ग़ज़लें -अमर ज्योति ‘नदीम’ (1) राजा लिख राजा लिख और रानी लिख। फिर से वही कहानी लिख॥ बैठ किनांरे लहरें गिन। दरिया को तूफ़ानी लिख॥ ...
ग़ज़लें
-अमर ज्योति ‘नदीम’
(1) राजा लिख राजा लिख और रानी लिख। फिर से वही कहानी लिख॥ बैठ किनांरे लहरें गिन। दरिया को तूफ़ानी लिख॥ गोलीबारी में रस घोल। रिमझिम बरसा पानी लिख॥ राम-राज के गीत सुना। हिटलर की क़ुरबानी लिख॥ राजा को नंगा मत बोल। परजा ही बौरानी लिख॥ फ़िरदौसी के रस्ते चल। मत कबीर की बानी लिख॥
(2) जिस्म और जान जिस्म और जान बिक चुके होंगे। दीन ओ ईमान बिक चुके होंगे। इन दिनों मण्डियों में रौनक है; खेत खलिहान बिक चुके होंगे। मन्दिरों मस्जिदों के सौदे में राम ओ रहमान बिक चुके होंगे। कँस बेख़ौफ़ घूमता है अब , क्रष्ण भगवान बिक चुके होंगे। ताजिरों का निज़ाम है; इसमें सारे इन्सान बिक चुके होंगे।
(3) दूर का मसला दूर का मसला घरों तक आ रहा है बाढ़ का पानी सरों तक आ रहा है। आग माना दूर है, लेकिन धुआं तो, इन सुहाने मंज़रों तक आ रहा है। लद चुके दिन चूड़ियों के,मेंहदियों के; फावड़ा कोमल करों तक आ रहा है। मंदिरों से हट के अब मुद्दा बहस का जीविका के अवसरों तक आ रहा है। इसने कुछ इतिहास से सीखा नहीं है; एक प्यासा सागरों तक आ रहा है।
(4) उसने कभी भी उसने कभी भी पीर पराई सुनी नहीं . कितना भला किया कि बुराई सुनी नहीं. रोटी के जमा-ख़र्च में ही उम्र कट गई, हमने कभी ग़ज़ल या रुबाई सुनी नहीं . औरों की तरह तुमने भी इलज़ाम ही दिये; तुमने भी मेरी कोई सफाई सुनी नहीं. बच्चों की नर्सरी के खिलौने तो सुन लिए; ढाबे में बर्तनों की धुलाई सुनी नहीं.
मावस की घनी रात का हर झूठ रट लिया; सूरज की तरह साफ सचाई सुनी नहीं.
(5) शरीक तेरे शरीक तेरे हर इक ग़म हर इक खुशी में रहा। मैं तुझसे दूर मगर तेरी ज़िन्दगी में रहा। जो दर्द आंख से ढल कर रुका लबों के करीब, तमाम उम्र वो शामिल मेरी हँसी में रहा। समन्दरों में मेरी तशनगी को क्या मिलता? मैं अब्र बन के पलट आया फिर नदी में रहा। वो जिनकी नज़र-ऐ-इनायत पे लोग नाज़ां थे, बहुत सुकून मुझे उनकी बेरुखी़ में रहा। वो मेरा साया अंधेरों में गुम हुआ है तो हो; यही बहुत है मेरे साथ रोशनी में रहा.
(6) प्यार का वास्ता रहा होगा.
प्यार का वास्ता रहा होगा। कोई अहद-ऐ-वफ़ा रहा होगा। आबला जो पड़ा तेरे दिल पर दोस्ती का सिला रहा होगा। किसने राजा को कह दिया नंगा! कौन वो सरफिरा रहा होगा! वो ठहाके बहुत लगाता था, दर्द दिल में छुपा रहा होगा। हम कहाँ! और उनकी बज्म कहाँ! वो कोई दूसरा रहा होगा.
(7) कुछ इस अदा से कुछ इस अदा से उम्र का सावन गुज़र गया दलदल बचा है , बाढ़ का पानी उतर गया। सदियाँ उजाड़ने में तो दो पल नहीं लगे; लम्हे संवारने में ज़माना गुज़र गया। बुलबुल तो वन को छोड़ के बागों में जा बसी; इक जंगली गुलाब था , मुरझा के झर गया. कमरे में आसमान के तारे समा गए ; अच्छा हुआ के टूट के शीशा बिखर गया। घर से सुबह तो निकला था अपनी तलाश में, लौटा जो शाम को तो भला किसके घर गया?
(8) गीत कुछ उल्लास के गीत कुछ उल्लास के मन बावरा गाता तो है ; पर उसी पल कंठ भी स्वयमेव भर आता तो है। छोड़ कर जिस विश्व को मैं भाग आया हूँ यहाँ आज भी उस विश्व से मेरा कोई नाता तो है । ये घुटन, ये उलझनें, ये वंचना, ये वेदना; इन सभी के बीच मन निर्दोष घबराता तो है । क्या न जाने भेद है जो प्यास यह बुझती नहीं; नित्य प्रति ही नीर नयनों से बरस जाता तो है। मानता हूँ अंश हूँ मैं भी व्यवस्था का ; मगर इस व्यवस्था से ह्रदय विद्रोह कर जाता तो है। शब्द में अनुवाद मेरी भावना का हो, न हो; मौन भी मेरा ह्रदय के भेद कह जाता तो है । जिस दिशा में लक्ष्य या गंतव्य की सीमा नहीं उस दिशा की और यह उन्माद ले जाता तो है। उलझनों की झाडियाँ हैं; मुश्किलों के हैं पहाड़, फ़िर भी इनके बीच से एक रास्ता जाता तो है। हास में, परिहास में, आनंद में , उल्लास में, सम्मिलित हूँ, किंतु फ़िर भी प्राण अकुलाता तो है।
(9) जब से इंसान जब से इंसान हो गए यारो हम परेशान हो गए यारो। बेडी़ पावों की,तौक़ गर्दन का, दीन-ओ-ईमान हो गए यारो। कैस कुछ कह उठा तो अहले खि़रद, कितने हैरान हो गए यारो। अब अवध में नहीं कोई शम्बूक, सारे कुर्बान हो गए यारो। कोई सुनता नहीं किसी की पुकार, लोग भगवान हो गए यारो।
(10)
क्या बातें करूं जब भी चाहा तुमसे थोड़ी प्यार की बातें करूं पास बैठूं दो घड़ी,श्रृंगार की बातें करूं। वेदना चिरसंगिनी हठपूर्वक कहने लगी आंसुओं की,आंसुओं की धार की बातें करूं। देखता हूँ रुख ज़माने का तो ये कहता है मन भूल कर आदर्श को व्यवहार की बातें करूं। आप कहते हैं प्रगति के गीत गाओ गीतकार; सत्य कहता है दुखी संसार की बातें करूं। चाटुकारों के नगर में सत्य पर प्रतिबन्ध है। किस लिए अभिव्यक्ति के अधिकार की बातें करूं। इस किनारे प्यास है; और उस किनारे है जलन क्यों न फिर तूफ़ान की मंझधार की बातें करूं.
(11) क्या सफर था! क्या सफर था! राह-ओ-मंजिल का निशाँ कोई न था काफिला कोई न था; और कारवाँ कोई न था. हमने ही अपने तसव्वुर से तुझे इक शक्ल दी. हम न थे तो तू; तेरा नाम-ओ-निशाँ कोई न था. कैसा जंगल था जहाँ वनवास पर भेजे गए हर तरफ़ अशजार थे, साया वहाँ कोई न था. दिल के दरवाज़े पे दस्तक बारहा होती रही हमसे मिलने को मगर आया वहाँ कोई न था. आईनों के शहर में हर सिम्त हम थे;सिर्फ़ हम. हम चले आए तो हम जैसा वहाँ कोई न था. ++==++
संपर्क:
अमर ज्योति`नदीम`, 7-सरस्वती विहार, रामघाट रोड, अलीगढ़ 202001
ye 3 sh'er laajawaab hain...
जवाब देंहटाएंगोलीबारी में रस घोल।
रिमझिम बरसा पानी लिख॥
राम-राज के गीत सुना।
हिटलर की क़ुरबानी लिख॥
राजा को नंगा मत बोल।
परजा ही बौरानी लिख॥
हर ग़ज़ल का एक एक शेर अनमोल है....सादी सरल जबान में जिंदगी की तल्खियाँ बयां करती ये ग़ज़लें बेजोड़ हैं.....बहुत बहुत शुक्रिया आप का इन्हें पढने का हमें अवसर दिया.
जवाब देंहटाएंनीरज
BAHUT SUNDER POORI GAZAL BAHUT ACHHI HAI
जवाब देंहटाएंBADHAI
RACHANA
Wah! Kya Kahne :
जवाब देंहटाएंउसने कभी भी पीर पराई सुनी नहीं .
कितना भला किया कि बुराई सुनी नहीं.
औरों की तरह तुमने भी इलज़ाम ही दिये;
तुमने भी मेरी कोई सफाई सुनी नहीं.
In sheron ke Kya kahne...
Aur Ye..:
जो दर्द आंख से ढल कर रुका लबों के करीब,
तमाम उम्र वो शामिल मेरी हँसी में रहा।
Ye:
आबला जो पड़ा तेरे दिल पर
दोस्ती का सिला रहा होगा।
वो ठहाके बहुत लगाता था,
दर्द दिल में छुपा रहा होगा।
In sheron mein अमर ज्योति`नदीम`, ne kamal kar diya. Ek ek Alfaaz Dil ko chhoo raha hai