कविताएं आदमी बहुरूपिया है हर वेश धरे मियाँ जो भी मिले है इंसान मिले ज़हर भरे मियाँ ---- इसी संग्रह से (1) अगणित ग्रहों क...
कविताएं
आदमी बहुरूपिया हैहर वेश धरे मियाँ
जो भी मिले है इंसान
मिले ज़हर भरे मियाँ
---- इसी संग्रह से
(1)
अगणित ग्रहों को समेटे
अनन्त सूर्यों को घेरे
अंधकार की
छायाओं के बदलते
रूपों को समाए
तुम अहर्निश
विद्यमान हो अकेले।
कोई तुम्हें छू नहीं पाता
पर
सबसे लिपटे हो
स्वयं बहते नहीं
अन्यों को तैरने का
अवसर देते हो
विशालतम अकेले।
ब्रह्माण्ड तुम्हीं हो
ईश्वर के प्रतिरूप
सर्व शक्तिमान
चराचर के स्वामी
समस्त जगत की
उथल-पुथल देखने वाले
अंतरिक्ष अकेले।
पागल मानव मापने निकला
उसे बुद्धि का अहं था
पृथ्वी की परिक्रमा कर
इतराया था गर्व से
पास में खड़ी तुम्हारी ऊँचाई देखकर
आँखे मूँदी और टोपी गिर गई
तुम खड़े थे साधिकार अकेले।
-कृष्णवल्लभ पौराणिक
४- अहिल्यापुरी,चिड़िया घर रोड़, इन्दौर
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(2)
दुआएँ
दुआएं दिल की तह में
रहा करती हैं
दुआएं सदा दिल से
निकला करती हैं,
दिल से निकली हर दुआ
अर्श से रिश्ता रखती है,
दुआएं जब दिल से निकलती हैं,
दिल हर बुराई से पाक होता है,
दुआओं से ही हमेशा
दिल साफ रहता है,
दुआएं हर मुसीबत में
इंसान के काम आती हैं,
दुआओं के असर से ही
हमेशा बुलंदियां मिलती है
दुआएं जब साथ होती हैं,
हर मुश्किल आसान होती हैं,
दुआएं जब साथ न हो
जिन्दगी वीरान होती हैं
दुआओं से बढ़कर जग में
कोई तोहफा नहीं होता
दुआएं ही सदा जन्नत का
सामान होती हैं,
दुआएं ही मक्का-मदीना
चारों धाम होती हैं।
- फरीद खान
७/३, पुलिस कॉलोनी, अलकापुरी, रतलाम
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(3)
काश
चोर तुम चोरी करते हो
न मंदिर न मस्जिद
न गुरुद्वारा देखते हो
यहाँ भी चोरी
करने में नहीं चुकते हो
अर्थात ये धार्मिक स्थान
हैं तुम्हारे लिए एक समान
काश ! इस देश के नेता भी
यही नीति अपनाते
धर्म-मज़हब पर
एक जैसा प्यार लुटाते
तो सही मायने में
वे समाजवाद पाते
और साम्प्रदायिकता के
दंश से मुक्त हो जाते।
- रमेश मनोहरा
शीतला गली, जावरा (म.प्र.)
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(4)
ग़ज़ल
सारे महल हैं कागजी
एक है सूरज हमारा, एक ही है आसमां,
हमने ही थामीं है, आज़ादी की पावन ये शमां।
तुम हिकारत की नज़र से देखोगे हमको कभी,
ना मिलेगी दास्तानों में तुम्हारी दास्तां।
खाक में मिल जाएंगे, सारे महल हैं काग़जी,
आग तो जल ही उठी है, देख लो तुम भी धुँआ।
लाख हो जुल्मों-सितम हम ना कभी घबराएंगे,
अपनी करतूतों को आखिर तुम छुपाओगे कहाँ।
अपने दिल में जो बसी, तस्वीर कहती है यही,
मुल्क तो है ही हमारा, होगा कल सारा जहाँ।
- आशीष दशोत्तर
३९, नागर वास, रतलाम
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(5)
कटघाव ठंड
ठिठुरे काया-मन
अलाव-प्राण।
कोहरा घना
डूबे गाँव-शहर
अदृश्य दिशाएँ ।
ऋतु हेमन्त
फूल गुलाबी शीत
हर्ष गीत
शिशिर संध्या
लोटे अपने घरौंदे
पसरा सन्नाटा।
शीतल रातें
दुबके रजाई-कम्बल
गरमी सबल ।
बर्फिली पवन
छेदे तन-बदन
कंपते हांड ।
झूमे बालियाँ
शस्य शामल खेत
गावे किसान ।
पतझड़ आहट
वृक्ष दिगम्बर
नवजीवन अकुलाहट
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(6)
अबके बसंत ऐसा देखा
बसंत
अब तुम्हारे आने की आहट
समाचार पत्रों में छपे
बड़े-बड़े फोटो में दिखाई देती है।
सीमेन्ट के बढ़ते जंगलों में
अब तुम खो गए हो।
कहीं से कहीं तक नज़र नहीं आते शहरों में
बसंत तुम हो तो ऋतुओं के राजा
तुम मीट सकते नहीं।
समय के साथ तुमने भी चलना सीख लिया शायद।
अब तुम उतर आये हो
युवक-युवतियों के टी-शर्ट, मिडी व लहंगों पर।
ड्राइंर्गरूम की मेज पर रखे
प्लास्टिक के फूलों में
दीवार पर लगे पोस्टरों में।
बुजुर्ग तुम्हें याद करते हैं
उनकी स्मृतियों में तुम
रचे बसे हो आज तक
पहले जैसे ही।
-पद्माकर पागे
कस्तुरबा नगर, रतलाम
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(6)
कलम /मशाल है
कलम / मशाल है
किताब /हथियार
विचार/प्राण है।
अंजाम देना/ऊर्जा है। अंतर मन की
ठन ठनाकर
जागो ! ओ अमन के पहरेदार
युग स्थितियों से/कलम मशाल से
उत्प्रेरक/रचना अवतार ले/
जिसमें तेज हो/हो आग भी/
आदमी का/उबलता पानी भी हो उसमें/
आबदार/शानदार/जिसे/ पढ़।
स्वार्थ का/उन्माद
छटे/बिखरे/
देश/व्यक्ति
आगे बढ़े
सुधरे।
- निरंजन कुमार `निराकार'
१००,रामगढ़, रतलाम (म.प्र.)
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(7)
दुआ उनपे माँ की
खबर आदमीं को यहाँ की, वहाँ की,
किसी फैसले की , किसी इम्तेहाँ की।
जमाने की दौलत जिसे चाहिये ले,
परिन्दों को चाहत खुले आसमाँ की।
हर शाख यूँ तो है लबरेज गुल से
नासाज हालात मगर गुलसिताँ की।
जो है बेखबर अपने दर से, मकीं से,
उसे फिक़्र कितनी है दुनिया जहाँ की।
शीशे में चहरा दिखाया तो बोले,
ये दुनिया दिखाते हो जाने कहाँ की।
जो घाव भरते नहीं हैं दवा से,
मरहम लगाती दुआ उनपे माँ की।
खुद अपनी नज़र में हैं आशीष सच्चे,
किसे फिर गरज है दीनो-ईमाँ की।
- आशीष दशोत्तर
३९, नागर वास, रतलाम
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(8)
जीवन के तीन रंग
धर्मराज ने राशन की दुकान पर पूछा-
उत्तर मिला ``घासलेट अभी नहीं आया''
कुछ दिनों बाद पूछा उत्तर मिला-
``बीस तारीख तक आयेगा''
बीस तारीख को गये तो कहा-
``कब से समाप्त् हो गया, आप इतने दिन कहाँ थे ?''
इसके बाद धर्मराज परिवार सहित
हिमालय की ओर चले गये।
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(9)
कालू रोज स्कूल आता है
काश टीचर भी रोज आते
कालू को रोज मिलता है चपरासी
वह उसी से बात करता रहता है
नियमित स्कूल आने का फायदा हुआ
वह बीड़ी पीना सीख गया
एक दिन टीचर आये
कालू को बुलाया
बोले- ``तू पास है
ला, एक बीड़ी मुझे भी पिला
तेरी बीड़ी कुछ खास है।
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(10)
नेताजी खिड़की के पास बैठकर
सुस्ता रहे थे
एक कव्वा कहीं से आया
अपना परम्परागत गाना गाया
फिर नेताजी से पूछा-
`` मजा आया ?''
नेताजी कव्वे को भगाते हुए बोले-
`` न सुर, न ताल, न अकल
हमारे सामने हमारी ही नकल ?''
- डॉ. ओमप्रकाश एरन
शास्त्री नगर, रतलाम
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(11)
ये हम किससे कहे
गिर गया वक्त का मअयार ये हम किससे कहें
गर्म है झूठ का बाजार ये हम किससे कहें।
भाई चारे का सबक किसको सिखाने जाएं
उठ गई घर में ही दीवार ये हम किससे कहें।
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बिगड़ी नस्लों पे किया तन्ज तो है हश्र बया
खो गऐ साहिबे किरदार ये हम किससे कहें।
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खत्म अब हो गया वादों को निभाने का चलन
बेवफा तक हैं वफादार ये हम किससे कहें।
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बस में होता तो ग़जल फूल सी कहते हम भी
लफ्ज़ ही बन गए अंगार ये हम किससे कहें।
सिद्धीक रतलामी
१२-नयापुरा, रतलाम
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(12)
ग़ज़ल
ललकारों की बात करें
धूप समन्दर बारिश सपनों, तूफानों की बात करें,
जीवन में उत्साह चाहिये, अंगारों की बात करें।
देशभक्ति खो गई, जमाना, ढूँढ रहा सद्भावों को,
मातृभूमि पर मिटने वाले, परवानों की बात करें।
दिल्ली से देहात तलक है, ``अनैतिकता-की-सत्ता'',
कलम उठा तू नैतिकता के, भन्डारों की बात करें।
मौसम -खुशबू, जूही-चमेली, रंग-गुलाबी भाते हैं,
``मानवता की खुशबू वाले'', इंसानों की बात करें।
कोठी-बंगला, कार-प्यार में, भी उदास हैं लोग यहाँ,
फुटपाथों पर सोनेवाली, मुस्कानों की बात करें।
कहाँ ढूँढ़ता है तू उसको, ईश्वर तो बैठा मन में ,
मन को निर्मल कर, ईश्वर की झन्कारों की बात करें।
मिटते हैं सब अपने क्रम से, दुनियां याद नहीं रखती,
``श्याम'' जमाना याद रखेगा, ललकारों की बात करें।
-श्याम झँवर `श्याम'
५८१, विकास नगर, नीमच
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(13)
गुलज़ार बहुत हैं
मुश्किल में साथ न साया भी, कहने को तो यार बहुत हैं,
शरीक-ए-दर्द न हुआ कोई, वैसे तो दिलदार बहुत हैं।
हक-हकूक गरज़ परस्ती, नुमूदार मौके बेमौके,
रिश्ते-नाते, प्यार, दोस्ती, हालांकि मिकदार बहुत हैं।
खस्ता हाल अवाम हमेशा, सदियों आज तलक या रब,
फिरदौस जमीं पर लाने वाले, हालांकि दावेदार बहुत हैं।
हर सिम्त सुलगती रही आग, ग़ारत जमीर ईमान ग़र्क,
अमन-चमन की हाँक लगाते गो सरमायेदार बहुत हैं।
सब्ज के सौदायी इफ्रातन गाँव-शहर चौराहों पर,
दलदली कीच में सने बदन हालांकि खुद्दार बहुत हैं।
बेजा नहीं तलाश-ए-हकीकत नक़ाब के नीचे पोशीदा,
परत-दर-परत कलई खुले, हालांकि रंगदार बहुत हैं।
मीजान, कसौटी, परख हुनर के हामीं सारे सौदागर,
कूत सकें न असल हुनर, कहने को जरदार बहुत हैं।
कोफ्त दफन कर, उठने न दर्र्द की सिरहन दी,
लापता शिकन, हज़रत-ए-राज चेहरे से ग़ुलज़ार बहुत हैं।
चन्द्रोदयसिंह `राज'
खानपुरा, मन्दसौर
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(14)
बसंत
मदमस्त हुई
बयार
खिल आए
टेंसुओं के फूल
सेमल सुधा की
बूंदे टपकाएं
अमलतास के
फूल लहराएं
सरसों के खेतों ने
पीली चादर ओढ़ी
महुआ ने
मादकता छोड़ी
अमुआँ गए
बौराए
कूक उठी
कोयल भी
पिया मिलन को
दिल अकुलाए।
- डॉ. शिव चौहान `शिव'
३२-आई सैलाना यार्ड, रतलाम
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(15)
मत कहो कि कन्यादान
लड़का हो या लड़की हो, बबलू हो या बड़की हो
फर्क नहीं पड़ता श्रीमान्, देना होगा सब पर ध्यान
भाई हो या बहना हो, दोनों हर आंगन की शान।
बहन भाई में रखा जो फर्क, समझो होगा बेड़ा गर्क
नन्हीं कलियां नहीं खिलेंगी, प्यारी बहना नहीं मिलेगी
बिटियाँ है सचमुच गुणवान, उसके हैं अपने अरमान
भाई हो या बहना हो, दोनों हर आंगन की शान।
कन्या नहीं पराई है, फिर वह क्यों ठुकराई है
वह तो धरती की सुवास है, उगते सूरज का प्रकाश है
यह दम्भ भरा अज्ञान है, मत कहो कि कन्यादान
भाई हो या बहना हो, दोनों हर आंगन की जान।
भाई रुपया, बहना पाई, उचित नहीं भरपाई है
एक कोख से जन्मे दोनों, फिर क्यों वह हरजाई है ?
बदल रहा प्रतिपल दिनमान, मत कुचलो उसके अरमान
भाई हो या बहना हो, दोनों हर आंगन की शान।
- वीरेन्द्र जैन
७ जनता कॉलोनी, मन्दसौर
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(16)
``नहीं आ रहे हैं''
लफ्फाजी, उस पर विनम्रता
- चले आ रहे हैं।
भीतर नफरत, राग है, बाहर
दुहरे-तिहरे रंग,
वे धरती-आकास के बीच-
कि जैसे कटी पतंग
खुश होते सुनकर स्तुति अपनी
- लिखे जा रहे हैं।
वे खुद कुछ भी नहीं
कार्बन-कॉपी दूजों की
उनकी उक्ति कि ज्यों
भड़ास हो गूँगों-चूजों की
बिना निमंत्रण दिए कह रहे -
`नहीं आ रहे हैं'।
बात इधर की उधर कि, हम
समझे थे पेट बड़ा
कुछ न किया, भाषण पेला-
हम समझे सेठ बड़ा
अच्छे बनते/आग लगाकर
खुद बुझा रहे हैं
सिर पर रख दुनिया की आफत
- चले आ रहे हैं।
-देवव्रत जोशी
२४, वेदव्यास कॉलोनी-२, रतलाम
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(17)
खुलकर बातें करे मियाँ
किसी से नहीं डरे मियाँ
जो कुछ कहना है
तो कहे खरे-खरे मियाँ
जो मानता नहीं कहना
उसे धकेले परे मियाँ
जानवर रह जाये पीछे
आप खूब चरे मियाँ
करे कितने ही घोटाले
फिर भी ऊपर तरे मियाँ
बोझ से जो लदा है
वो गधे सा मरे मियाँ
आदमी बहुरूपिया है
हर वेश धरे मियाँ
जो भी मिले है इंसान
मिले ज़हर भरे मियाँ
मत धरो कीचड़ में पाँव
फंसोगे एक दिन बुरे मियाँ
हाल उनके बुरे हैं
जो बाढ़ से घिरे मियाँ
फिरेंगे रमेश के भी दिन
जैसे घूरे के फिरे मियाँ।
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(18)
अथ बर्हि र्होम:
होते पराजित लग रहे हैं
-व्यग्र जनमेजय
`मंत्र' ऋषि, अवधूत के
निष्फल हुए जाते हैं सब
हो चुकी है अग्नि अति विकराल और प्रचण्ड
दग्ध वेदी ही स्वयं
धूं-धूं जली जाती है अब
चुक चुकी हैं यज्ञ की समिधा सभी
अब न मंत्र की कोई ऋचा है शेष
हाथ मलते, श्लथ पसीने से हुए
सिद्ध, तांत्रिक, हठी औघड़,
मुनि, तपस्वी हंत और महंत
खोखले से स्वर रहे उच्चर
घेरने चहुँ ओर से
अति व्यग्र व्याकुल ब्याल
सिमटे आ रहे
फुफकारते फन
लपलपाते दो मुहीं जिह्वा
पटकते पूंछ
अब नहीं है शेष कोई
बचा कहीं विकल्प
अतिरिक्त इसके
कूद जनमेजय पड़ें
यज्ञ वेदी में स्वयं
अथबर्हिर्होम:
- चन्द्रोदयसिंह `राज', मन्दसौर
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(19)
अपनी प्रतिबद्धता के दावे करते
नहीं अघाते तुम
उस दिन एक याचक की मुद्रा में खड़े थे।
याचना भी कर रहे थे उस सत्ताधीश से
जो हर वक्त आता है तुम्हारी आलोचनाओं में,
जिसने तहस-नहस किया है उस विचार और तहज़ीब को
जिसकी स्थापना के दावे और विश्वास
व्यक्त करते रहे हो तुम हर वक्त
जब तुम याचक बन खड़े थे,
सत्ताधीश मुस्कुरा रहा था,
उसे गर्व हो रहा था तुम्हें इस अवस्था में देखकर,
शायद, तुम भी हो रहे थे प्रसन्न
कि वह गौर कर रहा है तुम्हारी याचना पर।
अब जबकि मान गया है सत्ताधीश
और, उसका हाथ भी है तुम्हारी पीठ पर,
मैं सोचता हूँ,
तुम टाँग दो अपनी प्रतिबद्धता को खूँटी पर
और धारण कर लो उसका चोला।
मजबूत विचारों की रक्षा
तुम जैसों के बस की बात नहीं ।
- आशीष दशोत्तर
३९, नागर वास, रतलाम
------
(साभार – साप्ताहिक ‘उपग्रह’)
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