कहानी की कहानी -मुंशी प्रेमचंद मनुष्य जाति के लिए मनुष्य ही सबसे विकट पहेली है. वह खुद अपनी समझ में नहीं आता. किसी न किसी रूप...
कहानी की कहानी
-मुंशी प्रेमचंद
मनुष्य जाति के लिए मनुष्य ही सबसे विकट पहेली है. वह खुद अपनी समझ में नहीं आता. किसी न किसी रूप में वह अपनी ही आलोचना किया करता है, अपने ही मन के रहस्य खोला करता है. इसी आलोचना को, इस रहस्योद्धाटन को और मनुष्य ने जगत् में जो कुछ सत्य और सुन्दर पाया है और पा रहा है उसी को साहित्य कहते हैं. और कहानी या आख्यायिका साहित्य का एक प्रधान अंग है. आज से नहीं, आदि काल से ही. हाँ, आजकल की आख्यायिका में समय की गति और रूचि से बहुत कुछ अंतर हो गया है. प्राचीन आख्यायिका कुतूहल प्रधान होती थी, या अध्यात्मविषयक. वर्तमान आख्यायिका साहित्य के दूसरे अंगों की भांति मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और मनोरहस्य के उद्घाटन को अपना ध्येय समझती है. यह स्वीकार कर लेने में हमें संकोच न होना चाहिए कि उपन्यासों ही की तरह आख्यायिका की कला भी हमने पश्चिम से ली है. मगर पाँच सौ वर्ष पहले यूरोप भी इस कला से अनभिज्ञ था. बड़े-बड़े उच्चकोटि के दार्शनिक तथा ऐतिहासिक उपन्यास लिखे जाते थे. लेकिन छोटी-छोटी कहानियों की ओर किसी का ध्यान न जाता था. हाँ, कुछ परियों और भूतों की कहानियाँ अलबत्ता प्रचलित थीं. किन्तु इसी एक शताब्दी के अन्दर या उससे भी कम में समझिए, छोटी कहानियों ने साहित्य के और सभी अंगों पर विजय प्राप्त कर ली है. कोई पत्रिका ऐसी नहीं जिसमें कहानियों की प्रधानता न हो. यहाँ तक कि कई पत्रिकाओं में केवल कहानियाँ ही दी जाती हैं.
कहानियों के इस प्राबल्य का मुख्य कारण आजकल का जीवन-संग्राम और समयाभाव है. अब वह जमाना नहीं रहा कि हम ‘बोस्ताने खयाल’ लेकर बैठ जाएं और सारे दिन उसी के कुँओं में विचरते रहें. अब तो हम जीवन संग्राम में इतने तन्मय हो गये हैं कि हमें मनोरंजन के लिए समय ही नहीं मिलता. अगर कुछ मनोरंजन स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य न होता, और हम विक्षिप्त हुए बिना नित्य अठारह घंटे काम कर सकते तो शायद हम मनोरंजन का नाम भी न लेते. लेकिन प्रकृति ने हमें विवश कर दिया है. हम चाहते हैं कि थोड़े से थोड़े समय में अधिक से अधिक मनोरंजन हो जाए. इसीलिए सिनेमा गृहों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती जाती है. जिस उपन्यास को पढ़ने में महीनों लगते उसका आनंद हम दो घंटों में उठा लेते हैं. कहानी के लिए पन्द्रह-बीस मिनट ही काफी हैं. अतएव हम कहानी ऐसी चाहते हैं कि वह थोड़े से थोड़े शब्दों में कही जाए, उसमें एक वाक्य, एक शब्द भी अनावश्यक न आने पाए, उसका पहला ही वाक्य मन को आकर्षित कर ले, और अन्त तक हमें मुग्ध किए रहे, और इसके साथ ही कुछ तत्व भी हों. तत्वहीन कहानी से चाहे मनोरंजन भले हो जाए, मानसिक तृप्ति नहीं होती. यह सच है कि हम कहानियों में उपदेश नहीं चाहते, लेकिन विचारों को उत्तेजित करने के लिए, मन के सुन्दर भावों को जागृत करने के लिए कुछ न कुछ अवश्य चाहते हैं. वही कहानी सफल होती है, जिसमें इन दोनों में से एक अवश्य उपलब्ध हो.
सबसे उत्तम कहानी वह होती है जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो. साधु पिता का अपने कुव्यसनी पुत्र की दशा से दुःखी होना मनोवैज्ञानिक सत्य है. इस आवेग में पिता के मनोवेगों को चित्रित करना और तदनुकूल उनके व्यवहारों को प्रदर्शित करना कहानी को आकर्षक बना सकता है. बुरा आदमी भी बिलकुल बुरा नहीं होता, उसमें कहीं न कहीं देवता अवश्य छिपा होता है, यह मनोवैज्ञानिक सत्य है. उस देवता को खोल कर दिखा देना सफल आख्यायिका लेखक का काम है. विपत्ति पर विपत्ति पड़ने से मनुष्य कितना दिलेर हो जाता है. यहाँ तक कि वह बड़े बड़े संकटों का सामना करने के लिए ताल ठोंक कर तैयार हो जाता है. उसकी दुर्वासना भाग जाती है, उसके हृदय के किसी गुप्त स्थान में छिपे हुए जौहर निकल आते हैं और हमें चकित कर देते हैं. यह एक मनो वैज्ञानिक सत्य है. एक ही घटना या दुर्घटना भिन्न-भिन्न प्रकृति के मनुष्य को भिन्न-भिन्न रूप से प्रभावित करती है. हम कहानी में इसकी सफलता के साथ दिखा सकें तो कहानी अवश्य आकर्षक होगी. किसी समस्या का समावेश कहानी को आकर्षक बनाने का सबसे उत्तम साधन है. जीवन में ऐसी समस्याएं नित्य ही उपस्थित होती रहती हैं, और उनसे पैदा होने वाला द्वन्द्व आख्यायिका से चमका देता है. सत्यवादी पिता को मालूम होता है कि उसके पुत्र ने हत्या की है. वह उसे न्याय की वेदी पर बलिदान कर दे या अपने जीवन सिद्धांतों की हत्या कर डाले? कितना भीषण द्वन्द्व है. पश्चाताप ऐसे द्वन्द्वों का अखण्ड स्रोत है. एक भाई ने अपने दूसरे भाई की सम्पत्ति छल कपट से अपहरण कर ली है. उसे भिक्षा मांगते देख कर क्या छली को जरा भी पश्चाताप न होगा? अगर ऐसा न हो तो वह मनुष्य नहीं है.
उपन्यासों की भांति कहानियाँ भी कुछ घटना प्रधान होती हैं. कुछ चरित्र प्रधान. चरित्र प्रधान कहानी का पद ऊँचा समझा जाता है, मगर कहानी में बहुत विस्तृत विश्लेषण की गुंजाइश नहीं होती. यहाँ हमारा उद्देश्य संपूर्ण मनुष्य को चित्रित करना नहीं, वरन् उसके चरित्र का एक अंग दिखाना है. यह परमावश्यक है कि हमारी कहानी से जो परिणाम या तत्व निकले वह सर्वमान्य हो, और उसमें कुछ बारीकी हो. यह एक साधारण नियम है कि हमें उसी बात में आनन्द आता है जिससे हमारा कुछ सम्बन्ध हो. जुआ खेलने वालों को जो उन्माद और उल्लास होता है, वह दर्शक का कदापि नहीं हो सकता. जब हमारे चरित्र इतने सजीव और आकर्षक होते हैं कि पाठक अपने को उनके स्थान पर समझ लेता है तभी उसे कहानी में आनंद प्राप्त होता है. अगर लेखक ने अपने पात्रों के प्रति पाठक में यह सहानुभूति नहीं उत्पन्न कर दी तो वह अपने उद्देश्य में असफल है.
मगर यह समझना भूल होगी कि कहानी जीवन का यथार्थ चित्र है. यथार्थ जीवन का चित्र तो मनुष्य स्वयं हो सकता है. कहानी कहानी है, यथार्थ नहीं हो सकती. जीवन में बहुधा हमारा अन्त उस समय हो जाता है, जब वह वांछनीय नहीं होता. लेकिन कथा साहित्य मनुष्य का रचा हुआ जगत है और परिमित होने के कारण सम्पूर्णतः हमारे सामने आ जाता है और जहाँ वह हमारी न्याय-बुद्धि या अनुभूति का अतिक्रमण करता हुआ पाया जाता है, हम उसे दण्ड देने के लिए तैयार हो जाते हैं. कथा में अगर किसी को सुख प्राप्त होता है तो इसका कारण बताना होगा. दुःख भी मिलता है तो इसका कारण बताना होगा. यहाँ कोई चरित्र मर नहीं सकता जब तक कि मानव बुद्धि उसकी मौत न मांगे. स्रष्टा को जनता की अदालत में अपनी हर एक कृति के लिए जवाब देना पड़ेगा. काल का रहस्य भ्रान्ति है, पर वह भ्रान्ति जिस पर यथार्थ का आवरण पड़ा हो.
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(मुंशी प्रेमचंद की कुछ रचनाएं यहाँ पढ़ें)
सालों पहले पढ़ा था यह लेख। आज फ़िर पढ़कर जाना कि पिछली बार काफ़ी कुछ छुट गया था।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद इसे दोबारा सामने लाने के लिये।
शुभम।
Bekar
जवाब देंहटाएंmujko bhut acchi lagti ha very good story
जवाब देंहटाएंbahut achchi hai
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