भित्ति चित्र परम्परा : संजा -डॉ रेखा श्रीवास्तव भारतीय चित्रकार प्रारम्भ से ही अपनी विशिष्ट कला परम्परा के साथ चित्र सृजन करता रहा है...
भित्ति चित्र परम्परा : संजा
-डॉ रेखा श्रीवास्तव
भारतीय चित्रकार प्रारम्भ से ही अपनी विशिष्ट कला परम्परा के साथ चित्र सृजन करता रहा है। चाहे वह लोक कलाकार हो या समकालीन कलाकार। आज के इस वैज्ञानिक एवं साधन सम्पन्न युग में संचार माध्यम की सुविधाएं प्राप्त हैं जिससे वि”व के अनेक देशों से सम्पर्क बढ़ा है। इसके साथ ही भारतीय रचनाओं का आधार भी अधिक से अधिक सार्वभौम होता गया है। समकालीन कलाकारों की तरह लोक कलाकार भी आज अपनी अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न रचना सामग्री का उपयोग करता है। अब पारम्परिक माध्यमों के अतिरिक्त अनेक माध्यमों में चित्र बनने लगे है। न केवल माध्यमों बल्कि रूपाकारों में शनैः शनैः परिवर्तन आने लगा है। और विविध कलारूपों का विकास होता जा रहा है। जिसके प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न तीज त्योहारों में स्थानीय विशेषताओं के साथ देखने को मिल जाता है। जिनमें कुंवारी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला संजा पर्व भित्ति चित्रों और सुमधुर गीतों का अदभुत समन्वय है। यह पर्व मध्यप्रदेश के मालवांचल में प्रतिवर्षा भाद्र मास की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक बालिकाएं बड़ी उमंग और आस्था के साथ मनाती है। पितृपक्ष में आयोजित इस पर्व के दौरान वे प्रतिदिन शाम को गोबर और गुलतेबड़ी आदि मौसमी फूल पत्तियों से संजा मांडती है। और सामूहिक रूप से आरती उतार कर आराधना के गीत गाती है।
मालवा के समान ही अन्य अंचलों में भी यह उत्सव स्थानीय रंग रूपों और प्रथा परम्पराओं के अनुसार मनाया जाता है। इसे राजस्थान में संझया, महाराष्ट्र् में गुलाबाई, हरियाणा में सांझी-धूंधा और मिथिलाप्रदेश प्रदेश में सांझी की संज्ञा प्राप्त है। मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड में मनाया जाने वाला सुअटा पर्व और निमाड़ के संझा फूली के त्योहार में भी कुवांरी कन्याओं की आस्था और आकांक्षाएं लोक चित्रकारी के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। न केवल भित्ति चित्रों में बल्कि इस अवसर पर गाये जाने वाले गीतों में भी साम्य दिखाई देता है। आदि शक्ति के विभिन्न रूपों यथा पार्वती, गौरा, भवानी और दुर्गा आदि की आराधना के निमित्त विभिन्न लोकांचलों के इन उत्सवों में मालवा का संजा पर्व बेमिसाल है। 1
लोक मांडने के लिये राष्ट्र्पति द्वारा पुरस्कार प्राप्त श्रीमती कृष्णा वर्मा के अनुसार संजा शब्द संध्या का ही एक लोक रूप है कुआरी कन्याएं इसे मंगलदायी देवी के रूप में अपने कौमार्य की सुरक्षा और मन के अनुकूल वर की प्राप्ति की इच्छा से मनाती है। सोलह दिन सोलह वर्षों के प्रतीक है। परम्परागत रूप से 16 वर्ष की आयु ही कन्या के विवाह के लिए मान्य रही है। इसी कारण कन्याएं अपनी सखी संजा को सोलहवें दिन ससुराल के लिये विदा करती है। चूंकि इसे पितृ पक्ष में मनाया जाता है इसलिये इसमें पितृ देवताओं के स्वागत का भाव भी निहित है।2
संजा यूं तो मिट्टी की दीवार पर गोबर से लीप कर बनाया जाता है। किन्तु आजकल पक्की दीवारों पर कागज के बने संझा चिपकाकर ही अपनी अभिव्यक्ति की जाती है। कहीं कहीं पर पक्के मकानों की बाहरी दीवार भी कन्याओं के इस कलाकर्म के लिये केनवास बन जाता है। जिस पर अपनी रूचि और क्षमतानुसार संजा मांडती है। संजा बहुत ही सरल सहज और बगैर खर्च के बनने वाली विद्या है। इसमें संझा का कोई निश्चित नियत नाप नहीं होता फिर भी लगभग 3फुट वर्गाकार आकार को गोबर से लीप कर उस पर तिथिवार आकारों का अंकन किया जाता है। इस पर गोबर से उंगलियों द्वारा उभरे हुए आकार बनाये जाते है। जिनको फूलों, पत्तियों, रंगीन कांच की पन्नियों, कांच के टुकड़ों इत्यादि से सजाया जाता है। परम्परागत मान्यता के अनुसार गुलतेवड़ी के फूल सजावट के लिये उपयुक्त समझे जाते है। संझा की आकृति को और ज्यादा सुंदर बनाने के लिये हल्दी, कुकुंम, आटा, जौ, गेहूँ का भी प्रयोग किया जाता है। 3
श्राद्ध पक्ष की पूर्णिमा से लेकर आमावस्या इन सोलह दिनों तक प्रतिदिन तिथिवार आकृतियां बनाई जाती हैं। वैसे संजा मांडने की कुछ कुछ रूढ़ पम्परा सी बन गई है किन्तु जड़ नियमों ने अभी इस कला को जकड़ा नहीं है। उदाहरण के लिए हर दिन संजा बनाते समय चांद सूरज और ध्रुव तारा बनाना अनिवार्य है क्योंकि चांद रात का और सूर्य दिन का द्योतक है । ये दोनों आकाश के शा”वत देवता हैं और सृष्टि के अस्तित्व के प्रतीक है। ध्रुव तारे को सूर्योंदय के पूर्व मिटा दिया जाता है। ऐसा लोकविश्वास है कि सुबह कौवा बोलने से पहले यदि ध्रुव तारे को नहीं मिटाया गया तो लड़की के लग्न निकालने के समय कठिनाईयां आती है। शेष आकृतियों को शाम के समय दीवार पर से खुरचकर एक टोकरी में इकट्ठा किया जाता है। खुरची हुई जगह को गोबर से लीपकर उस दिन की नई संजा मांडते है। इस तरह अंतिम दिन तक निकाला हुआ सारा अंकन विदाई वाले दिन विसर्जित किया जाता । प्रारंभिक तेरह दिनों तक तिथिवार बनाई जाने वाली आकृतियां निम्नानुसार हैः
उपरोक्त सभी दिवसों पर अंकित आकृतियां किलाकोट के अन्दर बनाई जाती है। किला कोट कलात्मकता के दृष्टिकोण से बहुत प्रसिद्ध है यह अंतिम चित्रण होता है। इसको सजाने में कन्याएं अपनी सारी कलात्मक प्रतिभा लगा देती है। इसका आकार अन्य दिनों की चित्रण सीमा से बड़ा होता है। इस लोक चित्रण में कोलाज का ही रूप ही परिलक्षित होता है।
संजा पर्व लोकचित्रण के अतिरिक्त एक गीत पर्व भी है । तिथिवार संजा बनाकर कन्याएं थाली में जलता दीपक लेकर संजा के गीत गाती है। सामूहिक स्वरों में सरल छंद और सहज प्रवाही भाषा में रचित इन नन्हे नन्हे गीतों में अबोध बालहृदय की मनोभावनाओं के मनभावन चित्र अंकित दिखाई देते है। व्यक्तिगत अनुभूतियां और सामाजिक अनुभव लोकगीतों में कैसे रच बस जाते है। उनकी सीधी सरल बानगियां संजा के गीतों में स्पष्ट दिखाई देती है। जैसे-
पारंपरिक भित्ति अंकरण में मालवा की संजा कला अप्रतिम है यह भित्ति अंकरण कला म्यूरल की अनूठी बानगी हैं । अबोध मानवी स्पर्श पाकर विकसित मूर्तकला की यह जीवन्त परम्परा सदियो से अपनी एक अलग पहचान बनाये हुए हैं रमणीयता और शोभनीयता की दृष्टि से संजा कृतियां अजंता ऐलोरा और बाघ के गुफा चित्रों से होड़ लगाती दिखती है। गोबर और फूल पंखुड़ियों से बनायी जाने वाली इन रचनाओं और रूपाकारों में जहां ग्राटफ्रिड सेम्पर के ज्यामितीय आर्ट के सिद्धांतों को खोजा जा सकता है। तो वहीं इनकी समानता बुशमेन के चित्रों से की जा सकती है।5
यह सच भी है, कि संजा की तरह रूपंकर कलाओं के क्षेत्र में मालवा की अपनी अत्यंत समृद्ध परम्परा है। धूल जी जैसे लोक चितेरे मील के पत्थर है। मालवा के हृदय स्थल उज्जैन की पुरानी बस्तियों जैसे जैसिहपुरा, बेगमपुरा, मालीपुरा, नयापुरा और अब्दालपुरा आदि में आज भी कच्चे और पक्के मकानों की बाहरी दीवारों पर मालवी लोकचित्रों की अनेक कलात्मक बानगियां देखने को मिल जायेंगी । संजा पर्व के दौरान घरों की बाहरी दीवारें कला वीथिकाओं में तब्दील हो जाती है। तब मालवा की मनभावन सांझ जैसे दीवारों पर खिल उठती है। संझा का पर्व न केवल मालवा में बल्कि वहां तक मिलता है जहां जहां मालवी भाषी निवास करते है, प्रमुख रूप से निमाड़, इन्दौर रतलाम, उज्जैन, मन्दसौर देवास, गुना, राजगढ़, भोपाल आदि ।6
इस सारे प्रयोजन में सबसे खास बात यह होती है। कि संसाधनों की कमी न तो संजा बनाने वाली कन्याओं के उत्साह को कम कर पाती है। न ही इससे इनकी रचनात्मकता में कहीं कमी आती है। यह पर्व अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षाप्रद भी है। संजा से संबंधित कथाओं गीतो, लोकचित्रों, प्रतीको से उनका मानसिक विकास भी होता है। क्योंकि संजा से जुड़े है कल्पना के अद्भुत रंग, छोटी छोटी चुहलबाजियां और छेड़खानियां, मीठे संजा के गीत और ढेर सारी उन्मुक्त खिलखिलाहटें और खुशहाल भविष्य। हां यह अलग बात है कि आज संजा के उत्सव में किंचित परिवर्तन होने लगा है। शहर की पक्की दीवारे गोबर निर्मित संजा के स्थान पर रेडीमेट संजा के पाने अथवा पन्ने से सजे मिलते है। लेकिन ग्रामीण कन्याओं ने अभी भी पारम्परिक संजा को जीवंत रखा है। हम यह कह सकते है कि माध्यम बदला है पर उत्साह नहीं ।
संदर्भ सूची
1-संजा-मालवा का लोककला उत्सव, डॉ.शिवकुमार ‘मधुर‘
2-दैनिक भास्कर, 27-9-07
3-साक्षात्कार - मांगू भूरिया बिरियाखेड़ी रतलाम एवं सीताबाई इन्द्रपुरी रतलाम
4-साक्षात्कार -प्रेमलता भूरिया, संगीता मुनिया, माया प्रजापत रतलाम
5-संजा, मालवा का लोककला उत्सव, डॉ.शिवकुमार
6-नई दुनिया, 25.9.07
रेखांकन- श्रीमती मंजूबाला चौहान, जवाहर नगर रतलाम
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संपर्कः
डॉ रेखा श्रीवास्तव
सहायक प्राध्यापक
शास.कन्या महा़विद्यालय, रतलाम मप्र 457001
-डॉ रेखा श्रीवास्तव
भारतीय चित्रकार प्रारम्भ से ही अपनी विशिष्ट कला परम्परा के साथ चित्र सृजन करता रहा है। चाहे वह लोक कलाकार हो या समकालीन कलाकार। आज के इस वैज्ञानिक एवं साधन सम्पन्न युग में संचार माध्यम की सुविधाएं प्राप्त हैं जिससे वि”व के अनेक देशों से सम्पर्क बढ़ा है। इसके साथ ही भारतीय रचनाओं का आधार भी अधिक से अधिक सार्वभौम होता गया है। समकालीन कलाकारों की तरह लोक कलाकार भी आज अपनी अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न रचना सामग्री का उपयोग करता है। अब पारम्परिक माध्यमों के अतिरिक्त अनेक माध्यमों में चित्र बनने लगे है। न केवल माध्यमों बल्कि रूपाकारों में शनैः शनैः परिवर्तन आने लगा है। और विविध कलारूपों का विकास होता जा रहा है। जिसके प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न तीज त्योहारों में स्थानीय विशेषताओं के साथ देखने को मिल जाता है। जिनमें कुंवारी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला संजा पर्व भित्ति चित्रों और सुमधुर गीतों का अदभुत समन्वय है। यह पर्व मध्यप्रदेश के मालवांचल में प्रतिवर्षा भाद्र मास की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक बालिकाएं बड़ी उमंग और आस्था के साथ मनाती है। पितृपक्ष में आयोजित इस पर्व के दौरान वे प्रतिदिन शाम को गोबर और गुलतेबड़ी आदि मौसमी फूल पत्तियों से संजा मांडती है। और सामूहिक रूप से आरती उतार कर आराधना के गीत गाती है।
मालवा के समान ही अन्य अंचलों में भी यह उत्सव स्थानीय रंग रूपों और प्रथा परम्पराओं के अनुसार मनाया जाता है। इसे राजस्थान में संझया, महाराष्ट्र् में गुलाबाई, हरियाणा में सांझी-धूंधा और मिथिलाप्रदेश प्रदेश में सांझी की संज्ञा प्राप्त है। मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड में मनाया जाने वाला सुअटा पर्व और निमाड़ के संझा फूली के त्योहार में भी कुवांरी कन्याओं की आस्था और आकांक्षाएं लोक चित्रकारी के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। न केवल भित्ति चित्रों में बल्कि इस अवसर पर गाये जाने वाले गीतों में भी साम्य दिखाई देता है। आदि शक्ति के विभिन्न रूपों यथा पार्वती, गौरा, भवानी और दुर्गा आदि की आराधना के निमित्त विभिन्न लोकांचलों के इन उत्सवों में मालवा का संजा पर्व बेमिसाल है। 1
लोक मांडने के लिये राष्ट्र्पति द्वारा पुरस्कार प्राप्त श्रीमती कृष्णा वर्मा के अनुसार संजा शब्द संध्या का ही एक लोक रूप है कुआरी कन्याएं इसे मंगलदायी देवी के रूप में अपने कौमार्य की सुरक्षा और मन के अनुकूल वर की प्राप्ति की इच्छा से मनाती है। सोलह दिन सोलह वर्षों के प्रतीक है। परम्परागत रूप से 16 वर्ष की आयु ही कन्या के विवाह के लिए मान्य रही है। इसी कारण कन्याएं अपनी सखी संजा को सोलहवें दिन ससुराल के लिये विदा करती है। चूंकि इसे पितृ पक्ष में मनाया जाता है इसलिये इसमें पितृ देवताओं के स्वागत का भाव भी निहित है।2
संजा यूं तो मिट्टी की दीवार पर गोबर से लीप कर बनाया जाता है। किन्तु आजकल पक्की दीवारों पर कागज के बने संझा चिपकाकर ही अपनी अभिव्यक्ति की जाती है। कहीं कहीं पर पक्के मकानों की बाहरी दीवार भी कन्याओं के इस कलाकर्म के लिये केनवास बन जाता है। जिस पर अपनी रूचि और क्षमतानुसार संजा मांडती है। संजा बहुत ही सरल सहज और बगैर खर्च के बनने वाली विद्या है। इसमें संझा का कोई निश्चित नियत नाप नहीं होता फिर भी लगभग 3फुट वर्गाकार आकार को गोबर से लीप कर उस पर तिथिवार आकारों का अंकन किया जाता है। इस पर गोबर से उंगलियों द्वारा उभरे हुए आकार बनाये जाते है। जिनको फूलों, पत्तियों, रंगीन कांच की पन्नियों, कांच के टुकड़ों इत्यादि से सजाया जाता है। परम्परागत मान्यता के अनुसार गुलतेवड़ी के फूल सजावट के लिये उपयुक्त समझे जाते है। संझा की आकृति को और ज्यादा सुंदर बनाने के लिये हल्दी, कुकुंम, आटा, जौ, गेहूँ का भी प्रयोग किया जाता है। 3
श्राद्ध पक्ष की पूर्णिमा से लेकर आमावस्या इन सोलह दिनों तक प्रतिदिन तिथिवार आकृतियां बनाई जाती हैं। वैसे संजा मांडने की कुछ कुछ रूढ़ पम्परा सी बन गई है किन्तु जड़ नियमों ने अभी इस कला को जकड़ा नहीं है। उदाहरण के लिए हर दिन संजा बनाते समय चांद सूरज और ध्रुव तारा बनाना अनिवार्य है क्योंकि चांद रात का और सूर्य दिन का द्योतक है । ये दोनों आकाश के शा”वत देवता हैं और सृष्टि के अस्तित्व के प्रतीक है। ध्रुव तारे को सूर्योंदय के पूर्व मिटा दिया जाता है। ऐसा लोकविश्वास है कि सुबह कौवा बोलने से पहले यदि ध्रुव तारे को नहीं मिटाया गया तो लड़की के लग्न निकालने के समय कठिनाईयां आती है। शेष आकृतियों को शाम के समय दीवार पर से खुरचकर एक टोकरी में इकट्ठा किया जाता है। खुरची हुई जगह को गोबर से लीपकर उस दिन की नई संजा मांडते है। इस तरह अंतिम दिन तक निकाला हुआ सारा अंकन विदाई वाले दिन विसर्जित किया जाता । प्रारंभिक तेरह दिनों तक तिथिवार बनाई जाने वाली आकृतियां निम्नानुसार हैः
1. पूनम का पाटला
2. एकम की छाबड़ी
3. बीज का बिजौरा
4. तीज का घेवर या तारा छबड़ी
5. चौथ का चांद या चौपड़
6. पंचमी का पांच कटोरा या पांच पाचे
7. छट का छै पांखुड़ी का फूल या छाछ का बिलोना
8. सप्तमी का सातिया
9. अष्टमी का बन्दनवार , आठ पत्तियों वाला फूल
10. नवमी का नगाड़ा या नौ डोकरिया
11. दसमी का दिया, दीपक
12. ग्यारस का गलीचा या केले का वृक्ष
13. बरस का पंखा या बन्दनवार
14. तेरस से सोलहवें दिन तक किला कोट
उपरोक्त सभी दिवसों पर अंकित आकृतियां किलाकोट के अन्दर बनाई जाती है। किला कोट कलात्मकता के दृष्टिकोण से बहुत प्रसिद्ध है यह अंतिम चित्रण होता है। इसको सजाने में कन्याएं अपनी सारी कलात्मक प्रतिभा लगा देती है। इसका आकार अन्य दिनों की चित्रण सीमा से बड़ा होता है। इस लोक चित्रण में कोलाज का ही रूप ही परिलक्षित होता है।
संजा पर्व लोकचित्रण के अतिरिक्त एक गीत पर्व भी है । तिथिवार संजा बनाकर कन्याएं थाली में जलता दीपक लेकर संजा के गीत गाती है। सामूहिक स्वरों में सरल छंद और सहज प्रवाही भाषा में रचित इन नन्हे नन्हे गीतों में अबोध बालहृदय की मनोभावनाओं के मनभावन चित्र अंकित दिखाई देते है। व्यक्तिगत अनुभूतियां और सामाजिक अनुभव लोकगीतों में कैसे रच बस जाते है। उनकी सीधी सरल बानगियां संजा के गीतों में स्पष्ट दिखाई देती है। जैसे-
संजा तो मांगे हरो हरो गोबर
कां से लाउं बई हरो हरो गोबर
संजा का पिताजी माली घर गया
वां से लाया हरो हरो गोबर
संजा तो मांगे लाल लाल फुलड़ा
कां से लाउं बई लाल लाल फुलड़ा
संजा का पिताजी माली घर गया
वां से लाया लाल लाल फुलड़ा
संजा तो मांगे मेवा मिठाई
कां से लाउं बई मेवा मिठाई
संजा का पिताजी हलवई घर गया
वां से लाया मेवा मिठाई । 4
पारंपरिक भित्ति अंकरण में मालवा की संजा कला अप्रतिम है यह भित्ति अंकरण कला म्यूरल की अनूठी बानगी हैं । अबोध मानवी स्पर्श पाकर विकसित मूर्तकला की यह जीवन्त परम्परा सदियो से अपनी एक अलग पहचान बनाये हुए हैं रमणीयता और शोभनीयता की दृष्टि से संजा कृतियां अजंता ऐलोरा और बाघ के गुफा चित्रों से होड़ लगाती दिखती है। गोबर और फूल पंखुड़ियों से बनायी जाने वाली इन रचनाओं और रूपाकारों में जहां ग्राटफ्रिड सेम्पर के ज्यामितीय आर्ट के सिद्धांतों को खोजा जा सकता है। तो वहीं इनकी समानता बुशमेन के चित्रों से की जा सकती है।5
यह सच भी है, कि संजा की तरह रूपंकर कलाओं के क्षेत्र में मालवा की अपनी अत्यंत समृद्ध परम्परा है। धूल जी जैसे लोक चितेरे मील के पत्थर है। मालवा के हृदय स्थल उज्जैन की पुरानी बस्तियों जैसे जैसिहपुरा, बेगमपुरा, मालीपुरा, नयापुरा और अब्दालपुरा आदि में आज भी कच्चे और पक्के मकानों की बाहरी दीवारों पर मालवी लोकचित्रों की अनेक कलात्मक बानगियां देखने को मिल जायेंगी । संजा पर्व के दौरान घरों की बाहरी दीवारें कला वीथिकाओं में तब्दील हो जाती है। तब मालवा की मनभावन सांझ जैसे दीवारों पर खिल उठती है। संझा का पर्व न केवल मालवा में बल्कि वहां तक मिलता है जहां जहां मालवी भाषी निवास करते है, प्रमुख रूप से निमाड़, इन्दौर रतलाम, उज्जैन, मन्दसौर देवास, गुना, राजगढ़, भोपाल आदि ।6
इस सारे प्रयोजन में सबसे खास बात यह होती है। कि संसाधनों की कमी न तो संजा बनाने वाली कन्याओं के उत्साह को कम कर पाती है। न ही इससे इनकी रचनात्मकता में कहीं कमी आती है। यह पर्व अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षाप्रद भी है। संजा से संबंधित कथाओं गीतो, लोकचित्रों, प्रतीको से उनका मानसिक विकास भी होता है। क्योंकि संजा से जुड़े है कल्पना के अद्भुत रंग, छोटी छोटी चुहलबाजियां और छेड़खानियां, मीठे संजा के गीत और ढेर सारी उन्मुक्त खिलखिलाहटें और खुशहाल भविष्य। हां यह अलग बात है कि आज संजा के उत्सव में किंचित परिवर्तन होने लगा है। शहर की पक्की दीवारे गोबर निर्मित संजा के स्थान पर रेडीमेट संजा के पाने अथवा पन्ने से सजे मिलते है। लेकिन ग्रामीण कन्याओं ने अभी भी पारम्परिक संजा को जीवंत रखा है। हम यह कह सकते है कि माध्यम बदला है पर उत्साह नहीं ।
संदर्भ सूची
1-संजा-मालवा का लोककला उत्सव, डॉ.शिवकुमार ‘मधुर‘
2-दैनिक भास्कर, 27-9-07
3-साक्षात्कार - मांगू भूरिया बिरियाखेड़ी रतलाम एवं सीताबाई इन्द्रपुरी रतलाम
4-साक्षात्कार -प्रेमलता भूरिया, संगीता मुनिया, माया प्रजापत रतलाम
5-संजा, मालवा का लोककला उत्सव, डॉ.शिवकुमार
6-नई दुनिया, 25.9.07
रेखांकन- श्रीमती मंजूबाला चौहान, जवाहर नगर रतलाम
----
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डॉ रेखा श्रीवास्तव
सहायक प्राध्यापक
शास.कन्या महा़विद्यालय, रतलाम मप्र 457001
बहुत उम्दा।
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सांझी कला का लेख उम्दा है।
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