अनुज खरे का व्यंग्य : आलोचकों के श्री चरणों में सादर…

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व्यंग्य   आलोचकों के श्री चरणों में सादर... -- अनुज खरे   आलोचकों के सम्मुख एक नवागत व्यंग्यकार का विनम्र-दीन-हीन-आदर भरा विनय न...

व्यंग्य

 

आलोचकों के श्री चरणों में सादर...

-- अनुज खरे

 

आलोचकों के सम्मुख एक नवागत व्यंग्यकार का विनम्र-दीन-हीन-आदर भरा विनय निवेदन मय एफिडेविट प्रस्तुत है। इस आशा में कि मामला जमा तो खताएं माफ होंगी। बंदा दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह व्यंग्याकाश में मंडराता फिरेगा। बात के सपोर्ट में विनम्रता की पर्याप्त मात्रा चली जाए इसी पुख्ता बंदोबस्त के तहत एफिडेविट की व्यवस्था की गई है, कि जो कहा जा रहा है वह सच है और साहित्य की अदालत में लीगल तौर पर सच। अतः एक नजर डाल लें।

मैं नवागत व्यंग्यकार, फादर ऑफ... फादर क्या इस क्षेत्र में तो मैं गॉडफादर की तलाश में जुटा हूं, सो, नाम मिलते ही सूचित करूंगा। स्थायी निवासी- स्थायी निवास को लेकर भी ठीक-ठीक नहीं लिख पाऊंगा। जहां भी रहा मोहल्लेवासियों ने लेखन जैसी ‘आदतों’ के कारण स्थायी होने ही नहीं दिया। खैर, मैं अपने पूरे होशोहवास में शपथपूर्वक बयान करता हूं...

-- कि मैं व्यंग्य क्षेत्र का महान लेखक हूं, ऐसी मुझे कोई गलतफहमी नहीं है। मेरी पूरी रचनाएं मौलिक हैं, ऐसा भी मेरा कोई दावा नहीं है। मेरा दिमाग इतना तेज चलता है कि आइडिए के लिए मुझे कहीं से प्रेरणा लेने की जरूरत नहीं पड़ती, ऐसा भी मैंने नहीं कहा। मेरी रचनाएं अत्यंत उच्चकोटि की हैं, कि इस बारे में मेरे मौलिक विचार हैं कि ये अधकचरी रचनाएं यहां-वहां से कच्चा माल उड़ाकर लिखी गई हैं। इसी तरह शब्द भंडार- भाषा सामर्थ्य में भी ऑक्सफोर्ड या ‘बाहरी’ संप्रदाय का जेन-एक्स ‘फेलो’ हूं। इस तरह की हिमाकत करने की ताकत भी नहीं रखता हूं। मेरे साथियों को भी मेरी मेधा पर भारी गर्व है। वे मुझे अत्यंत रचनात्मक व्यक्त के रूप में देखते हैं। इस बारे में मेरा स्पष्टीकरण है कि चाय-समोसे और इसी तरह के भांति-भांति के खाद्य-अखाद्य पदार्थों के रहते अघोरियों तक की छिपी रचनात्मकता पुष्पित-पल्लवित होती रही है, रहेगी। मेरी तो बिसात ही क्या है। इसी प्रकार व्यंग्य क्षेत्र में मेरी आमद एक धुव्र तारे के उदित होने सरीखी है। हालांकि इस बात को लेकर खुश होने से पहले जान लें कि मैं उसे शिद्दत से तलाश रहा हूं, जिसने मुझे इस क्षेत्र में धकेला था।

इस तरह ले-देकर, मिला-जुलाकर, कुल मिलाकर खाकसार की एंट्री इस क्षेत्र में उस समय हुई है, जब खपत ज्यादा है और सप्लाई कम। ऐसे बडे बोल बोलने की भी मेरी क्या मजाल। (नोटः अभी तक के एफिडेविट में आप ‘विनम्रता’ का इतना भारी पुट तो देख ही रहे होंगे। इसे निरंतर नोट करते रहें पूरा पढ लेने के पश्चात् मेरे सह्दय व्यक्तित्व निर्माण में सहायता रहेगी।)

-- कि इसी तरह मेरे पूरे लेखन में पुराने विषयों, लेखकों और उदाहरणों की बहुतायत आपको मिलेगी ही नहीं। अपितु इस संबंध में मेरा निवेदन है कि ऐसा यदि कहीं हुआ भी होगा तो बहुत अनायास ही होगा, अन्यथा मैं तो पूरी की पूरी रचनाएं उडाने का हिमायती रहा हूं, प्रकरण में पत्रकारिता के सिद्धांतों का घोर अनुरागी हूं, जिसके कारण सावधानी इस बात की बरतता हूं कि माल के स्रोत की गोपनीयता उजागर न होने पाए। इस मामले में पूरी प्रेरणा बॉलीवुड के म्युजिक डायरेक्टरों से लेता हूं। बल्कि मुझे तो म्यूजिक डायरेक्टरों की जोड़ी ज्यादा पसंद है। कारण ये कि दो लोग ज्यादा आराम से सावधानी बरतते हुए कई देशों की ‘कला’ का अध्ययन करते हुए ‘इंस्पायर’ हो सकते हैं और माल को घोंटकर देसी तड़का लगा सकते हैं। यानी थोड़ा सा परिवहन कौशल लगाकर माल की स्थानीय सप्लाई दी जा सकती है।

--कि मेरी रचनाओं में सतही लेखन, सपाटता, दोहराव-उलझाव आदि की भारी कमी है। इस मामले में भी मेरा निवेदन है कि यहां भी ठीक ऊपर वाला अवतरण बात को स्पष्ट करने में बेहद सहायक होगा, क्योंकि अगर मेरी रचनाओं में कहीं ये बात आ भी रही है तो मुझसे इसका ज्यादा सरोकार नहीं है। ये उन लेखकों की ‘अक्षम्य भूलें’ हैं, जिन्होंने अपने लेखन में ऐसी आधारभूत बातों की घोर उपेक्षा की है। मेरा तो यहां इतना कसूर अवश्य है कि नकल करते समय या कच्चे माल को घोंटते समय काम के दबाव में इन्हें एक रचना की शक्ल देते समय लापरवाही कर गया हूंगा, अन्यथा तो इस अत्यंत महत्वपूर्ण लेखकीय हिस्से में अतिरिक्त सावधानी बरतता हूं। आपको भी उस मास्टर की तरह मेरी इन भूलों को इग्नोर करना चाहिए, जो बच्चे के होमवर्क में उसके पिता द्वारा की गई गलतियों के लिए उसे थपाडे नहीं लगाते हैं।

--कि मैंने हास्य-व्यंग्य की जबर्दस्त रचनाएं की हैं, बल्कि यहां भी स्पष्ट करना चाहूंगा कि जिन महानुभावों ने कहीं से ढूंढ-ढांढकर यदि कहीं मेरे ‘नुकीले व्यंग्यों’ को पढ़ा भी है तो उसी दिन से वह बदले में घर पर रखे हुए पुराने-पुराने हथियार लेकर मुझे खोज रहे होंगे, ताकि जंग लगे अस्त्र घोंपकर मुझे ‘टिटनेस’ से तड़पा-तड़पाकर मार सके या फिर कतिपय महानुभाव संवेदनशील होंगे तो ऐसी ‘दर्दभरी’ रचना लिखने पर अपना धन्यवाद ज्ञापन पत्र भेजने के लिए मेरा पता ढूंढ ना पाने के कारण दिन-रात लेटर-बॉक्स या खंभे से सिर फोड रहे होंगे। उनकी ऐसी क्रिया की प्रतिक्रिया स्वरूप आगरा या ग्वालियर जो भी जगह उनके मूल निवास स्थान से (किराए की गाड़ी के आधार पर तय करें ) दूरी में कम होगी, ले जाकर ‘डिपॉजिट’ करवाए जा चुके होंगे।

-- कि मेरी रचनाएं समाज में एक नया आदर्श स्थापित कर रही हैं, बल्कि मेरी रचनाओं के पात्रों के बीच संवाद इतने ‘उच्चस्तरीय’ हैं कि माता-पिता बच्चों से इन रचनाओं को दूर ही रखने का प्रयास करते हैं। कई स्थानों पर तो पुलिस ट्रेनिंग के पाठ्यक्रमों में इनको लिए जाने की संस्तुति कई ‘विषय विशेषज्ञ’ लगातार कर रहे हैं। रचनाओं में गालियों के प्रयोग में तो कई स्थानों पर इतनी मौलिकता है कि भाषा विज्ञानी तक इनकी उत्पत्ति के स्रोत तक पहुंच पाने में सफल नहीं हो पाए हैं। इस कारण अनायास ही इन श?दों को ‘क्लासिकल’ का दर्जा भी प्रदान किया जाने वाला है। (भाषा विज्ञानियों का इस विषयक कच्चा प्रमाण-पत्र संलग्न है।) इसी तरह बॉलीवुड के कुछ स्थायी विलेनों को इन रचनाओं के निरंतर पठन-पाठन करते भी कई पत्रकारों ने पाया है। विशेष रूप से अड्डे वालों सीनों या लड़की को छेड़ने वाले शॉट्स में तो ‘स्पेशल इफेक्ट्स’ पैदा करने के लिए कई विलेन इसी ‘क्लासिकल’ शब्दावली की बारीक नकल के चुटके यूनिट की नजर बचाकर पढ़ते भी देखे गए हैं। अतः इस संबंध में भी रचनाओं की तीक्ष्णता-मारकता आदि-आदि के ‘आदर्श’ स्वतः ही स्पष्ट है।

-- कि मेरी रचनाओं में व्यंग्य की गहराई तथा हास्य की ऊंचाई शिद्दत से दिखाई देती है। इन दोनों मुद्दों पर भी मेरे कुछ आत्म निवेदन हैं। मैंने इस संबंध में एक व्यक्त से उपरोक्त तथ्यों का उल्लेख किया था, जिस पर उसने मेरी पहली व्यंग्य रचना पढ़ते ही कुएं में छलांग लगा दी थी, ताकि रचना में छिपी व्यंग्य की गहराई ‘समझ’ सके। वो तो खैर समझा या नहीं, यह मैं इसलिए नहीं समझ पाया क्योंकि इस ‘कृत्य’ के फलस्वरूप मोहल्ले से कंधों पर जाने से बचने के लिए मैं वहां से तभी खिसक लिया था। हास्य की ऊंचाई वाले प्रकरण में कुछ यूं रहा कि जब मैं अपनी रचना का सस्वर पाठ (जी हां व्यंग्य रचना का भी सस्वर पाठ होता है) कर रहा था तो पहली मंजिल पर खड़े एक व्यक्ति ने हंसते-हंसते मुझे बालकनी के पास बुलाया था। रचना में हास्य की ऊंचाई वाला मेरा भ्रम तभी टूटा, जब दो घंटे बाद मैंने खुद को जमीन पर और चारों ओर लोगों को खड़े पाया। प्रकरणानुसार जानकारी दी गई कि बालकनी में खड़े हुए महानुभाव अद्पगले पागल थे और मेरी रचना के श्रवण से उनके पागलपन के दौरे और बढ़ गए थे। इसी दौरान उन्होंने मुझे पास बुलाकर बख्शीश के तौर पर ऊपर से ही दो गमले प्रदान कर दिए थे, जिन्हें मैं अपनी रचना प्रतिसाद के रूप में लपक नहीं पाया था। तदुपरान्त खोपड़े में दो जगह स्थापित हुए टॉवरों से यह प्रकरण लंबे समय तक स्थानीय स्तर पर वॉइस मोड्यूलेशन के साथ प्रसारित होता रहा। अतः उक्त अनुभव भी ‘दर्दीला हास्य-व्यंग्य’ बनकर रह गया।

-- कि मेरी रचनाओं में कहीं उबाऊ या रसहीन विस्तार नहीं है। बल्कि केवल प्रेमिका शृंगार, नायक-नायिका संवाद, नायिका की ‘चिंता’ में चिंतातुर माता-पिता के अवतरण, विरहिणी नायिका के प्रेमपत्रों आदि-आदि के महत्वपूर्ण विवरणों को छोड़कर कहीं भी इस तरह के आक्षेप नहीं लगाए जा सकते। हालांकि यहां भी कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक हैं। क्योंकि ‘रस’ यहां हर जगह मौजूद है। अधिकांश जगह नायक-नायिका जूस की दुकान पर ही मिलते हैं, जहां नायिका अपने बीमार पिता के लिए जूस पैक करवाने के लिए आई हुई होती है। इसी तरह प्रेमपत्रों का मामला भी रसमय है क्योंकि इन पत्रों का ‘कबूतर’ जूस सेंटर का नौकर रामू ही है। हां, कहीं कहानी को आगे बढ़ाने के लिए गढ़े गए पेड़ का फल से, फूल का पत्तियों से संवाद जैसी सहायक बातों में ही यह आक्षेप किसी सीमा तक स्वीकार हो सकते हैं। हालांकि यहां उबाऊपन वाली बात पर मुझे खुद को आश्चर्य है क्योंकि यह सारे शाश्वत दृश्य तो मैंने निजी हाथों से ऐसी कालजयी रचनाओं से उड़ाए हैं, जिन्हें बेस्ट सैलर का दर्जा हासिल है। अतः यहां खोट जड़ों में काफी पहले से मौजूद रहा होगा, वाली बात ज्यादा मौजूं लगती है।

-- कि मैं कहना तो ना जाने क्या-क्या, कितना-कितना, कुछ-कुछ, बहुत कुछ चाह रहा था। लेकिन आलोचना की फैक्ट्री में आपकी व्यस्तताओं के कारण जानता हूं कि आफ पास समय की अत्यंत कमी है। कहां आप भाषा-रचना-शिल्प विधान-रचना सौष्ठव-कथ्य-कथन-तथ्य-प्रेरणा आदि के समूल उच्छेदन के लिए ‘तर्क’ के नुकीले औजार निर्माण के महान ध्येय में व्यस्त हैं। कहां मैं कितनी ‘विराट सी अपेक्षा’ में आपका अमूल्य सहयोग-समय पाने की अभिलाषा में प्रत्यनशील हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि आपकी एक ‘दिव्यदृष्टि’ पड़ते ही बडे से बडे रचनाकार भी ‘खोट-विक्षत’ होकर साहित्यिक रणभूमि में खेत रहते हैं, मेरी हस्ती ही क्या है। अतः इतना ही कहूंगा कि औजारों का प्रयोग मेरी तुच्छ रचनाओं पर करने की बजाय हो सके तो उन पर मानवीय दृष्टिकोण से, हो सके तो संवेदनशील होकर, हो सके तो अपनी ही रचनाएं मानते हुए समीक्षित करने का कष्ट करें।

अंततः पूरे प्रकरण में जजरूपी आलोचक चाहे जो निर्णय लें, खाकसार की ओर से विनम्रता-बड़प्पन-आदर-अनुनय-नीर-क्षीर-विवेक आदि-आदि विनय के सभी सूचकों के माध्यम से अपना निवेदन आलोचकों के श्री चरणों में प्रस्तुत कर दिया गया है। बाकी व्यवस्थाएं भी ‘फिट’ करने के लिए अतिरिक्त रूप से प्रयासरत हूं ही। अतः श्रीमान से घोर सदेच्छाओं के प्रवाह की अपेक्षा रखता हूं। पूरी आशा है कि अनुकूल परिणाम तो आएंगे ही, बंदा भी ‘व्यंग्य-गैलेक्सी उर्फ आकाशगंगा अपार्टमेंट’ में एकाध ‘फ्लैट’ पाने में निश्चय ही सफल हो जाएगा, अन्यथा... ? अन्यथा तो पूरे मामले में आलोचकों पर की गई रिसर्च के दौरान कुछ ‘अपने किस्म के’ आलोचकों से भरपूर समर्थन और सहयोग की जुगाड़ तो बिठा ही ली है। आप भी लेखक-साहित्यकार आदि-आदि कुछ हैं तो निजी रूप से संपर्क करके मेरे अनुभव से लाभान्वित हो सकते हैं।

पहला गवाह- कोई तैयार नहीं हो रहा।

दूसरा गवाह- तैयार है, दस्तखत नहीं कर रहा।

हस्ताक्षर

(नोट: मेरे व्यंग्याकाश पर छा जाने के डर से कोई साला दस्तखत नहीं कर रहा है। अतः मामला कुछ पेंडिंग सा है। जल्दी ही ‘अपने’ गवाहों की भी व्यवस्था बिठा लूंगा। फिर वहां... हां...! हां...! वहीं व्यंग्य गैलेक्सी में ‘फ्लैट’ कर जाने से कोई नहीं रोक सकता। अतः एक उदीयमान व्यंग्यकार के ‘प्रकटीकरण’ का कुछ दिन और इंतजार कर लीजिए, प्लीज।)

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संपर्क:

अनुज खरे

सी-- 175 मॉडल टाउन

जयपुर

मो. 9829288739

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रचनाकार: अनुज खरे का व्यंग्य : आलोचकों के श्री चरणों में सादर…
अनुज खरे का व्यंग्य : आलोचकों के श्री चरणों में सादर…
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