व्यंग्य टेकं लोनं, घृतं पिवेतः .... -अनुज खरे आधुनिक युग में इंडिया के आकाश के ऊपर से तीव्र गति से चार्वाक ऋषि की आत्मा गुजर रही ...
व्यंग्य
टेकं लोनं, घृतं पिवेतः ....
-अनुज खरे
आधुनिक युग में इंडिया के आकाश के ऊपर से तीव्र गति से चार्वाक ऋषि की आत्मा गुजर रही है। साथ में कुछ हल्के मंझोले शिष्य भी इस अनंत मात्र में उन पर बोझ बने चिमटे हुए हैं। ऋषि भौतिकवाद का आनंद नहीं ले पा रहे हैं। शिष्य सिद्धांत समझने के नाम पर उन्हें खसोटते से रहते हैं। शिष्यों में एक परवर्तीकाल में उनके सिद्धांतों के अनुसरण द्वारा ‘मोक्ष’ को प्राप्त हुआ कुछ ज्यादा ही वाचाल प्राणी है। अपनी मातृभाषा आंग्ल का प्रचंड प्रेमी भी है। अतः ऋषि को इससे बराबर ‘डर’ बना रहता है। बाकियों के सामने आंग्ल में ना जाने क्या गिटपिट करता रहता है। वो तो उनका अनुभव है, जिससे वे ‘सिचुएशन हैंडिल’ कर लेते हैं, अन्यथा तो बाकी शिष्यों के किसी और ज्ञानी संप्रदाय की ओर खिसकने का खतरा भी तैयार रहता है। फिलहाल वे मुंबई के ‘स्काई जोन’ में कुछ ठिठक गए हैं, नीचे मायानगरी असंख्य लाइटों की आगोश में भौतिकवाद-ऐश्वर्य के शीर्ष पर दमक रही है। शिष्यों की ओर नजर डालते ही समझ गए ‘ज्ञान’ देने का अद्भुत अवसर। मूढ़ शिष्यों को ज्ञान वर्षा से सराबोर कर ‘स्नातक’ ही बना देना चाहिए।
- शिष्यों ! कुछ ऋषिमय पोज में उन्होंने समूह को संबोधित किया।
-आज्ञा, शिष्यवृंद मिमियाती सी आवाज में बोला।
-देखो, हमारे सिद्धांतों का भौतिक सत्यापन, इस नगरी की ओर देखो, विलास में डूबी नगरी की ओर चक्षु ले जाओ। बोलने को तो उन्होंने बोल दिया। भीतर ही भीतर कांप गए। भौतिक सत्यापन ऐसा जटिल, शब्द इस आंग्लभाषी कपटी शिष्य के सामने। अभी मुंह चौडा करके ‘ट्रांसलेशन’ की मांग न कर बैठे।
- फिर मुनिवर ने शिष्यवृंद को घनघोर निगाहों से देखा-देखो तो कैसे दीदे फाड़कर देख रहे हैं। पाखंडी कहीं के, जैसे जीवन में सुख भोगे ही न हों, फिर गुरु गंभीर हुए, बोले- नैना बंद कर लो शिष्यों, कहीं नेत्र कोटर लोलुपता में जमीन पर ही न गिर जाएं। फिर कहा- यहां रहते हैं हमारे संप्रदाय के धरा पर सर्वश्रेष्ठ निवासी, नाम ही इसका मायानगरी है। सुख-भोग्य ही इनका परम ध्येय है शिष्यों।
-सूखा-भोगया, मीन्स गुरुजी आई डोंट अंडरस्टैंड, आंग्लभाषी कहीं नजरें गड़ाए-गड़ाए एकाएक बोला।
- हो गया न बंटाधार, ये फफूंद भी ना जाने कहां से पैदा हो गई गुरुजी मन ही मीन खीझे। ऊपर आंखों में विद्वत की चमक भरी, लेकिन ह्रदय के झंझावातों के दौर में उतनी अनुकूल चमक पैदा नहीं हो पाई, इतने से ही काम चला लेंगे, उन्होंने सोचा। इसका क्या करूं। सुख-भोग्य यानी मेरा वो प्राचीन सर्वकालिक सिद्धांतः यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।। के अनुगामी। संस्कृतमय हिंदी में उन्होंने कुछ डिप्लोमेटिक रास्ता निकाला।
नो ! नो ! गुरुजी प्लीज एलोबरेट दिस। शिष्य ने फिर जिज्ञासा प्रकट की।
-- हाय कैसी विपदा आन पड़ी, प्रभु! यह आत्मा न होती तो इसे कब का सिर के बल समंदर में फैंक देता। कुछ लोग मरने के बाद भी अपनी आसुरी प्रवृत्ति के अंतर्गत दूसरों को कष्ट देना नहीं छोडते। वे धीरे से बुदबुदाए। फिर संयत होकर बोले- सुन, टेकं लोनं, परचेज कारं एंड गो फॉर लांग ड्राइवः, फॉरगेट लोनं। फिर अपनी ही इस मेधा पर गिरते-गिरते बचे। यू नो चमत्कारी टाइप के तो वे हैं ही उन्हें याद आया।
- बट गुरुजी, दिस हैपंड लांग बैक इन माई कंट्री, बट नो बडी गोइंग टू मोक्षा। शिष्य जिज्ञासु हुआ-हुआ जा रहा था।
- अबे पगलेट, अब गुरुजी का धैर्य मर्यादा की सीमाओं से बाहर जाने लगा था। जीवन में सुख ही तो सच्चा मोक्ष है। देख नहीं रहा कैसे हम मरने के बाद भी यहां-वहां डोल रहे हैं।
-- बट गुरुजी, आई कांट पे इंस्टलमेंट, दे सेंड मी हेयर ओनली।
-- हें, संप्रदाय में ऐसे कच्चे खिलाडी का प्रवेश। गुरुजी चौंके, इस फफूं द की जडें कितनी गहरी हैं। किसकी सिफारिश से संप्रदाय में प्रवेश पा गया। कहीं बाकी शिष्यों को भी बरगला न दे। शिष्यों को इस धूर्त के चंगुल से दूर रखना ही भला। अन्यथा तो दुष्ट दुकान ही बैठा देगा।
-- ओके, ओके- वी विल डिस्कसं इट ऑफ्टर सम अदर अवसराः। गुरुवर ने उससे पिंड छुड़ाने के लिए अपनी बची खुची मिक्स अंग्रेजी उस पर दे मारी। जिसे उन्होंने इस आधुनिक काल की यात्रा के दौरान जगह-जगह से बटोरकर अपनी स्मृति कोश में भर लिया था।
-- फिर तिरछी निगाहों से शिष्यों की ओर घूरा। सभी कहीं और घूरने में जुटे थे। देखो तो दुष्टों को पलकें तक नहीं झपका रहे। कैसी माया है, कैसी लिप्सा है, शिष्यों का ऐसा निर्लज्ज आचरण देख वे लगे हाथों किसी दार्शनिक संप्रदाय की ओर मुड़ाने ही वाले थे कि एकाएक सारा ऋषित्व, मुनित्व, गुरुत्व याद हो आया।
-- शिष्यों उन्होंने फिर पुकारा। एक दो बार अनसुनी करके शिष्यों ने भी जवाब दिया,कहो गुरुजी। हालांकि अपने नेत्र अन्वेषण के दौरान आई इस कर्कश आवाज पर उनकी इच्छा तो कहने की हो रही थी बको गरुजी। खैर गुरुजी ने कहा- देखो सिद्धांंतों को आगे भी जानो यानि ऋण लेकर किया क्या जाना है।
-- ऋण लेकर और क्या किया क्या जाना है, समवेत स्वर में शिष्यों ने फिर विलाप किया।
-- नरक में ही सडेंगे साले। मन ही मन गुरुजी ने सोचा, फिर गुरुतर दायित्वों के अंतर्गत फिर ज्ञान देने का उपक्रम शुरू कर दिया।
-- देखो शिष्यों, ऋण लो, तत्काल ही उसे सुख-सुविधाओं में लगा दो। मकान लो,सुख-सुविधाएं का सामान जुटाओ,शादी करो फिर सुख से जीओ। ऋण को भूल जाओ।
-- और गुरुजी डिस्कोथेक, नाइट क्लब, आउटिंग- डेटिंग। इनका बारे में क्या? शिष्यवृंद प्रतिवाद पर उतर आया।
-- बस उतर आए न अपनी औकात पर मुनिवर का ह्रदय कांपा। जरूरत के अनुरूप ही ज्ञान देना होगा अन्यथा बिदकने का खतरा। मुनिवर ने मन ही मन गणित बिठाया। फिर एकाएक चौंके, डिस्कोथे, नाइट क्लब, डेटिंग। ये क्या बला है। हमारे जमाने में तो ये पाया नहीं जाता था। फिर बोले- प्रिय शिष्यों, जिन भौतिक उपादनों का अभी तुमने जिक्र किया था तनिक विस्तार से उनके बारे में बतलाओ।
-- गुरुजी ये आधुनिक युग के नए ऐश्वर्य- विलासिता के स्वर्ग हैं। मनुष्य यहां पूंजी उड़ाकर हमारे संप्रदाय के सर्वश्रेष्ठ कर्त्तव्य निर्वाहन में जुटा है। कैसिनो जैसे धूत गृह में तो तत्काल ऋण की सुविधा तक उपलब्ध है। शिष्यों ने लगे हाथों अतिरिक्त अपडेट जानकारियां भी गुरुवर को सौंपनी शुरू कर दीं।
मनुष्य ने भौतिकवाद के इतने आधुनिक सिद्वांत-साधन गढ़ लिए हैं। इतना आगे जा चुका है मानव। गुरुवर ने सोचा । कहा- पर इनमें हमारे संप्रदाय के नियम पद्वतियों का भी ध्यान रखा जाता है कि नहीं?
-- नहीं गुरुवर आधुनिक युग में सिद्वांतों-नियमों -कायदों को पालने से परे मानकर पुस्तकों में ही रखकर आदर दिया जा रहा है।
-- घोर उच्श्रृंख्लता... लगामहीन भौतिकवाद... बिना पावन नियमों के विलासिता भी कष्ट में बदल जाती है। गुरुवर ने मन ही मन सोचा... हमारे सिद्धांतों का इतना अव्यवस्थित विकास। ऐसी तो उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी। ये मनुष्य कर्त्तव्य पथ से इतना च्युत, विलासिता का इतना अनुगामी... घोर कलयुग ही होगा। उन्होंने त्रिकाल दृष्टि की मुद्रा में जाकर इस बाबत फाइलें टटोलीं।
-- खैर, शिष्यों को संभालूं... मनुष्य की विलासवृति के आगे पुराने युग के ये बिचारे विलासी तो नादान बालक सादृश्य दिख रहे हैं। उन्हें शिष्यवृंद पर दया-नेह एक साथ आ गया।
-- फिर नीचे देखकर एकाएक बोले- वो देखो, वो देखो, वो दस गाड़ियों,15 मंजिला घर, 25 चमचों से युक्त कौन महानुभाव दिख रहे हैं?
-- वो एसआरके हैं गुरुवर, शिष्यों ने जानकारी उछाली।
-- कौन? एसआरके...
--गुरुवर आप शाहरूख खान को नहीं जानते ? शिष्यों में पुनः जेनरेशन गैप जैसी फीलिंग उभरने लगी। उन्हें अपने आउटडेटेड गुरुवर पर कुछ खुटका सा होने लगा।
-- ये कौन बला है? गुरुवर ने चिंतन-मनन की आड में सोचने का उपक्रम किया , बोले-- ये महानुभाव तो ऐश्वर्ययुक्त दिखते हैं? इन्होंने तो हमारे सिद्धांतों को किसी सिद्ध की भांति अपनाया हुआ जान पड़ता है?
-- अपनाया क्या गुरुवर? इनके पास तो इतना धन है कि ये उसका उपभोग तक नहीं कर पा रहे हैं।
-- हें, धन है उपभोग तक नहीं कर पा रहे हैं? सिद्धांत उलटा तो नहीं ही पड सकता है। गुरुवर चिंतित हुए। ये कैसी जमाना है जहां पैसा पास में है उपभोग के तरीके नहीं सूझ रहे हैं। हमार जमाने में तत्काल शादी-ब्याह, मदिरा-दावतें,पर्यटन आदि में झोंका जा सकता था और घी पीना तो सरप्लस था ही।
-- गुरुजी वो जमाने गए। शिष्यों ने जैसे उनके मन की बात भांप ली हो कहा- ये तो जिस तरफ देखें नोटों के ढेर लग जाते हैं। बस ये उपभोग करने के समय का जुगाड़ नहीं बैठा पा रहे हैं।
-- हाय राम गुरुजी निढाल से हो कर दूसरी ओर झांकने लगे। अब ये दूसरे महानुभाव कौन हैं जो आकाश चूमती अट्टालिका पर खडे़ होकर शायद कुल्ला-मंजन कर रहे हैं। ये तो बडे तेजोमय दिखाई दे रहे हैं। इतना बड़ा घर, असंख्य गाड़ियों का काफिला। ये तो निश्चय ही हमारे संप्रदाय के गादीपति सादृश्य दिखाई दे रहे हैं। गुरुजी कहते-कहते हांफने से लगे।
-- नहीं गुरुवर , ये अंबानी ब्रदर्स में से बड़े भ्राता हैं। धरा पर सबसे अमीर आदमी। इनके तो एक-एक सेकंड की कमाई लाखों में है।
-- वाह, वाह इतना कुछ है तब तो निश्चित ही विलास में समय देते होंगे। गुरुजी ने फिर बचा-खुचा ज्ञान बांटना चाहा।
-- नहीं गुरुवर, ये तो दिनरात कारोबार बढ़ाने में निमग्न रहते हैं। इन्हें विलास का समय ही कहां है।
-- अरे जै कौन लोग हैं? यहां क्या कर रहे हैं? अब गुरुजी चौंकने के साथ-साथ कुछ दिगभ्रमित से भी दिखाई दिए। भोग के ऐसे सर्वश्रेष्ठ सर्वकालिक सिद्धांत क्या असमय ही काल कवलित हो जाएंगे। मन ही मन उन्होंने फिर सोचा। ओ.. हो ... हो लगता है ये सारा ऐश्वर्य अगली पीढ़ी के लिए संजोना चाहते हैं? जैसे उन्हें फार्मूला हाथ लगा। बोले- सिद्धांत का इतना विकास हो चुका है शिष्यों की व्यक्ति अगली पीढ़ी तक के लिए घी की व्यवस्था बिठा के जाना चाहता है। कैसे सुरुचिपूर्ण जमाना है। खुशी से लटपटाते हुए गुरुवर बोले।
-- नहीं गुरुवर शिष्यों ने फिर प्रतिवाद किया। ये अगली तो क्या सात पुश्तों तक का इंतजाम कर चुके हैं, फिर भी लगे हैं।
-- हें, गुरुवर ने आश्चर्य से इतना मुंह खोला कि शिष्यों को उन्हें उनके पद का स्मरण कराना पडा।
-- अब ये गोल-गोल सी गुम्बद-नुमा कौन सी इमारत है शिष्यों,मनुष्य यहां पागलों की भांति चीख-चिल्ला क्यों रहा है?
-- ये शेयर मार्केट है गुरुवर,शिष्यों ने दलाल स्ट्रीट का भौगोलिक-ऐतिहासिक संदर्भ बताना शुरू कर दिया। यहां मनुष्य एक पल में इतना प्राप्त कर लेता है कि उसे ऋण जैसी तुच्छ वस्तु की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। लेकिन शिष्यों को गुरुवर कहीं एकटक दृष्टि घोंपे हुए मिले। शिष्य कुछ कह पाते इससे पूर्व ही गुरुवर बोले- वो दृश्य देखो-नीचे मरीन ड्राइव के पास वो लंबी सी गाड़ी में बैठा मनष्य खिड़की से सिर निकाले एक मैले-कुचैले से व्यक्ति से क्या याचना सी कर रहा है। कुछ विचित्र सा प्रतीत नहीं हो रहा है शिष्यों?
-- नहीं मुनिवर, ये तो रूटीन है। वो गाड़ी में बैठा व्यक्ति एक प्राइवेट बैंक का एक्जीक्यूटिव है। जो ऋण अर्थात् लोन देने के लिए भिखारी से व्यक्ति के आगे गिड़गिड़ा रहा है। अभी तो हां करवाने के लिए ये उसके पीछे भागेगा भी। शिष्यों ने आधुनिक युग की आर्थिकी गुरुवर को बयान की ।
-- क्या? मनिवर मूर्छित होते-होते बचे। ऋण देने के लिए पीछा कर रहा है। गिड़गिड़ा रहा है। इधर हम ऋण लो घी पीओ जैसी मासूम बात सदियों से दोहरा रहे हैं। गुरुवर कुछ लज्जित सी वाणी में बोले। फिर एकाएक कहा--तो फिर हम यहां क्या कर रहे हैं शिष्यों, निकल लो यहां से किस जमाने में अपने सिद्धांतों का अन्वेषण कर रहे हैं। किसी और पावन सी स्थली की ओर गमन करते हैं। फिर देखा तो शिष्य टस से मस हुए बिना एक बंगले की ओर झांकते से मिले। गुरुवर ने भी आंखों का रास्ता फालो करते हुए निगाहें दौड़ाईं तो उस बंगले में एक कामिनी- काया और असंख्य लोगों की भीड़ नजर आई । जो उचक-उचक कर उसे देख रही थी। भृकुटियां ऊंची करके शिष्यों पर गरमाए- शिष्यों सावधान, मरने के बाद भी ऐसा अशोभनीय आचरण एक आत्मा को शोभा नहीं देता। भौतिकवाद का घोर उपभोग करो परन्तु माया में ऐसे अकंठ डूबना, छी.. छी...।
-- गुरुवर ये माया नहीं मल्लिका हैं..... कहकर शिष्यों ने उस कामिनी-माया की ओर आंखों के सैटेलाइट फिर घुमा दिए।
-- हे ईश्वर, गुरुवर ने भी ऐसे भौतिकवादी जमाने से बचाने के लिए अपने दोनों हाथ आकाश की ओर उठा दिए।
इति।
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संपर्क:
अनुज खरे
सी - 175 मॉडल टाउन
जयपुर
मो. 9829288739
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(चित्र का कुछ हिस्सा – साभार आईसीआईसीआई बैंक)
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