं समझता। वह केवल अपने स्विचों की दो स्थितियों को पहचानता है—ऑन और ऑफ। इन्हें ही कंप्यूटर वैज्ञानिक गणितीय चिह्नों 1 और 0 से व्यक्त करते हैं। चूँकि कंप्यूटर केवल दो स्थितियों या अंकों को ही पहचानता है इसलिए कंप्यूटर वैज्ञानिकों को इसके लिए एक भाषा का निर्माण करना पड़ता है जो हमारी भाषा और कंप्यूटर की भाषा के बीच पुल का काम करती है। कंप्यूटर को हमारी भाषा (अंग्रेज़ी) को समझाने के लिए—26 छोटे अक्षर, 26 बड़े अक्षर, 0 से 9 तक दस चिह्नों, प्रतिशत और गणितीय चिह्नों, ब्रैकेटों आदि के 32 चिह्नों—यानी कुल मिलाकर 94 चिह्नों की ज़रूरत होती है। 1 और 0 के स्थान को एक बिट (अंग्रेज़ी के ‘बाइनरी डिजिट’ binary digit शब्दों का संक्षिप्त रूप bit) कहा जाता है। दो चिह्नों की सीमितता के कारण द्विआधारी प्रणाली (बाइनरी सिस्टम) का प्रयोग किया गया। चूँकि स्थानमान पद्धति (Place Value) के अनुसार 94 चिह्नों को व्यक्त करने के लिए द्विआधारी प्रणाली में न्यूनतम 7 स्थानों की आवश्यकता होती है। इसलिए प्रारंभ में 7 बिट की कोड व्यवस्था बनाई गई, जिसमें अधिकतम 128 चिह्न व्यक्त किए जा सकते थे। उदाहरण के लिए द्विआधारी संख्या 1010000 कैपिटल पी (P) का प्रतिनिधित्व करती है जबकि 1110000 संख्या छोटे पी (p) का प्रतिनिधित्व करती है। इसमें 32 कंट्रोल कैरेक्टर और 94 ग्राफिक कैरेक्टर दिए गए हैं। डिजिटल कंप्यूटर सूचना को 7 के बजाय 8 अंकों (बिटों) के समूह में स्टोर करते हैं। जिसमें से 7 बिटें सूचनाएँ समाविष्ट करती हैं और आठवीं बिट को गलती जाँचने और विशेष चिह्नों को व्यक्त करने में इस्तेमाल किया जाता है। इसीलिए इसे एक्सटेंडिड आस्की कोड कहा जाता है। ऐसे 8 अंकों/बिटों के प्रत्येक समूह को एक ‘बाइट’ कहा जाता है। 8 बिट की व्यवस्था के कारण इसमें 256 अक्षरों/अंकों/स्वरूपों/संयोजनों को व्यक्त किया जा सकता है।
यह बाइट डिज़िटल फोरमेट में ऑन-ऑफ के संयोजनों की व्यवस्था विशेष है जिसमें सबके निर्धारित थे। इसे आस्की कोड कहा गया। आस्की का पूर्ण रूप है (ASCII) अमरीकन स्टैंडर्ड कोड फॉर इन्फोर्मेशन इंटरचेंज़। यह कंप्यूटरों पर टैक्स्ट डाटा और नियंत्रक कमांडों को अंतरित करने का मानक है जो सूचना को मानक डिजिटल फोरमेट में बदल देता है। इसी के कारण एक कंप्यूटर दूसरे कंप्यूटर से सूचनाएँ शेयर कर पाते हैं और डाटा को प्रभावशाली ढंग से स्टोर और प्रोसेस कर पाते हैं।
इसका इस्तेमाल सर्वप्रथम इंटरनेशनल बिजिनेस मशीन कारपोरेशन (आईबीएम) ने 1981 में पर्सनल कंप्यूटर के पहले माडल के साथ किया गया था। शीघ्र ही यह एक्सटेंडिड आस्की कोड पर्सनल कंप्यूटरों के पूरे उद्योग का मानक बन गया। इसीलिए हरेक अंग्रेज़ी सॉफ्टवेयर निर्माता इस कोड को अपनाने के लिए बाध्य है। कोई व्यक्ति इसके बदले अपने कोड इस्तेमाल नहीं कर सकता है। क्योंकि यदि सब लोग एक ही कोड इस्तेमाल नहीं करेंगे तो बड़ी अराजक स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। उदाहरण के लिए, यदि एक सॉफ्टवेयर में 65 का स्थान ‘A’ के लिए निर्धारित हो और दूसरा किसी सॉफ्टवेअर में यही स्थान ‘K’ के लिए निर्धारित हो तो। पहले सॉफ्टवेयर में तैयार दस्तावेज को जब हम दूसरे सॉफ्टवेयर में खोलेंगे तो दस्तावेज़ में जहाँ-जहाँ ‘A’ लिखा होगा, वहाँ-वहाँ ‘K’ दिखाई देगा। नतीजतन, लिखा हुआ बेतरतीब और बेमानी हो जाएगा। इससे बचने के लिए ही अंग्रेज़ी में इस व्यवस्था का सख्ती से अनुपालन किया जाता है।
इस कोड व्यवस्था में पहले 128 स्थान अंग्रेज़ी के लिए नियत हैं और शेष 128 स्थानों पर अन्य भाषाओं के देश-काल के अनुसार अक्षर निर्धारित किए गए हैं। इन स्थानों पर कहीं फ्रेंच के तो कहीं अरबी, कोरियाई या चीनी भाषा के अक्षर तय किए हुए हैं। जब हिंदी या भारतीय भाषाओं को कंप्यूटर पर लाने की कोशिश शुरू हुई तो सबसे पहला काम एक सुचिंतित और सुविचारित कोड व्यवस्था को बनाने का था।
क्रमश : अगले अंकों में जारी…
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सुन्दर
जवाब देंहटाएंAgood attempt. Waiting for next issues
जवाब देंहटाएंDr madhu sandhu, Professor, Hindi Deptt, GND University, Amritsar.