छत्तीसगढ़ की नाट्य परंपरा प्रो. अश्विनी केशरवानी अभिनय मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। हर्ष, उल्लास और खुशी से झूमते, नाचते-गाते म...
छत्तीसगढ़ की नाट्य परंपरा
प्रो. अश्विनी केशरवानी
अभिनय मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। हर्ष, उल्लास और खुशी से झूमते, नाचते-गाते मनुष्य की सहज अभिव्यक्ति है अभिनय। छत्तीसगढ़ के लोक जीवन की झांकी गांवों के खेतों, खलिहानों, गली, चैराहों और घरों में स्पष्ट देखी जा सकती है। इस ग्रामीण अभिव्यक्ति को ‘लोक नाट्य‘ कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में लोक नाट्य की प्राचीन परंपरा रही है। यही आगे चलकर नाटक के रूप में विकसित हुआ। ‘नाट्य शास्त्र‘ जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ का प्रणयन दूसरी सदी में हुआ। भरत मुनि ने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय, और अथर्ववेद से रस लेकर इसकी रचना की। भरत मुनि के समक्ष लोकधर्म का आदर्श सर्वोपरि था। कदाचित् इसी कारण उन्होंने लोकधर्म के प्रति अपना अनुराग दर्शाया है। नाट्यशास्त्र में भी उल्लेख है ः-
तद्ध्यात्माभिसंभूतं छन्दः शब्द समन्वितम्।
लोकसिद्धं भवेत्सिद्धं नाट्यं लोकात्मकंत्विदम्।।
छत्तीसगढ़ में लोकनाट्य की प्राचीन परंपरा सरगुजा के रामगिरि और सीता बोंगरा गुफा में स्थित नाट्यशाला से सिद्ध होती है। यहां के शिलालेख में भी इसका उल्लेख है ः-
आदि पयंति हृदयां सभावगरूकवयों यं रातयंदुले।
अवसंतिया हांसानुभूते कुदस्पीसं एवं अलंगेति।।
इन गुफाओं में स्थित नाट्य शालाओं की तुलना प्राचीन ग्रीक थियेटर से की जाती है। रंगशाला यानी थियेटर और लोकनाट्य के बारे में लोगों में अनावश्यक भ्रम होता है। थियेटर अपेक्षाकृत व्यापक शब्द है और यूनानी शब्द ‘थिया‘ से लिया गया है। इसका अर्थ है ‘दृश्य‘ और विशेषकर ‘देखने‘ के अर्थ में यूनानी भाषा के ‘थडमा‘ से साम्य रखता है। इसका अर्थ है-‘ऐसी वस्तु जो घूर घूरकर देखने को बाध्य करे‘ दूसरी ओर ‘ड्रामा‘ शब्द भी यूनानी शब्द ‘ड्रान‘ से लिया गया है जिसका अर्थ है-‘अभिनय करना।‘ भारतीय परिवेश में ‘थियेटर‘ शब्द को ‘रंगभूमि‘ का और ड्रामा को नाट्य के नजदीक माना गया है।
अविक्य कियोपतेम तिसत्वातिभाष्िातम्।
लोलांगहारभियं नाट्य लक्ष्मण लक्षितम्।।
स्वरालंकार संयुक्तमस्वर्भूरूषाश्रयम्।
यदोधशं भवेन्नाट्यं नाट्यधर्मोतुसास्मृता।।
अर्थात् नाट्य प्रकृत स्थिति भिन्न कलात्मक और विशिष्ट उद्देश्य का अग्रणी होता है, जबकि लोकनाट्य प्राकृतजन की अभिव्यक्ति को लोक रंजन के लिए कृतिम रूप से प्रस्तुत करता है। कालिदास ने ‘नाट्यं भिन्न स्वेजनिस्य बहुधात्येक समाराधनम्‘ कहकर नाटक को सभी के लिए ग्राह्य बताया है। इसी प्रकार सुप्रसिद्ध संस्कृत कवि और ‘उत्तर राम चरित्र‘ के रचयिता भवभूति कहते हैं-‘कालोह्यं निरवधि विपुला च पृथ्वीः।‘
लोकनाट्य के तीन प्रमुख अंग होते हैं- 1. बहिरंग। इसके अंतर्गत कथा का उद्याम आवेग, आंचलिक बोली, आंचलिक प्रातीकात्मक पात्र, आडम्बरहीन रंगमंच और सहज श्रृंगार प्रमुख होते हैं। 2. अंतरंग। इसमें गीत और नृत्य प्रमुख होते हैं। 3. अभिनय। इन तीनों अंगों की समवेत प्रस्तुति ही मूलतः लोकनाट्य है। गीत इसके प्राण हैं और अभिनय से यह सजीव हो उठता है।
श्री गोपाल शर्मा अपने लेख-‘मध्यप्रदेश का हिन्दी नाट्य साहित्य‘ में लिखते हैं-‘जिस समाज में रंगमंच का अभाव हो, वहां नाट्य साहित्य का उचित विकास नहीं हो पाता। रंगमंच से केवल एक पर्दे से सजे हुए मंच का बोध नहीं होता। इसके अंतर्गत कई बातें आती हैं। जिस समाज की अभिनय की ओर रूचि न हो, अभिनय कला को संगीत और चित्रकला के समान सम्मान और श्रद्धा की भावना से न देखा जाता हो, नाटक के प्रति आकर्षण के साथ साथ उसके तंत्र और साहित्य संबंधी बारीकियों का अर्थ समझकर आनंद लेने की वृत्ति न उत्पन्न हुई हो उस समाज में रंगमंच का अभाव है, ऐसा समझना चाहिए।‘
एक समय था जब नाट्य साहित्य मुख्यतः अभिनय के लिए लिखा जाता था। कालिदास, भवभूति और शुद्रक आदि अनेक नाटककारों की सारी रचनाएं अभिनय सुलभ है। नाटक की सार्थकता उसकी अभिनेयता में है अन्यथा वह साहित्य की एक विशिष्ट लेखन शैली बनकर रह जाती। नाटक वास्तव में लेखक, अभिनेता और दर्शकों की सम्मिलित सृष्टि है। यही कारण है कि नाटक लेखकों के कंधों पर विश्ोष उत्तरदायित्व होता है। रंगमंच के तंत्र का ज्ञान पात्रों की सजीवता, घटनाओं का औत्सुक्य और आकर्षण तथा स्वाभाविक कथोपकथन नाटक के प्राण हैं। इन सबको ध्यान में रखकर नाटक यदि नहीं लिखा गया है तो वह केवल साहित्यिक पाठ्य सामाग्री रह जाती है। भारतीय हिन्दी भाषी समाज में रामलीला और नौटंकी का प्रसार था। कभी कभी रास मंडली भी आया करती थी जो अष्ठछाप के काव्य साहित्य के आधार पर राधा कृष्ण के नृत्यों से परिपूर्ण संगीत प्रधान कथानक प्रस्तुत करती थी। रामलीला और रासलीला को लोग धार्मिक भावनाओं से देखते थे। गांवों में जो नौटंकी हुआ करती थी उसका प्रधान विषय वीरगाथा अथवा उस प्रादेशिक भाग में प्रचलित कोई प्रेम गाथा हुआ करती थी। ग्रामीणजन का मनोरंजन करने में इनका बहुत बड़ा हाथ होता था। पंडित हीराराम त्रिपाठी के पद्य रासलीला में अधिकतर गाए जाते थे। देखिए उनके गीत की एक बानगी ः-
चल वृन्दावन घनस्याम दृष्टि तबै आवै।
होगा पूरन काम जन्म फल पावै।।
द्रुम लता गुल्म तरू वृक्ष पत्र दल दल में।
जित देखे तित “याम दिषत पल-पल में।।
घर नेह सदा सुख गेह देषु जल थल में।
पावेगा प्रगट प्रभाव हिये निरमल में।।
तब पड़े सलोने स्याम मधुर रस गावै।।1।।
तट जमुना तरू वट मूल लसै घनस्यामैं।
तिरछी चितवन है चारू नैन अभिरामैं।।
कटि कसै कांछनी चीर हीर मनि तामैं।
मकराकृत कुण्डल लोल अमोल ललामैं।।
मन स्वच्छ होय दृग कोर ओर दरसावै।।2।।
सुष पुंज कुंज करताल बजत सहनाई।
अरू चंग उपंग मृदंग रंग सुखढाई।।
मन भरे रसिक स्याम सज्जन मन भाई।
जेहि ढूँढ़त ज्ञानी निकट कबहुं नहिं पाई।।
युग अंखियों में भरि नीर निरखि हुलसावै।।3।।
श्रीकृष्ण प्रीति के रीति हिये जब परसै।
अष्टांग योग के रीति आपु से बरसै।
द्विज हीरा करू विस्वास आस मन हरसै।।
अज्ञान तिमिर मिटि जाय नाम रवि कर से।।
तब तेरे में निज रूप प्रगट परसावै।।4।।
चल वृन्दावन घनश्याम दृष्टि तब आवै।।
मुगलों के आक्रमण के पूर्व भारत के सभी भागों में खासकर राज प्रसादों और मंदिरों में संस्कृत और पाली प्राकृत नाटकों के लेखन और मंथन की परंपरा रही है लेकिन उनका संबंध अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित था। ग्रामीणजन के बीच परंपरागत लोकनाट्य ही प्रचलित थे। मुगलों के आक्रमण से भारतीय परंपराएं छिन्न भिन्न हो गयी और यहां के प्रेक्षागृह भग्न हो गये। तब नाटकों ने दरबारों में भाण और प्रहसन का रूप ले लिया। लेकिन लोकनाट्य की परंपरा आज भी जीवित है...चाहे ढोलामारू, चंदापन या लोरिकियन रूप में हो, आज भी प्रचलित है। आज हमारे बीच जो लोकनाट्य प्रचलित है उसका समुचित विकास मध्य युग के धार्मिक आंदोलन की छत्रछाया में हुआ। यही युग की सांस्कृतिक चेतना का वाहक बना। आचार्य रामचंद्र ने राम कथा को और आचार्य वल्लभाचार्य ने कृष्ण लीला को प्रोत्साहित किया। इनके शिष्यों में सूर और तुलसी ने क्रमशः रासलीला और रामलीला को विकसित किया। इसी समय बंगाल में महाप्रभु चैतन्य ने जात्रा के माध्यम से कृष्ण भक्ति का प्रचार किया।
छत्तीसगढ़ में लोकनाट्य दो रूपों में विकसित हुआ। एक तो निम्न वर्ग के देवार, नट, भट आदि लोगों में आल्हा उदल, ढोला मारू जैसी परंपरा को तथा पंडु, कंवर और संवरा जाति में पंडवानी और पंथी को विकसित किया। छत्तीसगढ़ में इसका प्रचार प्रसार लगभग 16 वीं और 17 वीं शताब्दी के मध्य हुआ। उत्तर भारत के रासलीला और रामलीला मथुरा, वृंदावन, काशी और इलाहाबाद से सतना, रीवा, अमरकंटक होते हुए पेंड्रा, रतनपुर, शिवरीनारायण, अकलतरा, सारंगढ़, किकिरदा, मल्दा, नरियरा, बलौदा, कवर्धा, कोसा और राजिम आदि में फैल गया। इसलिए छत्तीसगढ़ी भाषा में ब्रज और अवधी का पुट मिलता है। दूसरी ओर बंगाल की जात्रा, उड़ीसा की पाल्हा, जगन्नाथपुरी से सुंदरगढ़, संबलपुर, सारंगढ़, चंद्रपुर, पुसौर, रायगढ़, और तमनार आदि जगहों में फैल गया। यहां की नाट्य परंपराओं में इसका स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। पं. हीराराम के गीत गाये प्रचलित थे ः-
कृष्ण कृपा नहिं जापर होई दुई लोक सुख ताहिं न होई।
देव नदी तट प्यास मरै सो अमृत असन विष सम पलटोई।।
धनद होहि पै न पावै कौड़ी कल्पद्रुम तर छुधित सो होई।
ताको चन्द्र किरन अगनी सम रवि-कर ताको ठंढ करोई।।
द्विज हीरा हरि चरण शरण रहु तोकू त्रास देइ नहिं कोई।।
डॉ. बल्देव से मिली जानकारी के अनुसार रायगढ़ के राजा भूपदेवसिंह के शासनकाल में नगर दरोगा ठाकुर रामचरण सिंह जात्रा से प्रभावित रास के निष्णात कलाकार थे। उन्होंने इस क्षेत्र में रामलीला और रासलीला के विकास के लिए अविस्मरणीय प्रयास किया। गौद, मल्दा, नरियरा और अकलतरा रासलीला के लिए और शिवरीनारायण, किकिरदा, रतनपुर, सारंगढ़ और कवर्धा रामलीला के लिए प्रसिद्ध थे। नरियरा के रासलीला को इतनी प्रसिद्धि मिली कि उसे ‘छत्तीसगढ़ का वृंदावन‘ कहा जाने लगा। ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर, उनके बहनोई कोसिरसिंह और भांजा विश्वेश्वर सिंह ने नरियरा और अकलतरा के रासलीला और रामलीला के लिए अथक प्रयास किया। उस काल में जांजगीर क्षेत्रान्तर्गत अनेक गम्मतहार सुरमिनदास, धरमलाल, लक्ष्मणदास चिकरहा को नाचा पार्टी में रास का यथेष्ट प्रभाव देखने को मिलता था। उस समय दादूसिंह गौद और ननका रहस मंडली, रानीगांव रासलीला के लिए प्रसिद्ध था। वे पं. हीराराम त्रिपाठी के श्री कृष्णचंद्र का पचरंग श्रृंगार गीत गाते थे ः-
पंच रंग पर मान कसें घनश्याम लाल यसुदा के।
वाके वह सींगार बीच सब रंग भरा बसुधा के।।
है लाल रंग सिर पेंच पाव सोहै,
अँखियों में लाल ज्यौं कंज निरखि द्रिग मोहै।
है लाल हृदै उर माल कसे जरदा के।।1।।
पीले रंग तन पीत पिछौरा पीले।
पीले केचन कड़ा कसीले पीले।।
पीले बाजूबन्द कनक बसुदा के ।। पांच रंग ।।2।।
है हरे रंग द्रुम बेलि हरे मणि छज्जे।
हरि येरे वेणु मणि जडि़त अधर पर बज्जे।।
है हरित हृदय के हार भार प्रभुता के।। पांच रंग।। 3।।
है नील निरज सम कोर “याम मनहर के।
नीरज नील विसाल छटा जलधर के।।
है नील झलक मणि ललक वपुष वरता के।। पांच रंग।।4।।
यह “वेत स्वच्छ वर विसद वेद जस गावे।
कन स्वेत सर्वदा लहत हृदय तब आवे।।
द्विज हीरा पचरंग साज स्याम सुखदा के।। पांच रंग।।5।।
इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में नाट्य लेखन की परंपरा रही है। भारतेन्दु युग में हिन्दी रंगमंच का निर्माण हुआ और अधिक से अधिक अभिनय, नाटक और प्रहसन आदि लिखे और प्रस्तुत किये गये। हालांकि यह रंगमंच सामाजिक परिस्थितियों के कारण चिरस्थायी न रह सका और उसका स्थान पारसी थियेटिकल कम्पनियों ने ले लिया। इसके अवसान काल में सिनेमा का प्रादुर्भाव हुआ। इसके बावजूद लोग सजीव व्यक्ति को अपने सम्मुख उनके और उनकी समस्याओं का अभिनय करते देखना चाहते थे। इस युग में अंग्रेजी और संस्कृत नाटकों के अनुवाद का प्रचलन था।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र के बाल सखा, कवि और सुप्रसिद्ध आलोचक ठाकुर जगमोहन सिंह के प्रिय शिष्य और शिवरीनारायण के मालगुजार पंडित यदुनाथ भोगहा के सुपुत्र पं. मालिकराम भोगहा ने रामराज्यवियोग, प्रबोध चंद्रोदय, और सती सुलोचना नाटक लिखा। इन नाटकों का शिवरीनारायण के अलावा कई स्थानों में सफलता पूर्वक मंचन किया गया। भोगहा जी ने शिवरीनारायण में एक नाटक मंडली बनायी थी। छत्तीसगढ़ के अनेक साहित्यकारों ने नाटक लिखा है। इनमें साहित्य वाचस्पति जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ के पिता श्री बक्षीराम ने ‘हनुमान‘ नाटक लिखा था। रायगढ़ के पं. अनंतराम पांडेय ने सन 1903 में ‘कपटि मुनि‘ नाटक लिखा था जिसे मंचित भी किया गया। द्विवेदी युगीन साहित्यकार पंडित शुकलाल पांडेय ने सन 1930 में मातृमिलन नाटक लिखा था। पंडित लोचन प्रसाद पांडेय ने सन 1914 में ‘साहित्य सेवा‘ प्रहसन लिखा था। डॉ.. बल्देव प्रसाद मिश्र ने शंकर दिग्विजय, वासना वैभव, समाज सेवक, दानी सेठ, असत्य संकल्प और क्रांति आदि नाटक लिखा है। उनके नाटकों के कथोपकथन काव्यमय और चमत्कारपूर्ण हैं। उनके कुछ नाटकों की शैली पारसी नाट्य परंपरा पर आधारित है।
छत्तीसगढ़ी में व्यवस्थित नाट्य लेखन की शुरूवात डॉ.. खूबचंद बघेल से होती है। उन्होंने सन 1930 से 1950 के बीच अनेक नाटक लिखा जिसमें ऊंच नीच, करम छटहा, जनरैल सिंह, बेटवा बिहाव, किसान के करलई और काली भाटो आदि प्रमुख है। वे अपने इन नाटकों का उपयोग छत्तीसगढ़ में जनजागरण के लिए करते थे। पंडित शुकलाल पांडेय ने छत्तीसगढ़ी में भूल भुलईया, गींया, छत्तीसगढ़ी ग्राम गीत, कलिकाल, उपसहा दामाद, सीख देवैया, केकरा धरैया आदि लिखा है। डॉ.. प्यारेलाल गुप्त ने छत्तीसगढ़ी नाटक ‘दू सौत‘ लिखा है। इसी प्रकार श्रीरामगोपाल कश्यप ने ‘माटी के मोल‘, डॉ.. नरेन्द्र देव वर्मा ने सोनहा बिहान, गुरू चेला, भोला बनाइले, महेत्तर साहू ने ‘राजा बेटा‘, श्री नारायणलाल परमार ने ‘भुल सुधार‘ और भुवनलाल मिश्र ने ‘रतिहा मदरसा‘ नामक छत्तीसगढ़ी नाटक लिखकर नाट्य परंपरा को पुष्ट किया है।
छत्तीसगढ़ी नाटकों को लोकनाट्य के बजाय हिन्दी और एकांकी से प्रभावित समस्या मूलक नाटक कहा जाना अधिक उपयुक्त होगा। क्योंकि इनमें सम सामयिक चेतना तो है लेकिन गांव की अल्हड़ता नहीं है। इनमें सम सामयिक लोक भाषाओं का उद्दाम आवेग, लोकधर्मी प्रस्तुतियां नहीं होती और न ही इन्हें खुले मंच पर खेला जा सकता है। रंगकर्मी चाहे तो इन्हें आधार बनाकर लोकनाट्य के रूप में प्रस्तुत कर सकता है। जैसे डॉ.. खूबचंद बघेल ने काली माटी, श्रीरामचंद्र देशमुख ने सरग अऊ नरक, जनम अऊ मरन, श्री हबीब तनवीर ने चरनदास चोर, मोर गांव के नाम ससुराल मोर नाम दामद और महासिंह चंद्राकर ने सोनहा बिहान को सफलता पूर्वक प्रस्तुत किया है।
लोकनाट्य की स्वाभाविक भावधारा को श्री रामचंद्र देशमुख द्वारा निर्देशित ‘‘चंदैनी गोंदा‘‘ ने आज के सिनेमाई युग में संबल प्रदान किया है। इनसे प्रभावित होकर अनेक कला मंडलियों, नाट्य संस्थाओं और कला पथकों का निर्माण हुआ मगर सिनेमाई युग की मार, उसमें प्रदर्शित पश्चिमी अंग प्रदर्शन के दृश्य ने कुछ ही समयों में उसे धराशायी कर दिया। यह अत्यंत चिंता का विषय है कि हमारी सांस्कृतिक परंपराएं धीरे धीरे लुप्त होने लगी है। इसके संरक्षण की दिशा में प्रयास किया जाना उचित होगा।
बहुत कम लोगों को मालूम है कि शिवरीनारायण का अभिनय संसार केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं वरन् देश के कोने में प्रसिद्ध था। हालांकि हर गांव में नाचा, गम्मत, रामलीला और रासलीला पार्टी होती थी लेकिन यहां की रामलीला और नाटक मंडली की बात ही कुछ और थी। ‘‘छत्तीसगढ़ गौरव‘‘ में पंडित शुकलाल पांडेय ने लिखा है ः-
ब्रज की सी यदि रास देखना हो तो प्यारों
ले नरियर नरियरा ग्राम को शीघ्र सिधारों
यदि लखना हो सुहृद ! आपको राघव लीला
अकलतरा को चलो, करो मत मन को ढीला
शिवरीनारायण को जाइये लखना हो नाटक सुघ्घर
बस यहीं कहीं मिल जायेंगे जग नाटक के सूत्रधार।
प्राचीन साहित्य में उल्लेख मिलता है कि पंडित मालिकराम भोगहा ने एक नाटक मंडली यहां बनायी थी। इस नाटक मंडली द्वारा अनेक धार्मिक और सामाजिक नाटकों का सफलता पूर्वक मंचन किया जाता था। भोगहा जी भी छत्तीसगढ़ के एक उत्कृष्ट नाटककार थे। उन्होंने अनेक नाटक लिखे जिसमें राम राज्य वियोग, प्रबोध चंद्रोदय और सती सुलोचना प्रमुख है। इन नाटकों का यहां सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया था। भोगहा जी की एक मात्र प्रकाशित नाटक ‘‘राम राज्य वियोग‘‘ में उन्होंने लिखा है ः- ‘‘यहां भी कई वर्ष नित्य हरि कीर्तन, नाटक और रासलीला देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। एक समय मेरे छोटे भाई श्रीनिवास ने ‘‘कंस वध उपाख्यान‘‘ का अभिनय दिखाकर सर्व सज्जनों को प्रसन्न किया। इस मंडली में हमारे मुकुटमणि श्रीमान् महंत गौतमदास जी भी सुशोभित थे। श्रीकृष्ण भगवान का अंतर्ध्यान और गोपियों का प्रलापना, उनके हृदय में चित्र की भांति अंकित हो गया जिससे आपकी आनंद सरिता उमड़ी और प्रत्यंग को आप सोते में निमग्न कर अचल हो गये। अतएव नाटक कर्त्ता का उत्साह अकथनीय था और एक मुख्य कारण इसके निर्माण का हुआ।‘‘
इस सदी के दूसरे दशक में महंत गौतमदास के संरक्षण में पंडित विश्वेश्वर तिवारी के कुशल निर्देशन में एक नाटक मंडली संचालित थी जिसे उनके पुत्र श्री कौशलप्रसाद तिवारी ने ‘‘महानद थियेटिकल कम्पनी‘‘ नाम से कुशलता पूर्वक संचालित और निर्देशित किया। इसी प्रकार श्री भुवनलाल शर्मा ‘‘भोगहा‘‘ के निर्देशन में नवयुवक नाटक मंडली और श्री विद्याधर साव के निर्देशन में केशरवानी नाटक मंडली यहां संचालित थी। श्री कौशलप्रसाद तिवारी ने भी एक बाल महानद थियेटिकल कम्पनी का गठन किया था। आगे चलकर इस नाटक मंडली को उन्होंने महानद थियेटिकल कंपनी में मिला दिया। पंडित कौशलप्रसाद तिवारी पारसी थियेटर के अच्छे जानकार थे। उनको नाटकों का बहुत अच्छा ज्ञान था। वे नाटक मंडली के केवल निर्देशक ही नहीं बल्कि एक अच्छे कलाकार भी थे। कलकत्ता के नाट्य मंडलियों और निर्देशकों से उनका सतत् संपर्क था। हिन्दुस्तान के प्रायः सभी नाट्य कलाकार शिवरीनारायण में अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं। तिवारी जी सभी कलाकारों का बहुत ख्याल रखते थे। उनके आने-जाने, रहने और खाने-पीने की बहुत अच्छी व्यवस्था करते थे। वे कलकत्ता के के. सी. दास एण्ड कंपनी से रसगुल्ला और फिरकोस नामक दुकान से जो आज फ्लरिज के नाम से प्रसिद्ध है, से पेस्टी मंगाते थे। चूंकि नाटकों के मंचन और उसकी तैयारी में बहुत खर्च होता था और यहां के लोगों के लिये ही नाटक एक मात्र मनोरंजन का साधन होता था। अतः मठ के महंत श्री गौतमदास और मठ के मुख्तियार श्री विश्वेश्वर प्रसाद तिवारी महानद थियेटिकल कम्पनी के कलाकारों को नाटक की तैयारी और मंचन के लिये आर्थिक मदद देने लगे। इससे यहां का नाटकों का मंचन बहुत अच्छा होता था। दशहरा-दीपावली के बाद से नाटकों का रिहर्सल शुरू होता था और गर्मी के मौसम में रात्रि में नाटकों का मंचन होता है जिसे देखने के लिये छत्तीसगढ़ के राजा, महाराजा और जमींदार तक यहां आते थे। नाटकों का मंचन पहले केशवनारायण मंदिर का प्रांगण में होता था। फिर मठ के गांधी चौरा प्रांगण में और बाद में बाजार में कुआं के बगल में नाटकों का मंचन होता था। महानद थियेटिकल कम्पनी के कलाकारों को कलकत्ता के डॉ.. अब्दुल शकूर और खुदीराम बोस रिहर्सल कराने आते थे। तब उन्हें ‘‘बाजा मास्टर‘‘ कहा जाता था। सबके प्रयास से नाटकों का मंचन प्रभावोत्पादक, मनोरंजनपूर्ण और आकर्षक होता था। इसमें नृत्य, संगीत और अभिनय का सुन्दर समन्वय होता था। श्री कौशलप्रसाद तिवारी, श्री रथांग पांडेय और श्री गुलजारीलाल शर्मा से मेरी इस सम्बंध में चर्चा होती थी। नाटकों के प्रति मेरी अभिरुचि देखकर वे उस काल की जानकारी दिया करते थे। उन्होंने मुझे बताया कि सन् 1944-45 के मेला में अंग्रेज सरकार के सहायतार्थ नाटकों का मंचन मेला के मैदान में किया गया था। इसे देखने के लिये सारंगढ़ के राजा, भटगांव, बिलाईगढ़, अकलतरा, पिथौरा के जमींदार और अनेक गांव के मालगुजार और अंग्रेज अधिकारी और बिलासपुर जिले के कलेक्टर सहित बहुत लोग आये थे। सभी सिनेमा और सर्कस खाली और जैसे पूरी भीड़ नाटक देखने के लिये उमड़ पड़ी थी। नाटक के एक ट्रिक सीन को देखकर अंग्रेज अधिकारी बहुत उत्तेजित हो गये थे जिन्हें बड़ी मुश्किल से शांत किया जा सका था। एक विश्वस्त सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार पंडित कौशलप्रसाद तिवारी ने महानद थियेटिकल कंपनी का निर्माण और नाटकों का पहला मंचन सन् 1925 में हुआ और अंतिम नाटक सन् 1952 में खेला गया था।
महानद थियेटिकल कम्पनी के द्वारा मंचित नाटकों में प्रमुख रूप ये धार्मिक और सामाजिक नाटक होते थे। धार्मिक नाटकों में सीता वनवास, सती सुलोचना, राजा हरिश्चंद्र, वीर अभिमन्यु, दानवीर कर्ण, सम्राट परीक्षित, कृष्ण और सुदामा, भक्त प्रहलाद, भक्त अम्बरीष आदि सामाजिक नाटकों में आदर्श नारी, दिल की प्यास, आंखों का नशा, नई जिंदगी, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, आदि प्रमुख थे। इस थियेटिकल कम्पनी के प्रमुख पात्रों में श्री कौशलप्रसाद तिवारी, पंडित श्यामलाल, पंडित गयाराम, पंडित ओंकारप्रसाद, विशेशर चौबे, बनमाली भð, प्यार पठान, गुलजारीलाल शर्मा, लक्ष्मण चौबे, रामगुलाम साव, जवाहर जायसवाल, भीम साव, बोधी पांडेय, दीनबंधु पोद्दार, मोहन भट्ट, रथांग पांडेय, भूषण तिवारी, मातादीन सेठ, हरि महाराज, सीताराम हलवाई, याकूब पठान, भालचंद्र तिवारी, तिजाऊ प्रसाद केशरवानी, केदार मुकिम, लादूराम पुजारी आदि प्रमुख थे। इनमेें गयाराम पांडेय अर्जुन और कंस, गुलजारीलाल शर्मा हिरण्य कश्यप, मातादीन केडिया दुर्योधन, लादूराम पुजारी द्रोणाचार्य और शंकर, तिजाऊ प्रसाद केशरवानी राणाप्रताप और भालचंद्र तिवारी प्रमुख नायक के रूप में तथा विशेशर चौबे, लक्ष्मण शर्मा, केदार मुकिम प्रमुख नायिका के अभिनय के लिये बहुत चर्चित थे। श्यामलाल शर्मा, बनमाली भट्ट और विश्वेश्वर चौबे हास्य कलाकार थे।
श्री भुवनलाल शर्मा भोगहा द्वारा निर्देशित और संचालित ‘‘नवयुवक नाटक मंडली‘‘ वास्तव में पंडित मालिकराम भोगहा के नाटक मंडली का नवीनतम रूप था। इस नाटक मंडली को कलाकारों के आपसी झगड़े के कारण बनाया गया था। इनके नाटकों का मंचन केशवनारायण मंदिर प्रांगण में और भोगहापारा में थाना चौक के आसपास किया जाता था। इस मंडली के प्रमुख पात्रों में भुवनलाल शर्मा, रामेश्वर पांडेय, साहेबलाल तिवारी, दुखुराम तिवारी, ज्ञानदेव, ननकेसर उपाध्याय, लक्ष्मी दाऊ, रामगोपाल तिवारी, सीताराम तिवारी, चुन्नीलाल तिवारी, रामशरण पांडेय, देवीप्रसाद तिवारी, केशव भट्ट, विशाल रावत, रामजी यादव, बद्री यादव, होली नाई, छेड़ूराम, लखन छिपिया, रामरूप, टकसार दास वैष्णव, पुरूषोत्तम कश्यप, कुंजराम कर्ष, विजयकुमार तिवारी, कपिल तिवारी, गंगाराम पोद्दार आदि प्रमुख थे। इस नाटक मंडली द्वारा बहुत दिनों तक नाटकों का मंचन किया जाता रहा है। इनमें धार्मिक, सामाजिक और हास्यप्रद नाटकों की बहुलता होती थी। आज भी भोगहा जी के घर और मंदिर प्रांगण में नाटक की सामग्री देखने को मिल जायेंगे।
श्री विद्याधर केशरवानी द्वारा निर्देशित और संचालित ‘‘केशरवानी नाटक मंडली‘‘ माखन साव परिवार के बच्चों की जिद का परिणाम था। इस नाटक के प्रमुख कलाकारों में तिजाऊप्रसाद, भालचंद्र तिवारी, भीमप्रसाद, रामेश्वरप्रसाद, देवालाल, सेवकलाल, अम्बिकाप्रसाद, सत्यनारायण, परमेश्वर प्रसाद, और मोतीलाल केशरवानी के अलावा मोहितराम सराफ और शरद् तिवारी प्रमुख थे। श्री मोहितराम सराफ नाटक और संगीत को इतने समर्पित थे कि वे दुरपा से रात में अकेले शिवरीनारायण आ जाया करते थे। आज वे चांपा में सराफा के व्यावसायी हैं। मैं भी यहां के माखन वंश का बहुत छोटा पौध हूं। बचपन में मुझे हमारे कुलदेव के मंदिर परिसर में स्थित धर्मशाला के एक कमरे में नाटकों की सामग्री, मोर मुकुट और पोशाक देखकर नाटकों में भाग लेने की इच्छा अवश्य होती थी। कुछ ऐसे अवसर भी आये जब मित्रों के साथ श्री भुवनलाल शर्मा के ‘‘भोगहा नाटक मंडली‘‘ के मंच में उतरने का मौका मिला। भाई जीवन यादव, वीरेन्द्र तिवारी, सुखीराम कश्यप, तीजराम केंवट, राजेन्द्र केशरवानी, आदि ऐसे कलाकार हमारे साथ थे जिनकी आज केवल स्मृतियां शेष हैं। पंडित शुकलाल पांडेय लिखते हैं ः-
हैं शिवलाल समान यहीं पर उत्तम गायक।
क्षिति गंधर्व सुरेश तुल्य रहते हैं वादक।
विविध नृत्य में कुशल यहीं हैं माधव नर्तक।
राममनोहर तुल्य यहीं हैं निपुण विदूषक।
हैं गयाराम पांडेय से अभिनेता विश्रुत यहीं।
भारत में तू छत्तीसगढ़ ! किसी प्रान्त से कम नहीं।।
इन नाटक मंडलियों के कलाकार प्रतिष्ठित परिवारों के बच्चे थे और केवल मनोरंजन के लिये नाटक मंडलियों से जुड़े थे। क्योंकि उस समय मनोरंजन का कोई दूसरा साधन नहीं था। महंत लालदास के जीते जी महानद थियेटिकल कम्पनी के कलाकारों को आर्थिक सहयोग मठ से मिलता रहा उसके बाद पूरी नाटक मंडली बिखर गयी। यहां के नाटकों में अल्फ्रेड और कोरियन्थर और पारसी थियेटर का स्पष्ट प्रभाव था। यह यहां के साहित्यिक पृष्ठभूमि का मजबूत अभिनय पक्ष है।
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रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी
चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)
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