व्यंग्य एक ‘कला’ के पतन पर विमर्श -अनुज खरे लो वे धर लिए गए... अबे, कौन धर लिए गए एक उवाच। वे ही तुम्हारे मिश्राजी... रामदुलारे... रिश्वत ले...
व्यंग्य
एक ‘कला’ के पतन पर विमर्श
-अनुज खरे
लो वे धर लिए गए... अबे, कौन धर लिए गए एक उवाच।
वे ही तुम्हारे मिश्राजी... रामदुलारे... रिश्वत ले रहे थे। पची नहीं, लेते ही पुते हाथों धर लिए गए।
हे! भगवान देश का क्या होगा? समवेत चिरंतन चिंता की उच्चतान।
ऐसी घटनाओं पर सहज राष्ट्रीय एकता और सामान्य सामाजिकता के ट्रेलर आप हर कहीं गली-मोहल्लों में अक्सर देखते ही होंगे। सो, ऐसे ही किसी गली-मोहल्ले में बैठे विषय पर ‘थीसिस’ लिखते दो पात्र मुखातिब हैं।
सो, इसमें विशेष क्या है? भाईजान, अबकी बार पात्र प्रकटायमान है।
विशेष...! गुरु, विशेष है हमारे देश में ‘स्किल’ का इतना पतन। दूसरा पात्र भी फेड ऑफ से सीन में ‘इन’ हो रहा है।
अबे, इसमें काहै का ‘स्किल’, नासमझी भरा पारंपरिक पात्र क्रंदन।
‘स्किल’ ही तो है गुरु, हमारे इस महान देश में सदियों से लेन-देन की कला निरंतर प्रतिष्ठा को प्राप्त होती रही हो। वहां, ऐसे नासमझ, लेते ही पकड़ लिए जाने वाले दुष्ट, पातक, नर्क के भागी नहीं तो और क्या हैं। पात्र कुटिलता से सीन में स्थापित होने का प्रयत्न कर रहा है।
इतने भोले भंडारी हैं तो लेते क्यों हैं रिश्वत। नासमझ पात्र कुछ गुरु गंभीर सा दिखाई दे रहा है।
अबे, ‘शिक्षा’ की कमी के कारण से छोटी-छोटी नासमझियां कर जाते हैं। दोनों पात्र अब शिला पर विराजमान हैं। इकठ्ठे होकर देश में रिश्वत लेने में पकड़े जाने अर्थात् कला में अद्योःपतन पर भंयकर रूप से चिंतातुर दिखाई दे रहे हैं।
समझ का फेर है गुरु, नजर का फेर। अब गुण ग्राहकता तो रही नहीं, समझ ही नहीं पाते हैं देने वाले के मंसूबे इधर ली नहीं, उधर टप्प से धर लिए गए।
पहले लेने वाले चार आंख रखते थे। लालच की चोटी पर चढ़कर भी नीचे नजरें गढाए रहते थे। दूसरा पात्र अब ज्ञान की साक्षात मूर्ति हो रहा था। पहले रकम का लेनदेन भी भरोसेमंद तरीके से होता था। लेने-देने वालों के बीच इतनी सौहर्दता होती थी कि कई लेने वाला देनेवाले के इसी सादगी पर निसार हो जाता था। लेकिन रकम टेबल पर ही रखवाते थे, फिर धीरे से बैग के अंदर सरकाते थे और बैग चपरासी के हाथों में पकडते थे। यानी रंगे हाथों का कोई चक्कर ही नहीं। और अब देखो रकम सीधे हाथों में लेते हैं, ताकि रंगे हाथों पकड़े जाने का सपना पूरा कर सकें।
मेरी समझ में तो गुरु ऐसे मूर्ख ही होते हैं।
मूर्ख नहीं ‘महामूर्ख’ मूर्खता का निरंतर विकास हो रहा है। ऐसे ही प्रकरणों में तो सामने आता है। विकास के ऐसे ही तो पैरामीटर नहीं गढे जाते हैं। पात्रों में जबर्दस्त द्वंद्वात्मक विमर्श होने लगा। विषय का प्रतिपादन अब बौद्धिकता की ऊंचाइयों की ओर जाने लगा है।
गुरु रोज तो अखबारों में आ रहा है। फलां-फलां रिश्वत लेते पकड़ा, फिर भी इतनी आसानी से झांसे में आ जाते हैं। फिर ‘मानवता’ का सहज सचेतक स्वर उभरा।
देने वाले ‘सयाणे’ हो रहे हैं भाई। लेने वाले तो अभी तक अपनी पारंपरिक ‘सिधाई’ से बाहर ही नहीं आ पा रहे हैं। गुरु का स्वर लेने वाले के प्रति न जाने क्यों ‘नेह’ से भीग सा जाता है।
अब उन्हें ही देखो...!
किन्हें, गुरु
अबे, उन्हीं वर्माजी को, रिश्वत लेने वालों के पितामह को। आज सुबह से ही वे इकदम उदास हैं। जब से अखबार में खबर पढ़ी है, मिश्राजी के रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़े जाने की, वे उदास हैं। चाय के साथ तीन की जगह डेढ़ ही बिस्कुट खाए हैं। अखबार को परे रखकर उदास नजरों से घर के बिलौटे को निहारने में लगे हुए ह। बिलौटा भी उनके बचे हुए बिस्कुटों पर दांव लगाने का पैंतरा ढूंढ रहा है। उनकी आंखें रिश्वत लेने की कला के इस भंयकर पतन पर सिकुडी-सिकुडी सी जा रही थीं। मैंने देखा वे गंभीर मुद्रा में छत को निहारने में लगे थे। ‘राष्ट्रीय’ तौर पर चिंतित होने की पारंपरिक पूर्ण उच्चता को प्राप्त करना चाहते थे।
-इस पीढ़ी से कोई काम ढंग से नहीं होता... जब वे बड़बड़ाने के बुजुर्गोंचित खेल का मजा लेने पर उतारू हो गए तो मैं वहां से खिसका था।
गुरु...!
अबे गुरु-गुरु काहै कर रहा है। रिश्वत तो वे लेते थे। एक से एक ‘ट्रिक’ भी उनके पास है, कभी पकड़े ही नहीं गए।
कैसे गुरु
कैसे क्या? एक बार तो ‘उन्होंने’ रिश्वत में गेहूं के पांच बोरे मंगवाकर सीधे खेतों में उतरवाए और वहीं बो दिए थे।
यानि...! गुरु
अबे, रिश्वत जमींदोज और क्या
गजब-गुरु गजब
अबे क्या गजब, गजब तो अब सुनो-एक बार तो उन्होंने रिश्वत लेने वाले पैसे अनाथालय में दान करवाकर उसकी रसीद मंगवा ली थी।
हैं...! रसीद क्यों...?
रसीद इनकम टैक्स में लगाकर पैसे बचा लिए। तो हुई न नए तरह की समझदारी।
गुरु वर्माजी तो वक्त से आगे की चीज दिखते हैं।
बिल्कुल हैं ही। वे तो आजकल इसी विषय पर कोचिंग खोलने की योजना बना रहे हैं, ताकि ‘कर्मियों’ को विधिवत रूप से इस विषय में दक्ष किया जा सके। बल्कि वे कर्मचारियों को सेवा पूर्व प्रशिक्षण में ही इस विषय को रखवाने के हिमायती हैं। प्रतिवेदन भी तैयार कर लिया था।
फिर गुरु भेजा कहां?
कहां भेजते। कोचिंग के कांपटिशन में दूसरे उतर ना आए, यही सोचकर आयडिया ड्राॅप कर दिया।
गजब ज्ञानी लोग बसते हैं धरा पर गुरु
अबे और वहीं तो क्या। एक बार तो उन्होंने एक से रिश्वत में छह लोगों का रेलवे रिजर्वेशन करवा लिया था। ‘एसी’ में। रंगे हाथों पकड़े जाना तो उन्हें बिल्कुल भी गवारा न था।
इसलिए तो आजकल के लोगों की नादानियां देख-देखकर उनका दिल कला की ऐसे पतन पर उसी अवस्था पर जार-जार रोता है।
सो तो है गुरु
अबे सो तो क्या तू एक और सुन
एक और है गुरु
अबे, कई किस्से पड़े हैं।
तो गुरु किताब क्यों नहीं छपवा लेते।
छपेगी बेटा, जरूर छपेगी। इस क्षेत्र की बेस्टसेलर छपेगी।
तू पहले किस्सा तो सुन-एक बार तो उन्होंने रिश्वत ली और नोट लेकर तालाब में छलांग लगा ली। तैर कर दूसरे किनारे निकल गए। बेचारे इस किनारे पर एसीबी वाले टापते रह गए। ऐसे हैं अपने वर्माजी।
धन्य है गुरु, धन्य है। फिर तो वर्माजी के बडे मजे रहे होंगे पूरी जिंदगी। आजकल क्या कर रहे हैं?
ऐश चल रही है। अभी तो लौटे हैं...
कहां से गुरु विदेश से?
अरे नहीं, जेल से एक बार पकड़े गए तो लंबे नपे थे।
हांय गुरु ऐसी गति... राम-राम।
गुरु शिला से उतरकर सरपर घर जाते दिख रहे हैं।
कैमरा उनकी पीठ पर, सीन टाइट क्लोजअप में धीरे-धीरे फेड ऑफ हो रहा है।
एक ‘कला’ के पतन पर विमर्श
-अनुज खरे
लो वे धर लिए गए... अबे, कौन धर लिए गए एक उवाच।
वे ही तुम्हारे मिश्राजी... रामदुलारे... रिश्वत ले रहे थे। पची नहीं, लेते ही पुते हाथों धर लिए गए।
हे! भगवान देश का क्या होगा? समवेत चिरंतन चिंता की उच्चतान।
ऐसी घटनाओं पर सहज राष्ट्रीय एकता और सामान्य सामाजिकता के ट्रेलर आप हर कहीं गली-मोहल्लों में अक्सर देखते ही होंगे। सो, ऐसे ही किसी गली-मोहल्ले में बैठे विषय पर ‘थीसिस’ लिखते दो पात्र मुखातिब हैं।
सो, इसमें विशेष क्या है? भाईजान, अबकी बार पात्र प्रकटायमान है।
विशेष...! गुरु, विशेष है हमारे देश में ‘स्किल’ का इतना पतन। दूसरा पात्र भी फेड ऑफ से सीन में ‘इन’ हो रहा है।
अबे, इसमें काहै का ‘स्किल’, नासमझी भरा पारंपरिक पात्र क्रंदन।
‘स्किल’ ही तो है गुरु, हमारे इस महान देश में सदियों से लेन-देन की कला निरंतर प्रतिष्ठा को प्राप्त होती रही हो। वहां, ऐसे नासमझ, लेते ही पकड़ लिए जाने वाले दुष्ट, पातक, नर्क के भागी नहीं तो और क्या हैं। पात्र कुटिलता से सीन में स्थापित होने का प्रयत्न कर रहा है।
इतने भोले भंडारी हैं तो लेते क्यों हैं रिश्वत। नासमझ पात्र कुछ गुरु गंभीर सा दिखाई दे रहा है।
अबे, ‘शिक्षा’ की कमी के कारण से छोटी-छोटी नासमझियां कर जाते हैं। दोनों पात्र अब शिला पर विराजमान हैं। इकठ्ठे होकर देश में रिश्वत लेने में पकड़े जाने अर्थात् कला में अद्योःपतन पर भंयकर रूप से चिंतातुर दिखाई दे रहे हैं।
समझ का फेर है गुरु, नजर का फेर। अब गुण ग्राहकता तो रही नहीं, समझ ही नहीं पाते हैं देने वाले के मंसूबे इधर ली नहीं, उधर टप्प से धर लिए गए।
पहले लेने वाले चार आंख रखते थे। लालच की चोटी पर चढ़कर भी नीचे नजरें गढाए रहते थे। दूसरा पात्र अब ज्ञान की साक्षात मूर्ति हो रहा था। पहले रकम का लेनदेन भी भरोसेमंद तरीके से होता था। लेने-देने वालों के बीच इतनी सौहर्दता होती थी कि कई लेने वाला देनेवाले के इसी सादगी पर निसार हो जाता था। लेकिन रकम टेबल पर ही रखवाते थे, फिर धीरे से बैग के अंदर सरकाते थे और बैग चपरासी के हाथों में पकडते थे। यानी रंगे हाथों का कोई चक्कर ही नहीं। और अब देखो रकम सीधे हाथों में लेते हैं, ताकि रंगे हाथों पकड़े जाने का सपना पूरा कर सकें।
मेरी समझ में तो गुरु ऐसे मूर्ख ही होते हैं।
मूर्ख नहीं ‘महामूर्ख’ मूर्खता का निरंतर विकास हो रहा है। ऐसे ही प्रकरणों में तो सामने आता है। विकास के ऐसे ही तो पैरामीटर नहीं गढे जाते हैं। पात्रों में जबर्दस्त द्वंद्वात्मक विमर्श होने लगा। विषय का प्रतिपादन अब बौद्धिकता की ऊंचाइयों की ओर जाने लगा है।
गुरु रोज तो अखबारों में आ रहा है। फलां-फलां रिश्वत लेते पकड़ा, फिर भी इतनी आसानी से झांसे में आ जाते हैं। फिर ‘मानवता’ का सहज सचेतक स्वर उभरा।
देने वाले ‘सयाणे’ हो रहे हैं भाई। लेने वाले तो अभी तक अपनी पारंपरिक ‘सिधाई’ से बाहर ही नहीं आ पा रहे हैं। गुरु का स्वर लेने वाले के प्रति न जाने क्यों ‘नेह’ से भीग सा जाता है।
अब उन्हें ही देखो...!
किन्हें, गुरु
अबे, उन्हीं वर्माजी को, रिश्वत लेने वालों के पितामह को। आज सुबह से ही वे इकदम उदास हैं। जब से अखबार में खबर पढ़ी है, मिश्राजी के रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़े जाने की, वे उदास हैं। चाय के साथ तीन की जगह डेढ़ ही बिस्कुट खाए हैं। अखबार को परे रखकर उदास नजरों से घर के बिलौटे को निहारने में लगे हुए ह। बिलौटा भी उनके बचे हुए बिस्कुटों पर दांव लगाने का पैंतरा ढूंढ रहा है। उनकी आंखें रिश्वत लेने की कला के इस भंयकर पतन पर सिकुडी-सिकुडी सी जा रही थीं। मैंने देखा वे गंभीर मुद्रा में छत को निहारने में लगे थे। ‘राष्ट्रीय’ तौर पर चिंतित होने की पारंपरिक पूर्ण उच्चता को प्राप्त करना चाहते थे।
-इस पीढ़ी से कोई काम ढंग से नहीं होता... जब वे बड़बड़ाने के बुजुर्गोंचित खेल का मजा लेने पर उतारू हो गए तो मैं वहां से खिसका था।
गुरु...!
अबे गुरु-गुरु काहै कर रहा है। रिश्वत तो वे लेते थे। एक से एक ‘ट्रिक’ भी उनके पास है, कभी पकड़े ही नहीं गए।
कैसे गुरु
कैसे क्या? एक बार तो ‘उन्होंने’ रिश्वत में गेहूं के पांच बोरे मंगवाकर सीधे खेतों में उतरवाए और वहीं बो दिए थे।
यानि...! गुरु
अबे, रिश्वत जमींदोज और क्या
गजब-गुरु गजब
अबे क्या गजब, गजब तो अब सुनो-एक बार तो उन्होंने रिश्वत लेने वाले पैसे अनाथालय में दान करवाकर उसकी रसीद मंगवा ली थी।
हैं...! रसीद क्यों...?
रसीद इनकम टैक्स में लगाकर पैसे बचा लिए। तो हुई न नए तरह की समझदारी।
गुरु वर्माजी तो वक्त से आगे की चीज दिखते हैं।
बिल्कुल हैं ही। वे तो आजकल इसी विषय पर कोचिंग खोलने की योजना बना रहे हैं, ताकि ‘कर्मियों’ को विधिवत रूप से इस विषय में दक्ष किया जा सके। बल्कि वे कर्मचारियों को सेवा पूर्व प्रशिक्षण में ही इस विषय को रखवाने के हिमायती हैं। प्रतिवेदन भी तैयार कर लिया था।
फिर गुरु भेजा कहां?
कहां भेजते। कोचिंग के कांपटिशन में दूसरे उतर ना आए, यही सोचकर आयडिया ड्राॅप कर दिया।
गजब ज्ञानी लोग बसते हैं धरा पर गुरु
अबे और वहीं तो क्या। एक बार तो उन्होंने एक से रिश्वत में छह लोगों का रेलवे रिजर्वेशन करवा लिया था। ‘एसी’ में। रंगे हाथों पकड़े जाना तो उन्हें बिल्कुल भी गवारा न था।
इसलिए तो आजकल के लोगों की नादानियां देख-देखकर उनका दिल कला की ऐसे पतन पर उसी अवस्था पर जार-जार रोता है।
सो तो है गुरु
अबे सो तो क्या तू एक और सुन
एक और है गुरु
अबे, कई किस्से पड़े हैं।
तो गुरु किताब क्यों नहीं छपवा लेते।
छपेगी बेटा, जरूर छपेगी। इस क्षेत्र की बेस्टसेलर छपेगी।
तू पहले किस्सा तो सुन-एक बार तो उन्होंने रिश्वत ली और नोट लेकर तालाब में छलांग लगा ली। तैर कर दूसरे किनारे निकल गए। बेचारे इस किनारे पर एसीबी वाले टापते रह गए। ऐसे हैं अपने वर्माजी।
धन्य है गुरु, धन्य है। फिर तो वर्माजी के बडे मजे रहे होंगे पूरी जिंदगी। आजकल क्या कर रहे हैं?
ऐश चल रही है। अभी तो लौटे हैं...
कहां से गुरु विदेश से?
अरे नहीं, जेल से एक बार पकड़े गए तो लंबे नपे थे।
हांय गुरु ऐसी गति... राम-राम।
गुरु शिला से उतरकर सरपर घर जाते दिख रहे हैं।
कैमरा उनकी पीठ पर, सीन टाइट क्लोजअप में धीरे-धीरे फेड ऑफ हो रहा है।
Rishwat ke gehun khet me hee bo diye...
जवाब देंहटाएंwaah waah kya likha hai yaar.....
kamaal kar ditta .. babhut khub , jaari rakhiye.
वाकई ऐसे लोगों का कोई सानी नहीं है। चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाए पर ये अपने कर्तव्य से चूकते नहीं हैं। इतनी मेहनत किसी और काम में नहीं कर सकते हैं ऐसे लोग।
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