दर्दे - इश्क़ से दर्दे - डिस्को तक - रविकांत ['बदले जीवन मूल्य' शीर्षक पर केन्द्रित विचार परिक्रमा के प्रवेशांक(अप्रैल २००८) में पू...
- रविकांत
['बदले जीवन मूल्य' शीर्षक पर केन्द्रित
विचार परिक्रमा के प्रवेशांक(अप्रैल २००८) में पूर्व-प्रकाशित]
भारतीय सिनेमा आम तौर पर और हिन्दी सिनेमा ख़ास तौर पर बाक़ी देशों की फ़िल्मों की अपेक्षा ज़्यादा शब्दमय है, वैसे ही जैसे कि इसका गीत-संगीतमय होना इसकी अनोखी ख़ुसूसियत के रूप में स्थापित हो चुका है। और इतनी सारी फ़िल्मों के इतने सारे गीतों के आधार पर एक सामाजिक सफ़र का ख़ाक़ा पेश करने की हिमाकत करना - इतने छोटे-से आलेख में - वैसा ही है जैसा संस्कृत की वह कहावत कि आप दुस्तर समंदर में तैरने तो निकले हैं पर बतौर साज़ोसामान आपके पास बस एक अदद डोंगी है! लिहाज़ा मैं अपना काम थोड़ा आसान यह कहते हुए किए लेता हूँ कि मैं सिर्फ़ इश्क़िया गानों के कुछ पहलुओं पर कुछ स्थूल बातें ही कह पाऊँगा। अब प्रेम गीतों की तादाद भी कोई कम तो नहीं है - क्योंकि विधाएँ हमारे यहाँ अक्सर नत्थम-गुत्था पाई जाती हैं और हर क़िस्म की फ़िल्म में एक प्रेम-कहानी, चाहे उप-प्लॉट के रूप में ही सही, अमूमन होती ही है। नायक-नायिका प्रेम से पहले, प्रेम के दौरान, विरह की अवस्था में तथा शादी व सुहागरात आदि के मौक़े पर भी लाज़िमी तौर पर गाते-गुनगुनाते पाए जाते हैं। हालाँकि हमारे यहाँ संवाद या डायलॉग भी ख़ासे काव्यात्मक व नाटकीय होते रहे हैं, पर जैसा कि प्रसून जोशी ने हाल ही में फ़रमाया, कई स्थितियों को बयान करने के लिए गाने आम तौर पर ज़्यादा कारगर औज़ार होते हैं।
तो गाने जो कि 70 के दशक में कलावादियों व यथार्थवादियों के हाथों लानत-मलामत झेलकर भी ज़िन्दा बच गए, आज भी बदस्तूर क़ायम है, और रहेंगे, भले ही दिल्ली के चंद सिने-दर्शक गानों के दौरान ही उठकर फ़ारिग होना अपने वक़्त का बेहतर इस्तेमाल समझा करें। आम लोग यह भी कहते पाए जाते हैं कि सिने-संगीत में वह बात नहीं रह गई है जो पहले हुआ करती थी। आज रीमिक्स के चलन के स्थापित हो चुकने के बाद शास्त्रीय मिज़ाज के रसिकों को एक और तैयारशुदा बहाना मिल गया है अधुनातन को कोसने का: कि हाय, देखिए कैसे ये नए ज़माने के नासमझ इतनी अच्छी-अच्छी धुनों को, इतने अच्छे-अच्छे गीतों को भ्रष्ट किए दे रहे हैं, जैसे नए गानों का नागानापन काफ़ी नहीं था कि पुरानों को भी बुरी तरह तोड़-मरोड़ रहे हैं। परंपरा की थाती बाज़ार के लुटेरों के हाथों सरेआम लुट रही है और हम मूकदर्शक बने है, अफ़सोस हमें ये दिन भी देखना था!
लेकिन इतिहास के विद्यार्थी इस सियापा संस्कार से ऊपर उठकर, किंचित निरपेक्ष भाव से शायद सोच सकते हैं कि परंपरा को लेकर इस तरह की मत-भिन्नता उतनी ही शाश्वत है, जितने परंपरा को नए सिरे से सिरजकर समृद्ध करने में उससे हुए प्रस्थान। हम सब अपने ज़माने की चीज़ों से सहज मोह में जीते हैं, और नए को शक की निगाह से देखते हैं। यह सब वैसा ही है जैसा कि अपने स्कूल-कॉलेज के दिनों या जवानी के दिनों को याद करते हुए यह कहना कि अब कॉलेज में वह बात नहीं रह गई है, हमारे ज़माने में यह होता था, वह होता था! अजीब बात नहीं है, पर परेशानी तब शुरू होती है जब यादों की रहगुज़र से चुनिंदा, बेहतरीन क़िस्से उठाते हुए वर्तमान तक आते-आते हम चाहे-अनचाहे पतन का एक अफ़साना, एक अच्छा-ख़ासा वृत्तांत गढ़ लेते हैं: कि हमारे दौर के बाद तो जो भी गुज़रा, गया-गुज़रा ही ठहरा! हम रचनात्मक धरातल पर मुसलसल छीजते ही गए हैं। यह परिप्रेक्ष्य फ़िल्मी इतिहास-लेखन पर, चाहे वह पत्रकारी हो या संजीदा, ख़ास तौर पर हाल तक हावी रहा है। मिसाल के तौर पर मैं फ़िल्मी दुनिया के पत्रकार-संस्मरणकार रामकृष्ण की अति-पठनीय किताब से वह अंश उठाना चाहूँगा जब वे साहिर लुधियानवी से एक लंबी-सी बातचीत कर रहे होते हैं। ग़ौर से देखें तो यह मुठभेड़ फ़िल्म की रियाज़त करने वाले और फ़िल्म पर नुक़्ताचीनी करने, उसे पुरस्कृत या निंदित करनेवाले दो अलग दृष्टिकोणों के बीच की है। रामकृष्ण बार-बार स्टार सिस्टम, विज्ञापन, ब्लैक मनी, असाहित्यिक, अशास्त्रीय अंतर्वस्तु आदि की बात करते हुए घुमा-फिराकर पतनोन्मुख फ़िल्मी रचनात्मता की बात साहिर से मनवाना चाहते हैं, लेकिन साहिर हैं कि अड़े हुए हैं, और वे हिन्दी फ़िल्मों को न दुनिया की किसी और भाषा की फ़िल्मों से कमतर मानने को तैयार हैं, न ही वे इसे अश्लील या फूहड़ मानते हैं। वैसे हमारे मौजूदा मुक़ाम से पलटकर देखा जाए तो ये सवाल भी कितने सतत और शाश्वत रहे हैं सोचकर हैरत होती है। लगभग यही सवाल आज भी हिन्दी का कोई भी पत्रकार फ़िल्मकारों से करता नज़र आता है, गिरावट और मिलावट की यही भाषा कोई भी टिप्पणीकार चलते-फिरते सिनेमा पर जड़ देता है। दोहरे मज़े की बात यह है कि ये प्रश्न सिनेमा के स्वर्णकाल में, उसे स्वर्णकालिक बनाने वाले से ही किए जा रहे थे। चलो सुहाना भरम तो टूटा कि इतिहास के बाक़ी स्वर्णकालों की तरह यह सुवर्णमय दौर भी ठीक वैसा ही नहीं था जैसा कि मानने का आम तौर पर मिथकीय रिवाज रहा है!
हालिया दिनों में सिनेशब्दों पर सोचते हुए मैं 50 और कुछ हद तक 60 के दशक के गानों की कलात्मकता पर एक बार फिर मुग्ध हुआ पर उस अवधि की स्वर्णकालिकता के प्रति थोड़ा सशंक भी हो उठा हूँ। हालाँकि सिनेगीतों को उनके दृश्यात्मक संदर्भों से, उनके संगीत से काटकर देखना अक्षम्य है, पर इस लेख में मैं एक ऐसे पाठ की जुर्रत करना चाहता हूँ, जहाँ शब्द ही अहम हैं, शेष चीज़े गौण। तो मेरी शंका का पहला कारण ये है कि मुझे उस दौर के गाने, ख़ास तौर पर प्रेम-गीत निहायत रोंदू जान पड़ते हैं। शरद दत्त ने सहगल की जीवनी लिखते हुए यह दलील दी है कि बेहतरीन गीत आम तौर पर करुण हुए है। वे 'वियोगी होगा पहला कवि' टाइप के श्लोक भी उद्धृत करते हैं इस सिद्धांत के समर्थन में। ख़ुद इस दौर का एक गाना तो इसका घोषणापत्र जैसा है: ही
'है सबसे हसीं वो गीत जिसे हम दर्द के सुर में गाते हैं'। वैसे तो हमारी मुख्यधारा का सिनेमा ही आम तौर पर मेलोड्रामाई रहा है जो स्थितियों और भावनाओं के अतिरेक के लिए जाना जाता है पर विशेष तौर पर प्रेम यहाँ लगभग आत्मपीड़क मजबूरी जैसा लगता है। बिल्कुल देवदासाना। ख़ामोश, तड़पती, विरहाकुल या विरहातुर कहना मुश्किल है पर इस लंबी व्यथा का टोन कुंदनलाल सहगल-श्मशाद बेगम-नूरजहाँ के युग में ही तय हो गया था:
ग़म दिए मुस्तकिल कितना नाज़ुक है दिल, ये न जाना
हाय हाए ये जालिम ज़माना
फुँक रहा है जिगर पड़ रहा है मगर मुस्कुराना (शाहजहाँ)
फिर तो हमने निहायत समारोहपूर्वक ट्रैजडी किंग और ट्रैजडी क्वीन पैदा किए। मुकेश को आज भी 'दर्द भरे गीतों' के गायक के रूप में ही ख़रीदा-पढ़ा-सुना और गाया जाता है, वैसे तलत महमूद और रफ़ी भी उस युग की दर्दीली धारा से अछूते नहीं रह सकते थे। आइए कुछ चुनिंदा हिट गानों की एक परेड देखें, उनका हिट होना इसलिए मानीख़ेज़ है कि न सिर्फ़ इन गीतों के रचयिता बल्कि उनके दर्शक-श्रोता भी इस सामूहिक मर्सियाख़्वानी में शामिल हैं:
ऐ ग़मेदिल क्या करूँ, ऐ वहशते-दिल क्या करूँ
दिल जलता है तो जलने दे आँसू न बहा फ़रियाद न कर
तू परदानशीं का आशिक़ है, यूँ नामे-वफ़ा बर्बाद न कर (पहली नज़र)
यहाँ बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है….
मुहब्बत की बस्ती में अँधेरा ही अँधेरा है (जुगनू)
ज़िन्दा हूँ इस तरह कि ग़मे-ज़िन्दगी नहीं
जलता हुआ दिया हूँ मगर रौशनी नहीं (आग)
मैं ज़िंदगी में हरदम रोता ही रहा हूँ
रोता ही रहा हूँ, तड़पता ही रहा हूँ(बरसात)
आवारा हूँ, आवारा हूँ, या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ
घर-बार नहीं, संसार नहीं मुझसे किसी को प्यार नहीं
दुनिया तेरे तीर का या तक़दीर का मारा हूँ… (आवारा)
तुम न जाने किस जहाँ में खो गए
हम भरी दुनिया में तनहा हो गए (सज़ा)
दिल में छुपा के प्यार का तूफ़ान ले चले
हम आज अपनी मौत का सामान ले चले (आन)
तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं वापस बुलाले
मैं सजदे में गिरा हूँ मुझको ओ मालिक उठाले
बहार आई थी क़िस्मत ने मगर ये गुल खिलाया
जलाया आशियाँ सय्याद ने पर नोच डाले
रसिक बलमा, दिल क्यों लगाया, तोसे दिल क्यों लगया, जैसे रोग लगाया
जब याद आए तिहारी, सूरत वो प्यारी-प्यारी
नेहा लगाके हारी, तड़पूँ मैं ग़म की मारी, रसिक बलमा….
ढूँढे है पागल नैना, पाए ना एक पल चैना डसती है उजली रैना
का से कहूँ मैं बैना
चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देस हुआ बेगाना
पर दर्द को न्यौतता हुआ और मेरे शीर्षक को सुशोभित करता यह गाना तो आत्मपीड़ा की पराकाष्ठा जैसा लगता है:
जाग दर्दे-इश्क़ जाग दिल को बेक़रार कर
छेड़ दे आँसुओं का राग, जाग दर्दे इश्क़ जाग
दर्दे-इश्क़ को जहाँ आह्वानपूर्वक जगाया गया है। आपने देखा कि इन उद्धरणों में शोकाकुल मायूसियों के मजमे हैं, तन्हाइयों का अटूट सिलसिला है, आँसुओं का सैलाब है, दुनिया चूँकि ज़ालिम है: दर्द समझना तो दूर घायल मन का मख़ौल उड़ाने में ज़्यादा दिलचस्पी लेती है, लिहाज़ा बार-बार मरने-मिटने, दुनिया छोड़ जाने की ख़्वाहिश दिखती है। एक अमर डेथ-विश! शायद बेमानी नहीं होगा यह कहना कि आज़ादी/विभाजन के बाद का एक-डेढ़ दशक अपने इश्क़िया लहज़े में साहित्य के महादेवी युग-जैसा था। ये भी स्पष्ट है कि रूमानियत का यह सूफ़ी-भक्ति तेवर ज़माने की ज़्यादतियों की आलोचना ग़म की सियाही में डूब कर करता है। सामाजिक विषमताओं के ख़िलाफ़ खुले विद्रोह के कई मिसालें हैं पर उसकी रूमानी तर्जुमानी में आत्मविश्वास का अभाव है। तदबीर से तक़दीर बदलने का, दाँव लगाने का ज़िक्र भी आता है, पर आवाहन के रूप में ही। कुछ अपवाद हैं, पर उन्हें अपवाद ही माना जाना चाहिए, जैसे कि शैलेन्द्र का लिखा आह का यह गीत जिसमें विरह-व्यथा आत्महंता दिशा में न जाकर बड़ी नाज़ुक काव्यात्मक स्थितियाँ और बिंब रचती है:
ये शाम की तन्हाइयाँ ऐसे में तेरा ग़म
पत्ते कहीं खड़के हवा आई तो चौंके हम
इस राह से तू आने को थे,
उसके निशाँ भी मिटने लगे
आए न तुम सौ-2 दफ़ा आए-गए मौसम/ये शाम की
सीने से लगाके तेरी याद को रोती रही मैं रात को
हालत पे मेरे चाँद तारे रो गए शबनम/ ये शाम की (आह, 1953)
अरसा हुआ, आयसीआयसीआय बैंक ने अपने कर्मचारियों को तोहफ़ा देने के लिए एक छ: सीडियों का पैक बनाया था, एचएमवी वालों के साथ। द गोल्डेन फ़िफ़्टीज़ नामक इस संग्रह के उप-शीर्षकों का अनुवाद कुछ यूँ होगा: खट्टी-मीठी यादें, बिंदास मस्तमौला अंदाज़, सदा-ए-तन्हाई, शाश्वत हसरत, चाहत भरी निगहबानी, और हँसी-ठिठोली। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इनमें तीन-साढ़े तीन खंड तो बस इश्क़िया पीड़ा पर ही केन्द्रित है। आप यह भी समझ सकते हैं कि बिंदास गानों में बड़ा हिस्सा गीता दत्त/आशा भोसले/किशोर कुमार का रहा होगा। इसे हम चाहें तो बदलती अभिरुचियों के लक्षण मान सकते हैं कि आउटलुक ने अपने टॉप टेन गानों की सूची जब बनाई तो उसमें स्वर्णिम दशक का एक भी गाना नहीं था! इस युग में दैहिकता से भी भरसक परहेज़ किया गया है, जहाँ ऐन्द्रिक संभावनाएँ थीं भी, जैसे कि प्यासा में - 'आज सजन मोहे अंग लगा लो, जन्म सफल हो जाए'- वहाँ भी मामला पारंपरिक समर्पण - 'मैं तुमरी दासी जनम-जनम की प्यासी -- यानी भजन के आवरण में ढाल दिया जाता है।
पर बदलाव तो हर धरातल पर हो ही रहे थे, और साठ के दशक में काफ़ी कुछ होते है, भले ही अब तक़दीर को कम कोसा जा रहा है, चिल्मन को ज़्यादा। नायक-नायिका पहले के मुक़ाबले काफ़ी खुलकर इश्क़ का इज़हार कर रहे हैं, भले ही गाने के स्पेस के अंदर उपलब्ध साहित्यिक फ़ंतासी की आड़ में। शम्मी कपूर जैसे नायक ने देह को संगीत से जोड़कर आत्मविश्वास का एक नया अध्याय जोड़ा, जिससे ढलान से उतरने के कृत्य को नृत्य की संज्ञा देनेवाले नायकों को कठिन चुनौती अवश्य मिली होगी। बहरहाल, संस्कार की कई गाँठें खुलती दिखती हैं। नायक-नायिका एक निराकार मोहब्बत और उसके दर्द की परमानंदावस्था से उतरकर साहिर, मजरूह, शैलेन्द्र, शकील, राजेन्द्र कृष्ण आदि का सहारा लेकर महबूब की श्लाघा में पहले से ज़्यादा दैहिक होते हैं, अभी-भी चाँद-बादलों की बात होती ही है पर सिर्फ़ वही नहीं:
ज़रा नज़रों से कह दो जी, निशाना चूक न जाए।
यह जुल्फ़ अगर खुलकर बिखर जाय तो अच्छा।
इस रात की तक़दीर सँवर जाय तो अच्छा॥
दुनिया की निगाहों में भला क्या है बुरा क्या।
यह बोझ अगर दिल से उतर जाय तो अच्छा॥ (काजल)
या उसी फ़िल्म से एक और मिसाल लें:
छू लेने दो नाज़ुक होठों को कुछ और नहीं है जाम है ये।
क़ुदरत ने जो बख़्शा है हमको, वो सबसे हसीं इनाम है ये॥
इंतज़ार का प्राणांतक दंश आपने ऊपर देखा, पर अब देखिए कि इंतज़ार में मज़ा भी है:
हम इंतज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक।
ख़ुदा करे कि क़यामत हो और तू आए॥
ये इंतज़ार भी एक इम्तहान होता है,
इसी से इश्क़ का शोला जवान होता है।
ये इंतज़ार सलामत हो और तू आए॥
ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है, आइए आपकी ज़रूरत है(बिन बादल बरसात, 1964)
मुझको अपने गले लगा लो, ऐ मेरे हमराही (पारसमणि, 1964)
ज़रूरत है ज़रूरत है ज़रूरत है एक सिरीमती की(मनमौजी1963)
ऐ हसीना ज़ुल्फ़ों वाली जाने जहाँ, ढूँढती हैं, क़ातिल आखें किसका निशाँ
महफ़िल-2 ऐ शमाँ फिरती हो कहाँ/
वो अनजाना ढूँढती हूँ, वो दीवाना ढूँढती हूँ॥
आजकल तेरे-मेरे प्यार के चर्चे हर ज़ुबान पर
सबको मालूम है और सबको ख़बर हो गई(ब्रह्मचारी)
मेरे सामनेवाली खिड़की में एक चाँद का टुकड़ा रहता है(पड़ोसन)
अब नायक-नायिका साहस बटोर रहे हैं, दुस्साहस भी कर रहे हैं। पटाने के दो-चार फ़ॉर्मूले अस्तित्व में आ गए हैं, जिसमें सरताज फ़ॉर्मूला है महबूब के हुस्न की तारीफ़ में काव्यात्मक पुल बाँधने का, जिसकी बेहतरीन मिसाल 1942: अ लव स्टोरी है, जिसमें जावेद अख़्तर उपमानों की फुलझड़ी लगा देते हैं: 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा'। नायक शायर होते हैं, जो नहीं भी होते हैं, वे प्यार में शायराना तबीयत के हो ही जाते हैं। प्रेम-त्रिकोण बनते-टूटते हैं। ग़रीब नायकों में अमीरज़ादियों से ख़ास तौर पर शिकायत देखी जाती है, और आनेवाले समय में भी क़ायम रहती है: 'चाँदी की दीवार न तोड़ी प्यार भरा दिल तोड़ दिया' मार्का। पर कोसने की इस रिवायत में शाहरुख़ ख़ान से बहुत पहले इश्क़िया सायको भी पैदा हो चुके हैं, बतौर सबूत पेश हैं दो-तीन गाने जो ख़ासे मशहूर हुए:
तू अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं
पर किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी।
हमारे प्रिय गायक किशोर कुमार भी नारीमात्र से घृणा पर उतर आते हैं
मेरी भीगी-भीगी सी पलकों पे रह गए
जैसे कई सपने बिखरके
जले मन मेरा भी किसी के मिलन को अनामिका तू भी तरसे
आग से नाता नारी से रिश्ता काहे मन समझ न पाया
लेकिन रफ़ी साहब के हिस्से तो इससे भी भारी-भरकम गीत आया:
मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे।
मुझे ग़म देनेवाले तू ख़ुशी को तरसे॥
इस गाने के अंतरों को याद करें तो आपका जी सिहर उठेगा: ठुकराया गया नायक जी-भरके शापता है नायिका को, अमूमन उसी अनुपात में जिसमें वह प्रशंसा की पुष्प-वृष्टि किया करता था। कहने की ज़रूरत नहीं कि विरह और विफल प्यार के गीत अभी-भी हैं पर उनकी संख्या काफ़ी कम हो गई है। सत्तर के दशक में जहाँ मुमताज़ जैसी नायिकाएँ भी भाँग खाकर या बिना खाए बोल्ड हो रही हैं(जय-जय शिव शंकर, काँटा लगे न कंकर/रोटी/बिंदिया चमकेगी, चूड़ी खनकेगी/दो रास्ते) और खलनायिका हेलेन लोगों के मन में अपने मोहक के नृत्य के बल पर - आज जिसे आइटम नंबर कहते हैं - 'पिया तू अब तो आजा, शोला सा मन दहके आके बुझा जा' का मुक्त निमंत्रण देती हैं, तो मनोज कुमार पूरब और पश्चिम के सभ्यता-विमर्श के युद्ध में शुद्ध-शाश्वत भारतीय आध्यात्मिक प्रेम के नए मानदंड रचते हैं: 'चल संन्यासी मंदिर में' का जवाब 'पाप है तेरे अंदर में' ही होना था। देव आनंद भी हिप्पी उच्छृंखलता को अपने नैतिक विमर्श से डपटते हैं। पर जूली, बॉबी नाम्नी आवारा इसाई लड़कियाँ हिन्दू नायकों का शीलभंग करती ही रहीं। बीच-बीच में हीर-राँझा, लैला-मजनूँ लोगों को पुरानी शैली के शहीदाना प्यार वाले नॉस्टैल्जिया का सुखद अहसास कराने के साथ-साथ डराते भी हैं। लब्बोलुवाब यह कि लोग लव-स्टोरियाँ बनाते रहे, सभ्यता से भागकर गृहस्थियाँ बसाते रहे:
देखो मैंने देखा है ये इक सपना फूलों के शहर में है घर अपना
क्या समा है तू कहाँ है, मैं आई-4,
आ जा
यहाँ तेरा मेरा नाम लिखा है
रस्ता नहीं ये आम लिखा है
अच्छा ये बताओ कहाँ पे है पानी
बाहर बह रहा है झरना दीवानी
बिजली नहीं है, यही इक ग़म है
तेरी बिंदिया क्या बिजली से कम है
छोड़ो मत छेड़ो बाज़ार जाओ
जाता हूँ जाउँगा, पहले यहाँ आओ
शाम जवाँ है तू कहाँ है
कैसी प्यारी है ये छोटी-सी रसोई
हम-दोनों हैं बस दूजा नहीं कोई
इस कमरे में होंगी मीटी बातें
उस कमरे में गुज़रेंगी रातें
यह तो बोलो होगी कहाँ पे लड़ाई
मैंने वो जगह ही नहीं बनाई
कहानी के संदर्भ में कितना मासूम-सा सपना है ये। पर ग़ौर करनेवाले ताड़ गए होंगे कि नायक और नायिका के नज़रिए में भेद स्पष्ट है, और उनके बीच एक साफ़ श्रम-विभाजन भी है, बाज़ार कौन जाएगा, रसोई किसे दीखती है, और कौन शहराती है, जो उस बियाबान में पानी और बिजली खोज रही है, आप वाक्यों का लिंग-निर्णय करके समझ गए होंगे।
राजश्री प्रोडक्शन और गुलज़ार भी 70 और 80 के दौरान इश्क़िया संबंधों और शायरी के नायाब और नाज़ुक आयाम गढ़े जा रहे हैं:
थोड़ी-सी ज़मीं थोड़ा आसमान, तिनकों का बस इक आशियाँ (सितारा, 1980)
छोटी-छोटी मामूली चीज़ों के इर्द-गिर्द मसलन 'बाजरे के खेतों में कौए' उड़ाते हुए प्रेम किया जा रहा है। वैसे आम तौर पर गुलज़ार अपनी उलटबाँसी प्रतीकों के लिए भी विख्यात हैं पर अगर देखना ही है कि दर्द भरी विरासत को गुलज़ार किस तरह ज़िन्दा रखते हैं तो इजाज़त का वह अद्भुत गीत गुनगुना लीजिए, यह याद रखते हुए कि यहाँ भी एक त्रिकोण था, जिसमें किन्हीं दो को एक साथ ज़िन्दगी क़तरा-क़तरा ही मिल रही थी:
मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है (इजाज़त, 1988).
जब नहीं निभ सकती तो एक असंभव से बँटवारे की बात होती है: छतरी में जो आधे-आधे भीग रहे थे, उसका गीला हिस्सा भिजवा दो, ख़तों में लिपटी जो रात पड़ी है, उसको भी, गिले-शिकवे-वादे जो वैसे भी झूठ-मूठ के थे, उनको ख़तों के साथ वापस कर दो, पर साथ ही यह इजाज़त भी दे दो कि इनके साथ ख़ुद भी दफ़्न हो जाऊँ। यानी प्यार में मरकर अमर होने की हसरत चाहे जितनी पुरानी हो, अब भी काम करती है!
हमने देखी है उन आँखों की महकती ख़ुशबू
हाथ से छू के इसे रिश्तों का इलज़ाम न दो
सिर्फ़ एहसास है ये रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहेने दो कोई नाम न दो
प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज़ नहीं
एक ख़ामोशी है सुनती है कहा करती है
न ये बुझती है न रुकती है न ठहरी है कहीं
नूर की बूँद है सदियों से बहा करती है
ये पंक्तियाँ गुलज़ार ने लिखी थी, ख़ामोशी(1969) के लिए। पर हाल के दिनों में अक्स के गीत भी उन्होंने ही लिखे, और बंटी और बबली तथा सत्या के भी - जिनमें किरदारों के मुताबिक़ सड़क-छाप कविता को बड़े सलीक़े से एक व्यंग्यात्मक दूरी बनाते हुए चिपकाया गया है। पर ओंकारा में तो ख़ास तौर वे ऐसे गीत सिरजते हैं जो बिपाशा बसु के किरदार के साथ न्याय करते, आयटम होते हुए भी, इश्क़ के अभिनव मिज़ाज की परिभाषाएँ गढ़ते हैं। 'नमक इश्क़ दा' और 'बीड़ी जलइले' दोनों ही एक साथ किंचित करुण और दैहिक हैं। एक मुजरा करनेवाली का बिंदास विवेक अभिव्यक्ति पाता है त्रासद त्रिकोण के भ्रम को हवा देते पड़ोसियों के लिहाफ़, उनके चूल्हे से उधार ली गई आग के बिंब में।
यह दौर कुछ और ही है न? बीच में दुनिया मीडियाकृत होकर एकमेक हो गई है। एमटीवी ने दैहिक मुक्ति की जो हवा बहाई थी, वह अब 17 और 21 चुंबनों की आँधी बन गई है। कभी किसी अच्छे से लेख में कृष्ण कुमार ने किसी फ़िल्मी गाने में नायिका दुपट्टे के उड़ने में स्त्री-मुक्ति का आग़ाज़ देखा था। कभी आराधना में भी किशोर कुमार ने राजेश खन्ना के लिए गाया था:
रूप तेरा मस्ताना, प्यार मेरा दीवाना
भूल कोई हमसे ना हो जाए
रात नशीली मस्त समा है
चूर नशे में सारा जहाँ है
हाय शराबी मौसम बहकाए/रूप तेरा मस्ताना
आँखों से आँखें मिलती हैं जैसे
बेचैन होके तूफ़ाँ में जैसे
मौज कोई साहिल से टकराए/रूप तेरा मस्ताना
रोक रहा है हमको ज़माना
दूर ही रहना पास न आना
कैसे मगर कोई दिल को समझाए/रूप तेरा मस्ताना
ज़ाहिर होगा कि ये गाना काफ़ी दमदार है, अपनी जिन्सी अभिव्यक्ति को लेकर बेबाक। पर एहतियातन नशे की सांस्कृतिक ओट भी ले ली गई है, ज़माना तो जैसे मनाही के अंदाज़ में दस्तक देता ही खड़ा है, और जो हुआ चाहता है नायक-नायिका के बीच, वह तो भूल है ही! अब ज़रा यह ऐलान सुनिए:
भीगे होठ तेरे, प्यासा दिल मेरा
लगे अब्र सा-आ-आ मुझे तन तेरा
जम के बरसा दे मुझ पर घटाएँ
तू ही मेरी प्यास, तू ही मेरा जाम
कभी मेरे साथ कोई रात गुज़ार
तुझे सुबह तक मैं करूँ प्यार (मर्डर)
कुछ और कहना बच जाता है? हमने एक लंबा सफ़र तय किया है, मैंने जिसकी एक झाँकी ही यहाँ पेश की है। अब शायद हमें यह भी समझ में आ रहा होगा कि क्यों सुनहरे युग के श्वेत-श्याम भजननुमा गानों को हिप-हॉप ताल पर ज़्यादा तेज़ धुनों पर, कम कपड़ों में पुनर्प्रस्तुत किया जा रहा है। ये ज़माना उस ज़माने से किसी और तरह से जुड़ सकता था क्या? जाग दर्दे-डिस्को जाग!
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रविकान्त इतिहासकार, लेखक और अनुवादक हैं। वे सराय-सीएसडीएस में मीडिया, टेक्नॉलजी और भाषा के अंतर्संबंधों पर काम करते हैं।
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hatsoff to you Ravi kaa...
जवाब देंहटाएंRegards
Gaurav Kumar.