न जाने कितनी पुस्तकों और पत्रिकाओं में मैंने राम और लक्ष्मण के चित्र देखें हैं। वनवास के भयंकर दिनों में भी उनका मुखमंडल साफ़ रहता था। मैं व...
न जाने कितनी पुस्तकों और पत्रिकाओं में मैंने राम और लक्ष्मण के चित्र देखें हैं। वनवास के भयंकर दिनों में भी उनका मुखमंडल साफ़ रहता था। मैं वाकई यह कभी नहीं समझ पाया कि वनवास के वर्षों में राम को 'सेफ्टी रेजर' कैसे मिला और वनवास के दिनों में उन्होंने परिवार नियोजन कैसे किया.? मैं सरकार से अनुरोध करना चाहता हूं कि सरकार इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाए।
साहित्यकारों के ऊपर सरकार ने अभी तक अपनी दृष्टि पूरी तरह नहीं डाली है। यह उचित होगा कि कुछ काम जल्दी ही संपन्न किए जाएं। पहले तो ऐसा कानून बनना चाहिए कि प्रत्येक कवि या लेखक दाढ़ी अनिवार्य रूप से रखे। जो लेखक दाढ़ी रखेगा, वह रेल में मुफ्त चलेगा। इस रिआयत के देने से सरकार को कोई हानि नहीं होगी क्योंकि लेखक लोग वैसे ही कौन-सा टिकट खरीदते हैं ? इसके अलावा सरकार को उचित होगा कि वह दाढ़ीवान साहित्यकार की पुस्तकें प्रकाशन विभाग से छपवाए ताकि लेखक को कोई प्रकाशक धोखा न दे सके।
जो प्रतिभावान साहित्यकार हैं मगर नया होने के कारण जिन्हें प्रकाशक नहीं मिलता, उनकी पुस्तकों को छापने की ज़िम्मेदारी सरकार लें। कौन लेखक प्रतिभावान है और कौन नहीं, इसका निर्णय डॉक्टर नामवर सिंह करेंगे। वे आपको 'अज्ञेय' तो नहीं बना सकते पर 'ज्ञेय' जरूर बना सकते हैं-ऐसा मेरा विश्वास है। दाढ़ी भी हर एक को नहीं फबती। जार्ज बर्नार्ड शा की दाढ़ी उनके व्यक्तित्व को एक विचित्र प्रतिभा प्रदान करती थी जबकि व्हिटमैन की दाढ़ी ठीक उसी घास की याद दिलाती थी जिसका ज़िक्र कवि ने अपनी पुस्तक 'लीव्स ऑफ़ ग्रास' में किया था।
मैं कभी-कभी सोचता हूं कि प्रेमचंद, सुमित्रानंदन पंत और जयशंकर प्रसाद दाढ़ी रखते तो कैसे लगते ? ये तीनों साहित्यस्रष्टा कुछ भी छिपाना नहीं चाहते थे और इसी कारण उन्होंने दाढ़ी नहीं रखी। 'रत्नाकार जी' का चेहरा ज़रूर ऐसा था जो दाढ़ी की ज़रूरत को याद दिलाता था। देवकीनंदन खत्री यदि दाढ़ी रखते तो वह उन्हें भी तिलस्म बना देती। इधर सुना है कि राजेन्द्र यादव 'चन्द्रकांता' पर अपनी भूमिका लिख रहे हैं। कितना अच्छा हो कि वे 'चन्द्रकांता' की संतति पर भी उतना ही ध्यान दें। हां, अलबत्ता 'भूतनाथ' पर उनकी भूमिका की कोई ज़रूरत नहीं। उस पर उनका चित्र भर छप जाए तो काफ़ी है। इस बात का पता भी मुझे कभी नहीं लगा कि मीरा, सरोजिनी नायडू, महादेवी, एमिली ब्रान्ट, चार्लोट ब्रांट और पर्ल बक ने दाढ़ी क्यों नहीं रखी। कुछ लोग कहेंगे कि भला कहीं स्त्रियां भी दाढ़ी रख सकती हैं ?
मुझ खाकसार का निवेदन है कि सारी बात रहस्यवादी है और मात्र ऊपर दिया तर्क मेरी इस [लघु] शंका का पूरा समाधान नहीं करता। सारी स्थिति को समझने के लिए शरद जोशी से जासूस घुंडीदास उधार लेना पड़ेगा। दाढ़ी खुदा का नूर है बेशक मगर जनाब, फ़ैशन की इंतजामे सफ़ाई को क्या करूं ? मेरा विचार है कि कवियित्रियां जो दाढ़ी नहीं रखतीं वे शायद फैशन की वजह से नहीं रखतीं। नहीं तो मैंने अपने इस क्षणभंगुर जीवन में ऐसी देवियों के दर्शन किए हैं जिनके मुखारविंद देखकर 'वन महोत्सव' की याद आती थी। फ़ैशन बड़ी बुरी चीज़ है। कार्ल मार्क्स और एंजेल्स-दोनों दाढ़ी रखते थे और तबीयत के साथ रखते थे मगर बाद में चलकर स्थिति यह रही कि लेनिन ने नाम मात्र को दाढ़ी रखी, स्तालिन ने मात्र मूंछें रखीं। [ठीक वैसी ही जैसी कि कभी मैथलीशरण गुप्त रखाकरते थे। और ब्रेजनेव ने चेहरा एकदम साफ कर लिया। मजदूरों की हालत दुरूस्त करने के लिए वे कोई भी त्याग कर सकते थे।
जैसा कि मैंनें उपर कहा है, मैं भी दाढ़ी रखना चाहता हूं [मुझको है अपनी कवि की लाज निभानी] इस दिशा में मैं भरसक प्रयत्न करुंगा। मैं तो चाहूंगा कि चाहे तो सरकार इस संदर्भ में मात्र एक या दो लाख रुपयों की ग्रांट मुझे दे दे ताकि मैं' अधिक अन्न उपजाओं' की तर्ज पर 'अधिक दाढ़ी उगाओं का आंदोलन शुरु कर सकूं। मैं कीमती शराब पिउंगा, विदेश जाउंगा, वातानुकूलित दर्जे से यात्रा करूंगा और वाकी राशि में से जो भी सम्भव है, वह दाढ़ी के लिए शत-प्रतिशत करूंगा। स्थिति यह होगी कि मेरे क्षेत्र में' मच्छर तो रहेगा पर मलेरिया नहीं रहेगा' की तर्ज पर दाढ़ी तो रहेगी पर कवि नहीं रहेगा' वाली बात सच निकलेगी। सार्वजनिक धन को गबन करने की कोई संभावना हुई तो मैं बंगला देश चला जाउंगा और काज़ी नज़रुल इस्लाम का संक्षिप्त बनकर वहीं कविता लिखूंगा।
मैं दाढ़ी को साहित्य की परिधि में ही रखना चाहता हूँ ताकि रचना दाढ़ी से लम्वी न हो जाए पर वैसा पूरी तरह करना कठिन प्रतीत होता है। इतिहास से पता लगता है कि दाढ़ी अमन से लेकर युद्वों तक का कारण बनी है और कभी-कभी निहायत चिकने गालों वाली रानियों ने भी उसे लगाने की कोशिश की है। रूस के सम्राट पीटर महान् ने सन सतरह सौ पांच में दाढ़ी रखने के खिलाफ़ बड़ा सख्त कानून बनाया था और स्थिति यह थी कि दाढ़ी रखने वाले अमीरों को उस पर कर देना पड़ता था। आगे चलकर सन् सत्रह सौ बाईस में उसने एक और हुक्म जारी किया था जिसके फलस्वरूप यदि कोई व्यक्ति दाढ़ी रखता था तो उसे पोशाक भी पुराने ढंग की पहननी पड़ती थी। इसके विपरीत इंग्लैंड़ मे रानी एलिजाबेथ [प्रथम] के समय में दाड़ी रखना बड़े गौरव की बात समझी जाती थी। उनके शासनकाल में तो लंबी दाढ़ी रखने के संदर्भ में प्रतियोगिता तक होती थी। बाइबिल के काल में घुंघराली और सुनहरी दाढ़ी को श्रेष्ठ माना जाता था। शेक्सपीयर के नाटकों मैं दाढ़ी की काफी चर्चा है। एक नाटक में नायिका कहती है कि जिन-जिन पुरूषों की दाढ़ियां मुझे अच्छी लगेंगी, उन्हें मैं चुम्बन दे सकती हूँ।
एक और नाटक में एक युवती कुछ दूसरे किस्म की बात करती है और कहती है कि दाढ़ी वाले पति से प्रेम करने के वजाय मैं खुरदरे कम्बल में लिपटना ज्यादा पसन्द करूंगी। जर्मन भाषा में एक कहावत है कि जो व्यक् ित दाढ़ी न रखता हो, उसे मूर्ख समझना ही उचित है और इसके खिलाफ़ इंग्लैंड में एक कहावत अभी भी प्रचलित है जिसके अनुसार मात्र दाढ़ी रखना यह हर्गिज़ सिद्ध नहीं करता कि आदमी बुद्धिमान है या नहीं। सिकंदर महान् दाढ़ी से बड़ी नफ़रत करता था। उसकी सेना के सारे सिपाही और सिपहसालार दाढ़ीविहीन ही होते थे। रोमन सम्राट एफ़िकेनस को भी दाढ़ी से बेहद नफ़रत थी। इस सबके विपरीत रोमन सम्राट हेड्रियन दाढ़ी को अपनी प्रियतमा से भी ज़्यादा प्यार करता था और उसे हमेशा सीने से लगाकर रखता था।
मिस्र में तो एक ऐसा समय आया कि दाढ़ी की लम्बाई को व्यक्ति के पद के अनुसार निश्चित किया जाता था। ईसा से सौलह सौ वर्ष पूर्व मिस्त्र की एक रानी नकली दाढ़ी लगाकर रात को नगर का दौरा किया करती थी। सम्राट दाऊद के राजदूत अमन की दाढ़ी को लेकर भयंकर युद्ध हुआ था। दाढ़ी को अब मैं और नहीं खीचूंगा। इस टॉपिक पर मैं 'दाढ़ी: नीलयक्षिणी' नाम से एक विस्तृत प्रसंग अलग से लिख चुका हूं जो डॉक्टर धर्मवीर भारती को बहुत पसन्द आया था। हां, अलबत्ता इस संदर्भ में आपको मैं एक सच्ची घटना जरूर सुनाऊंगा। एक रियासत के रईस थे जो गवर्नर से मिलने जा रहे थे। लखनऊ के चारबाग स्टेशन पर जब वे गाड़ी से उतर रहे थे तभी एक दाढ़ी वाले व्यक्ति ने उनका पर्स निकाल लिया। रईस साहब ने उस व्यक्ति का पीछा किया मगर काफी भागने के बाद भी वह पॉकेटमार की सिर्फ़ दाढ़ी ही पकड़ पाए। स्थिति यह रही कि दाढ़ी उनके हाथ में रह गई और जेबकतरा भीड़ में खो गया। बिना दाढ़ी के तो उसे पहचानना भी मुश्किल था। चोर असली था मगर दाढ़ी नकली थी।
मुझे पूरा विश् वास है कि हिंदी के मेधावी ज्ञाता अब दाढ़ी पर खोज करेंगे। वीर गाथा काल में तो क्या स्त्री और क्या पुरुष, सभी दाढ़ी रखते थे। भक्तिकाल में भी दाढ़ी का प्रभाव रहा। रीति-काल में नायक दाढ़ी रखता था पर नायिका चंद्रमुखी होती थी। 'दाढ़ी का नायिका के विशिष्ट अंगों पर प्रभाव' या 'दाढ़ी और हिंदी कविता में रहस्यवाद' जैसे विषयों पर थीसिस लिखी जा सकती है जिस पर डॉक्टरेट मिलेगी और जरूर मिलेगी। बस विद्वान नवयुवक रीतिकालीन नायिका पर उतना ही परिश्रम करें जितना कि ग्वाल कवि का नायक किया करता था। अब बाकी कुछ और कहने को क्या रह गया ? हां, अलबत्ता इतनी सलाह जरूर दूंगा कि पराजित पीढ़ी के मेरे सहकर्मी कम से कम दाढ़ी और मूंछें जरूर बढ़ा लें। ऐसा करने से उनका भीतरी खोखलापन तो वहीं रहेगा जहां कि वह है पर बाहर से देखने पर वे जरूर बहादुर लगेंगे। इतना क्या कम है? बस यही है कि मेरे कवि की अंतिम इच्छा....
(टीडीआईएल के हिन्दी पाठ कार्पोरा से साभार)
बहुत बढिया व्यंग्य है - साहित्यकार गण सोचने पर मजबूर होंगे- दाढी रखें या न रखें।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा है।
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