सोमेश शेखर चन्द्र का यात्रा संस्मरण : एवरेस्ट का शीर्ष - 6

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एवरेस्ट का शीर्ष - सोमेश शेखर चन्द्र ( पिछले अंक से जारी. ...) वैज्ञानिकों की राय में, टेक्सास प्रांत का बड़ा भूभाग, पहले सम...



एवरेस्ट का शीर्ष
- सोमेश शेखर चन्द्र

(पिछले अंक से जारी....)

वैज्ञानिकों की राय में, टेक्सास प्रांत का बड़ा भूभाग, पहले समुद्र के नीचे था। कालांतर में समुद्र यहाँ से हट गया और जो भूभाग उससे निकला उसी का बड़ा भूभाग आज का टेक्सास है। यहाँ की मिट्टी जब सूख जाती है तो वह कंकड़ की तरह सख्त हो जाती है इतनी सख्त कि हथौड़े से तोड़ने पर भी न टूटे और जब उस पर, पानी पड़ता है, तब भी वह गोंद की तरह लसलस और सख्त ही रहती है। यहाँ की मिट्टी में कोई जान ही नहीं होती। यहाँ के भूगर्भ में पानी भी नहीं मिलता। डलास इतना बड़ा शहर है यहाँ पर कोई बड़ी नदी या पानी का बड़ा श्रोत नहीं है यहाँ के घरों के ऊपर, अपने यहाँ की तरह, पानी जमा रखने के लिए कोई टंकी भी नहीं बनी होती फिर भी घर के नलों में, चौबीसों घंटे पानी आता रहता है। यह कैसे संभव किया इन लोगों ने? यह बात मेरे लिए किसी बड़े आश्चर्य से कम नहीं था। लेकिन इतनी बड़ी समस्या का इन्होंने बड़ा आसान सा हल ढूंढ लिया है। उसका हल इन लोगों ने डलास शहर के इर्द गिर्द आठ बड़ी बड़ी झीलों के जरिए कर लिया है। उन झीलों में से, एक झील कि किनारे, हम लोग घूमने गए थे, यह झील एक छोटी नदी को बाँधकर बनाई गई थी। झील को देखने से नहीं लगता था कि वह कोई झील है। उसका विस्तार इतनी दूर में फैला था कि उसका मुझे, किसी तरफ का भी छोर दिखाई नहीं पड़ता था। जहाँ तक नजर जाती थी सिर्फ पानी ही पानी दिखता था। यह झीलें बरसात के दिनों में बरसाती पानी से लबालब भर जाती हैं और सालभर उस पानी को साफ करके लोग शहर को सप्लाई करते रहते हैं। झीलों के भरने का एक दूसरा भी तरीका, इन्होंने अख्तियार किया हुआ है, वह है शहर का जितना भी गंदा पानी निकलता है उसे वे वैज्ञानिक विधि से इतना साफ कर लेते हैं कि जब वह पूरी तरह पीने लायक शुद्ध और साफ हो जाता है तो उसे भी वे झीलों में छोड़ देते हैं। उस झील का पानी इतना साफ था कि उसके आठ दस फिट के नीचे की जमीन साफ दिखाई देती थी।

यहाँ पर, वीक एंड पर लोग, अपना परिवार लेकर झीलों, नदियों के किनारे या जंगलों की तरफ उमड़ पड़ते हैं और वही पर तंबू गाड़कर खाते बनाते हैं और मौज मस्ती करते हैं। कोई अकेला होता है तो वह, अपनी कार के पीछे, वोट या नाव बाँध लेता है और नदी और झील पर पहुँचकर, उसमें बोटिंग करता है। कई लोग, नदियों और झीलों के किनारे और जंगलों में अपने परिवार के साथ छुट्टियाँ मनाने के लिए बड़ा ट्रेलर रखते हैं जिस पर लैट्रिन, बाथरूम, किचेन और सोने के कमरों के साथ पूरा घर तैयार होता है उसे लेकर वे, जहाँ उनका मन करता है वहाँ निकल जाते हैं और दो तीन दिन मौज मस्ती करके वापस अपने घर लौट आते हैं। सभी सुविधाओं से लैस ट्रेलर पर बने मकान, नावें और वोट यहाँ पर किराए पर भी उपलब्ध रहते हैं। एक जगह से दूसरी जगह ट्रांसफर होने पर, या किसी को लंबे अर्से के लिए अपना ठिकाना छोड़कर, दूसरी किसी जगह जाना पड़ गया तो लोग, अपने सभी घरेलू सामान भाड़े के वैगन में बंद करके चले जाते हैं। मालगाड़ी के डिब्बे की तरह के बैगन, यहाँ पर जगह जगह किराए पर उपलब्ध होते हैं। अपने यहाँ की तरह अमरीका में लोग, पैसेंजर ट्रेनों और बसों से आवागमन नहीं करते। वैसे यहाँ की हर सिटी, लोगों के आवागमन के लिए काफी बसें चलाती हैं लेकिन उन बसों में एकाध दो पैंसेजर, देखने को मिल जाएं ठीक है नहीं तो दिनभर बसें खाली ही सड़कों पर दनदनाती दौड़ती रहती है। यहाँ पर लोग तीन चार सौ किलोमीटर तक का सफर, अपनी कार से ही करते हैं यदि उससे ज्यादा दूर उन्हें जाना होता है तो वे हवाई जहाज से जाते हैं। अकेले डलास में दो बड़े हवाई अड्डे है, हमारा मकान जहाँ पर था उसके ऊपर, से बाहर से आने वाले जहाजों का रूट है, जिस दिशा से हवाई जहाज आ रहे होते थे, उस कोने में देखने से लगता था, कि जैसे वहाँ कोई बिल हो जिसमें से, एक के बाद दूसरी और फिर तीसरी, इसी तरह, सारा दिन, वहाँ से जहाजें निकल ही रही होती थी। उनके निकलने की जगह से, एयरपोर्ट तक के आकाश में, उतरने वाली जहाजों का तॉता लगा रहता था।

अमेरिकी लोगों की जिंदगी का हर क्षेत्र, जहाँ इतना हाईटेक और संभ्रात है, वहीं उन्हीं लोगों के बीच एक समुदाय ऐसा भी रहता है, जिसके लोग, इस आधुनिक युग में भी, और सुविधा सम्पन्न होने के बावजूद, अपनी जिंदगी, ठीक वैसे ही जीते हैं, जिस तरह की जिंदगी, उनके पुरखे, अठारहवीं सदी में जिया करते थे। इस समुदाय के लोगों को यहाँ, आमिस कहते हैं। आमिस समुदाय के लोग अंग्रेज ही हैं। अठारहवीं सदी में उनके पुरखे यहाँ आए थे और वे यहाँ पर आकर बढ़ई गिरी का काम करके अपनी जीविका चलाते थे। आज भी उनकी औलादें, उन्हीं की तरह अपने घर, लालटेन और ढिबरी की रोशनी से ही रौशन करते हैं। उन्हीं की तरह पारंपरिक कपड़े पहनते हैं खेती और कारीगरी, उन्हीं के जमाने के औजारों से करते हैं आने जाने के लिए वे अपने पुरखों की तरह ही घोड़ों की सवारी करते हैं और अपने सामान, घोड़ा, गाड़ी में लादकर ढोते हैं। इस समुदाय के लोग अपने बच्चे बच्चियों को, शिक्षा के लिए, यहाँ के स्कूलों में न भेजकर अपनी पुरानी पद्धति से उन्हें अपने घरों में ही शिक्षित करते हैं। एक दिन डलास से बाहर की, एक जगह, मैं घूम रहा था तो, आमिस समुदाय के कुछ लोगों को, चरी की तरह का, पशुओं का चारा, घोड़ा, गाड़ी में लादकर ले जाते देखा। इस आधुनिक युग में और वह भी अमरीका जैसे देश में, उन लोगों को अपनी पुरानी शैली में जीवन जीते रहने की, उनकी जिद के बारे में सोच सोचकर मैं हैरान था। क्यों है ऐसी जिद उनमें, ऐसा वे अपनी मस्तमौलगी के चलते करते हैं या उनके साथ ऐसा बुरा कुछघटित हुआ था, जिसके चलते उन्होंने इसी तरह जीने की जिद कर रखा है मैं, अपने इन सवालों का जवाब, खुद से तथा दूसरे तमाम लोगों से पूछा था लेकिन मुझे उसका, किसी भी तरफ से कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला था।

यहाँ की जिंदगी के हर क्षेत्र की आला दर्जे की व्यवस्था, यहाँ के लोगों की संभ्रांतता और चारों तरफ पसरे वैभव को देख कर जहाँ, एक तरफ मैं चमत्कृत था वहीं यहाँ की कुछ बातों के बारे में सोच सोचकर काफी हैरान भी था। उनमें से पहली बात यह थी कि यहाँ पर, घर बनाने में लकड़ी का जितना अंधाधुंध इस्तेमाल होता है वह तो होता ही है यहाँ के जितने भी हाई वोल्ट के बिजली के तार है वे सब लकड़ी के बड़े ऊँचे-ऊँचे खंभों के जरिए दौड़ाए गये हैं। लकड़ी एक ऐसी चीज है, जिसका निर्माण किसी कारखाने में नहीं किया जा सकता। इसे सिर्फ जंगलों को काटकर ही पाया जा सकता है। जंगल में, भी एक पेड़ को, उसके अंखुवाने से लेकर पूरा पेड़ बनने तक में, वर्षों का समय लग जाता है। वैज्ञानिक आज से नहीं, वर्षों पहले से चिल्ला रहे है कि जंगलों की अंधाधुंध कटाई से, पृथ्वी नंगी होती चली जा रही है, जिसके चलते ओजोन पर्तों का क्षरण हो रहा है ग्लोबल वार्मिंग बड़ी तेजी से बढ़ रही है जंगली जीव जगत खत्म होता जा रहा है और जिस रफ्तार से यह सब घट रहा है अगर इस पर तुरंत ब्रेक न लगाया गया तो यह समूचा प्लैनेट एक दिन, नर्क में तब्दील हो जाएगा। हैरानी मुझे उस बात को लेकर है कि अमरीकी आवाम इतना चैतन्य है कि वह किसी को, मामूली अनाचार तक करने की इजाजत नहीं देता। यहाँ का विज्ञान इतना आगे है कि वे लोग, नक्षत्रों के पृथ्वी के टकराने की अवस्था में जो तबाही यहाँ मचेगी, उसके डर से, उसे अंतरिक्ष में ही तोड़कर नष्ट कर देने या उसका रूख मोड देने तक का उपाय ढूँढ लिए हैं लेकिन जंगलों के विनाश से, समूची सृष्टि, जिस तेजी से विनाश की तरफ, ढकेलती चली जा रही है इस बात पर, यहाँ के लोग इतने बेखौफ, बेपरवाह और बेखयाल कैसे हैं? और यहाँ के वैज्ञानिकों ने आज तक लकड़ी का दूसरा कोई विकल्प कैसे नहीं खोजा?

दूसरी बात की हैरानी मुझे यहाँ के, मोटे लोगों की भारी तादाद देखकर हुई है। दुनिया का सबसे मोटा और वजनी आदमी हो सकता है, पृथ्वी के दूसरे, किसी और हिस्से का हो, लेकिन जितनी बड़ी, मोटों की तादाद, अमरीका में है, उतने मोटे लोग, शायद पृथ्वी के किसी भी हिस्से में नहीं होंगे। ठीक है, अमरीका में लोग, अपनी सेहत को लेकर काफी सजग हैं। स्वस्थ रहने के लिए, कैलोरी के हिसाब से रोज उन्हें, क्या और कितना खाना चाहिए, यह बात वे अच्छी तरह जानते हैं और उसी हिसाब से वे अपना मेन्यू भी रखते हैं। अलावे इसके शरीर की अतिरिक्त ऊर्जा जलाने के लिए, जगह जगह, वहाँ जिम खुले हुए है। टाइचू और योग की शालाएँ हैं और फिटनेस के लिए, तरह तरह के उपकरण लोग अपने घरों में लाकर रखते हैं और इस पर नियमित अभ्यास भी करते हैं। शरीर मन और भोजन विज्ञानियों की यहाँ, बड़ी तादाद है जहाँ से लोग, फिट रहने के लिए, ऐसे लोगों की सलाहें भी लेते हैं। लोग पूरी तरह फिट और चुस्त रहें, इसके लिए, जो कुछ भी चाहिए यहाँ वह सब कुछ है और प्रचुर है लेकिन ऐसे लोग, जो भोजन भट्ट हैं, खाने पर बैठते हैं तो, इतना ठूँस ठूँस कर खाते हैं कि उन्हें अपने मरने तक की परवाह नहीं होती। जिभुले, जिन्हें उनकी पसंद की चीजें दिखते ही उनके मुंह से लार टपकने लग जाया करती है और दिनभर उसे ही वे चुभलाया करते हैं। विलासी और आलसी प्रकृति के लोग, जिन्हें अपने बिस्तर से उठकर बाथरूम तक जाने में भी आलस्य लगता है, वंशानुगत अभिशाप के चलते भसंड और अपनी देह ढोते रहने के लिए अभिशप्तों के बारे में यहाँ के लोगों ने क्यों नहीं सोचा? प्रकृति अपने जीव जगत को स्वस्थ और चुस्त रखने के लिए उसे आजीवन दौड़ाए रखती है। आदमी भी, प्रकृति के इसी जीव जगत के दूसरे जीवों की तरह का ही एक जीव हैं उसने अपने को, पालतू बना लिया है ठीक है लेकिन वह प्रकृति की सत्ता, उसकी प्रणाली और तंत्र अस्वीकार करके चाहें कि जिंदा रह ले ऐसा कर सकना उसके बस का नहीं है। यह बात वह अच्छी तरह समझता हैं और अपनी इसी समझ के चलते, वह प्रकृति के सारे हलन-चलन, नीति मर्यादाओं और तंत्रों से भिड़ने और बंगावत करने की बजाए, नतमस्तक होकर उसे सिरोधार्य कर लिया है। ऐसा नहीं है कि अमरीकी, प्रकृति के जीव, जगत से हटकर कोई अलग जीव हैं, और वे इस बात को समझते ही नहीं हैं कि प्रकृति अपने साम्राज्य के भोजन भट्टों से लेकर जिभुलों तथा आलसियों तक को कैसे चुस्त और दुरूस्त रखती है। वे यह बात अच्छी तरह समझते हैं कि आदमी भाग दौड़ करके अपने को जितना चुस्त और फिट रख लेगा उतना वह किसी बनावटी विधि से नहीं रह सकता है। लेकिन इतना सब कुछ जानने समझने के बावजूद, यहाँ की व्यवस्था ने यहाँ की सड़कों पर, पैदलियों और साइकिलियों और दौड़ाकों के लिए, एक पगडंड़ी भर तक की जगह नहीं छोड़ा, और इसके चलते यहाँ के, बड़ी तादाद में लोग, पूरी तरह, अनाज से भरे बोरे की तरह हो चुके है। फर्क यदि दोनों में कुछ है तो सिर्फ इतना भर कि, एक बोरे को जहाँ कहीं बैठा दो वह अपनी जगह लदा बैठा रहता है और दूसरा बोरा खुद से चलकर, कार में लद लेता है, उससे उतरकर स्टोरों में घूम लेता है, दफ्तरों में अपनी सीट तक कारखानों में काम करने की जगह तक पहुँच लेता है और वहाँ से वापस लौटकर अपने घर के गैरेज से, चलकर अपने बेडरूम तक पहुँच लेता है।

अमरीका पहुँचने के तीन चार दिनों के बाद की बात है यह। एक दिन हुआ यूँ कि रात में जब मैं सो रहा था तो अचानक से मेरे दोनों कानों में बड़े जोरों का दर्द होने लग गया था। नियाई रात, बच्चे भी सो गए थे। मेरे दोनों कानों के भीतर, धॉय, धॉय करके जैसे कोई हथौड़े से चोट कर रहा हो और हर चोट के साथ, इतने तेज का दर्द हो रहा था, कि लगता था कि उनमें कीलें ठोंकी जा रही है। अमरीका की मेडिकल, व्यवस्था के बारे में मैंने पहले से सुन रखा था इसलिए भारत से चलने के पहले, सिर दर्द, बुखार, पेट दर्द तथा दूसरी तमाम संभावित बीमारियों के लिए, एलोपैथिक तथा आयुर्वेद की गोलियाँ और चूरन, डाक्टर के प्रेस्किप्सन के साथ, अपने बैग में डाल लिया था। यहाँ एयरपोर्ट पर तलाशी के दौरान, यदि किसी के पास, बिना डाक्टरी प्रेस्क्रिप्सन के, कोई दवा मिल गई तो उसे लंबी अवधि की जेल हो जाएगी ऐसा यहाँ का कानून है। खैर, मुझे दर्द से, परेशान, देखकर इस नियाई रात में बच्चे, परेशान हो उठेंगे यह सोचकर, मैं बक्से से पेन किलर निकाल कर खा लिया था लेकिन उसका, मेरे कान के दर्द में कोई असर ही नहीं हुआ था। जब दर्द मेरी बर्दाश्त के बाहर हो उठा था तो मैं भागकर किचेन में गया था और वहाँ टोकरी में पड़े लहसुन के कुछ जवे निकालकर उसके टुकड़े किया था और इन टुकड़ों को सरसों के तेल में डालकर उसे काला होने तक खौलाया था और ठंडा करके वही तेल, अपने दोनों कानों में डाल लिया। थोड़ी ही देर में मेरे कान का दर्द काफी कम हो गया था। सुबह, जब मैं अपने कान दर्द की बात, बच्चों को बताया था तो, इसे सुनकर वे बुरी तरह चिंतित हो उठे थे। चिंता उन्हें इस बात को लेकर हुई थी कि यदि, मेरे कान, फिर से दर्द करने लग गए तो उस अवस्था में व क्या करेंगे? क्यों- क्या यहाँ कोई कान का डाक्टर नहीं है? मैंने बच्चों से प्रश्न किया था तो उन्होंने, बड़ी गमगीन हँसी हँसते हुए, मुझे जो सुनाया था, उसे सुनकर, मैं हैरान रह गया था। उन्होंने मुझे बताया था कि, कान का दर्द, कोई इमर्जेंसी का केस नहीं है कि आपको लेकर अस्पताल भागा जाए। यहाँ अस्पताल वाले, सिर्फ उसी मरीज को देखते हैं जिसे तुरंत भर्ती करके, इलाज करने की जरूरत होती है। आपका मेडिकल इंश्योरेन्स भी नहीं है इसलिए कोई प्राइवेट डाक्टर भी आपको जल्दी देखने को राजी नहीं होगा। वैसे भी यहाँ, पर डाक्टरों के यहाँ नंबर लगाने पर पन्द्रह बीस दिनों में नंबर मिल जाए तो कहिए बड़ी गनीमत है। और अपने यहाँ की तरह, यहाँ के स्टोरों से, बिना डाक्टरी प्रेस्क्रिप्सन के एक साधारण सा मलहम तक नहीं खरीदा जा सकता। हे भगवान, यह कैसा देश है, जहाँ आदमी दर्द से छटपटा कर मर जाए ठीक है लेकिन उसकी दवा, न तो अस्पताल वाले करेंगे और न ही बिना अपाइंटमेंट के कोई डाक्टर ही इसे देखने के लिए राजी होगा। बच्चों की बात सुनकर जहाँ एक तरफ, यहाँ की मेडिकल व्यवस्था पर मुझे बड़ा क्षोभ हुआ था वही दूसरी तरफ, अपने देश की इस व्यवस्था पर नाज हो आया था। भारत में विश्वस्तर के डाक्टरों और अस्पतालों से लेकर यहाँ के गली कूचे तक में, जिस तरह की चिकित्सा सुविधा, अमीर और गरीब दोनों के लिए उपलब्ध है और वह भी रात या दिन के किसी भी पहर और घड़ी में, इसे अद्वितीय कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यहाँ पर लोगों को सर्दी, जुकाम सिरदर्द, पेट दर्द तथा इसी तरह की छोटी मोटी बीमारी होने पर, वे डाक्टर के पास जाते ही नहीं है, इस सबकी गोलियाँ वे खुद जानते हैं और मेडिकल स्टोरों से खरीदकर खा लेते हैं और चंगे हो जाते हैं। इसी तरह से बहुत से लोग, बीमार पड़ने पर डाक्टर के पास न जाकर, मेडिकल स्टोरवालों को ही अपनी तकलीफ बताकर उनसे दवा ले लेते हैं और उसे खाकर चंगा हो जाते हैं। आयुर्वेद और होमियोपैथ के वैद्य और डाक्टर झाड़ फूँक के जरिए लोगों को ठीक करने वाले ओझा गुनिया और टूटफाट बैठाने की कला में माहिर लोग भी यहाँ जगह जगह मिल जाते हैं। दूरदराज के गाँव देहातों, तक में, झोला छाप डाक्टर ही सही, बिना इलाज के यहाँ कोई मर जाए ऐसा नहीं होगा। इसके अलावे, हमारे यहाँ घर के आस-पास उगने वाली घास फूसों और जड़ी बूटियों से लेकर, रसोई में अदरक गोल मिर्च, लहसुन, प्याज, सोंठ, हल्दी अजवाइन, लौंग, इलाइची तक इतने घरेलू नुस्खे मौजूद हैं और हर किसी को उसका इतना ज्ञान है कि कई बीमारियों का इलाज तो लोग, उसी से कर लेते हैं। मैंने भी अपने कान का इलाज लहसुन और तेल से कर लिया था और जब तक अमरीका में रहा था फिर मेरे कान में दर्द नहीं उठा था। दूसरे दिन, लड़के का एक मित्र, सपरिवार मेरे घर आया तो वे लोग भी मेरे कान के दर्द की बात सुनकर, चिंतित हो उठे थे। लड़के के मित्र ने, उसे बताया कि, डलास में कोई इंडियन डाक्टर है जो हफ्ते में किसी दिन, दो घंटे के लिए, मेरी तरह के मरीजों को देखने के लिए बैठते हैं लेकिन कब और कहाँ उसे नहीं पता था।

अमरीका जाने के पहले, वीजा बनवाने के लिए, अमेरिकन एम्बेसी में, यह जानने के इंतजार में बैठा था कि, हमारे वीजा की दरख्वास्त स्वीकृत हुई या रिजेक्ट कर दी गई है। लेकिन छः महीने की अवधि के लिए हमने वीजा की अर्जी दिया हुआ था, और हमें दस साल का वीजा दे दिया गया था, इसे सुनकर खुश होने के साथ साथ मुझे बड़ा आश्चर्य इस बात को लेकर हुआ था कि वीजा का दर्ख्वास्त तो मैंने छः महीने के लिए किया था और मुझे वीजा दस साल का कैसे दे दिया गया है? काउंटर पर बैठा स्टाफ जब मुझे बताया था कि आपको दस साल का वीजा दिया गया है तो उसकी बात सुनकर मुझे विश्वास ही नहीं हुआ था, मुझे लगा था बताने वाले ने जो कुछ मुझे बताया है उसे या तो मैंने ठीक से सुना ही नहीं या यदि सुना भी है तो उसे समझ नहीं पाया। लेकिन यही सच था कि मुझे दस साल का वीजा दिया गया था। वहाँ जितने लोग, वीजा की लाइन में खड़े थे, करीब करीब, सबको वीजा मिल गया था और इसको लेकर सब काफी खुश थे, लेकिन हमारी ही लाइन में, मेरे पीछे, दो तीन आदमियों के बाद, खड़े सत्तर पचहत्तर साल की उम्र के बीच के एक दंपती को, वीजा नहीं दिया गया था। हमें तो वीजा नहीं मिला, चेहरे मोहरे और पहनावे ओढ़ावे से संभ्रांत दिखते वे बुजुर्ग, यह बात लोगों को सुनाते समय एकदम से रो पड़े थे। इसके पहले वे दोनों काफी खुश और चुस्त दिखते थे लेकिन वीजा न मिलने से दोनों एकदम से बेजान से हो गए थे। खिड़की से बड़ी मुश्किल, से, अपने को घसीटते हुए दोनों, एक कोने में गए थे और दीवाल से उढ़क कर, वही काफी देर तक खड़े रहे थे। दोनों इतना मायूस और उदास थे जैसे उनका सब कुछ लूट लिया गया हो। आज जब मैं अपना यह संस्मरण लिखने बैठा हूँ तो उस बुजुर्ग जोड़े का उदास, मायूस लुटा पिटा चेहरा मेरी आँखों के सामने फिर से आकर, टंग गया है। इसके पहले, मैं कई दफा अपने बच्चों के पास हो आया हूँ लेकिन इस दफा, मुझे तो वीजा ही नहीं मिला। कितनी छटपटाहट और वेदना भरी थी, उस बुजुर्ग की आवाज में। उसकी आवाज में न तो कोई शिकायत थी न आक्रोश था, था तो बस उदासी, बेबसी, और तड़प जैसे वे दोनों बड़ी अहक के साथ और छोहाते हुए अपने बच्चों और नाती पोतों को अपनी बाहों में भर लेने को दौड़े हों, लेकिन उनके पास पहुँचे, इसके पहले ही उन्हें कोई, कड़कती आवाज में डपट दिया हो, ऐ बुढ्ढे, उस तरफ कहाँ मुंह उठाए दौड़ा चला जा रहा है? चल हट और इसी के साथ उसने अपने मजबूत हाथों से, दोनों को गर्दन से पकड़कर धकियाता इतनी दूर ले जाकर पटक दिया हो जहाँ से उन्हें, अपने बच्चों का फिर कभी दीदार ही न हो सके। यह बात मुझे अभी भी हैरान करती है और बेहद हैरान करती है।

हमारे घर से थोड़ी ही दूर पर, एक बिल्डर, बड़ी लंबी चौड़ी जगह, डेवलप करके उसमें मकान बना रहा था। एक दिन मैं टहलते टहलते उसकी साइट की तरफ चला गया था। उस बड़े भूभाग के एक हिस्से में,, बड़ी बड़ी मशीनें जमीन को समतल करने में लगी हुई थी, दूसरे हिस्से में सैकड़ों कारीगर मकान बनाने में जुटे हुए थे, और तीसरे हिस्से में, जमीन की प्लाटिंग करके छोड़ दी गई थी। उन प्लाटों में जो प्लाट बिक चुके थे या बिकाऊ थे इसकी सूचना, के लिए हर प्लाट पर छोटे छोटे बोर्ड लगाए हुए थे। उन्हीं बोर्डों के बीच, एक जगह एक काफी लंबा चौड़ा बोर्ड लगा हुआ था जिस पर लिखा हुआ था ‘‘अमरीका, यहाँ के सभी लोगों के, चाहे वे जिस देश, जाति, धर्म या संप्रदाय के हो, बिना किसी भेद भाव के, निष्पक्ष भाव से, बसने और स्वतंत्र रूप से अपना जीवन जीने का हिमायत करता है। यदि किसी के साथ, कोई, किसी भी तरह का भेदभाव करता है तो इसकी शिकायत हम तक जरूर करें’’ उस बोर्ड पर अंग्रेजी में जो लिखा हुआ था उसके शब्द, इस समय मुझे ठीक ठीक याद नहीं है लेकिन आशय उसका यही था। अमरीकी संविधान में लिखी यह बात, सिर्फ, लिखी होने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उस महान देश में चार पाँच महीने रहकर मैंने जो कुछ देखा और समझा है वह यह कि यहाँ पर, चीन, रूस, भारत, जापान, मिडिल ईस्ट, इजरायल अफ्रीका मैक्सिको अर्जेंन्टीना से लेकर पृथ्वी के हर देश, जाति धर्म और संप्रदाय के लोग, ठीक वैसे ही रहते हैं और नौकरी, व्यापार करके अपना जीवन यापन करते हैं जैसा, यहाँ के शुद्ध अमरीकी करते हैं। यहाँ पर मुझे न तो किसी सरकारी एजेंसी की तरफ से, न ही यहाँ के प्राइवेट प्रतिष्ठानों के लोगों, या जीवन के दूसरे किसी भी क्षेत्र में, कहीं भी देश, जाति या धर्म के आधार पर, लोगों में किसी भी तरह का पूर्वाग्रह, ईर्ष्या, द्वेष या भेदभाव देखने को मिला। यहाँ के एयरपोर्ट से लेकर, दुकानों, बाजारों, पार्कों तक में मेरा, जितने भी लोगों से सामना हुआ, सब काफी सुहृद, आत्मीय और सहयोगी दिखे। यहाँ पर जिस तरह, जगह जगह चर्च हैं, उसी तरह मंदिर, मस्जिद, मठ और सिनेगाग है और लोग अपनी अपनी आस्था के अनुसार, अपने पूजास्थलों में जाकर पूजा अर्चना करते हैं और अपनी मान्यताओं और परंपराओं के अनुरूप अपना जीवन जीते हैं। धर्म, मान्यता और आस्था को लेकर यहाँ के लोगों में, कहीं किसी तरह का टकराव हो, ऐसा मुझे कहीं नहीं दिखाई दिया था और जिस चैन और बेफिक्री के साथ पृथ्वी की सभी नस्लें और भूभाग के लोग, अमरीका में रहते हैं उसे देखकर अमरीका को पृथ्वी का सच्चा कास्मोपोलिटन देश कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

गरीब और गरीबी यानी कि अभाव और जिल्लत, पृथ्वी के हर कोने में मौजूद है। हाँ यह बात दीगर है कि, कहीं पर यह कम और बहुत कम, तो कहीं पर बहुत ज्यादा होती है। स्थान और क्षेत्र विशेष में इसके, कारक, स्वरूप और प्रकार, अलग अलग हो सकते हैं, लेकिन पृथ्वी का कोई भी कोना, इससे अछूता नहीं है। अमरीका जैसे सम्पन्न देश में भी गरीब और गरीबी है। यहाँ की सरकार, इन गरीबों के रहने और भोजन का समुचित प्रबंध कर रखी है बावजूद इसके लोग यहाँ, भीख माँगते हैं और अपने दिन किसी पुल के नीचे शरण लेकर, या बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं के, हीटरों से गर्म हवा निकालने वाली सूराखों पर सोकर, अपनी सर्द रातें गुजारते हैं। एक दिन अखबार में पढ़ा कि अकेले डलास शहर में, पंजीकृत भिखारियों की संख्या आठ हजार छ सौ बत्तीस है।

डलास में जिस पुस्तकालय के चौथे तल्ले से छुपकर, हत्यारे ने कैनेडी की हत्या किया था, उस पुस्तकालय को, संग्रहालय बना दिया गया है जिसमें उनके जीवन से संबंधित, तमाम दस्तावेज, फोटो, आडियों और बिजुवल्स का विशाल संग्रह है। जिस समय कैनेडी राष्ट्रपति थे क्यूबा में, रूस और अमरीका दोनों, आमने सामने हो गए थे और दोनों के बीच परमाणु युद्ध का खतरा पैदा हो गया था। लेकिन कैनेडी और कुश्चेब ने मिलकर, दोनों देशों के साथ साथ, समूची दुनिया को जिस महाविनाश से बचाया था उसके पीछे की गतिविधियाँ, डिप्लोमैसी के दस्तावेज, आडियो बिजुअल वहाँ रखे हुए है। कार में बैठे कैनेडी पर गोली लगने की खबर कितनी देर बाद, रेडियो और टी0वी0 पर प्रसारित हुई थी, वह आवाज और दृश्य और उसे सुन, देखकर गमगीन और रोते बिलखते लोग, उस समय वहाँ मौजूद फोटोग्राफरों ने तथा दूसरे तमाम लोगों ने जिन कैमरों से उस दृश्य की तस्वीरें लिया था वे कैमरे तथा उसकी तस्वीरें वहाँ रखी हुई है। हत्यारे ने जिस बंदूक से गोली चलाया था तथा जो गोली कैनेडी को लगी थी वह भी वहाँ रखी हुई है। एक विजिटर्स बुक भी वहाँ रखी हुई है जिसमें यदि कोई चाहे, तो अपनी राय और विचार लिख सकता है। उस महान व्यक्तित्व के बारे में बिजिटर्स, बुक में, मैंने भी अपनी राय हिंदी में लिखा था।

डलास शहर में, जिस जगह संग्रहालय है उसी से सटा, तीन सौ साल पुराना लकड़ी का बना, एक कोठरी का छोटा घर है। उसकी छत ढलवॉ है और वह बड़े खपड़े से छाया हुआ है। यह घर उस समय का पोस्टआफिस था, जिसे लोगों ने, धरोहर के रूप में सुरक्षित कर रखा है। उसके चारों तरफ, काफी लंबी चौड़ी जगह में घास उगाई हुई है। हम लोग उस धरोहर को देख रहे थे तो काफी लंबा चौड़ा पैंतीस से चालीस साल की उम्र्र के बीच का एक काला आदमी, धरोहर के पीछे की तरफ से अचानक निकलकर हम लोगों के पास पहुँच गया था और सर, वन डालर प्लीज सर, सर कहता हुआ, हमारे एकदम करीब पहुँच गया था। उसे देखते ही लड़का, हम लोगों को तुरंत वहाँ से भाग लेने को कहकर, खुद भी वहाँ से भागने लग गया था। पहले तो मेरी समझ में ही नहीं आया था कि एक भिखारी हमारे लिए ऐसा कौन सा बड़ा खतरा हो सकता है कि उससे, डरकर हम लोगों को अपनी जान बचाकर भाग लेने की जरूरत पड़ जाए, लेकिन जब हम, वहाँ से भागकर सुरक्षित जगह पहुँच गए तो लड़के ने हमें बताया था कि यहाँ के बदमाश, इसी तरह, सर सर करते, लोगों के पास पहुँच जाते हैं और अचानक से, पिस्तौल निकालकर, उनके पास जो कुछ मिलता है उसे छीनकर चंपत हो लेते हैं।

धरोहर के पास ही, एक सड़क पर दो तीन बघ्घी वाले खड़े थे। उनकी बघ्घियाँ काफी संभ्रांत दिखती थी और हर बघ्घी में दो घोड़े जुटे हुए थे। वे लोग यहाँ आने वाले पर्यटकों को, बघ्घी में बैठाकर यहाँ के दर्शनीय स्थलों का भ्रमण करवाते थे। डलास शहर में ही एक किसान मार्केट हैं जहाँ, यहाँ के किसान, सब्जियाँ, अनाज, फल दूध, माँस लाकर बेचते हैं। जिस दिन हम वहाँ घूमने गए थे, किसान मार्केट बंद था इसलिए हम वहाँ नहीं गए।

यहाँ पर जितने भी पार्क, बगीचे और देखने लायक जगहें हैं सबका प्रबंध, उस क्षेत्र की सिटी के जिम्मे होता है। सिटी, उन जगहों को, इतना अच्छी तरह संवारकर और सुरूचिपूर्ण ढंग से सुसज्जित करके रखती है कि उसे देखने के लिए हर दिन खासी तादाद में लोग वहाँ पहुँचते हैं। यहाँ पर हर देखने वाली जगह के भीतर जाने के लिए दस से पचास, सौ डालर तक का प्रवेश शुल्क निर्धारित होता है। जिस तरह वहाँ भीड़ जुटती है इस प्रवेश शुल्क से न सिर्फ, उस जगह के रखरखाव का सारा खर्च निकल आता है बल्कि वहाँ से, हर सिटी को मोटी आमदनी भी होती रहती है। डलास शहर से कुछ दूर, एक बहुत बड़ा उद्यान है। एक दिन हम लोग सपरिवार वह उद्यान देखने के लिए गए। सोचा यह गया था कि दो तीन घंटे वहाँ गुजारकर लौट आएंगे लेकिन उद्यान जितनी दूर में फैला था और उसका हर कोना दूसरे से हटकर और किसिम किसिम के पेड़ पौधों से भरा हुआ था, बीच बीच में बहता झरना, गहगहाते फूलों की क्यारियाँ, एक ही क्यारी में एक ही किस्म के फूलों के अलग रंगों के संयोजन से वहाँ जैसा सौंदर्य बिखरा पड़ा रहा था, उसके सम्मोहन में हम ऐसा खोए कि शाम कब हो गई, हमें पता ही नहीं चला। एक जगह पर उन्होंने पेड़ पौधे और फूलों का एक मोर बनाया हुआ था। मोर एक ऊँचे टीले पर बैठा हुआ था और उसकी पूछ जमीन पर काफी दूर फैली हुई थी। मोर की कलगी, चोंच, आँख, गर्दन और डैने, झाड़ीनुमा पौधे उगाकर बनाये हुए थे और जमीन पर फैली उसकी पूछ और गोल गोल परिधि के बीच बड़ी टिकली के आकार के उसकी पूंछ के बुंदे, गहरे नीले और बैगनी रंग के फूलों से, ऐसा स्पष्ट होकर उभर रहा था कि उसे देखने से लगता था कि जैसे सचमुच का कोई मोर जमीन पर, अपनी पछ फैलाए बैठा हुआ हो। बड़ा अद्भुत लगता था वह मोर। उसी पार्क से सटकर, एक नदी बहती थी। उसके किनारे बड़े ऊँचे ऊँचे पेड़ खड़े थे और पेड़ों से ही सटकर काफी लंबी चौड़ी जगह में, अमरीका में सदियों पहले के वहाँ के आदिवासी बासिंदों की जीवनशैली दिखाई गई थी। वे किस तरह के फूस के घरों में रहते थे उनकी रसोई के बर्तन, खटिया, बिस्तर सामान रखने के बर्तन शिकार में उपयोग आने वाले तीर धनुष भाले बर्छे, औरत मर्द और बच्चे और वहाँ से लेकर यहाँ पर, जब अंग्रेज आए तो उस समय से लेकर मशीनों के आने तक उनकी पूरी जीवनशैली, वे किस तरह के घरों में रहते थे, उनका पहनावा ओढ़ावा सबको इतने विस्तार में और जीवंत दिखाया गया था कि उसे देखकर लगता था कि वह पूरा कालखंड ही हमारी ऑखों के सामने सजीव हो उठा है।

डलास से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर, एक डाइनासोर वैली है। जहाँ पर यह वैली है यहाँ पर एक छोटा नाला बहता है। उस नाले के पानी के नीचे डाइनासोर के पाँव के कई निशान पत्थर पर स्पष्ट दिखाई पड़ते थे। एक दूसरी जगह उससे छोटा, लेकिन काफी चुस्त और खूँखार दूसरा प्राणी, जो डाइनासोर का शिकार किया करता था, उसके पंजों के कई निशानों के साथ डानासोर के पैरों के कुछ इस तरह के निशान वहाँ मौजूद थे जिससे वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि शिकारी जानवर, डाइनासोर पर हमला किया है और वह अपने प्राण बचाने के लिए उससे जूझ रहा है।
भारत से कई दफा, कोई नाटक मंडली या वालीवुड के सितारे अमरीका जाते हैं और वहाँ अपना प्रोग्राम करते हैं। मैं पहले समझता था कि ऐसा, दोनों देशों के बीच कल्चरल प्रोग्रामों के आदान प्रदान के तहत होता होगा लेकिन नहीं, अमरीका में बसे कुछ भारतीय, समय समय पर, यहाँ के कलाकारों को मोटी रकम देकर, बुलाते हैं और उनका शो कराकर उससे अच्छी कमाई करते हैं। जिस समय मैं अमरीका में था उसी समय डलास में एक नाटक मंडली आई हुई थी। वालीवुड की अभिनेत्री पूनम ढिल्लों उस मंडली में शामिल थी। उनके द्वारा अभिनीत नाटक भी मैंने देखा था। नाटक खत्म होने के बाद, लोगों में पूनम ढल्लो के साथ फोटो खिचवाने और खीचने की होड सी लग गई थी। मैं भी उनके साथ खड़ा होकर फोटो खिचवाया था।

जिस तरह भारत का सामाजिक ढांचा और यहाँ की जीवनशैली मेलजोल आपसी भाईचारे और सामूहिकता के ताने बाने पर बनाई गई है और हम लोग मिल जुलकर, जिंदगी का जश्न मनाते हैं वैसा यहाँ नहीं है। यहाँ पर दो पड़ोसी वर्षों से अगल बगल के मकान में रहते हैं लेकिन दोनों में आपस में बातचीत शायद ही कभी होती हो। लेकिन उनके इस तरह की जिंदगी जीने का मतलब यह कतई नहीं है कि यहाँ के लोग, निहायत स्वार्थी, आत्मकेन्द्रित नीरस और खडूस किस्म के लोग होते हैं, कि उनके जीवन में व्यंग विनोद और हँसी ठठ्ठा के लिए कोई जगह ही नहीं है। यहाँ पर, दो अपरिचित आमने सामने पड़ते हैं तो एक दूसरे का अभिवादन जरूर करते हैं और मौका मिलने पर एक दूसरे से हँसी मजाक भी खूब करते हैं। एक दिन मैं अपने बेटे के साथ, घर के लिए कोई सामान खरीदने के लिए वालमार्ट गया हुआ था। सामान से लदा कार्ट लेकर, बेटा तो भुगतान काउंटर की लाइन में खड़ा हो गया था, और मैं, उसके आने का इंतजार करता, काउंटर की दूसरी तरफ, एक खाली जगह देखकर वहाँ खड़ा हो गया था। जहाँ मैं खड़ा था वहाँ से, थोड़ी ही दूर पर एक दूसरा काउंटर था, उस काउंटर पर एक काली और बेहद मोटी लंबी, चौड़ी, औरत खड़ी थी जो लोगों के सामान पालिथीन की पन्नी में डालने का काम कर रही थी। मुझ पर नजर पड़ते ही मेरा, दरमियाना कद काठी और अपने मुकाबले, बेहद दुबली पतली मेरी काया देख, वह जोर जोर से अपनी ताले ठोंक ठोंक कर, किसी पहलवान की तरह अपने से भिड़ लेने के लिए मुझे ललकारने लग गई थी। ऊँची, आवाज में उसका मुझे ललकारना ताले ठोंक ठोंक कर, मुंह मटका मटका कर और आंखे चमका चमकाकर मुझे अपने से भिड़ लेने की चुनौती देती देखकर वहाँ मौजूद लोग हँस हँस कर लोट पोट हुए जा रहे थे और मैं शर्म के मारे जमीन में गड़ा चला जा रहा था। इसी तरह एक दिन मैं सिटी लाइब्रेरी, किताबें लेने गया हुआ था। वहाँ से निकलने लगा तो काउंटर पर बैठा स्टाफ, मुझे अपने पास बुला लिया था। उसके सामने, नई लाइब्रेरी का एक ले आउट रखा हुआ था। उसने मुझे बताया, कि यह लाइब्रेरी, थोड़े ही दिनों में, एकदम नई और बड़ी बिल्डिंग में शिफ्ट कर जाएगी। उसका ले आउट यह है, इसे आप देख रहे हैं न? हाँ मैं देख रहा हूँ मैंने स्वीकार में अपना सिर हिलाकर उसे बताया था। यह, यह, यहाँ पर, मेरी सीट है और यह, यह मैं बैठा हुआ हूँ, देख रहे है न आप? अपने दाहिने झुककर वह मुझे, उस लेआउट के फ्रंट में बने, एक कमरे के भीतर, काउंटर पर बैठाए, एक बहुत छोटे आकार के गुड्डे की तरफ, अपनी उॅगली दिखाते हुए मुझसे कहा था यह मैं हूँ, जब आप लाइब्रेरी आइएगा तो मुझसे जरूर मिलिएगा मैं यहीं आपको, हमेशा इसी तरह बैठा मिलूँगा। उस समय उसकी देह से लेकर, उसके बोलने के अंदाज और आवाज में जैसी मसखरी थी उस पर मैं बिना हँसे नहीं रह पाया था। यहाँ के लोग मामूली से मामूली काम के सम्पन्न होने पर, उस काम को करने वाले के प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन जरूर करते हैं। पब्लिक प्लेस में यहाँ पर सिगरेट पीना वर्जित है। लेकिन जिन्हें सिगरेट पीने की आदत है वे किसी दीवाल या खंभे की ओट में, छुप छुपाकर सिगरेट पीते मिल जात है यदि उस समय कोई उनके पास से गुजर जाता है तो, अपनी इस घृष्टता के लिए वे उससे क्षमा जरूर माँगते हैं। यही पर मैंने देखा कि जो चीज यहाँ मना कर दी जाती है लोग उसका बखूबी पालन करते हैं। शायद इसी के चलते मुझे अमरीका में आम जगहों में एकाध दो लोगों को छोड़कर दूसरा कोई सिगरेट पीते कभी नहीं दिखा था।
काम, धाम और रोजगार के सिलसिले में अमरीका पहुँचे भारतीय, बच्चों के बारे में, भारत के अखबारों में, जो भी लेख और किस्से कहानियाँ छपती हैं, उससे उनकी जिंदगी के बारे में, ज्यादा जानकारी नहीं मिलती थी। बच्चे अगर वहाँ दुखी रहते होंगे तो भी, हमारे पूछने पर वे, उसे नहीं बताएँगे, और यदि अपनी पीड़ा उन्होंने हमें बता भी दिया तो उसे सुनकर दुखी होने के सिवा, हम उनके लिए कुछ कर भी नहीं सकते थे इसलिए अपने बच्चों से, इस विषय में मैं कभी ज्यादा पूछपरख नहीं किया था। लेकिन एक धारणा मन के भीतर तो रहती ही थी कि जब वे पराए मुल्क में नौकरी करने गए हैं तो वहाँ उनकी हैसियत किसी देायम दर्जे के नागरिक की तरह की ही होगी। अपनी जड़ से कटने की टीस, अपनी माटी और आत्मीयों से विछोह का दर्द, अपनी संस्कृति से दूर होने का पछतावा जैसी बातों को लेकर, यहाँ के किस्से कहानियों में जो कुछ पढ़ने को मिलता था उससे भी उनकी जिंदगी, खुशहाल होने की आश्वस्ति नहीं मिल पाती थी। लेकिन जब यहाँ आकर मैंने अमरीकी सिस्टम, और यहाँ पर बसे भारत के ही नहीं बल्कि पृथ्वी के सभी कोनों से पहुँचे बाशिंदों की जीवनशैली और खुशहाल तथा फिकर नाट जिंदगी देखा था, तो मेरा मन खुशियाली से भर उठा था। बच्चों ने यहाँ आने का जो निर्णय लिया था उसके लिए, उनके मन में, किसी भी तरह का पछतावा जैसी बात मुझे किसी में भी नहीं दिखी, उलट इसके, मैंने, उनमें जैसा आत्मविश्वास और आत्मसंतुष्टि देखा उनकी खुशहाल और निर्द्वंद्व जिंदगी देखी, बिना किसी ऐंठ या अकड़, या दैन्यता या हीनता के यहाँ की माटी पर उनकी विनम्र और प्रतिष्ठापूर्ण उपस्थिति दर्ज देखी उसे देखकर मैं उनके बारे में सिर्फ इतना ही कहूँगा कि हमारे मुकाबले वे ज्यादा बुद्धिमान और परिपक्व हैं। इस सब से बढ़कर जो खास बात उनमें मुझे दिखाई पड़ी और जिसे देखकर गर्व से मेरा सीना चौड़ा हो गया था वह था, यहाँ की माटी के प्रति इनका समर्पण। चाहे कोई, वर्क परमिट के बूते यहाँ रह रहा हो, ग्रीनकार्ड होल्डर हो या यहाँ की नागरिकता प्राप्त किया हुआ हो, सबके सब, इस धरती की, अपनी ही, माटी और मातृभूमि की तरह कदर करने के साथ साथ अपनी पूरी ऊर्जा बुद्धि, ज्ञान और कौशल से, इसके प्रति पूरी तरह समर्पित दिखे।

अमरीका में रह रहे अपने बच्चों के पास, जब उनके माँ बाप पहुँचते हैं तो यह बात, सिर्फ उसी बच्चे के लिए नहीं, बल्कि, उसकी पूरी मित्र मंडली के लिए एक बड़ी खुशखबरी होती है। उनके पहुँचने के बाद, हर घर से, खाने पर, उनका ऐसा बुलावा आना शुरू होता है, कि उसमें उनका, हर किसी के घर पहुँच लेना, मुश्किल हो उठता है। किसी का खुद का जन्मदिन, तो किसी के बच्चे का जन्मदिन, किसी की शादी की सालगिरह तो किसी के यहाँ सत्य नारायण की पूजा और ऐसे शुभ मौकों पर कोई बुजुर्ग आशीर्वाद देने के लिए मौजूद हो, तो तो इसे वे अपना सौभाग्य समझते हैं। अमरीका पहुँचने के बाद, खासकर शनिवार और इतवार के दिन, कहीं न कहीं, हमारा भी बुलावा रहता ही था। उनके घर पहुँचने पर, जहाँ एक तरफ मुझे, उनका आदर सम्मान मिलता था वही दूसरी तरफ घर में तैयार भारत के कोने कोने के, स्वादिष्ट और लजीज व्यंजनों का जायका भी मिला करता था। लेकिन इस सबसे बढ़कर उनके घर जाने से, एक बड़ा फायदा मुझे यह हुआ कि उनके साथ बैठकर, उनसे बातें करके, राजनीति, अर्थशास्त्र, विज्ञान तथा सामयिक विषयों पर उनके बीच की बहसें सुनकर तथा उनके पत्नी बच्चों से लेकर, रसोई तथा उनके सारे परिवेश का बड़े नजदीक से देखने परखने का, मौका भी मिलता था। अमरीका पहुँचने के बाद, पहले दिन, जिस लड़के के घर, मेरा सपरिवार बुलावा था वह, लड़का मेरे ही शहर का था। काफी लंबा चौड़ा दो तल्ले का उसका मकान (यहाँ के दो तल्ले के मकान डयूप्लेक्स की तरह के होते हैं, जिसके ऊपर और नीचे के दोनों तल्ले भीतर की एक सीढ़ी से जुड़े होते हैं, और समूचे घर में एक ही परिवार रहता है।) काफी खूबसूरत था। उस दिन वह, अपने बच्चे का जन्मदिन मना रहा था। इस मौके पर, उसके यहाँ, साठ सत्तर की तादाद में औरत मर्द और बच्चे जुटे हुए थे। यहाँ पर ऐसे मौकों पर बच्चों के खेलने और धमाचौकड़ी मचाने के लिए हर घर में काफी लंबा चौड़ा एक गेमरूम बना होता है। जितना बड़ा वहाँ लोगों का जमावड़ा था उसे देखकर, मैं यही सोच रहा था कि, इस घर की मालकिन बेचारी, को पार्टी की सारी तैयारियाँ करने के साथ साथ, रॉघने पकाने जैसा रसोई का काम भी करना पड़ा होगा और इसके लिए उसे, दो तीन दिन पहले से ही देर रात तक जगना पड़ा होगा, जिसके चलते वह इस समय थककर चूर हो चुकी होगी। लेकिन थोड़ी ही देर बाद, जिस रूप में वह अपने घर के बड़े हाल में प्रकट हुई थी उसे देखकर मैं हैरान रह गया था। बनारसी साड़ी में, किसी नई नवेली दुल्हन की तरह, सजी वह एकदम ताजी और चुस्त थी तथा अपने मेहमानों से चहक चहक कर मिल, बतिया रही थी। बच्चे घर के बड़े गेमरूम में उछल कूद तथा घमाचौकड़ी में मशगूल थे। पुरूष घर के हाल में सोफा और कुर्सियों पर लदे पसरे आपस में, गप्पें लगाने में जुटे हुए थे, और नई उम्र की खूबसूरत लड़कियाँ, जो इन लड़कों को ब्याहकर, उनके साथ यहाँ आई है, सब, भारत के खूबसूरत पारंपरिक लिबास में परियों की तरह सजी गुजी, रसोई में जुटी हुई थीं। रसोई में वे कुछ भूंज पका नहीं रही थी बल्कि खाने की मेज से लेकर, परोसे जाने वाले व्यंजनों को रखने और सजाने के काम में जुटी हुई थी। जब किसी काम में, समूह जुटा होता है, तो वहाँ होता यह है कि, उसी समूह के बीच से, कोई सीनियर या काम का जानकार, समूह की कमान संभाल कर सारे लोगों को अपने निर्देश में ले लेता है और उसके निर्देश पर, समूह के सभी लोग काम करते हैं लेकिन रसोई में जुटी लड़कियों में, न कोई सीनियर थी न जूनियर, न ही कोई उनकी नेता थी। वे सबकी सब चौकन्नी थीं और जिसे जो काम दिखाई पड़ता था, आगे बढ़कर उसे कर लिया करती थीं। काम के प्रबंधन का उनका यह एकदम नया और अनोखा सिस्टम देखकर मैं उनकी समझ, और उसके अनूठेपन पर मुग्ध था। जब सारे व्यंजन टेबुलों पर सज गए थे और मैं प्लेट और चम्मच के साथ खाने पर पहुँचा था और वहाँ दाल, चावल, कई तरह की सब्जियाँ, पूड़ी, कचौड़ी, बिरयानी, दही रसगुल्ले, सलाद, पापड़, चटनी, खीर पुलाव तथा दूसरे कई तरह के पकवान, टेबुल पर कतारों में सजा देखा, तो उसे देखकर मैं हैरान रह गया था। इन्हें बनाने के लिए उसने कोई कैटरर भी नहीं रखा था और टेबुल के सारे के सारे व्यंजन शुद्ध भारतीय थे, जिन्हें आर्डर देकर यहाँ के किसी होटल या रेस्तरा से बनवाया भी नहीं जा सकता था ऐसे में इतनी बड़ी तादाद में, और वह भी तरह तरह के पकवान और व्यंजन, यहाँ संभव कैसे हुआ? यह बात जानने की, मेरे मन में बड़ी जिज्ञासा थी लेकिन अपनी इस जिज्ञासा को मैं अपने भीतर ही दाब गया था। टेबुल पर मौजूद सारे व्यंजन बड़े लजीज थे। मैं जिस समय उन्हें स्वाद ले लेकर खा रहा था उसी बीच, मकान की मालकिन, अपने पति के साथ, एक प्लेट में गुड़ के दो तीन ढेले और एक दूसरी प्लेट में, मिर्चों का भरवॉ अचार लाकर हमारे सामने रख दिया था। अंकल जी, यह सिर्फ आप दोनों के लिए है। मैं उनके सभी गेस्टों में, सबसे स्पेशल और प्रतिष्ठित गेस्ट था इसलिए मुझ खास के लिए, दोनों अपना सबसे अहम और खास, जिसे यहाँ के बच्चे सात तालों के भीतर छुपाकर रखते हैं और उसे किसी के सामने परोसने को कौन कहे, नजर से उसे देखने तक नहीं देते, उसे वे लाकर हमारे आगे रख दिए थे। इसे आप खाइए, अंकल, यह गुड़, मेरे घर का बना है और मिर्च का अचार मेरी माँ ने बनाया है। ऐसा नहीं है कि गुड़ और मिर्च का अचार यहाँ मिलता ही नहीं। यहाँ के इंडियन स्टोर में, वह सब कुछ मिलता है जो भारत के स्टोरों में मिलता है लेकिन घर के गुड़ में, जो वहाँ की माटी का रस और गंध रची बसी होती है और माँ के हाथों के बने अचार में, जो ममता और वात्सल्य उंडेला हुआ होता है वह बाजार के गुड़ और अचार में कहाँ से मिलेगी। इसी के चलते वह उनके लिए, किसी बड़ी निधि की तरह का होता है और उस निधि में से, दोनों में से, यदि कोई, निकालकर, किसी दूसरे के सामने परोसने की घृष्टता कर दिया, तो इसकी शिकायत हम लोगों की अदालतों तक पहुँच जाती है। हमारी अदालत तक तो यह शिकायत तक पहुँचती है कि घर के बने आम के अचार की फॉक चूसने चिचोरने के बाद, जब उसके रेशे और ऑठी एकदम नीरस होकर सिर्फ उसका सिठ्ठा बचता है तो भी वे उसे फेंकते नहीं बल्कि उसे भी खूब चबाकर निगल जाते हैं।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: सोमेश शेखर चन्द्र का यात्रा संस्मरण : एवरेस्ट का शीर्ष - 6
सोमेश शेखर चन्द्र का यात्रा संस्मरण : एवरेस्ट का शीर्ष - 6
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