एक दिन उत्तरआधुनिकता के नाम - शैलेन्द्र चौहान अक्सर मैं सोचता हूँ, जो लिख रहा हूँ वह क्यों लिख रहा हूँ ? किसके लिए लिख रहा हूँ ? यह...
एक दिन उत्तरआधुनिकता के नाम
- शैलेन्द्र चौहान
अक्सर मैं सोचता हूँ, जो लिख रहा हूँ वह क्यों लिख रहा हूँ ? किसके लिए लिख रहा हूँ ? यह भी, कि क्या लिख रहा हूँ. मेरे मित्र मेरी इस मन: स्थिति पर दार्शनिक मुद्रा में मुस्काते हैं, फिर यकायक गंभीर हो जाते हैं, और समझाते हैं बच्चा ये तो बुनियादी सवाल हैं, इन सवालों पर तो लोग बहुत बहसें कर चुके हैं. तुम्हें अपना दार्शनिक स्तर थोड़ा बढ़ाना चाहिए. मसलन आजकल उत्तर आधुनिकता पर जो बहस हो रही है, उसमें तुम्हारा क्या रोल हो, अभी तक तुमने उत्तर आधुनिकता पर क्या लिखा है, कुछ नहीं न दरअसल तुम समय से काफी पीछे चल रहे हो. मैं हीन भावना लिए वापस लौटता हूँ. मेरा इसीलिए लेखकों की बिरादरी में कोई सम्मानजनक स्थान नहीं बन पाया है. कोई भी लेखक मुझे झिड़क सकता है - आखिर मैंने लिखा क्या है ? न तो उसमें भाषा के साथ खेलने का कौशल है, न उसमें चमत्कृत करती स्थितियाँ ही हैं, न पतनोन्मुखी पश्चिमी लेखकों की रचनाओं के परिष्कृत अंश ही उसमें हैं, न अभद्रता, अश्लीलता और नग्नता उसमें है तब क्या है मेरे लेखन में ? अब भइया ये क्यों नहीं समझते कि आदर्शवादी और यथार्थवादी लेखन का भी अंत हो चुका है. अब जादुई यथार्थ का युग है मार्क्स और लेनिन अप्रासंगिक हो गए हैं. अब तो गिंसबर्ग की बात करो, जॉक देरिदा की बात करो, स्त्रियों की सौंदर्य प्रतियोगिता की बात करो, अमेरिका के नचनिया माइकेल जेक्सन की बात करो, बिल गेट्स की बात करो, यानी जो भी आदमी को जिंस और आकांक्षाओं को हवस बना सके, उस वस्तु की बात करो, यही उत्तर आधुनिकता है.
उत्तर आधुनिकता के बारे में ज्यादा जानकारी लेने के लिए मैंने कुछ बुद्धिजीवियों से बात की. सबसे पहले एक ख्यातनाम वकील से मैंने जानना चाहा कि वह उत्तर आधुनिकता के बारे में क्या सोचते हैं .
वकील बोला, मेरे पास बहुत मुवक्किल हैं, थोड़े समय में पूरा केस समझाइए.
मैंने कहा, आजकल बहुत चर्चा है उत्तर आधुनिकता की, मैं आपकी राय जानना चाहता हूँ.
वकील का जवाब एकदम पेशेवर था, बोले हाइकोर्ट में पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन के पचास हजार रुपये लगेंगे. आजकल इन नेताओं ने तो देश को बरबाद कर रखा है, सब भ्रष्ट हैं भ्रष्टाचार के खिलाफ तो बस ज्यूडिसियरी ही एकमात्र सहारा है. आप पचास हजार रुपये मेरे असिस्टैंट के पास जमा करा दीजिए और उसे पूरा केस विस्तार से समझा दीजिए निश्चित ही यह केस हम ही जीतेंगे. आजकल ज्यूडिसियरी जनता के फेवर में डिसीजन दे रही है .
मैं हाँ जी हाँ जी कहकर वहाँ से उठा और सीधा सड़क पर आ गया, यानि उत्तर आधुनिकता का मतलब ज्यूडिसियरी ही समझाएगी. खैर मुझे इस बड़े वकील पर न क्रोध आया, न दया ही आई अब मैंने सोचा चलो किसी डाक्टर या इंजीनियर से पूछते हैं कि उत्तर आधुनिकता क्या है. एक नामी डाक्टर के यहाँ भीड़ लगी हुई थी अत: मैंने मरीजों का समय नष्ट करना उचित नहीं समझा और क्लीनिक से बाहर निकल कर सीधे सिंचाई विभाग के अधिशासी अभियंता के दफ्तर में घुस गया. पता चला साहब दौरे पर हैं, एस डी ओ भी साथ गए हैं , कोई इंजीनियर है ? मैंने जानना चाहा तभी एक लम्बा सा नौजवान मेरे पास आकर ठहरा और पूछा क्या काम है ? मैंने कहा एक जानकारी प्राप्त करनी है. वह बोला -बताइए यह सुनिश्चित हो जाने पर कि वह इंजीनियर है, मैंने कहा - मैं उत्तर आधुनिकता के बारे में आपके विचार जानना चाहता हूँ. वह थोड़ा अचकचाया, बोला "आप क्या जानना चाहते हैं. मैं नहीं समझ पाया आप कौन हैं और कहाँ से आए हैं ?" मैंने कहा -जी मैं एक लेखक हूँ और इसी शहर में रहता हूँ. आजकल उत्तर आधुनिकता की बड़ी चर्चा है बुद्धिजीवियों के बीच में और इंजीनियर इंटैलीजैंसिया में आते हैं अत: आपके विचार जानना चाहता था. वह थोड़ा चकित हुआ बोला - यूँ तो मैं काम से जा रहा था पर आपका केस इंटरेस्टिंग है, आइए बैठते हैं. उसने घंटी बजाई, चपरासी से पानी और फिर चाय लाने को कहा और उल्टे उसने मुझसे जानना चाहा कि ये फेनोमिना उत्तर आधुनिकता आखिर क्या है ? मैंने कहा - जैसे मॉडर्निज्म मतलब आधुनिकता पुराने रूढ़िवादी माहौल में एक खुलापन और सम्पन्नता, अधिक सुविधाएं लाया वैसे ही अब पोस्ट मॉडर्निज्म आ गया है, मतलब खुलेपन की इंतिहा, सम्पन्नता की इंतिहा, और सुविधाओं की इंतिहा हो गई है. आधुनिकता के बाद अब उत्तर आधुनिकता का जमाना है. आप बताएं इस बारे में आप क्या सोचते हैं. वह फिर बोला इट्स वेरी इंटरेस्टिंग, मैंने तो इस बारे में कभी सोचा ही नहीं और सही मायने में तो मैने कभी मॉडर्निज्म के बारे में भी नहीं सोचा. हाँ कभी लगता था कि लोग पढ़ लिख कर मॉडर्न हो गए हैं. पर देखिए हमारे देश की हालत तो बहुत खराब है. गाँवों में तो लोगों को पीने को साफ पानी तक नहीं है, सड़कें नहीं हैं, सिंचाई की सुविधाएं नहीं हैं, अच्छे स्कूल नहीं हैं, अस्पताल नहीं हैं. सच तो ये है कि इन चीजों की किसी को परवाह भी नहीं है, न सरकार को, न प्रशासन को और आपके ये बुद्धिजीवी, ये लेखक बस बातें करते हैं, हाँ कुछ अच्छी बातें भी करते हैं पर उससे क्या होगा ? मैं तो टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ता हूँ, उसमें कुछ आर्टिकल अच्छे आते हैं. आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा मैं किसी लेखक से पहली बार मिला हूँ कभी फिर आइए, कहकर वह उठ खड़ा हुआ, मैं भी उठकर बाहर आ गया.
मैं कुछ खीज रहा था, व्यग्र था कि इतने में मेरी नजर मेरे पड़ोसी अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रासबिहारी वर्मा पर पड़ी. मैंने उन्हें नमस्कार किया और उनके सम्मुख अपनी जिज्ञासा रखी. वे थोड़े अचकचाए पर फिर सम्भलते हुए उन्होंने कहा -देखिए आज इकॉनामी की हालत क्या है ? हमें ग्रो करने के लिए केपिटल चाहिए ताकि इण्डस्ट्रियल डेव्हलपमेंट हो सके सारी योजनाएं केपिटल इंटेंसिव योजनाएं हैं, इन्वेस्टमेंट करना पड़ेगा, पर पैसा नहीं है. अब ग्लोबलाइजेशन से मल्टीनेशनल्हमारे यहाँ आकृष्ट हुए हैं, हमारी पॉलिसीज लिबरल हुई हैं इससे फर्क पड़ना चाहिए था, पर नहीं पड़ा सच पूछिए तो हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है कि सब भ्रष्ट हैं, बेईमान हैं. अब देखिए देश में पैसा आता है, नेता कमीशन खा जाते हैं, बड़े-बड़े अफसर लाखों रुपये डकार जाते हैं तो इकॉनामी स्टेबल कैसे हो ? ब्लेक और व्हाइट में, ब्लेक का रेश्यो बढ़ गया है अमीर ज्यादा अमीर और गरीब ज्यादा गरीब हो गया है. लेकिन फिर भी तरक्की तो हुई ही है वैसे अगर हमारे चरित्र में थोड़ी सी ईमानदारी आ जाए तो बात ही कुछ ओर हो हाँ, वो क्या कहा है आपने उत्तर आधुनिकता, हाँ तो यही है बस, यही है माडर्निज्म, पोस्टमाडर्निज्म जो कुछ है.
मेरा लेखक त्राहि-त्राहि कर रहा था कोई नहीं जानता, उत्तर आधुनिकता क्या है ? बस लेखक ही इस अत्याधुनिक ज्ञान के ज्ञाता हैं अत: अब किसी लेखक से ही इस विषय पर बात करनी चाहिए. मैंने रिक्शा पकड़ा और एक कस्बाई लेखक मित्र के घर की ओर चल दिया. मन नहीं माना और मैंने रिक्शेवाले से भी पूछ ही लिया कि भाई उत्तर आधुनिकता के बारे में जानते हो ?
उसने बहुत सहज भाव से कहा - क्या पूछा बाबूजी ?
मैंने कहा, उत्तर आधुनिकता.
ये क्या होता है ?
मैंने कहा, लोग पहले पैदल चलते थे फिर घोड़ागाड़ी, बैलगाड़ी, रिक्शा और फिर मोटरगाड़ी आ गई, तो ये हुई आधुनिकता इसके बाद क्या होगा ?
वह बोला, इसके बाद क्या होगा बाबूजी, आप ही कहें, हवाई जहाज भी है, अब आगे क्या आएगा ?
मैं दुविधा में फंस गया था पर उसे इस बातचीत में मजा आने लगा था मैंने कहा, छोड़ो इस बात को, तुम बताओ एक दिन में कितना पैसा कमा लेते हो ?
मेरा इस तरह बात बदलना उसे अच्छा नहीं लगा थोड़ी देर बाद वह बोला, किसी दिन बीस किसी दिन चालीस, पचास तक मिल जाते हैं. इतने में लेखक मित्र का घर आ गया, मैने रिक्शा रोककर पैसे दिए.
जैसे ही पैसे देकर मुड़ा रिक्शे वाले ने पुन: अपनी जिज्ञासा प्रकट की, बाबूजी आपने बताया नहीं हवाई जहाज के बाद क्या आएगा ? मेरे मूल प्रश्न को याद करते हुए बुदबुदाया उत्तरिच्छा.
मैंने कहा, उत्तरइच्छा यानि जहाँ चाहो इच्छा से उड़कर चले जाओ, जहाँ चाहो उतर जाओ कोई घोड़ा नहीं, कोई गाड़ी नहीं, जहाज भी नहीं रिक्शे वाला मुस्कराया और रिक्शे का हैण्डल पकड़कर आगे बढ़ लिया.
लेखक मित्र घर पर थे, बड़ी बात थी, वरना ऐसे अवसर बिरले ही होते थे जब वे घर पर मिलते हों. उन्होंने बहुत गर्मजोशी और अपनेपन से स्वागत किया, आखिर कस्बाई थे जी भर के बातें करने के लिए अर्द्धपद्मासन की मुद्रा में एक छ: इंच ऊँचे तख्त पर विराजमान हो गए मैंने उन्हें अपनी परेशानी बताई, वे बहुत विनम्र होकर बोले, बंधु आप ही अधिक समझदार हैं, मैं तो कस्बे से आया हूँ, वहाँ तो आधुनिकता ही बड़ी गजब ढ़ाने वाली हुई जिसे देखो वही चक्कू, छुरी, तमन्चा लटकाए घूमे है. एक ओर राजनीति के अखाड़े हैं तो दूसरी ओर शारीरिक शक्ति के बड़े शहरों और टी वी की चमक-दमक से प्रभावित नई पीढ़ी. सब कुछ अल्प समय में पा लेने को आतुर ठहरी धर्म-कर्म का ज्वार आता जाता रहता है. कुछ लोग अपनी असहायता और सुविधाहीनता पर द्रवित होते रहते हैं. सेठ साहूकार ठसक से रहते हैं नौकरीपेशा बढ़्ते भ्रष्टाचार और मक्कारी से सदैव त्रस्त रहते हैं. मजदूर वर्ग बढ़ती महँगाई से मजदूरी की तुलना करता रहता है. इस सबके बावजूद अपनापन है वहाँ, पर आगे बढ़ने का कोई स्कोप नहीं है, इसलिए लोग बड़े शहरों की ओर भागते रहते हैं. वहाँ तो आधुनिकता ही लंपटपन की श्रेणी की आई है, अब उत्तर आधुनिकता क्या होगी ? बड़ी डरावनी तस्वीर बनती है जेहन में मुझे लगा यहाँ बात नहीं बनेगी, आगे बढ़ना चाहिए सो मैंने आज्ञा चाही .
वे हतप्रभ हुए, अभी आए, अभी चल दिए, यही तो शहर वालों का गुण है ठीक से बैठे भी नहीं, साहित्य और दुनिया जहान की चर्चा भी नहीं हुई, इतनी जल्दी क्या है बंधु ?
मैंने कहा, फिर बैठेंगे, दरअसल आज मुझे उत्तर आधुनिकता पर एक राइटअप देना है मैं चला आया, वे अवाक देखते रहे.
मैंने सोचा कि इस शहर में आखिर उत्तर आधुनिकता के जानकार कितने लोग हैं ? दस बीस नाम तो हैं ही जो इस विषय पर अक्सर लिखते रहते हैं, गाहे बगाहे चर्चा भी करते हैं, इन्हीं में से किसी को पकड़ना चाहिए मैंने एक मीडिया एक्सपर्ट से भेंट की. ये भूतपूर्व साहित्यकार और अभूतपूर्व मार्क्सवादी हुआ करते थे. उन्होंने मुझे बताया, आधुनिकता के कंसेप्ट में यथार्थवाद उर्फ मार्क्सवाद का बहुत बड़ा योगदान था. अब सोवियत रूस और मध्य योरोप में मार्क्सवाद के असफल रहने से जरूरत महसूस हूई कि इसके बाद क्या विचारधारा समीचीन है. अब एक अत्याधुनिक और आश्चर्यजनक रूप से सही अर्थों में उत्तर आधुनिक विचार की जरूरत है जो उत्तर मार्क्सीय विचारों को रेखांकित कर सके. आज का यथार्थ कोई सपाट यथार्थ नहीं, जादुई यथार्थ है. कहीं कोई चीज यथार्थ है. कहीं कोई और चीज. अब दुनिया सिमट गई है. हमें क्षेत्रीय सोच से आगे बढ़कर भूमण्डलीय सोच की आवश्यकता है. विचारों की दुनिया में नई क्रांति की जरूरत है. नई से नई चीज, नया से नया उत्पादन, नया से नया मनुष्य और नया से नया विचार और व्यवहार, यही उत्तर आधुनिकता है. निश्चित ही अब मेरे ज्ञान चक्षु खुल गए थे.
मैं अब इस उत्तर आधुनिकता को गैर मार्क्सवादी नजर से भी देखना चाहता था अत: मैं एक उद्भट विद्वान के पास पहुँचा उन्हें साष्टांग प्रणाम किया, उनके सामने अपनी जिज्ञासा रखी.
वे पहले गंभीर हुए, फिर ठठाकर हंसे, पुन: गंभीर मुद्रा बनाकर उन्होंने कहना शुरू किया, दरअसल इतना सरल नहीं है इस विषय को समझना. हमें इतिहास, वर्तमान और भविष्य, त्रिकाल का ध्यान रखना होगा. अतीत में पौराणिक संदर्भों में देखें तो ब्रम्हा, विष्णु, महेश का जो चरित्र रूपक है उसमें विष्णु परम्परा से बंधे दिखाई देते हैं, ब्रम्हा सर्जक हैं, परम्परा तोड़ते हैं यदाकदा अत: आधुनिक माने जा सकते हैं. शिव हमेशा परम्परा और युग दोनों से आगे चलते हैं इसलिए उत्तर आधुनिक माने जा सकते हैं. वर्तमान में हम देखते हैं कि विश्व विकासशील, विकसित और अविकसित तीन श्रेणियों में विभाजित है. अविकसित लोग अतीतजीवी होते हैं विकासशील आधुनिक पूर्ण विकसित तथा विकास को पूर्णत: अतिक्रमित करने वाले, दोनों उत्तर आधुनिक हैं. अब हम भविष्य की बात करें, भविष्य में हम कहाँ होंगे और कहाँ होना चाहेंगे ? हम अगर निरंतर यथार्थ की बात करते रहेंगे और आगे नहीं बढ़ेंगे, तो कुछ भी हासिल नहीं कर पायेंगे सच यह है कि हमारे देश की साठ प्रतिशत जनता जाहिल है, या कह लीजिए अशिक्षित है, गरीब भी हो सकती है, तो इनके भरोसे हम कहाँ जाएंगे ? समृद्ध और सुखी भविष्य के लिए हमें इनकी बात करनी छोड़नी होगी. हमें विश्व अर्थव्यवस्था के संदर्भ में खुद को देखना होगा. विकसित देशों को समझना होगा. विकास के आगे की स्थितियों को समझना होगा. हम बहुत कुछ अमेरिका से सीख सकते हैं, कैसे विश्व के सभी देशों पर अपना सामरिक, मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जाये. बहुराष्ट्रीय कंपनियों से सीख सकते हैं, कैसे दुनियाभर में अपनी आर्थिक उन्नति का नेटवर्क स्थापित किया जाए ? हम पश्चिम की जीवनशैली से सीख सकते हैं कि कैसे सुखी समृद्ध और आनंददायी जीवन जिया जा सकता है.
व्यक्ति स्वयं जीवन में सुख का निर्माता है वह परिवार, समाज और राष्ट्र की सीमाओं से ऊपर है, श्रेष्ठ है, उसे अपनी श्रेष्ठता स्थापित करनी चाहिए, किसी भी कीमत पर साहित्य में उत्तर आधुनिकता को लेकर बड़ी भ्रामक स्थिति बनी है. सारे टुटपुंजिया लेखक उत्तर आधुनिकता की बातें करने लगे हैं. वे कुछ जानते- समझ्ते तो हैं नहीं, बस तालाब के मेंढ़कों की तरह टर्र-टर्र लगाए हुए हैं. लौटते समय उन्होंने मुझे एक आवश्यक हिदायत दी कि आप जो भी लिखें, मेरे नाम के उल्लेख के बिना ही लिखें क्योंकि आपके पास टेप वगैरह नहीं है अत: आप निश्चित ही बात बनाकर लिख देंगे और फिर मुझे कही हुई बातों को डिस-ओन करना पड़ेगा.
अन्तत: मैं एक खुर्राट उत्तर आधुनिकता विरोधी के पास पहुँचा. इन दिनों वे उत्तर आधुनिकता के विरोध में पढ़ने-लिखने के अतिरिक्त कुछ और नहीं कर पा रहे थे. वे इस कुत्सित साम्राज्यवादी और घिनौनी साजिश के खिलाफ निहायत व्यक्तिगत लेखकीय लड़ाई लड़ रहे थे. वे किस दृष्टि और विचारधारा के तहत यह लड़ाई लड़ रहे थे, कह पाना मुश्किल था वे एक ही समय में दक्षिण और वाम दोनों थे, बल्कि कहा जाए तो एक अजीब सा घालमेल थे. बड़ी अजीब बात थी कि वे अपने को दक्षिण से शुरू मानते थे पर न तो वेद, पुराण और उपनिषद उन्होंने पढ़े थे न भारतीय परम्परा के विशेष ज्ञाता थे और अब वे चूंकि अपने को वाम के करीब पाते थे लेकिन मार्क्स, एंगल्स और लेनिन को पढ़ने की भी उन्होंने कोई जहमत नहीं उठाई थी. द्वंदात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद उन्हें उबाऊ विषय नजर आते थे. और न ही वाम राजनीति उन्हें बहुत प्रभावित करती थी. इस सबके बावजूद वे खांटी उत्तर आधुनिकता विरोधी लेखक थे. उत्तर आधुनिकता के विरोध में उनके तर्क खासे वजनदार और वाममार्गी थे. मैंने जब उन्हें बताया कि मैं कई बुद्धिजीवियों और अ-बुद्धिजीवियों से मिल चुका हूँ लेकिन अभी तक नहीं समझ पाया कि समसामयिक संदर्भों में हमारे देश में इस फेनोमिना की क्या उपयोगिता है ?
हर चीज को उपयोगिता की दृष्टि से देखने पर उन्होंने खासी नाराजगी जाहिर की और बहुत क्रोध के साथ बताया उत्तर आधुनिकता का विरोध, साम्राज्यवाद का विरोध है, मल्टीनेशनल्स का विरोध है, ग्लोबलाइजेशन का विरोध है, लिबरेलाइजेशन का विरोध है, अपसंस्कृति का विरोध है, पतनशील मूल्यों का विरोध है, आखिर कितने लोग हैं जो ये विरोध कर रहे हैं ? कितने लोग इस लड़ाई में शामिल हैं?
उन्होंने बताया कि इस समय की ये सबसे बड़ी लड़ाई है.. और वे पूरी दमखम से ये लड़ाई लड़ रहे हैं उनकी आत्ममुग्धता पर मैं भी मुग्ध था. इस उत्तर आधुनिकता की लड़ाई में मैं कहीं शामिल नहीं था. इससे यह स्पष्ट था कि मैं घटिया और पिछड़ा हुआ लेखक था, जिसकी चर्चा न होना स्वाभाविक था मैंने नौकरी से बिना बताए छुट्टी कर ली थी, कल मुझे इसके लिए डांट सुननी होगी. घर पर राशन खत्म हो गया था, खाना बनाने के लिए बाजार से पत्नी दो किलो आटा और आधा किलो चावल लाई होगी. पड़ोसी के बच्चे का एक्सीडेन्ट हो गया था, मुझे अस्पताल जाना था, नहीं पहुँच सका यूनियन के डिमांड चार्ट बनाने में मुझे अपनी राय रखनी थी, वह भी नहीं रख पाया. देश के मौजूदा हालात पर मुझे तरस खाना था, वह भी नहीं खा सका. अखबारों में छपी हत्या, बलात्कार, डकैती, फिरौती, पुलिस जुल्म, नेताओं की बेशर्मी और प्रशासन की जनविरोधी हरकतों पर ब्लडप्रेशर बढ़ाना था, वह भी नहीं बढ़ा पाया. सम्पादकों की फूहड़ता पर उन्हें डांटना था वह भी नही डांट पाया. एक छोटी सी सहज कविता लिखनी थी, नहीं लिख पाया.
आखिर इस उत्तर आधुनिकता के चक्कर में पूरा दिन बरबाद हो गया.
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बहुत दिनों में शैलेन्द्र को पढ़ पाया। उन्हें मेरा नमस्ते पहुँचाएं। मेरे पास उन का मेल पता नहीं। आलेख अच्छा व्यंग्य है। बस लम्बा होने से धार कुछ कम हो गई है।
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