ग़ज़लें व कविताएँ -डॉ. अनुज नरवाल रोहतकी -------. मुहब्बत की थी तो निभाई तो होती कोई प्यार की ज्योति जलाई तो होती भूले से गर खता हो गई थी ...
ग़ज़लें व कविताएँ
-डॉ. अनुज नरवाल रोहतकी
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मुहब्बत की थी तो निभाई तो होती
कोई प्यार की ज्योति जलाई तो होती
भूले से गर खता हो गई थी हमसे
कभी आकर तुमने बताई तो होती
औरों को वफा की सीख देने वाले
ये सीख खुद तूने अपनाई तो होती
वफा का बेवफाई से क्यूं दिया सिला
कमियाँ क्या थी गिनाईं तो होती
‘अनुज’ मुझ पे लिख डाली किताब तूने
कोई ग़ज़ल खुद पे बनाई तो होती
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आदत हो गई है सबकी, जुबान से फिरना आजकल
हो गया है इक शौक, मुहब्बत करना आजकल
दिल हर रोज जाने कितने चेहरों पे मरता है
हो गया है किस कदर आसान मरना आजकल
जिस्म तक ही महदूद क्यों हो गई हर नज़र
क्यों नहीं चाहता कोई दिल में उतरना आजकल
मशहूर होने के लिए ये कैसा दीवानापन है
करते हैं पसन्द नज़रों से भी गिरना आजकल
आँख बंद करके यकीं कर लेते हो सब पर तुम
है बेवकूफी ‘अनुज’ ऐसा कुछ करना आजकल
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आँखों में बसा लीजे
पलकों पे बिठा लीजे
सुर्खी बनाकर मुझको
होठों पे लगा लीजे
फूल बनाकर मुझको
बालों में सजा लीजे
चुनरी बनाकर मुझको
सीने से लगा लीजे
कँगना बनाकर मुझको
हाथों में सजा लीजे
बिंदिया बनाकर मुझको
माथे पर लगा लीजे
सिंदूर बनाकर मुझको
मांग में सजा लीजे
कुछ भी बना लीजे पर
मुझको अपना बना लीजे।
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अपना लीजिए या ठुकरा दीजिए
फैसला आज मगर सुना दीजिए
अपना कहने में मुझे, आए गर हया तुझे
समझ जाऊंगा बस मुस्कुरा दीजिए
तुमको चाहता हो गर कोई मेरे सिवा
मुकाबला उसका मुझसे करा दीजिए
तेरी गोद में रखकर सिर सो जाऊंगा
मेरे बालों में हाथ फिरा दीजिए
जिंदगी जीने में आसान हो जायेगी
मय-ए-मुहब्बत मुझको पिला दीजिए
सब कुछ अपना बना लीजे इश्क को
फर्क, धर्म, जात का ये मिटा दीजिए
शेख जी खुद को जो भी कहे पारसा
आईना आज उसको दिखा दीजिए
आने वाला है अब महफिल में ‘अनुज’
कहीं दिल, कहीं पलकें बिछा दीजिए।
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मेरे खत का कुछ यूँ जवाब भेजा है
बंद लिफाफे में लाल गुलाब भेजा है
बू-ए-वफा आ रही है इस गुल से
नए तौर से इश्क का खिताब भेजा है
जश्न का माहौल है आज मेरे दिल में
मेरे सवाल का सही जवाब भेजा है
मुरझाया हुआ चेहरा फिर खिल गया
मेरे लिए ईलाज-ए-इज्तिराब भेजा है
‘अनुज’ खोल दी है तेरी किस्मत उसने
बनाके हकीकत हर ख्वाब़ भेजा है
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यूँ तो ख्वाहिश सरे-लब बहुत
सोचो तो दिल में तलब बहुत
तारे गिनने से बात न बनेगी
गुजारनी बाकी हैं शब बहुत
इश्क में पनाह फलां हो गया
रोने को हमें ये सबब बहुत
खयाल-ए-वरक़, दर्दे-कलम
दिले किताब में शेरो अदब बहुत
जहां महकाने को ‘अनुज’ जी
मुहब्बत का इक हब बहुत
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अश्क बनकर भी मैं बह नहीं सकता
बात कुछ ऐसी हुई कह नहीं सकता
इतनी अज़ीज़ है मेरे दिल को तू
इक पल की जुदाई सह नहीं सकता
इश्क तो करता है वो मुझसे ही
सरेआम मगर वो कह नहीं सकता
किसी ने ठीक ही कहा है- ‘ये इश्क’
जमाने से छिपकर रह नहीं सकता
ऐसी क्या बात देख ली उसमें ‘अनुज’
जो तू उस के बिना रह नहीं सकता
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आईने में देखकर शक्ल अपनी रोते हैं हम
तनहाई में इसकदर खौफज़दा होते हैं हम
तेरी चाहत हमारी जरूरत बन गई है शायद
है यही सबब कि तेरे हर नाज ढ़ोते हैं हम
दिन कामों में गुजर जाता है पर शाम होते ही
साक़ी, शराब, महखाने के साथ होते हैं हम
बेबात, बेसबब हमसे ओ नाराज़ होने वाले
जा तेरी इसी बात से नाराज होते है हम
सोचता हूं रिश्तों को महफूज रखने के लिए
शर्त, समझौता ये सब वजन क्यों ढोते है हम
जिंदगी से दामन भी नहीं छुड़ाया जाता ‘अनुज’
याद आते तुम, मरने को जब होते है हम
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मुझसे बिछड़ के खुश रहते हो
मेरी तरह तुम भी झूठे हो.1*
आँखों में आँखें डाल के कह दो
‘प्यार मुझसे नहीं करते हो’
सखियों संग तुम बैठके अक्सर
क्यों मेरी बातें करते हो
खुद को कमरे में बंद करके
किसके लिए फिर तुम रोते हो
गैर के संग देख के मुझको
सूरज की तरह क्यों जलते हो
मालूम नहीं तुम्हें प्यार के मानी
क्यों इतने भोले बनते हो
सच कहता हूँ कि तुम मुझको
खुशी की तरह अच्छे लगते हो
दिल से तुम्हें चाहता हूँ फिर भी
एतबार क्यों नहीं करते हो
मैं नहीं हूँ तो कौन है फिर वो
जिसके लिए सजते संवरते हो
1. यह शेर डॉ. बशीर बद्र जी का है और यह ग़ज़ल इसी जमीं पर लिखी गई है।
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सिर्फ हमें ही नहीं मिले हैं गम कतारों में
फूलों को देखिए रहते हैं जो खारों में
संभलकर आइएगा जरा कि आईने लगे हैं
मेरे घर की छत, फर्श, दर-ओ-दीवारों में
सोने का भाव गिर गया है तब से जमीं पर
सुना है जब से उलफत बिकेगी बाजारों में
परदेश से लौट आईए अब तो ‘अनुज’ जी
पीपल उगने लगे हैं घर की दीवारों में
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प्यार करो हमसे इतना कि चर्चा हो जमाने में
प्यार का असली मजा है तड़पने में तड़पाने में
मेरे दिल को तुम अपना ही घर समझ ऐ दोस्त
जी चाहे जब तक रहो मेरे दिल के घराने में
तुम मुझसे रूठ भी जाना जल्दी मन भी जाना
प्यार बढ़ता है अ दोस्त रूठने में मनाने में
दिल के हर कोने में रहकर देख लेना तुम
तेरे सिवा कुछ भी न मिलेगा इस दिल दीवाने में
कह दो ‘अनुज’ से प्यार है दिल से तुम्हें
तुम्हारा क्या जाता है कई बार दोहराने में
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इश्क वालों से जल रहा है सारा शहर
कैसी तासीर वाला है तुम्हारा शहर
नफरत से करता है यह मुहब्बत बहुत
अजीब मिज़ाज वाला है तुम्हारा शहर
कद्रे-इश्क है न मेहमानों की मेहमां-नवाजी
कुछ तुम्हारी तरह ही है तुम्हारा शहर
इश्क नफरत के इस खेल में जीतेगा कौन
इक तरफ इश्क है दूजी तरफ सारा शहर
तुमसे, तुम्हारे शहर से हो गया है वाफिक
‘अनुज’ अब आएगा न कभी दोबारा शहर
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जमाने लग जाते हैं जिन रिश्तों को बनाने में
इक लम्हा भी नहीं लगता उनको टूट जाने में
जो भी बोलो दोस्त मेरे सोच समझकर बोलो
देर नहीं लगती है किसी को बात चुभ जाने में
करके विचार हजार किया कीजै वादा कोई
जां तक जा सकती है किए वादों को निभाने में
प्यार ही करना है तो तहेदिल से कीजिए
रक्खा ही क्या है सूखी हमदर्दी जताने में
हाथ में लेकर चिराग़ भी ढूंढोगे तुम अगर
नहीं मिलेगा तुम्हें ‘अनुज’-सा कोई जमाने में
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आपकी जुदाई मैं सहूँ कैसे
आपके बिन अब मैं रहूँ कैसे
खफा है मुझसे आज जां मेरी
ये बात औरों से कहूँ कैसे
सूख गया है आँखों का दरिया
बनके आँसू अब बहूँ कैसे
आप कहते तो सह लेता पर
दुनिया के ताने सहूँ कैसे
बात मेरी आप सुनते नहीं फिर
‘अनुज’ दिल की बात कहूँ कैसे
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उसके नूर से इन्सां जुदा नहीं
कोई फिर भी क्यों लगता खुदा नहीं
करके देखा है हमने ये तजरबा भी
झ झूठ पर देर तक पर्दा रहता नहीं
हरकतें बता देती हैं दिल की बात
बेशक कोई किसी से कुछ कहता नहीं
कोशिशें ही होती हैं अक्सर कामयाब
क्या मीरा को श्याम मिला नहीं?
‘अनुज’ जिसको अपना दोस्त कहे
जमाने में वो अब तक मिला नहीं
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जख्मी जिगर हर आशिकी का है
हाल ये आजकल आदमी का है
प्यार की बातें हैं सिर्फ किताबी
तज़रबा ये अपनी जिन्दगी का है
किसको क्या लेना किसी के गम से
सबको ख्याल अपनी खुशी का है
कौन चाहे ‘अनुज’ दिल को मेरे
दिल पे इख्तियार बस उसी का है
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प्यार करके तो जख्म नया पाया है
आँखें हैं नम मेरी, दिल घबराया है
न हरे हो सके सूखे फूल मुहब्बत के
यूँ ही आँखों ने सावन बहाया है
न हो सकी रोशनी राहे-इश्क में
जलाने को तो हमने दिल जलाया है
गिला क्या करें आफताब से दोस्तों
हमको तो माहताब ने जलाया है
दिल यकीं ‘अनुज’ किस पर करे
इक सच्चे दोस्त से फरेब खाया है
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प्यार के बदले हम तो प्यार दें
लेके गम सबसे, खुशी उधार दें
सूरत गर देखना चाहो इश्क की
रूह से बदन का पर्दा उतार दें
देख लो बेशक आज़मा के हमको
तुझ पर अपनी ये जान वार दें
दुश्मनी है तो बता दे हमें भी
हम नहीं है तेरी तरह की खार दें
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लगे जब गुलाब गुलाबी
हो जाएं गाल गुलाबी
बदन रंगा हो जब रंगों से
हो जाए चाल गुलाबी
फागुन मास में हर मन में
उठते हैं सवाल गुलाबी
दीदे-दिलबर दिलवालों का
करता है हाल गुलाबी
देखकर शबाब सरसों का
किसानों का है हाल गुलाबी
मेरी तरह मेरी ग़ज़ल रंगीली
मेरा हर खयाल गुलाबी
प्रेम रंग में रंग जाओ
हो जाएगा साल गुलाबी
गुलिस्तां में गुल खिले हैं
नीले-पीले,लाल-गुलाबी
जाते-जाते ‘अनुज‘ मुझको
दे गया रूमाल गुलाबी।
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संपर्क:
डॉ. अनुज नरवाल रोहतकी
454 वार्ड 33 नया पडा़व, काठ मंडी, रोहतक-124001 हरियाणा भारत
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