व्यंग्य नवगति-अद्योगति-दुर्गति... -- अनुज खरे वे छह छंदमुक्त कविताएं सुना लेने के पश्चात् सातवीं के लिए ‘स्टार्ट’ ले रहे थे। ज...
व्यंग्य
नवगति-अद्योगति-दुर्गति...
-- अनुज खरे
वे छह छंदमुक्त कविताएं सुना लेने के पश्चात् सातवीं के लिए ‘स्टार्ट’ ले रहे थे। जीभ लपलपा रहे थे। पिछली टांगों... माफ कीजिए पैर से पैर खुजा रहे थे। ज्ञान की खूंखार चमक चेहरे पर थी। छह सुना लेने की प्रचंड संतुष्टि से आप्लावित दिखाई दे रहे थे। उनका घर इन क्षणों में अस्थायी तौर पर खाली हो चुका था। माताजी दांयी और की अम्माजी का भेजा खाने निकल गई थी। पिताजी जो खांसते-खांसते बलगम थूकने गए तो नाले के पास चबूतरे पर ही आसनाधीन हो गए। उनकी पत्नी ‘सदियों’ तक उनके इस ‘कृत्य’ को सहन करने के पश्चात् विद्रोह कर सुनने-सुनाने की इस व्यवस्था से बाहर निकल चुकी थी। बच्चे उनके पक्ष में बाहरी दरवाजे पर इसलिए तैनात हो गए थे ताकि इस समय किसी भी बाहरी ‘आक्रांता’ के बैठक में जाने से रोका जा सके, जहां मैं टॉर्चर किया जा रहा था। घर भांय-भांय कर रहा था, हवां सांय-सांय कर रही थी, मेरी आत्मा हांय-हांय कर रही थी। पूरा माहौल गहन अनुभूति से भरा ‘वैराग्यमयी’ टच दे रहा था। पूरी स्थिति पुलिस की भाषा में ‘कंट्रोल’ में है, वाली ही थी। टीन-टप्परों से खंगालकर, तकिया हटाकर, सोफे के नीचे हाथ डालकर वे अपनी कविताओं के सहमे से पन्ने खींच रहे थे, आंखों के सामने लाकर टारगेट सैट करते, फिर लाइनों पर लाइनें दागे जा रहे थे।
- ‘ये लीजिए जनाब, एक और’, शीर्षक है-लेटर बॉक्स... उनकी आवाज सुनकर ऐसा लगा जैसे पानी फेंककर होश में लाया रहा हूं। फिर शुरू हो गए...।
लेटरबॉक्स, तुम और मैं...।
लालिमा भरा गहन क्षितिज,
आत्मा की लाल सरगोशियां,
जिंदगी के कुछ पत्र-पोस्टकार्ड,
रिश्तों के शब्द-अर्थ-शब्द
भावनाओं की स्याही, लाल-लाल
उसकी साड़ी-दुपट्टे का रंग लाल-लाल,
अच्छाई का रास्ता संकरा-संकरा,
अंदर लेटरबॉक्स जैसा विशाल संसार...
इतना सुनाकर एक बार हांफे, दोबार खांसे, तीन बार घड़ी देखी, चार बिस्कुट उठाकर मुंह में रखे, पांचवीं बार में मेरी ओर निहारा। उनकी इस प्रक्रिया के दौरान मैंने भी छह-सात बार अपनी रुकी हुई सांसें लीं, बिस्कुटों पर हाथ लगाया, घड़ी देखी, उठने को उद्यत हुआ ही था कि वे फिर शुरू हो गए...
बुराई के ढेर के बीच, अच्छाई का अंतरदेशी,
सदेच्छाओं का ‘पता’, मोक्ष का टिकट लगा,
पहला पन्ना, भले कर्मों का खाता-बही,
दूसरा पन्ना, संसार के भंवर में नैय्या फंसी
तीसरा पन्ना, पास बुलाता दुष्कर्मों का कोहरा,
चौथा पन्ना, लिप्सा-लालसाओं का जाल घना,
पांचवां पन्ना,...
इसके पहले वे कुछ बोलते मैंने निवेदन किया,
‘अंतरदेशीय में तो चार ही पन्ने...!’
‘कविता की आत्मा में ‘तर्क’ मत बैठाओ’ वे बोले।’
‘कितने पन्ने अभी और बाकी है...’ मैंने कहा।
वे पन्ने गिनने लगे।
मैंने कहा-‘अंतरदेशीय में’
‘ओ... हो... हो...!’ मैं समझा मेरी कविताओं के उन्होंने कहा।
‘यार...! ये जीवन का सार टाइप की कुछ कविता है, आसानी से किसी के भेजे में नहीं घुसती’।
‘तो उन्हें सुनाओ जो समझ लें, मैंने फिर उन्हें आवेदन प्रस्तुत किया’।
‘बस...! मनुष्यों में यही तो खामी है ‘ज्ञान’ की जरा सी’ भी बात हुई नहीं कि वो संसार से पलायन करने लगता है’ वाणी में खराश और सघनता का पुट देते हुए उन्होंने यह बात कही।
‘सभी लोभ-लालच-लिप्सा में लिथड़े पड़े हैं, फिर भी सच्चाई से आंखें मूंदे’ अब की बार उन्होंने खराश की मात्रा घटाते हुए सघनता की मात्रा ज्यादा कर दी, फिर वांछित प्रभाव जानने के लिए मेरी ओर देखा।
मैंने समझ लिया बहस करुंगा तो ‘यातना का कालखंड’ ज्यादा बढ जाएगा। बोलने को ही था कि वे फिर बोल पड़े।
‘‘इसी कविता को लो लेटरबॉक्स जैसे क्षुद्र प्रतीक में भी जीवन की सच्चाई व्यक्त करने की ताकत है, हम एक दूसरे के इतने छिद्रान्वेषण में लगे रहते हैं कि संसार की मामूली से मामूली चीजों तक से शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते, इसी से तो मानव की इसे अद्योगति हो रही है।’’
‘फिलहाल तो मेरी दुर्गति हो रही है’-मैंने बोला ही था कि उन्होंने बिस्कुट मेरी तरफ बढा दिए, फिर कहा-दुर्गति तो जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त हो रही है। इसी पीड़ा को मैंने चार लाइनों में व्यक्त करने का प्रयास किया है।’ सहमति-असहमति आदि-आदि बातों से वे कब का ऊपर उठ चुके थे। मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही शुरू हो गए।
‘नवगति-अद्योगति-दुर्गति’
मनुष्य की लाइफ स्टाइल की चेंजिंग पर है, सरलीकृत करते हुए उन्होंने बताया।
तो, ‘नवगति-अद्योगति-दुर्गति’
‘दर्द-दुख-दारुण्यआंसू’
इसी क्रम से ये वेदनाएं बढती हैं, उन्होंने इस बार दार्शनिक व्याख्या की।
हां, तो दर्द-दुख-दारुण्यआंसू
प्रीत-पैसा...ब्’
इस बार दार्शनिक व्याख्या की।
‘प्याज...! तो नहीं, मैंने कहा, ‘आंसू तो प्याज से ही आते हैं।’
‘प्याज की चला जाएगा, यह भी तो सुख-दुख की पर्तों के बीच छुपे आंसुओं को ही बताता है। फिर कविता भी तो छंदमुक्त है। मेरी बात समझने के ‘सम स्तर’ पर आने का प्रयास कर रहे हो’ इस बार उन्होंने वाणी में खराश और सघनता के बीच कुछ ‘पॉज’ डाले।
हां, तो नवगति-अद्योगति-दुर्गति
दर्द-दुख-दारुण्यआंसू
प्रीत-पैसा-पतंग
‘पतंग...!! मैंने कहा।’
हां, रे हां, पतंगी कागज जैसी नश्वर देह, कुछ दिन माया-मोह की सांसारिक हवा पर ऊंचे-नीचे गोते खाती है, कुछ ‘लोगों’ की काट कर अपने फिरकी पर अभिमान करती है, फिर सच्चाई के खंभे से उलझकर वास्तविकता की जमीन पर धड़ाम से गिर जाती है।
‘मंझा तेज हो तो’-मैंने दार्शनिक चर्चा में बितंडावाद की जगह निकालने की कोशिश की।
- ‘हाथ भी कटेगा- गिरेगी जरूर’, भले ही घडा भरने में कुछ समय लग जाए’-अब वाणी में उन्होंने ऊपरी वस्तुओं के साथ मिठास की अतिरिक्त मात्रा मिलाई।
फिर कहा- ‘नवगति-अद्योगति-दुर्गति’
‘दर्द-दुख-दारुण्यआंसू’
‘प्रीत-पैसा-पतंग’
‘जालिमलोशन-जालिमलोशन-जालिमलोशन’
‘छीःछीः...! कविता में अति आधुनिकतावादी घुसपैठ’- उन्होंने कहा।
‘नहीं जी, ये तो व्यवहारवादी अतिक्रमण की व्यवस्था है। प्रेक्टकल एप्रोच’ मैंने सफाई दी।
‘इसी व्यवहारवादी सोच के कारण ही तो पतन हो रहा है’, नैतिकता का लोप हो रहा है, जो कही जरा सा भी फटा पायजामा देखता है अपनी टांग घुसेड़ने लगता है, फिर भाइयों के पैर। अंततः भतीजों के पांव डालकर पायंचे को पूरी तरह फाड़ देता है। इस तरह यह व्यवहारवादी सोच व्यवस्था को जालिम, मजलूम को असहाय, बली को बाहुबली-धनबली बनाने की दिशा में परिवर्तित हो जाती हैब्’ अबकी बार उन्होंने दार्शनिकतावाद में सर्वहारावाद को मिक्स कर व्यवहारवाद की उत्कृष्ट व्याख्या कर डाली। फिर दोबारा ‘मेन लाइन’ में गाडी डालते हुए बोले- ‘मुद्दे से ध्यान मत भटकाओ बंधुवर, पहले चार लाइनें पूरी करने दो।’ फिर कुछ तेज आवाज में स्टार्ट हो गए, ताकि मैं फिर किसी ‘वाद’ को बीच में ना ला दूं।
‘नवगति-अद्योगति-दुर्गति’
‘दर्द-दुख-दारुण्यआंसू’
‘प्रीत-पैसा-पतंग’
‘चिदंबरम-चिदंबरम-चिदंबरम’
हें...! मैं गिरते-गिरते बचा। ‘ये कैसी कविता है’, मैंने कुछ प्रतिवादनुमा सा स्वर निकाला।
‘छंदमुक्त-बंधमुक्त-गंधमुक्त’ जीवन में महक फैलाने वाली’-उन्होंने फिर रहस्यात्मक दार्शनिक व्याख्या की।
‘ये कैसी कविता है, जो जीवन की दार्शनिकता-सांसारिकता की विवेचना करते-करते वित्तमंत्री चिदंबरम पर खत्म होती है’- अपने प्रतिवाद को मैंने विस्तार दिया।
- ‘जानो-समझो-परखो,’ ‘ये कोई मामूली कविता नहीं हैं, इसमें सार छुपा हुआ है-जीवन सार’ उन्होंने फिर कुछ रहस्यात्मक आवाज में बताया।
-‘‘जीवनसार’’...ब्
-‘‘हां, जीवनसार’’... ‘पहली लाइन में बात है लाइफ स्टाइल चेंजिंग’ को लेकर, दूसरी लाइन बात करती है वेदनाओं के बढते चले जाने की फिर तीसरी लाइन में संसार की निस्सारता के बारे में गूढ बात की गई है। चौथी लाइन में जीवन की वास्तविकता की बात कही गई है।
-वे फुसफुसाए।
-‘क्या वास्तविकता!! मैंने उनसे सरल भाषा में विवरण की मांग रख दी।’
-देखो, शेयर मार्केट में पैसा लगाओगे, फिर महंगाई बढ़ेगी। शेयर गिरेंगे, पैसा डूब जाएगा, लाइफ स्टाइल चेंज हो जाएगी, दुख पर दुख मिलने लगेंगे यानि क्रम से वेदनाएं बढेंगी तो संसार तो नश्वर लगेगा ही, बोलो सच है कि नहीं’ उन्होंने और सरलीकृत ढंग से समझाया।
- ‘फिर इनके पीछे जिम्मेदार कौन हैं चिदंबरम, वित्तमंत्रीजी-बोलो है कि नहीं’
- ‘हां, है तो... फिरब्’
- ‘फिर क्या मानव को वैराग्य की दिशा में ले जाए-मोक्ष के बारे में सोचने पर विवश करे। उस महान आत्मा से ज्यादा और किसके नाम से आमजन की इस पहली वास्तविक कविता का समापन किया जा सकता है’-उन्होंने ‘विस्तारवादी’ तरीके से बात समेटी।
- ‘लेकिन गुरु, इतनी महान वास्तविक रचना का आइडिया आफ पास आया कहां से’- मैंने उठते-उठते जानना चाहा।
- ‘‘शेयर मार्केट में 5 लाख गंवाने के बाद’’-कहकर वे उठे और बच्चों को दरवाजा छोड़कर बाहर खेलने के आदेश देने में व्यस्त हो गए।
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संपर्क:
अनुज खरे
सी- 175 मॉडल टाउन
जयपुर
मो. 9829288739.
मज़ा आ गया. हमें मालुम ही नहीं था कि अनुज जी कवि भी हैं. व्यंग के पीछे दर्द है इसीलिए यह आलेख दिल में गहराई तक उतर जाता है. - राजेंद्र बोड़ा
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