(पिछले अंक से जारी…) (26) आज देखा है आज देखा है मनुज को ज़िन्दगी से जूझते, संघर्ष करते ! वंचना की टूटती चट्टान की आवाज़ ...
(पिछले अंक से जारी…)
(26) आज देखा है
आज देखा है
मनुज को ज़िन्दगी से जूझते,
संघर्ष करते !
वंचना की टूटती चट्टान की आवाज़
कानों ने सुनी है,
और पैरों को हुआ महसूस
धरती हिल रही है !
आज मन भी
दे रहा निश्चय गवाही
दु:ख-पूर्णा-रात काली
अब क्षितिज पर गिर रही है !
भूमि जननी को हुआ कुछ भास
उसकी आस का संसार
नूतन अंकुरों का
उग रहा अंबार !
सूखे वृक्ष के आ पास
बहती वायु कुछ रुक
कह रही संदेश ऐसा
जो नया,
बिलकुल नया है !
सुन जिसे खग डाल का
अब चोंच अपनी खोलने को
हो रहा आतुर,
प्रफुल्लित,
फड़फड़ाकर कर पर थकित !
छतनार यह काला धुआँ
अब दीखता हलका
नहीं गाढ़ा अंधेरा है
वही कल का !
1951
(27) मुझे भरोसा है
मैं क़ैद पड़ा हूँ आज
अंधेरी दीवारों में;
दीवारें -
जिनमें कहते हैं
रहती क़ैद हवा है,
रहता क़ैद प्रकाश !
जहाँ कि केवल फैला
सन्नाटे का राज !
पर, मैं तो अनुभव करता हूँ
बेरोक हवा का,
आँखों से देखा करता हूँ
लक्ष-लक्ष ज्योतिर्मय-पिण्डों को,
मुझको तो
खूब सुनायी देती हैं
मेरे साथी मनुजों के
चलते, बढ़ते, लड़ते
क़दमों की आवाज़ !
मेरे साथी मनुजों के
अभियानों के गानों की
अभियानों के बाजों की
आवाज़ !
मुझे भरोसा है
मेरे साथी आकर
कारा के ताले तोड़ेंगे,
जन-द्रोही सत्ता का
ऊँचा गर्वीला मस्तक फोड़ेंगे !
इंसान नहीं फिर कुचला जाएगा,
इंसान नहीं फिर
इच्छाओं का खेल बनाया जाएगा !
1951
(28) मुख को छिपाती रही
धुआँ ही धुआँ है,
नगर आज सारा नहाता हुआ है !
अंगीठी जली हैं
व चूल्हे जले हैं,
विहग
बाल-बच्चों से मिलने चले हैं !
निकट खाँसती है
छिपी एक नारी
मृदुल भव्य लगती कभी थी,
बनी थी
किसी की विमल प्राण प्यारी !
उसी की शक़ल अब
धुएँ में सराबोर है !
और मुख की ललाई
अंधेरी-अंधेरी निगाहों में खोयी !
जिसे ज़िन्दगी से
न कोई शिकायत रही अब,
व जिसके लिए
है न दुनिया
भरी स्वप्न मधु से
लजाती हुयी नत !
अनेकों बरस से
धुएँ में नहाती रही है !
कि गंगा व यमुना-सा
आँसू का दरिया
बहाती रही है !
फटे जीर्ण दामन में
मुख को छिपाती रही है !
मगर अब चमकता है
पूरब से आशा का सूरज,
कि आती है गाती किरन,
मिटेगी यह निश्चय ही
दुख की शिकन !
1951
(29) नया समाज
करवटें बदल रहा समाज,
आज आ रहा है लोकराज !
ध्वस्त सर्व जीर्ण-शीर्ण साज़,
धूल चूमते अनेक ताज !
आ रही मनुष्यता नवीन,
दानवी प्रवृत्तियाँ विलीन !
अंधकार हो रहा है दूर;
खंड-खंड और चूर-चूर !
रश्मियों ने भर दिया प्रकाश,
ज़िन्दगी को मिल गयी है आश।
चल पड़ा है कारवाँ सप्राण
शक्तिवान, संगठित, महान !
रेत-सा यह उड़ रहा विरोध,
मार्ग हो रहा सरल सुबोध;
बढ़ रहा प्रबल प्रगति-प्रसार,
बिजलियों सदृश चमक अपार !
देख काल दब गया विशाल,
आग जल उठी है लाल-लाल !
उठ रहा नया गरज पहाड़,
मध्य जो वह खा गया पछाड़ !
पिस गया गला-सड़ा पुराण,
बन रहा नवीन प्राणवान !
गूँजता विहान-नव्य-गान;
मुक्त औ' विरामहीन तान !
1949
(30) युगान्तर
आँधी उठी है समुन्दर किनारे
बढ़ती सतत कुछ न सोचे-विचारे,
लहरें उमड़तीं बिना शक्ति हारे
रफ्तार यह तो समय की !
मानव निकलते चले आ रहे हैं,
उन्मत्त हो गीत नव गा रहे हैं,
रंगीन बादल बिखर छा रहे हैं !
झंकार यह तो समय की !
जर्जर इमारत गिरी डगमगाकर,
आमूल विष-वृक्ष गिरता धरा पर,
बहता पिघल पूर्ण प्राचीन पत्थर,
है मार यह तो समय की !
रोड़े बिछे थे हज़ारों डगर में
नौका कभी भी न डोली भँवर में,
बढ़ती गयी व्यक्ति-झंझा समर में
पतवार यह तो समय की !
इंसान लेता नयी आज करवट,
सम्मुख नयन के उठा है नया पट,
गूँजी जगत में युगान्तर की आहट,
ललकार यह तो समय की !
1950
(31) छलना
आज सपनों की
नहीं मैं बात करता हूँ !
चाँद-सी तुमको समझकर
अब न रह-रह कर
विरह में आह भरता हूँ !
नहीं है
रुग्ण मन के
प्यार का उन्माद बाक़ी,
अब न आँखों में सतत
यह झिलमिलाती
तुम्हारे रूप की झाँकी !
कि मैंने आज
जीवित सत्य की
तसवीर देखी है,
जगत की ज़िन्दगी की
एक व्याकुल दर्द की
तसवीर देखी है !
किसी मासूम की उर-वेदना
बन धार आँसू की
धरा पर गिर रही है,
और चारों ओर है जिसके
अंधेरे की घटा,
जा रूठ बैठी है
सबेरे की छटा !
उसको मनाने के लिए अब
मैं हज़ारों गीत गाऊँगा,
अंधेरे को हटाने के लिए
नव ज्योति प्राणों में सजाऊँगा !
न जब तक
सृष्टि के प्रत्येक उपवन में
बसन्ती प्यार छाएगा,
न जब तक
मुसकराहट का नया साम्राज्य
धरती पर उतर कर जगमगाएगा,
कि तब तक
पास आने तक न दूँगा
याद जीवन में तुम्हारी !
क्योंकि तुम
कर्तव्य से संसार का मुख मोड़ देती हो !
हज़ारों के
सरल शुभ-भावनाओं से भरे उर तोड़ देती हो !
1952
(32) मत कहो
आज भय की बात मुझसे मत कहो,
आज बहकी बात मुझसे मत कहो !
प्राण में तूफ़ान-से अरमान हैं,
कंठ में नव-मुक्ति के नव-गान हैं !
ज्वार तन में स्वस्थ यौवन का बहा,
नष्ट हों बंधन, सबल उर ने कहा !
है तरुण की साधना, गतिरोध क्या ?
है तरुण की चेतना, अवरोध क्या ?
द्वंद्व भीषण, है चुनौती सामने,
बीज भावी क्रान्ति बोती सामने !
बद्ध प्रतिपग पर समस्त समाज है;
आग में तपना सभी को आज है !
आज जन-जन को शिथिलता छोड़ना,
है नहीं कर्तव्य से मुख मोड़ना !
इस लगन की अग्नि से जर्जर जले
रक्त की प्रति बूँद की सौगन्ध ले
प्राण का उत्सर्ग करना है तुम्हें,
विश्व भर में प्यार भरना है तुम्हें !
धर्म मानव का बसाना है तुम्हें,
कर्म जीवन का दिखाना है तुम्हें !
मर्म प्राणों का बताना है तुम्हें,
ज्योति से निज, तम मिटाना है तुम्हें !
विश्व नव-संस्कृति प्रगति पर बढ़ चला,
भ्रष्ट जीवन मिट समय के संग गला !
काल की गति, भाग्य का दर्शन मरण,
आज हैं प्रत्येक स्वर के नव-चरण !
जीर्णता पर हँस रही है नव्यता,
खिल रहीं कलियाँ भ्रमर को मधु बता !
ध्वंस के अंतिम विजन-पथ पर लहर,
सृष्टि के आरम्भ के जाग्रत-प्रहर !
जागरण है, जागते ही तुम रहो,
नींद में खोये हुए अब मत बहो !
आज भय की बात मुझसे मत कहो,
आज बहकी बात मुझसे मत कहो !
1950
(33) नया युग
ओ ! मनुजता की
करुण, निस्पंद बुझती ज्योति
मेरे स्नेह से भर
प्रज्ज्वलित हो जा !
निविड़-तम-आवरण सब
विश्व-व्यापी जागरण में
आ सहज खो जा !
हिमालय-सी
भुजाओं में भरी है शक्ति
जन-जन रोक देंगे आँधियों को,
फेंक देंगे दूर
बढ़ती ज्वार की लहरें !
नयी विकसित
युगों की साधना की फूटती आभा,
नयी पुलकित
युगों की चेतना की जागती आशा !
दलित, नत, भग्न ढूहों से
उठी है आज
नव-निर्माण की दृढ़ प्रेरणा !
धु्र्र्र्र्रव सत्य
होगी कल्पना साकार !
अभिनव वेग से
संसार का कण-कण
नया जीवन, नया यौवन, लहू नूतन,
सुदृढ़तम शक्ति का
संचार पाएगा !
नया युग यह
प्रखर दिनकर सरीखा ही नहीं,
पर, है पहुँच आगे बड़ी इसकी
घने फैले हुए जंगल
भयानक मत्त 'एवर-ग्रीन',
भूतल ठोस के नीचे,
अतल जल के
जहाँ बस है नहीं रवि का
वहाँ तक है
नये युग के विचारों का
अथक संग्राम !
कैसे बच सकोगे
ओ पलायन के पुजारी !
आज अपनी बुद्धि की हर गाँठ को
लो खोल,
बढ़कर आँक लो
नूतन सजग युग का समझकर मोल !
1950
(34) पदचाप
पड़ रहे नूतन क़दम
फ़ौलाद-से दृढ़,
और छोटी पड़ रही छाया
नये युग आदमी की आज !
धरती सुन रही पदचाप
अभिनव ज़िन्दगी की !
बज रही झंकार,
मुखरित हो रहा संसार,
नव-नव शक्ति का संचार !
परिवर्तन !
बदलती एक के उपरान्त
सुन्दरतर
जगत् की प्रति निमिष तसवीर,
घटती जा रही है पीर,
जागी आदमी की आज तो
सोयी हुई तक़दीर !
रुक गया
मेरे जिगर का दर्द,
बरसों का उमड़ता
नैन का यह नीर !
गीले नेत्र करुणा-पूर्ण
तुझको देखते विश्वास से दृढ़तर,
यही आशा लगाये हैं
कि जब यह उठ रहा परदा पुराना
तब नया ही दृश्य आएगा,
कि पहले से कहीं खुशहाल
दुनिया को दिखाएगा !
1949
(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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