व्यंग्य एक गधा क्रिकेट में -- अनुज खरे कृश् न चंदर को तो जानते ही होंगे आप। अरे, वही कृश् न चंदर जिनकी ‘एक गधे की आत्मकथा’ ‘गधे की वापसी’ ‘ए...
व्यंग्य
एक गधा क्रिकेट में
-- अनुज खरे
कृश् न चंदर को तो जानते ही होंगे आप। अरे, वही कृश् न चंदर जिनकी ‘एक गधे की आत्मकथा’ ‘गधे की वापसी’ ‘एक गधा नेफा में’ जैसी रचनाएं हैं । पहचान गए आप, शुक्र है, मैं तो डर ही गया था कि बात आगे कैसे बढ़ेगी । जनाब, बात ऐसी है कि आगे जो किस्सा है उसका नायक तो वही पुराना जाना पहचाना गधा है । आप कहेंगे इसमें नए और पुराने की बात कहां से आ गई । अब गधे तो गधे ही होते हैं, यही उनकी विशिष्ट पहचान है । यही तो, यहां बात है और गहरी बात है। पुराना और वही गधा इसलिए कि इसमें किश्नचंदरनुमा फार्मूले के अंतर्गत कुछ विशिष्ट किस्म की बुद्घिमत्ता डाली गई थी अन्यथा गधे तो सदियों से एक ही ‘डाई’ से निर्मित किए जा रहे हैं, निरीह किस्म के, गधेपन की चमक लिए, खरनुमा बुद्घिमत्ता से ओतप्रोत । हालांकि ये बात अलग है कि ‘गधों’ को यह गलतफहमी है कि वे ‘इमोशनल फूल’ हैं - धोबी के प्यार में, घास के इकरार में, बोझा ढोने के इंतजार में । आप कहेंगे ये किस टाइप का इमोशन है, अब है तो है, इसलिए तो ये ... अब रहने भी दीजिए बार-बार क्यों एक ही बात दोहराई जाए । सो, अपने नायक के व्यक्तित्व का ज्यादा बखान न करते हुए बात का सिरा फिर से पकडा जाए ।
मामला कुछ ऐसा है कि इस बार अपने ‘गदर्भराज’ की चेतना राजनीति, प्यार या देश को लेकर विचलित नहीं है, बल्कि वे कुछ नया सोच रहे हैं । बदलते वक्त के साथ वे भी काफी ‘फ्यूचर प्लानिंग’ में विश्वास रखने लगे हैं । उनका विचार है कि वे अपनी आने वाली संततियों के लिए आखिर विरासत में क्या छोडकर जा रहे हैं ? उस पर उनकी पूरी जाति की निगाहें जरूर ही टिकी होगी । हालांकि उनके पास काफी कुछ है फिर भी वे ‘नेम-फेम-गेन’ की कुछ एक्स्ट्रा व्यवस्था बैठाना चाहते हैं । अपनी पीढियों के लिए ‘भारी-कुछ’ छोडकर जाना चाहते हैं । क्या ?..शेयर, नहीं जनाब ये इंसाननुमा बातें गधों की खोपडी में नहीं समाती हैं । निवेश-ज्ञान दुर्भाग्य से उनके पिछले पूरे अनुभव में आसपास से ठीकठाक तरीके से भी नहीं गुजरा है, अन्यथा वे एकाध ‘ट्राई’ तो जरूर ही मार लेते । खैर, अर्थजगत तो इस कृत्य में हिस्सा ना लिए जाने पर सदियों तक उनका अहसान उतार ही नहीं पाएगा। भारी विचार मंथन के उपरांत एक दिन उनके ‘उन्नत ललाट’ और ‘विराट खोपडे’ में क्रिकेट में कैरियर बनाने का आइडिया आ गया । तत्क्षण उन्हें अपने चारों ओर गर्दभ जाति, अपनी संतति, जयकार की ध्वनियां सुनाई देने लग ।
आइडिया आने की खुशी में ही उन्होंने तीन चार बार कसकर ‘रैंका-रांकी’ की, फिर खुद भविष्य के रोल मॉडल के रूप में अपनी स्थिति का चिंतन कर संयमित मुद्रा धारण कर ली। अब वे उन उपादानों पर विचार करने लगे जो भविष्य में एक क्रिकेटर के रूप में उनमें होना चाहिए थे। अपनी हृष्ट-पुष्ट कद-काठी पर निगाह डालते ही उन्हें इस बात का तो पूर्ण संतोष हो गया कि बाकियों की तुलना में फिलहाल शारीरिक मजबूती में तो वे उच्चस्तर को प्राप्त हैं । शोरूमों के पास से गुजरते समय अक्सर वे कमेंट्री में मानसिक मजबूतीनुमा बातें अपने कर्णपटल पर रिसीव करते रहे हैं । सो, वे स्वतः मुस्कुराए फिर पिछली पंक्तियों वाली रोल मॉडल की बात याद आते ही दांतों पर ओष्ठ के पर्दे फिट करते हुए आगे वाली दुलत्ती से खोपडे को ठोककर देखा । ‘टन्न’ से मानसिक मजबूती का ‘ईको’आने पर उन्होंने इस बाबत् भी इत्मीनान हो गया।
दो उपादानों के पश्चात् चयनकर्ताओं से अपनी निकटता की याद आते ही निश्चिंतता हो गई कि यह महत्वपूर्ण गुण भी उनमें प्रचुर मात्रा में है। इन अहम जरूरतों के बाद उन्हें ‘खेल में निपुणता’ जैसी सारहीन बातों का भी ध्यान आया। जिसपर उन्हें लगा कि विकेटों के बीच उनकी दौड़ ही इस मामले को ‘सब्सीट्यूट’ कर देगी। अहा ! ‘वे’ फिर मुस्कुराए.... खिलाडी तैयार है, नजर डालो.. ए नजरवालो.. प्रतिभा के बाजार में तैयार माल पड़ा है, उठा लो.. भिजवा दो किसी भी देश के टूर पर। वे फिर अपनी ही सोच पर कुंठित हुए, उन्हें कौन-कैसे उठा सकता है। चिंतित भी हुए कि विजेता ट्राफी लाने पर उन्हें कंधे पर कैसे उठाया जाएगा। फिर याद आया कि जनता अपने कंधों पर तो ‘उन’ जैसे कई को बरसों से ... सो, वे भी उठा ही लिए जाएंगे। अब वे रुक नहीं पा रहे थे। सीधे ‘बोर्ड’ के दफ्तर की ओर निकल पड़े। सोचते भी जा रहे थे कि कुछ पैसे ही रख लिये होते तो ऑटो ही कर लेता खैर, ‘महान् खिलाडी-विनम्र भाव’। पैदल ही दफ्तर तक जा पहुंचे। वहां देखा भारी भीड़-भाड़ ‘सितारों-स्टारों’ का जोरदार जमावडा। पिछले अनुभव के आधार पर कई को तो वे तत्काल ही पहचान गए। आवाज देने को ही थे कि याद आया कि अभी वे सितारे नहीं हुए हैं, रुकना ही उचित है।
वो समय भी आएगा जब वे इनके साथ लंच-डिनर जैसा कुछ-कुछ करेंगे। अपनी ‘गर्दभ चेतना’ पर प्रफुल्लित हुए। इतराते हुए उन्होंने दरबान से इस आयोजन का प्रयोजन पूछ डाला। खिलाडियों की बोली ... ! सितारे बिक रहे हैं....। दरबान के ये शब्द उनके ‘विराट ललाट’ पर ‘ फिर धन्न’ से पड़े। खिलाडी ... रोल मॉडल और हमारे बन्धु-बांधवों की तरह बिकने को तैयार? दरबान ने उन्हें परे धकेला, उम्मीद का आंसू गिरा... गर्दभराज अपनी सारी मासूम बेईमान प्रतिभा के साथ वापस मुड़ गए। बुद्घिमानी की ऐसी ऊंचाई देखकर उन्हें अपनी ‘व्यक्तिप्रदत्त चेतना’ पर रुलाई आने लगी।
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