कबीर की एक साखी हैः कबीरा मन निर्मल भया , जैसे गंगा नीर, पाछे-पाछे हरि फिरै , कहत कबीर-कबीर। कबीर कहते हैं कि मनुष्य के मन के गंगा ...
कबीर की एक साखी हैः
कबीरा मन निर्मल भया , जैसे गंगा नीर,
पाछे-पाछे हरि फिरै , कहत कबीर-कबीर।
कबीर कहते हैं कि मनुष्य के मन के गंगा जल की तरह निर्मल हो जाने पर हरि अर्थात् ईश्वर को खोजने की आवश्यकता नहीं अपितु हरि ही मनुष्य के पीछे-पीछे दौड़ा चला आएगा। संत रविदास भी कहते हैं कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। कबीर और रविदास ही नहीं सभी संतों ने मन की निर्मलता पर बल दिया है और निर्मलता भी गंगाजल -सी। एक प्रार्थना में भी पंक्ति आती है कि गंगाजल सा निर्मल मन हो, मिला मुझे विद्या का धन हो। प्रश्न उठता है कि मन की निर्मलता से क्या तात्पर्य है और इसकी क्या उपयोगिता और महत्त्व है तथा मन की निर्मलता की उपमा गंगा के जल से क्यों दी जाती है?
गंगा भारत की एक अत्यंत पवित्र नदी है जिसका जल काफी दिनों तक रखने के बावजूद अशुद्ध नहीं होता जबकि साधारण जल कुछ दिनों में ही सड़ जाता है। गंगा का उद्गम स्थल गंगोत्री या गोमुख है। गोमुख से भागीरथी नदी निकलती है और देवप्रयाग नामक स्थान पर अलकनंदा नदी से मिलकर आगे गंगा के रूप में प्रवाहित होती है। भागीरथी के देवप्रयाग तक आते-आते इसमें कुछ चट्टानें घुल जाती हैं जिससे इसके जल में ऐसी क्षमता पैदा हो जाती है जो उसके पानी को सड़ने नहीं देती।
हर नदी के जल में कुछ ख़ास तरह के पदार्थ घुले रहते हैं जो उसकी विशिष्ट जैविक संरचना के लिए उत्तरदायी होते हैं। ये घुले हुए पदार्थ पानी में कुछ ख़ास तरह के बैक्टीरिया को पनपने देते हैं तो कुछ को नहीं। कुछ ख़ास तरह के बैक्टीरिया ही पानी की सड़न के लिए उत्तरदायी होते हैं तो कुछ पानी में सड़न पैदा करने वाले कीटाणुओं को रोकने में सहायक होते हैं। वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि गंगा के पानी में भी ऐसे बैक्टीरिया हैं जो गंगा के पानी में सड़न पैदा करने वाले कीटाणुओं को पनपने ही नहीं देते इसलिए गंगा का पानी काफी लंबे समय तक ख़राब नहीं होता और पवित्र माना जाता है।
कहा गया है कि संकल्पविकल्पात्मकं मनः अर्थात् मन संकल्प और विकल्प स्वरूप है। मन में हर पल असंख्य विचार आते और जाते हैं और उनमें परिवर्तन होता रहता है। मन अत्यंत चंचल है, कहीं एक स्थान पर टिकता नहीं, भागता रहता है। इसमें परस्पर विरोधी विचारों का प्रवाह चलता रहता है। कभी अच्छे विचार तो कभी बुरे विचार। मन की इसी चंचलता के कारण मनुष्य अनेक समस्याओं और व्याधियों से ग्रस्त रहता है। विचारों के अनुरूप ही हमारी आदतों का विकास होता है और विचार ही कर्म करने के लिए उत्प्रेरक तत्त्व की भूमिका का निर्वाह करते हैं। सकारात्मक विचार हमें सही कर्म की ओर अग्रसर करते हैं तो नकारात्मक विचार गलत कर्म की ओर। हमारे अच्छे स्वास्थ्य के लिए सकारात्मक सोच ही उत्तरदायी है तो बुरे स्वास्थ्य के लिए नकारात्मक सोच। मन की चंचलता के कारण अथवा मन की निर्मलता के अभाव में ही हम अपनी चेतना से एकाकार नहीं हो पाते हैं।
मन की निर्मलता से तात्पर्य है मन का विकारों अर्थात् गलत विचारों से रहित होना। विकार रूपी बैक्टीरिया ही हमारे मन की निर्मलता को नष्ट करते हैं अतः उनसे छुटकारा पाना अनिवार्य है। जहाँ तक जल की निर्मलता की बात है शुद्ध जल का न तो कोई स्वाद होता है और न कोई रंग या गंध ही। हम प्रायः कहते हैं कि ये पानी मीठा है और ये खारा है। वास्तव में शुद्ध पानी मीठा नहीं होता अपितु जो पानी खारा नहीं होता या जिसमें अशुद्धियाँ नहीं होतीं उसे ही मीठा पानी कह देते हैं। और यह बिलकुल स्वादहीन, रंगहीन तथा गंधहीन होता है।
हमारा मन भी शुद्ध पानी की तरह ही होना चाहिए तभी वह निर्मल माना जाएगा अर्थात् मन में भी किसी प्रकार के भाव नहीं होने चाहिएँ लेकिन यह असंभव है क्योंकि मन विचार शून्य नहीं हो सकता। विचार के अभाव में तो कर्म ही संभव नहीं। जैसे विचार या भाव वैसा मनुष्य अतः मनुष्य को कर्मशील बने रहने के लिए तथा सही दिशा में अग्रसर होने के लिए अच्छे विचारों से ओतप्रोत होना चाहिए। मनुष्य नकारात्मक विचारों या भावों के वशीभूत होकर ही ग़लत कार्य करता है अतः विचारों पर नियंत्रण अनिवार्य है और विचारों पर नियंत्रण के लिए अनिवार्य है मन की निर्मलता।
जिस प्रकार पानी को सड़ने से रोकने के लिए पानी में पनपने वाले घातक बैक्टीरिया को रोकने के लिए उसमें उपयोगी बैक्टीरिया की उपस्थिति अनिवार्य है उसी प्रकार मन में भावों के प्रदूषण को रोकने के लिए सकारात्मक विचारों के निरंतर प्रवाह की भी आवश्यकता है। जब भी कोई नकारात्मक विचार उत्पन्न हो सकारात्मक विचार द्वारा उसे समाप्त कर दीजिए। सकारात्मक विचार रूपी बैक्टीरिया द्वारा ही हम अपने मन को निर्मल कर सकते हैं और मन की निर्मलता का अर्थ है मन में राग-द्वेष् आदि परस्पर विरोधी भावों व विकारों की समाप्ति द्वारा समता की स्थापना।
जब व्यक्ति समता में स्थित हो जाता है तो द्वंद्व की भी समाप्ति हो जाती है और द्वंद्व की समाप्ति ही वास्तविक उपचार है। सकारात्मक विचारों के निरंतर प्रवाह द्वारा न केवल शारीरिक व्याधियों का उपचार संभव है अपितु स्वयं के वास्तविक स्वरूप अथवा चेतना से एकाकार होना भी संभव है। स्वयं के वास्तविक स्वरूप अथवा चेतना से एकाकार होने का अर्थ ही है अपने अंदर के ईश्वर की खोज। मन की निर्मलता के बाद ईश्वर को खोजने की आवश्यकता ही नहीं रहती क्योंकि स्वयं ईश्वर ही पीछे-पीछे दौड़ा चला आता है अर्थात् मनुष्य के मन में आ उपस्थित होता है। यही मन की वास्तविक निर्मलता है।
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साभार ः द स्पीकिंग ट्री नवभारत टाइम्स, नई दिल्ली,
दिनाँकः जून 23, 2008
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