(पिछले अंक से जारी…) (35) भोर का आह्नान खुल रही आँखें नयी इस ज़िन्दगी के भोर में ! उठ रहा उठते दिवाकर संग जन-समुदाय, भर कर...
(पिछले अंक से जारी…)
(35) भोर का आह्नान
खुल रही आँखें
नयी इस ज़िन्दगी के भोर में !
उठ रहा
उठते दिवाकर संग जन-समुदाय,
भर कर भावना बहुजन हिताय !
अंतर से निकलती आ रही हैं
विश्व के कल्याण की
काली अंधेरी रात के तारों सरीखी,
एक के उपरान्त अगणित शृंखला-सी
नव्य-जीवन की सुनहरी आब-सी
स्वर्गिक दुआएँ !
देख ली है आज
नयनों ने नये युग की धधकती आग,
जिसकी उड़ रहीं चिनगारियाँ
हर ग्राम-वन-सागर-नगर के व्योम में !
उस घास की गंजी सरीखा
जो लपट से ग्रस्त धू-धू जल रही है,
ध्वस्त होता जा रहा
छल, झूठ, आडम्बर !
कि जिसके वक्ष पर यह हो रहा है
रोशनी-सा
दौड़ता अभिनव-किरण-सा आज मन्वंतर !
कि विद्युत वेग भी पीछे
लरज कर रह गया,
लाखों हरीकेनी हवाएँ तक
ठिठक कर रह गयीं;
लाखों उबलते भूमि के ज्वालामुखी तक
जम गये,
बह न पाया एक पग भी देखकर लावा !
गगन के फट गये बादल
व खंडित हो गयी सारी गरज !
भव का भयानकतम भविष्यत् भी
भरे भय भग गया !
विश्वास है
यह अब न आएगा कभी,
ऐसा ग्रहण फिर
ग्रस न पाएगा कभी
जन-चेतना के सूर्य को !
रे आज सदियों रुद्ध जनता-कंठ
सहसा खुल गया
संसार के इस शोर में !
खुल रही आँखें
नयीे इस ज़िन्दगी के भोर में !
1950
(36) निरापद
नयी रोशनी है,
नयी रोशनी है !
निरापद हुआ आज जीवन,
निराशा पुरावृत विसर्जन !
विषादित-युगों की निशा भी गगन से
अंधेरा उठाकर भगी इस जलन से।
महाबल विपुल अब भुजाएँ उठाकर
विरोधी सभी ताक़तों को
गरजकर बिगड़ क्रुद्ध
ललकारता है !
गुनाहों के पर्वत
पिघल कर धँसे जा रहे हैं !
(सुमन शुष्क उपवन में
खिलते चले जा रहे हैं !)
बदलते जगत पर
पुरातन गलित नीति
हरगिज़
नहीं थोपनी है !
नयी रोशनी है !
1949
(37) सुर्खियाँ निहार लो!
नये विचार लो !
समाज की गिरी दशा सुधार लो,
सुधार लो !
रुका प्रवाह फिर बहे,
सप्राण गीति-स्वर कहे,
हृदय अपार स्नेह-धन
भरे उठें असंख्य जन,
प्रभात को धरा जगो पुकार लो,
पुकार लो !
वतन सुसंगठित रहे,
न एक जन दमित रहे,
न भूख-प्यास शेष हो,
बना नवीन वेश हो,
समय बहाल, सुर्खियाँ निहार लो,
निहार लो !
विभोर हर्ष-धार में,
सफ़ेद लाल प्यार में,
बहो, बहो, बहो, बहो !
बनी नयी कुटीर है, विहार लो,
विहार लो !
1950
(38) युग-परिवर्तन
नये प्रभात की प्रथम किरण
विलोक मुसकरा रहा गगन !
इधर-उधर सभी जगह
नवीन ज़िन्दगी के फूल खिल गये,
सिहर-सिहर कि झूम-झूम
एक दूसरे को चूम-चूम मिल गये !
धूल बन गया पहाड़ अंधकार का,
अटूट वेग है ज़मीन पर
नयी बयार का !
कि साथ-साथ उठ रहे चरण,
कि साथ-साथ गिर रहे चरण !
नये प्रभात की नयी बहार बीच
जगमगा उठा गगन !
कि झिलमिला उठा गगन !
उर्वरा धरा सुहाग पा गयी,
शरीर में हरी निखार आ गयी !
निहार लो उभार रूप का
पड़ा है सिर्फ़
रेशमी महीन आवरण
अतेज घूप का !
बिजलियों ने कर लिया शयन,
हहरती आँधियाँ पड़ीं शरण,
विकास का सशक्त काफ़िला नवीन
कर रहा सुदृढ़ भवन-सृजन !
बेशरम रुके खड़े हैं राह पर,
कि कापुरुष के कंठ से
निकल रहा कराह-स्वर,
सभीत दुर्बलों के बंद हैं नयन,
व मोच खा गये चरण !
1950
(39) नयी संस्कृति
युग-रात्रि
निश्चय
विश्व के प्रत्येक नभ से मिट गयी !
अभिनव प्रखर-स्वर्णिम-किरण बन
झिलमिलाती आ रही
संस्कृति नयी !
सामने जिसके
विरोधी शक्तियाँ तम की बिखरती जा रहीं,
पर, ये विरोधी शक्तियाँ
कोई थकी जर्जर नहीं,
किन्तु;
इनसे जूझने का आ गया अवसर !
यही वह है समय
जब बल नया पाता विजय !
हमला ज़रूरी है,
कि देशों, जातियों, वर्गों सभी की
यह परस्पर की
मिटाना आज दूरी है !
इसी के ही लिए
प्राचीन-नूतन द्वन्द्व की आवाज़ है,
प्राचीन जो म्रियमाण,
जिसका आज
विशृंखल हुआ सब साज़ है !
जिसकी रोशनी सारी
नये ने छीन ली,
और जिसके हाथ से निकला
समस्त समाज है !
बस, पास केवल एक धुँधली याद है,
जिसका तड़पता शेष यह उन्माद है
'बीते युगों में हम सुखी थे;
किंतु अब रथ सभ्यता का
तीव्र गति से बढ़
पतन-पथ पर
जगत का नाश करने हो रहा आतुर !'
हमें अब जान लेना है
विनाशी तत्त्व घातक हैं वही
जो आज यह झूठा तिमिर करते विनिर्मित,
और रक्षक-दीप बनने का
विफल गीदड़ सरीखा स्वाँग भरते हैं !
कि धोखे से उदर अपना
भरा हर रोज़ करते हैं।
भला ऐसे मनुज
क्या लोक के कुछ काम आते हैं ?
नयी हर बात से मुख मोड़ लेते हैं
समय के साथ चलना भूल जाते हैं !
नज़र से
क्रीट, बेबीलोन के खण्डहर गुज़रते हैं !
बहाना है न उनको देखकर आँसू,
न उनकी अब प्रशंसा के
हज़ारों गीत गाने हैं !
नहीं बीते युगों के दिन बुलाने हैं !
नया युग आ रहा है जो
उसी के मार्ग में हमको
बिछाने फूल हैं कोमल,
उसी के मार्ग को हमको
बनाना है सरल !
जिससे नयी संस्कृति-लता के कुंज में
हम सब खुशी का
गा सकें नूतन तराना !
भूलकर दुख-दर्द
जीवन का पुराना !
1950
40) गंगा बहाओ
आज ऊसर भूमि पर गंगा बहाओ !
उच्च दृढ़ पाषाण गिर-गिर कर चटकते,
रेत के कण नग्न धरती पर चमकते,
अग्नि की लहरें हवा में बह रही हैं;
रूप घन का शांतिमय जग को दिखाओ !
त्रस्त नत मानव प्रकम्पित पात से झर,
झुक गये सब आततायी के चरण पर,
थूक ठोकर नाश दुख निर्मम मरण पर;
आत्म-धन उत्सर्ग की ध्रुव लौ जगाओ !
बह चुकी हैं ख़ून की नदियाँ, बिरानी
भू हुई, सत् की असत् ने कुछ न मानी,
और फूटा भय-ग्रसित-रक्तिम-सबेरा,
सूर्य पर छाये हुए बादल हटाओ !
1950
(41) नयी रेखाएँ
इन धुँधली-धुँधली रेखाओं
पर, फिर से चित्र बनाओ मत !
दुनिया पहले से बदल गयी,
आभा फैली है नयी-नयी,
यह रूप पुराना, नहीं-नहीं !
आँखों से ओझल है कल की
संस्कृति की गंगा का पानी,
टूटी-टूटी-सी लगती है
गत वैभव की शेष कहानी,
जिसमें मन से झूठी, कल्पित
बातों को सोच मिलाओ मत !
पहले के बादल बरस चुके,
अब तो खाली सब थके-रुके,
यह गरज बरसने वाली कब ?
नव-अंकुर फूट रहे रज से
भर कर जीवन की हरियाली,
निश्चय है, फूटेगी नभ से
जनयुग के जीवन की लाली,
निस्सार, मिटा, जर्जर, खोया
फिर से आज अतीत बुलाओ मत !
1948
(42) भविष्य के निर्माताओं!
जिन सपनों को साकार करोगे तुम
उन पर मुझको विश्वास बड़ा,
मैं देख रहा हूँ
क़दम-क़दम पर आज तुम्हारे
स्वागत को युग का इन्सान खड़ा !
जिसके फ़ौलादी हाथों में
हँसते फूलों की खुशबू वाली माला है,
जिसने जीवन की सारी
जड़ता और निराशा का
वारा-न्यारा कर डाला है !
वह माला वह इनसान
तुम्हारे उर पर डालेगा;
क्योंकि तुम्हारा वक्षस्थल
जन-जन की पीड़ा से बोझिल है,
क्योंकि तुम्हारे फ़ौलादी तन का
मख़मल जैसा मन
युग-व्यापी क्रन्दन से
हो-हो उठता चंचल है !
तुम ही हो जो
इन फूलों की क़ीमत समझोगे,
फिर सारी दुनिया में
हँसते फूलों का उपवन
नभ के नीचे लहराएगा !
मानव फूलों को प्यार करेगा,
अपनी 'श्रद्धा' का शृंगार करेगा,
बच्चों को चूमेगा,
उनके साथ रोज़
हरे लॉन पर 'घोड़ा-घोड़ा' खेलेगा !
नयनों में आँसू तो आएँगे
पर, वे बेहद मीठे होंगे !
मरघट की आग जलेगी यों ही
पर, उसमें न किसी के
अरमान अधूरे होंगे !
जैसे अब मिलना दुर्लभ है
'ईश' जगत में
वैसे ही तब भी होगा,
पर, हमको-तुमको
(सच मानो !)
उसकी इतनी चिन्ता ना होगी !
उसका और हमारा अन्तर
निश्चय ही मिट जाएगा,
जिस दिन मानव का सपना
सच हो जाएगा !
1953
(43) मेघ-गीत
उमड़ते-गरजते चले आ रहे घन
घिरा व्योम सारा कि बहता प्रभंजन
अंधेरी उभरती अवनि पर निशा-सी
घटाएँ सुहानी उड़ीं दे निमन्त्रण !
कि बरसो जलद रे जलन पर निरंतर
तपी और झुलसी विजन-भूमि दिन भर,
करो शान्त प्रत्येक कण आज शीतल
हरी हो, भरी हो प्रकृति नव्य सुन्दर !
झड़ी पर, झड़ी पर, झड़ी पर, झड़ी हो,
जगत मंच पर सौम्य शोभा खड़ी हो,
गगन से झरो मेघ ओ! आज रिमझिम,
बरस लो सतत, मोतियों-सी लड़ी हो !
हवा के झकोरे उड़ा गंध-पानी
मिटा दी सभी उष्णता की निशानी,
नहाती दीवारें नयी औ' पुरानी
डगर में कहीं स्रोत चंचल रवानी !
कृषक ने पसीने बहाये नहीं थे,
नवल बीज भू पर उगाये नहीं थे,
सृजन-पंथ पर हल न आये अभी थे
खिले औ' पके फल न खाये कहीं थे !
दृगों को उठा कर, गगन में अड़ा कर
प्रतीक्षा तुम्हारी सतत लौ लगा कर
हृदय से, श्रवण से, नयन से व तन से,
घिरो घन, उड़ो घन घुमड़कर जगत पर !
अजब हो छटा बिजलियाँ चमचमाएँ,
अंधेरा सघन, लुप्त हो सब दिशाएँ
भरन पर, भरन पर सुना राग नूतन
नया प्रेम का मुक्त-संदेश छाये !
विजन शुष्क आँचल हरा हो, हरा हो,
जवानी भरी हो सुहागिन धरा हो,
चपलता बिछलती, सरलता शरमती,
नयन स्नेहमय ज्योति, जीवन भरा हो !
1950
(44) बरगद
स्तब्धता सुनसान
पथ वीरान,
सीमाहीन नीला व्योम !
मटमैली धरा पर
वृक्ष बरगद का झुका
मानों कि है प्राचीनता साक्षात् !
निर्बल
वृद्ध-सा जर्जर शिथिल,
उखड़ी हुई साँसें,
जड़ें भू पर बिछी हैं
और गिरने के मरण-क्षण पर
भयंकर स्वप्न ने
कंपित किया झकझोर कर
भय की बना मुद्रा
खड़ा यों कर दिया !
उड़कर धूल कहना चाहती है
'ओ गगनचुम्बी !
गिरो
पूरी न आकांक्षा हुई,
आकर मिलो मुझसे
विवश होकर धराशायी !
न जाना मूल्य लघुता का
किया उपहास !'
जड़ के पास
खंडित औ' कुरूपा
जो रँगा सिन्दूर से
हनुमान-सा पाषाण
टिक कर गोद में बैठा
कि जिसकी अर्चना करते
मनुज कितने
नमन हो परिक्रमा करते
व आधी रात को आ
श्वान जिसको चाटते !
1959
(43) कवि
युग बदलेगा कवि के प्राणों के स्वर से,
प्रतिध्वनि आएगी उस स्वर की घर-घर से !
कवि का स्वर सामूहिक जनता का स्वर है,
उसकी वाणी आकर्षक और निडर है !
जिससे दृढ़-राज्य पलट जाया करते हैं,
शोषक अन्यायी भय खाया करते हैं !
उसके आवाहन पर, नत शोषित पीड़ित,
नूतन बल धारण कर होते एकत्रित !
जो आकाश हिला देते हुंकारों से
दुख-दुर्ग ढहा देते तीव्र प्रहारों से !
कवि के पीछे इतिहास सदा चलता है,
ज्वाला में रवि से बढ़कर कवि जलता है !
कवि निर्मम युग-संघर्षों में जीता है,
कवि है जो शिव से बढ़कर विष पीता है !
उर-उर में जो भाव-लहरियों की धड़कन,
मूक प्रतीक्षा-रत प्रिय भटकी गति बन-बन,
स्नेह भरा जो आँखों में माँ की निश्छल,
लहराया करता कवि के दिल में प्रतिपल !
खेतों में जो बिरहा गाया करता है,
या कि मिलन का गीत सुनाया करता है,
उसके भीतर छिपा हुआ है कवि का मन,
कवि है जो पाषाणों में भरता जीवन!
1953
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(समाप्त)
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