हिंदी कंप्यूटरी सूचना प्रौद्योगिकी के लोकतांत्रिक सरोकार हिंदी कंप्यूटरी सूचना प्रौद्योगिकी के लोकतांत्रिक सरोकार ...
हिंदी कंप्यूटरी
सूचना प्रौद्योगिकी के लोकतांत्रिक सरोकार
हिंदी कंप्यूटरी
सूचना प्रौद्योगिकी के
लोकतांत्रिक सरोकार
वेद प्रकाश
लोकमित्र
लोकमित्र
1/6588, सी-1, रोहतास नगर (पूर्व)
शाहदरा, दिल्ली-110032
दूरवाक् : 22328142
@ वेद प्रकाश
प्रथम संस्करण 2007 ईस्वी
मूल्य : एक सौ पचहत्तर रुपये
आवरण : कमलकांत
HINDI COMPUTEREE
Written by Ved Prakash
Price : Rs. 175.00
LokMitra
1/6588, C-1, Rohtas Nagar (East)
Shahdara, Delhi-110032
Telephone : 22328142
पूज्य पिता श्री राम प्रसाद
एवं माता श्रीमती लाजवंती को सादर समर्पित,
जिन्होंने अपार कष्ट सहकर भी
मुझे सदैव आगे बढ़ाया
भूमिका
सूचना क्रांति की रफ्तार का अंदाज़ लगाने का एक तरीका यह भी हो सकता है कि आप याद करें कि वाई टू के में प्रवेश करने से पहले याने सन् 2000 के पहले आपके घर-दफ़्तर, मोहल्ले-पड़ोस में कितने मोबाइल फोन थे, कितने इंटरनेट कनेक्शन। जो चीज़ें कुछ ही बरस पहले तक बड़े लोगों के विशेषाधिकार के दुर्ग में सुरक्षित थीं, वे आज साधारण लोगों तक भी पहुँच रही हैं। अब मोबाइल फोन की नुमाइश या इंटरनेट कनेक्सन का ज़िक्र करके कोई अपने आपको ‘चुने हुए लोगों’ की श्रेणी में नहीं मान सकता। अब समाज कंप्यूटर भगवान के अपने ख़ास लोगों और उस भगवान से वंचित साधारण मनुष्यों के बीच बँटा हुआ नहीं रह गया है।
विस्तार किसी भी प्रौद्योगिकी का स्वभाव है; उसके बने रहने की शर्त है। जितने अधिक उपभोक्ता, उतनी सस्ती और सक्षम तकनीक—प्रौद्योगिकी के इतिहास में यह लगातार होता आया है। लेकिन केवल इतना ही होता रहे तो एक अन्य प्रकार का वर्ग-विभाजन भी समाज में पैदा हो जाता है। कुछ लोग ज्ञान-विज्ञान का उत्पादन करते हैं, कुछ लोग इस समूची प्रक्रिया के हाशिए पर खड़े या पड़े या तो बस उपभोग करते रहें या ज्ञानियों का रौब खाते रहें। अपने समाज में ऐसा विभाजन ज्ञान के हर क्षेत्र में दीखता है, सिर्फ तकनीक ही के क्षेत्र में नहीं।
यह साफ है। अपने यहाँ ज्ञान-विज्ञान और सोच-विचार की भाषा कुछ और है; और उस ज्ञान-विज्ञान को बेचने की भाषा कुछ और। पैसा तो हिंदी में अपना माल बेचने से ही मिलता है, वह माल चाहे गहना-कपड़ा जैसा हो चाहे फिल्म या सीरियल जैसा। इसीलिए प्रोडक्ट का विज्ञापन हिंदी में होता है, सीरियल हिंदी में बनाए जाते हैं। एक से एक नकचढ़े चैनल हिंदी में खुद को लाँच करते हैं—लेकिन इस सब चीज़ों से जुड़े फ़ैसले अंग्रेज़ी में लिए जाते हैं। हिंदी प्रचार की भाषा है --- अंग्रेज़ी फैसलों की।
सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में यह स्थिति डिज़िटल विभाजन कहलाती है। इस विभाजन को बढ़ावा देने वाला एक तत्त्व हम हिंदी वालों का नए के प्रति नकार भी है। हिंदी के कुछ धनी धोरी तो प्रौद्योगिकी के व्यवहार रूपों के प्रति अपने अज्ञान में रस भी लेते हैं, उस पर गर्व भी करते हैं। अज्ञान के इस आत्मविश्वास को नई पीढ़ी के भी संस्कार का हिस्सा बनाने का प्रयत्न वे बड़े आत्मविश्वास के साथ करते हैं। प्रौद्योगिकी से वंचित होने को वे ‘सरल हृदयता’ के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते हैं—हालाँकि ‘सरल हृदयता’ से उनका संबंध इतना सरल होता नहीं। सच तो यह है कि डिज़िटल विभाजन उसी बृहत्तर विभाजन का एक पहलू है, जो ज्ञान पर कुछ लोगों के एकाधिकार का परिणाम भी है और कारण भी।
ऐसे विभाजन को तोड़ना गहरे अर्थ में समाज के लोकतांत्रिकीकरण में योगदान करना है। श्री वेद प्रकाश की यह पुस्तक ऐसे योगदान के रूप में ही देखी जानी चाहिए।
श्री वेद प्रकाश ने कंप्यूटर-विद्या किसी से बाकायदा सीखी नहीं, अपने आपको स्वयं सिखाई है। ऐसा बहुत से लोग करते हैं। वेद प्रकाश की विशेषता यह है कि उन्होंने कंप्यूटरी को अपनी लोकतांत्रिक सामाजिक चेतना के साथ जोड़ कर अपनाया है। पिछले कई बरसों की लगन और मेहनत से वे स्वयं तो कंप्यूटरी के उस्ताद बन ही गए हैं, इस उस्तादी को बाँटना जैसे उन्होंने अपना मिशन बना रखा है। इस मिशन का प्रसाद बीच-बीच में मुझे भी मिलता रहता है। बहुत ही खुशी की बात है कि अब वेद प्रकाश ने अपनी जानकारी और अनुभव के आधार पर हिंदी कंप्यूटरी से जुड़ी ग़लतफहमियों और संकोचों रो दूर करने का प्रयत्न इस छोटी सी पुस्तक के जरिए किया है।
इस पुस्तक को पढ़ना आपको पढ़ना कम, बतियाना ज़्यादा लगेगा। इतने साफ-सुथरे ढंग से, इतने व्यावहारिक नज़रिए से वेद प्रकाश ने हिंदी कंप्यूटरी से जुड़े मुद्दों को समझाया है कि बिल्कुल आरंभिक पाठक के लिए भी पुस्तक अत्यंत उपयोगी हो गई है। इसी के साथ, वेद प्रकाश ने हिंदी कंप्यूटरी के व्यापक सामाजिक और सैद्धांतिक पहलुओं पर ध्यान लगातार जमाए रखा है। इसीलिए यह किताब हिंदी में कंप्यूटरी करना सिखाने वाली किताब भर नहीं, बल्कि इस विषय पर लोकतांत्रिक ढंग से सोचने का न्योता देने वाली किताब है।
इस किताब को पाठक हाथों हाथ लेंगे—कम से कम मुझे तो इस बात का पूरा यकीन है।
पुरुषोत्तम अग्रवाल
45, दक्षिणापुरम,
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली- 110067
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अपनी बात
सन् 1995 की बात है. किसी पत्रिका में हिंदी के विज्ञान लेखक गुणाकर मुळे का एक लेख मेरी नज़र से गुज़रा जिसमें उन्होंने कहा था कि एक लंबे समय से वे अपने लेख सीधे कंप्यूटर पर टाइप करते हैं. और वे चाहते थे कि हिंदी के लेखक भी कंप्यूटर मित्र हो जाएँ, नहीं तो हिंदी का भविष्य खतरे में पड़े या न पड़े हिंदी के लेखकों का भविष्य ज़रूर खतरे में पड़ जाएगा.
यह बात कहीं न कहीं मेरे भीतर पलती रही. हमारे कार्यालय में सभी सरकारी कार्यालयों की तरह अंग्रेज़ी का माहौल था. हिंदी के नाम पर प्रतियोगिताएँ, पुरस्कार योजनाएँ, हिंदी बैठकें भी चलती रहती थीं. इनके साथ ही अंदर ही अंदर हिंदी में काम की मात्रा धीरे-धीरे ही सही बढ़ती जा रही थी. इसी बीच कार्यालय में कंप्यूटर का प्रवेश हुआ. शुरू में यह काफी सीमित था. कंप्यूटर पर टाइप मात्र करने वाले लोग किसी टैक्नोक्रेट के समान श्रद्धा से देखे जाते थे. हिंदी विभाग के लोग तो सहम कर उधर ताकते तक न थे.
गुणाकर मुळे की बात हिंदी अधिकारी होने के नाते मन में कहीं कसकती भी थी. इसी कशमकश में दिन बीत रहे थे कि हमारे मुख्यालय ने हिंदी सॉफ्टवेयर की सीडी भेज दी. यह सीडी भारत सरकार के संस्थान सी-डेक के हिंदी सॉफ्टवेयर एएलपी (एपेक्स लैंग्वेज़ प्रोसेसर) की थी. यह एक डॉस-आधारित स्वतंत्र बहुभाषी हिंदी शब्द संसाधक था. लगभग उतना ही शक्तिशाली और सुविधा संपन्न जितना कि उस समय वर्ड स्टार नामक अंग्रेज़ी सॉफ्टवेयर था. उनके इस कदम ने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी. सबसे ज्यादा हम ही खिले हुए थे. मैं सोच रहा था कि अब हिंदी के विकास और प्रसार को कौन रोक सकता है.
लेकिन जल्द ही मुझे पता चल गया कि कंपनी का काम जिन सॉफ्टवेयरों में होता है, यह उनसे काफी अलग और काफी सीमित है. मेरे उत्साह पर तुषारापात हो गया. पर कोई बात नहीं. कंप्यूटर की पवित्र-पावन दुनिया में हिंदी का प्रवेश तो हुआ.
लेकिन ठहरिए, इसके साथ एक और समस्या आई. जो एएलपी सॉफ्टवेयर हमें भेजा गया था उसमें केवल इंस्क्रिप्ट कुंजीपटल था. चूँकि वह मैनुअल टाइपराइटर के कुंजीपटल से बुनियादी रूप से भिन्न था इसलिए हमारी टाइपटिस्ट ने उस पर टाइप करने से मना कर दिया. इस चक्कर से निकलने के लिए हमने सोचा कि एक कुंजीपटल खरीद लेते हैं जो रेमिंग्टन के हिंदी कुंजीपटल जैसा हो. ताकि हमारी टाइपिस्ट को उस पर काम करने में कठिनाई न हो.
कुंजीपटल विक्रेता ने हमारा ज्ञान वर्धन किया कि यह मामला कुंजीपटल का नहीं, सॉफ्टवेयर का है, इसलिए बेहतर हो कि हम उसका कंपनी का सॉफ्टवेयर खरीद लें जिसमें इंस्क्रिप्ट कुंजीपटल के साथ-साथ रेमिंग्टन कुंजीपटल और एग्ज़ीक्यूटिव कुंजीपटल भी दिया गया है.
अभी यह चल ही रहा था कि कार्यालय में विंडोज़ ऑपरेटिंग सिस्टम ने प्रवेश किया. जिसके साथ ही एमएस वर्ड, एमएस एक्सेल और एमएस पावरप्वाइंट थे. अंग्रेज़ी में बनी प्रस्तुतियों को देख कर मन सालता रहता था कि यह सब हिंदी में कब होगा. इससे मुझे अहसास हो गया कि मंज़िल अभी दूर है. लेकिन मैं यह भी समझ गया कि मंज़िल दूर भले ही हो, पर हासिल की जा सकती है. लेकिन कैसे? मैं एक हिंदी अधिकारी, भाषा की बारीकियों को तो समझता था, सहयोगियों की अंग्रेजी़ मानसिकता के दाँव-पेचों से भी अनभिज्ञ नहीं था. परंतु कंप्यूटर की तकनीक का क्या करूँ? वह कहाँ से सीखूँ?
इसी बीच प्रचार सामग्री के मुद्रण के समय पता चला कि डीटीपी की दुनिया में हिंदी का प्रवेश हो चुका है. ऐसी ही स्थिति में एक दिन हिंदी अधिकारी को ढूँढते हुए एक सॉफ्टवेयर विक्रेता आए. उनका नाम था श्रीकांत और वे एसआरजी कंपनी से जुड़े थे. उन्होंने मुझे कहा कि अगर हम उनका सॉफ्टवेयर खरीद लें तो वे सब काम जो अंग्रेज़ी में होते हैं, हिंदी में भी हो सकेंगे.
उनकी इस बात ने मेरी बरसों की हसरत को फिर जगा दिया और हमने ठान लिया कि अब चाहे कुछ हो जाए, हिंदी को कंप्यूटर पर उसका उचित स्थान दिलाना ही मेरा मकसद होगा.
1996 में माइक्रोसॉफ्ट के मुख्य कार्यपालक बिल गेट्स भारत आए. तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री एच.डी. देवेगौड़ा से मुलाकात के समय उन्होंने वादा किया कि विंडोज़ के अगले संस्करण में वे हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं को भी शामिल कर लेंगे.
1996 में हिंदी दिवस के अवसर पर 14 सितंबर को तत्कालीन रक्षामंत्री मुलायम सिंह यादव ने पीसी-डॉस के हिंदी संस्करण का विमोचन किया. जिसमें एक हिंदी प्रोग्रामिंग भाषा भी शामिल थी. लेकिन तब तक ज़माना डॉस छोड़कर विंडोज़ के वातावरण में प्रवेश कर चुका था. इसलिए इस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया.
विंडोज़ 98 तो नहीं, पर विंडोज़ 2000 और माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस के दक्षिण एशियाई संस्करण में हिंदी समर्थन प्रदान कर माइक्रोसॉफ्ट ने अपना वादा निभाया.
तब से हिंदी कंप्यूटरी लगातार प्रगति के पथ पर अग्रसर है.
हालाँकि समस्याओं ने इसका दामन नहीं छोड़ा, कभी फोन्ट की समस्या, कभी कुंजीपटल की समस्या, कभी पुराने आँकड़ाकोशों की समस्या, पर इसने आगे बढ़ना भी नहीं छोड़ा. हिंदी कंप्यूटरी की कहानी जनभाषा हिंदी और इसके समर्थकों के अथक प्रयासों की कहानी है. यह एक ज़िंदा भाषा की प्रतिकूल परिस्थितियों में डटे रहने, उनका मुकाबला करने और कभी हार न मानने की कहानी भी है. इसके लिए हिंदी भाषी जनता और उन सभी को जो इस प्रयासों में जुटे रहे, मेरा शत-शत प्रणाम.
इन्हीं संघर्षों की गाथा इस पुस्तक का विषय है. यह कहानी तकनीकी होने के बावजूद काफी रोचक है. इसमें हिंदी कंप्यूटरी के भविष्य का पथ भी चिह्नित करने का प्रयास किया गया है.
लेकिन मेरी बात अधूरी रह जाएगी यदि मैं उन तकनीकी लोगों का ज़िक्र न करूँ जिन्होंने हर कदम पर इस विषय को समझने में मेरी सहायता की थी. मेरे छोटे-छोटे प्रयासों को उत्साहपूर्वक अपनाया था. सबसे पहले सी-डेक, बेंगलूर के श्री सुमन सरकार, इन्होंने हर तकनीकी विषय को मुझे समझाने का प्रयास किया. तकनीकी शब्दावली के जाल में से सार कैसे ग्रहण किया जाता है, यह सिखाया. कंप्यूटर की व्यवहारिक दिक्कतों के लिए मेरे बेंगलूर कार्यालय की श्रीमती एस.विजयश्री ने मुझे काफी सहयोग दिया. और धैर्यपूर्वक मुझ सरीखे तकनीक अनभिज्ञ आदमी को तकनीक के साथ रहना सिखाया.
नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, बेंगलूर की सदस्य सचिव श्रीमती विजया मल्लिक ने मेरे कंप्यूटर संबंधी लेखों को छाप कर मेरा उत्साह बढ़ाया. मेरे धैर्यवान मित्र श्री भूपेंद्र कुमार ने मेरे साथ टीम बना कर जिस तरह हिंदी कंप्यूटरी को आगे बढ़ाया उससे मेरे विचार मूर्त रूप ग्रहण कर सके.
मेरी कंपनी के सभी वरिष्ठ अधिकारियों का मुझे भरपूर समर्थन मिला, शब्दों में उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना काफी कठिन कार्य है. फिर भी, मैं बेंगलूर कार्यालय के तत्कालीन प्रभारी पी. आर. तिरुमलै, तथा अपने वर्तमान विभागाध्यक्ष श्री डी.के. बबूता, कार्यालय प्रभारी श्री ओ.पी. पाण्डेय जी और सहयोगी श्री विवेक सक्सेना के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ.
सी-डेक, दिल्ली के श्री जसजीत सिंह तो इस पुस्तक के शब्द-शब्द में मौजूद हैं. इसके ड्राफ्ट को पढ़कर उन्होंने अपने बहुमूल्य विचारों से इस किताब को संवारने में जो मदद की है, उसे बयान करना संभव ही नहीं.
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने ही मुझे प्रेरित किया कि मैं अपने विचारों को पुस्तक रूप दूँ. प्रो.पुरुषोत्तम अग्रवाल ने ठीक ही हिंदी कंप्यूटरी को भारत के लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा माना है. बिना हिंदी या भारतीय भाषाओं के कैसा भारत?
पुस्तक के आवरण के लिए मैं अपने मित्र चित्रकार एवं भित्ति मूर्तिकार कमलकांत का आभारी हूँ.
पुस्तक के लिखने में मेरी पत्नी कृष्णा प्रिया और पुत्री प्रज्ञा एवं पुत्र सम्यक का आभार प्रकट करना उनके प्रेम, आत्मीयता और समर्पण के प्रति कृतघ्नता होगी.
सभी हिंदी प्रेमियों से अनुरोध है कि वे इस पुस्तक की त्रुटियों और खामियों से अवगत कराने का कष्ट करें ताकि इसे और अधिक प्रामाणिक व उपयोगी बनाया जा सके.
वेद प्रकाश
273, पाकेट-डी,
मयूर विहार, फेज़ 2,
दिल्ली-110091
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क्रमश: अगले अंक में जारी….
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इस विषय पर मैंने तुरंत सर्च किया तो पाया कि लिखा तो गया है लेकिन इस अंदाज में नहीं।
जवाब देंहटाएंइस पुस्तक का परिचय पढ़कर बहुत अच्छा लगा। आगे इसकी विषय-सूची भी देने का कष्ट करें तो इस पुस्तक के बारे में और रूचि जागे।
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