उज्जैन में रहने वाले श्री पीडी कुलकर्णी एक निम्न-मध्यम वर्ग के नौकरीपेशा व्यक्ति हैं। उनका एक बड़ा ऑपरेशन 2005 में सम्पन्न हुआ। उसके बाद ...
उज्जैन में रहने वाले श्री पीडी कुलकर्णी एक निम्न-मध्यम वर्ग के नौकरीपेशा व्यक्ति हैं। उनका एक बड़ा ऑपरेशन 2005 में सम्पन्न हुआ। उसके बाद किसी अन्य स्वास्थ्य समस्या के कारण उन्हें काफ़ी दिन बिस्तर पर बिताने पड़े और पूरा परिवार उनकी सेवा में दिन-रात लगा रहा। उन दिनों उन्हें कई तरह के मेडिकल उपकरण खरीदने पड़े, जो कि उनके काम के थे, जैसे व्हील चेयर, वॉकर और फ़ोल्डिंग लेट्रिन सीट आदि। भगवान की कृपा से दो वर्ष के भीतर ही वह एकदम स्वस्थ हो गये, बीमा निगम की कृपा से उपचार में लगा कुछ प्रतिशत पैसा भी वापस मिल गया। लेकिन कुलकर्णी परिवार "पोस्ट-ऑपरेटिव केयर" पर जितना खर्च कर चुका था, उसकी आर्थिक भरपाई भी सम्भव नहीं थी, न ही इस सम्बन्ध में कोई सरकारी नियम हैं।
भारत में निजी स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार तेजी से जारी है, क्योंकि सरकारी स्वास्थ्य सेवायें भ्रष्टाचार, लालफ़ीताशाही और राजनीति के चलते लगभग निष्प्राण अवस्था में पहुँच चुकी हैं। इन निजी स्वास्थ्य सेवाओं के साथ-साथ इनसे जुड़े दो उद्योग भी तेजी से पनपे हैं वे हैं दवा उद्योग तथा मेडिकल उपकरण उद्योग। जैसा कि सभी जानते हैं कि महंगाई के कारण धीरे-धीरे स्वास्थ्य सेवायें भी आम आदमी की पहुँच से दूर होती जा रही हैं और किसी विशेष परिस्थिति में ऑपरेशन के बाद "पोस्ट-ऑपरेशन केयर" भी काफ़ी महंगा है।
इस स्थिति से निपटने और आम व्यक्ति को इन खर्चों से बचाने, तथा राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अनाप-शनाप मुनाफ़े को नियंत्रित करने की एक कोशिश के रूप में उज्जैन महाराष्ट्र समाज की एक शाखा "मराठी व्यावसायिक मंडल" (जो कुछ व्यवसायियों और गैर-सरकारी कर्मचारियों का एक समूह है) ने एक विशेष समाजसेवा का प्रकल्प हाथ में लिया है। इस प्रकल्प का नाम है "डॉ स्व वीडी मुंगी सेवा प्रकल्प"। हम सभी को यह मालूम है कि किसी व्यक्ति के आपात ऑपरेशन या अन्य बीमारी के बाद घर पर उसकी देखभाल के लिये भी कई बार कई तरह के उपकरण लगते हैं, जैसे कि ऑक्सीजन सिलेण्डर, जलने के मरीजों के लिये विशेष बिस्तर "वाटर बेड", सलाइन स्टैंड, स्टूल पॉट, यूरिन पॉट, चलने-फ़िरने के लिये वॉकर, छड़ी, कमर दर्द के मरीजों के लिये लेट्रिन सीट, व्हील चेयर, स्ट्रेचर आदि की आवश्यकता होती है, और यह सभी आईटम बेहद महंगे होते हैं। हो सकता है कि कई लोग आसानी से इनकी कीमत चुकाने की स्थिति में हों, लेकिन असल में इन वस्तुओं का उपयोग एक सीमित समय तक के लिये ही हो पाता है। मरीज के ठीक हो जाने की स्थिति में यह चीजें उन घरों में बेकार पड़ी रहती हैं और अन्ततः खराब होकर कबाड़ में जाती हैं।
इस समाजसेवा प्रकल्प के अनुसार मराठी व्यावसायिक मंडल के कार्यकर्ताओं ने इस प्रकार की काफ़ी सारी वस्तुएं एकत्रित की हैं, कुछ खरीद कर और कुछ परिचितों, मित्रों से दान लेकर। जब कभी किसी व्यक्ति को इस प्रकार की किसी वस्तु की आवश्यकता होती है तो मंडल के सदस्य उसे वह वस्तु प्रदान करते हैं। उस वस्तु की मूल कीमत को शुरु में "जमानत" के तौर पर जमा करवाया जाता है, यदि वस्तु 1000 रुपये से कम कीमत की है तो फ़िलहाल इसका शुल्क 20/- महीना रखा गया है, जबकि यदि वस्तु महंगी है (जैसे ऑक्सीजन सिलेण्डर आदि) तो उसका मासिक शुल्क न लेते हुए 5/- रुपये दैनिक के हिसाब से लिया जाता है, ताकि व्यक्ति आवश्यकता समाप्त होते ही तुरन्त वह वस्तु वापस कर दे और वह किसी और के काम आ सके। वस्तु वापस कर देने पर जमानत राशि वापस कर दी जाती है (मेण्टेनेंस या वस्तु में आई किसी खराबी को ठीक करवाने की जिम्मेदारी भी उसी व्यक्ति की होती है), साथ ही उस व्यक्ति से अनुरोध किया जाता है कि इस प्रकार की कोई वस्तु उसके किसी रिश्तेदार या मित्र के यहाँ फ़ालतू पड़ी हो तो उसे दान में देने को प्रोत्साहित करें। 5/-, 10/-, 20/- की मामूली रकम से जो भी रकम एकत्रित होती है, उससे एक और नई वस्तु आ जाती है, इस प्रकार वस्तुएं धीरे-धीरे बढ़ रही हैं, साथ ही इस सेवा प्रकल्प को उत्साहजनक प्रतिसाद मिल रहा है। फ़िलहाल तो यह एक छोटे स्तर पर चल रहा है, लेकिन जैसे-जैसे इसमें विभिन्न वस्तुएं बढ़ेंगी, जाहिर है कि कुछ अतिरिक्त जगह, कम से कम एक-दो व्यक्ति का स्टाफ़, स्टेशनरी आदि भी लगेगा। दीर्घकालीन योजना है कि एक एम्बुलेंस और एक शव वाहन की भी व्यवस्था की जायेगी। इस प्रकल्प को "निगेटिव ब्लड ग्रुप डोनर असोसियेशन" से भी जोड़ा गया है (सभी जानते हैं कि निगेटिव ग्रुप का खून बड़ी मुश्किल से मिलता है) और स्वयं इस समूह के अध्यक्ष श्री अभय मराठे 50 से अधिक बार रक्तदान कर चुके हैं।
इस योजना में अमीर-गरीब अथवा जाति-धर्म का कोई बन्धन नहीं है, यह एक समाजसेवा है और मामूली शुल्क भी इसलिये लिया जा रहा है ताकि उससे कोई अन्य नई वस्तु ली जा सके और साथ ही सेवा का उपयोग करने वाला व्यक्ति भी इस सेवा को "फ़ॉर ग्राण्टेड" न लेकर गंभीरता से ले। मैं सभी ब्लॉगरों, नेट मित्रों तथा अन्य सभी से जो यह लेख पढ़ें, यह अनुरोध करना चाहूँगा कि वे लोग भी अपने-अपने शहरों में इस प्रकार के कुछ लोगों को एकत्रित करके ऐसा प्रकल्प शुरु करें। जो परिवार किसी एक्सीडेंट या ऑपरेशन से गुजरता है, उसकी व्यथा वही जान सकता है, लेकिन यदि भारी खर्चों के बीच इस प्रकार का कोई मदद का हाथ जब मिल जाता है तो उसे काफ़ी राहत मिलती है। आशा है कि यह लेख अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचेगा और उससे काफ़ी सारे लोग अपने शहरों में यह समाजसेवा शुरु करेंगे। शिक्षा और स्वास्थ्य, दोनों क्षेत्र आने वाले समय में आम आदमी को सबसे ज्यादा आर्थिक तकलीफ़ देंगे, उससे निपटने का एक ही तरीका है "आपसी सहकार"… उपयोग करने के बाद बची हुई दवाईयों का बैंक शुरु करें, या पुराने कम्प्यूटरों से किसी गैराज या अनुपयोगी कमरे में गरीब छात्रों को पढ़ायें, पुराने कपड़े बेचकर बर्तन खरीदने की बजाय यूँ ही किसी जरूरतमंद को दे दें आदि-आदि। "आपसी सहकारिता" एक तरीका है, महंगी होती जा रही स्वास्थ्य सेवाओं और दवा कम्पनियों से बचने का…
नोट : जो भी व्यक्ति उज्जैन या आसपास निवास करते हैं वे यह लेख पढ़ें तो किसी वस्तु के दान के लिये मेरे ब्लॉग अथवा ई-मेल पर सम्पर्क कर सकते हैं…(किसी प्रकार का नगद दान नहीं लिया जाता है)। इस सेवा योजना के बारे में विस्तार से अन्य लोगों को भी सूचित करें, ताकि इस प्रकार के समूह प्रत्येक शहर, गाँव में शुरु किये जायें…
सुरेश चिपलूनकर, उज्जैन
http://sureshchiplunkar.blogspot.com
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सुरेश चिपलूनकर
(Suresh Chiplunkar)
http://sureshchiplunkar.blogspot.com
अत्यंत प्रेरणादायी, नए विचारो को सक्रिय करने वाला लेख. यह केवल टिप्पणी देने के लिए नहीं लिखा है.
जवाब देंहटाएं"प्रतिसाद" शब्द पढ़ कर चौंका, मगर नीचे आते आते सुरेशजी का नाम देखा तो मुस्कान खिल गई. यह सुन्दर शब्द है और शायद हिन्दी का नहीं है. गुजराती में तो है ही.
बहुत सराहनीय प्रयास है....विदेश में भी ऐसा ही कुछ करने की कोशिश रहती है... लेबर कैम्प में या सड़क के किनारे पार्ट टाइम नौकरी ढूँढने वालो को कपड़े, दवाइयाँ , जूते आदि देते रहते हैं... बच्चों के हाथ से ऐसा काम करवाने से उन्हें मानवीय मूल्यों का पता चलता रहता है.. पैसे और श्रम की कीमत अलग पता चलती है..
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी है । आने वाले विकट समय में 'एक अकेला थक जाएगा, मिल कर बोझ उठाना' वाली पंक्ति ही अपरिहार्य हो जाएगी ।
जवाब देंहटाएंमैं एक स्थानीय साप्ताहि 'उपग्रहद्ध से सम्बध्द हूं । कोशिश करूंगा कि आपका यह लेख उसमें छप जाए ।
अपना पता उपलब्ध कराइएगा ताकि यदि लेख छपे तो उसकी एक प्रति आपको भेजने की व्यवस्था की जा सके ।
मैंं तो यही जानता रहा हूं कि आप इन्दौर में हैं ।