कविता संग्रह मेरी आवाज -सीमा सचदेव ****************************************************** दो-शब्द भाषा भावों की वाहिका होत...
कविता संग्रह
मेरी आवाज
-सीमा सचदेव
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दो-शब्द
भाषा भावों की वाहिका होती है | अपने काव्य संग्रह
"मेरी आवाज़" में भाषा के माध्यम से एक लघु प्रयास
किया है भावों को व्यक्त करने का जो कभी हमें
खुशी प्रदान करते हैं, तो कभी गम | कभी हमें सोचने पर
मजबूर कर देते हैं और हम अपने आप को असहाय सा
महसूस करते हैं | यह संग्रह अपने माता-पिता को एक छोटा
सा उपहार है जिन्होंने मुझे आवाज दी और "मेरी आवाज"
उभर कर आई | आशा करती हूँ पाठकों को मेरा यह
लघु प्रयास अवश्य पसंद आएगा |
सीमा सचदेव
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मेरी आवाज
अनुक्रम:-
१.वंदना
२.जीवन एक कैनवस
३.हर पल मरती जिन्दगी
४.परछाई
५.माँ (चंद क्षणिकाएँ)
६.आँखें
७.जब तक रहेगा समोसे में आलू
८.हुआ क्या जो रात हुई
९.आँसू
१०.आदर्शवादी
११.समाज के पहरेदार
१२.एक सपना
१३.वह सुंदर नहीं हो सकती
१४.झोंपड़ी में सूर्यदेव
१५.आज का दौर
१६.रक्षा-बंधन
१७.साइकिल
१८.रेत का घरौंदा
१९.आज़ाद भारत की समस्याएँ
२०.किस्मत का खेल
२१.जमाना अब भी वही है
२२.धरती माता
२३.वह मुस्काता सुंदर चेहरा
२४.22वीं सदी में...........?
२५.किरण या साया
२६.चुनाव अभियान
२७.चलो हम भी चलते है
२८.कुत्तो की सभा
२९..टीस
३०. तो अच्छा है...........?
३१.कुत्तों का भोजन
३२.क्या खोया क्या पाया
३३.मन्दिर के द्वार पर
३४.प्यार का उपहार
३५.अन्धों का आइना
३६.हे कविते
३७.अगर हम गीतकार होते
३८.मुझे जीने दो
३९.कौन करता है खुदकुशी......?
४०.हे भगवान
४१.हे भगवान
४२.औरत
४३.चरित्रहीन
४४.बूँद
४५.ऋतुओ की रानी
४६.आन बसो कान्हा
४७.क्षितिज के उस पार
४८.प्यार में तो शूल भी फूल
४९.कविता में सिन्धु
५०.क्या लिखूँ....?
५१.जीवन के रास्ते
५२.मृगतृष्णा
५३.नारी शक्ति
५४.अध्यापक दिवस
५५.कलम है कि रुकती नहीं
५६.सड़क ,आदमी और आसमान
५७.तीसरी आँख
५८.होली
५९.आज़ादी की गुहार( तिब्बती लोगों के लिए)
६०.मुसाफिर*********************************
१.हमको ऐसा वर दो.....
हमको ऐसा वर दो हे माँ वीणा वादिनी,
हम रहें करम में निरत,भक्ति में मस्त;
कार्य सिद्धहस्त, गाएं जीवन की रागिनी|
हमको ऐसा.........................................|
तू सरला, सुफला है माँ,माधुर मधु तेरी वाणी,
विद्या का धन हमको भी दो, हे माँ विद्या दायिनि |
हमको ऐसा....................................................|
हे शारदे, हँसासिनी,वागीश वीणा वादिनी,तुम
ज्ञान की भंडार हो,हे विश्व की सँचालिनि |
हमको ऐसा............................................|
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२.जीवन एक कैनवस
दिन -रात,सुख-दुख ,खुशी -गम
निरन्तर
भरते रहते अपने रंग
बनती -बिगड़ती
उभरती-मिटती तस्वीरों में
समय के साथ
परिपक्व होती लकीरों में
स्याह बालों में
गहराई आँखों में
अनुभव से
परिपूर्ण विचारों में
बदलते
वक़्त के साथ
कभी निखरते
जिसमे
समाए हो
रंग बिरंगे फूल
कभी
धुँधला जाते
जिस पर
जमी हो हालात की धूल
यही
उभरते -मिटते
चित्रों का स्वरूप
देता है सन्देश
कि
जीवन है एक कैनवस
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३.हर पल मरती जिन्दगी
भूख से बेहाल
फटे हाल
नंगा तन
सूने नयन
सूखे हुए
माँस के अन्दर
झांकती खोखली हड्डियाँ
करती है
ब्यान अपने आप में
भुखमरी की दास्तान
...............
...............
कभी न
नसीब हुआ
भरपेट खाना
घास
और पत्तों में
खोजा खजाना
देखा
केवल अभाव
नहीं
किसी से लगाव
न तो
पाली कोई चाहत
न ही
मन में
उठी कोई हसरत
मिली
केवल धिक्कार
नहीं मिला
कोई अधिकार
नोच
लेना चाहता है
हर कोई उसको
झपट
लेना चाहता है
माँस के लोथड़े को
चील की भांति
देखता हर कोई
भूखी निगाहों से
और
वो रह जाता है
बस
अपना सर पटक कर
कि
मैं कोई मरी हुई
माँस की लोथ नहीं
जिस पर
टिकी है लालची निगाहें
उठती है
मेरे मन में भी आहें
मैं हूँ
जिन्दा लाश
जिन्दगी से हताश
करता हूँ
केवल एक
रोटी की बन्दगी
वो भी
नहीं मिलती
बस
हर पल
मरती है जिन्दगी
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४.परछाईं
घूरती हुई क्रूर निगाहें
झपट लेने को लालायित
पसरा केवल स्वार्थ
दुर्विचार, आडम्बर
नहीं बचा इससे कोई घर
बोई थी प्यार की फसल
मिला नफरत का फल
सच्चाई की जमीन को
रौंदता झूठ का हल
मिठास में छिपा
जानलेवा जहर
भूखी निगाहों में लालच का कहर
रह गया केवल अकेलापन
कही भी तो नहीं अपनापन
यह लम्बा सफर काटना अकेले
तंग डगर टेढ़े-मेढ़े रास्ते
न जाने चलना है
इनपर किनके वास्ते
इधर-उधर आजू-बाजू
कोई भी तो नहीं साथ
तन्हाई, सन्नाटा सूनापन
दिन भी लगे काली रात
छाया मन मस्तिष्क पर
घोर अंधकार
मिट चुके सारे विचार
पर अचानक
सन्नाटे को चीरती एक ध्वनि
जैसे बोल उठी हो अवनि
कहाँ हो अकेले.......?
यहाँ तो हर कदम पर मेंले
देखो मेरी गोदी में
और देखो मेरे प्रियतम की छाया
जो बनी रहती है सब पर
नहीं तो देखो अपना ही साया
जो सुख की शीतलता में भले ही
नज़र न आए
पर गम की तीखी धूप में
कभी आगे तो कभी पीछे
हर पल साथ निभाए
नहीं है केवल तन्हाई
तुम्हारे पास है
तुम्हारी अपनी परछाई
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५.माँ (बारह क्षणिकाएँ)
आजकल माँ
बहुत बतियाती है
जब भी फोन करो
आस-पड़ोस की भी बातें सुनाती है
२.
न जाने क्यों लगता है
माँ की आँखें नम है
उसे कहीं न कहीं
कुछ खो देने का गम है
३.
सुबह सबसे पहले उठ कर
सारा काम निपटाती है
मेरी काम वाली आई कि नहीं
इसकी चिन्ता लगाती है
४.
कहती है आजकल
पेट खराब है
और मेरी आवाज़ को
हाजमोला बताती है
५.
लगता है अभी आएगी
ले लेगी मुझे गोदी में
और फिर प्यार से
मेरे सर में उंगलियाँ चलाएगी
६.
कई बार
चुप सी रहती है
मुँह से कुछ नहीं कहती
पर आँखें बहुत कुछ बोलती है
७.
हर रोज
मुझे फोन लगाती है
खाना खाया कि नहीं
याद दिलाती है
८.
अपनी पीड़ा के आँसू
पलकों में छुपा कर
मेरी पीड़ा मुझसे उगलवाती है
९.
खुद तो सारी उम्र
न जाने कितना ही त्याग किया
मेरे छोटे से समझौते को
बलिदान बताती है
१०.
आजकल माँ
सपनो में आकर
मुझे लोरी सुनाती है
हर जख्म को सहलाती है
११
सबसे प्यारी
सबसे अलग
ममता की मूर्ति
माँ तुम ऐसी क्यों हो ?
१२.
माँ आजकल
तुम बहुत याद आती हो
जी चाहता है अभी पहुँच जाऊँ
इतना स्नेह जताती क्यों हो ?
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६.आँखे(चन्द क्षणिकाएँ)
१.
यह नहाई हुई गीली पलकें
कराती है अहसास कि
इनके पीछे है
विशाल सिन्धु
खारा जल
जो नहीं कर सकता तृप्त
नहीं बुझती इससे प्यास
यह तो बस बहता है
धार बन कर बेप्रवाह
२.
आज तृप्त है चक्षु
पिघला कर
उस चट्टान सरीखी ग्रन्थि को
जो न जाने कब से
पड़ी थी बोझ बन कर मन पर
३.
आज जुबान बन्द है
बस बोलते है नयन
सारे के सारे शब्द बह गए
अश्रु बन कर
कर गए प्रदान अपार शान्ति
४.
आज से पहले आँखों में
इतनी चमक न थी
इससे पहले यह ऐसे नहाई न थी
५.
आज पहली बार
अपना स्वाद बदला है
नमकीन अश्रुजल पीने की आदत थी
इनको बहा कर अमृत रस चखा है
६.
नेत्रों में चमकते
सीप में मोती सरीखे आँसू
ओस की बूँद की भांति
गिरते सूने आँचल में
उद् जाते खुले गगन में
कर जाते कितना ही बोझ हल्का
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७.जब रहेगा समोसे में आलू
रात को सोते हुए
अजीब सा ख्याल कौंध आया
और मैंने .................
मिनी स्कर्ट पहने हीर को रोते हुए पाया
मैंने पूछा ! यह अश्रुजल क्यों है तुम्हारी आँखों में?
तुम तो एक हो लाखों में
तुम्हें प्यार तो दुनिया भर का मिला है
तुम को तो प्यार की दुनिया में
अच्छा ख़ासा नाम भी मिला है
अमर हो तुम दोनों सदा के लिए
मरे इक्कठे , जिए इक्कठे जिए
अब तुमको कोई अलग नहीं कर सकता है
फिर क्यों रोती हो तुम ?
तुम्हारा प्यार कभी नहीं मर सकता
हीर बोली! बहन तुम सच्च कहती हो
पर मैं पूछती हूँ तुमसे,
किस दुनिया में रहती हो ?
मैंने जब पूछा था रांझा से.......
तुम्हें मुझसे प्यार है कितना?
बोला था सर उठाकर गर्व से....
समोसे में आलू की उम्र के जितना
मैंने कहा ! हाँ सुना तो है मैंने भी
कुछ ऐसा ही गाना
पर मुझे आता नहीं गुन-गुनाना
उसका भी भाव तो कुछ ऐसा ही था
और उसमें भी आलू और समोसा ही था
हीर झल्ला कर बोली...........
सुना है तो पूछती क्यों हो?
दुखती रग पर हाथ रखती क्यों हो?
मेरी समझ में कुछ ना आया
और फिर से हिम्मत करके मैंने हीर को बुलाया
इस बार हीर को गुस्सा आया
फिर भी उसने मेरी तरफ सर घुमाया
मैंने कहा ! आलू और समोसे का गाने में
केवल शब्दों का सुमेल बनाया
परन्तु मेरी समझ में अभी तक यह नहीं आया
कि तुम्हारे नेत्रों में अश्रुजल क्यों भर आया?
अब हीर लगी फूट-फूट कर रोने
और आँसू से अपने सुन्दर मुख को धोने
अपने रोने का कारण उसने कुछ यह बताया
बहन आज हमने एक रेस्टोरेंट में समोसा ख़ाया
हलवाई ने समोसा बिना आलू के बनाया
और तब से रांझा मुझे नज़र नहीं आया
कदम की आहट से हमने सर घुमाया
मॉडल के साथ ब्रांडेड जींस पहने
रांझा को खड़ा पाया
अब मुझे भी थोड़ा गुस्सा आया
और रांझा को मैंने भी कह सुनाया
प्रेमिका को रुलाते हो
, तुम्हें शर्म नहीं आती
एक को छोड़ कर दूसरी को घुमाते हो
यह बात तुम्हें नहीं भाती
कैसी शर्म ? रांझा बोला .........
मैं आदमी नहीं हूँ चालू
मैंने कहा था हीर से........
मैं तब तक हूँ तेरा ,
जब तक है समोसे में आलू
जब आलू के बिना समोसा है बन सकता
तो मैं अपनी हीर क्यूं नहीं बदल सकता ?
यह समोसे कि नई तकनीक ने है कमाल दिखाया
और मुझे अपनी नई हीर से मिलाया
इतने में बाहर के शोर ने मुझे जगाया
और सामने सच में
ऐसी हीरों और रांझों को पाया
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पूछना है मुझे ऐसे प्यार के परिंदों से
कुछ ऐसे ही सामाजिक दरिंदों से
क्या यही रह गई है भारत कि सभ्यता?
और क्या यही है प्यार की गाथा ?
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८. हुआ क्या जो रात हुई
हुआ क्या जो रात हुई,
नई कौन सी बात हुई |
दिन को ले गई सुख की आँधी,
दुखों की बरसात हुई |
पर क्या दुख केवल दुख है,
बरसात भी तो अनुपम सुख है |
बढ़ जाती है गरिमा दुख की,
जब सुख की चलती है आँधी |
पर क्या बरसात के आने पर,
कहीं टिक पाती है आँधी|
आँधी एक हवा का झोंका,
वर्षा निर्मल जल देती |
आँधी करती मैला आँगन,
तो वर्षा पावन कर देती |
आँधी करती सब उथल-पुथल,
वर्षा देती हरियाला तल |
दिन है सुख तो दुख है रात,
सुख आँधी तो दुख है बरसात |
दिन रात यूँ ही चलते रहते ,
थक गये हम तो कहते-कहते |
पर ख़त्म नहीं ये बात हुई,
हुआ क्या जो रात हुई |
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९.आँसू
आँसू इक धारा निर्मल,
बह जाता जिसमें सारा मल|
धो देते हैं आँसू मन,
कर देते हैं मन को पावन |
हो जाते हैं जब नेत्र सजल,
भर जाती इनमें अजब चमक |
बह जाएँ तो भाव बहाते हैं,
न बहें तो वाणी बन जाते हैं |
उस वाणी का नहीं कोई मोल,
देती ह्रदय के भेद खोल |
उस भेद को जो न छिपाता है,
वह कलाकार कहलाता है |
उस कला को देख जो रोते हैं ,
अरे, वही तो आँसू होते हैं |
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१०.आदर्शवादी
अक्सिक्यूटिव चेयर पर बैठे हुए जनाब हैं
उनके आदर्शों का न कोई जवाब है
ऐनक लगी आँखों पर, ऊंचे -ऊंचे ख्वाब हैं
ऊपर से मीठे पर अंदर से तेज़ाब हैं
बात उनको किसी की भी भाती नहीं
शर्म उनको ज़रा सी भी आती नहीं
दूसरों के लिए बनाते हैं अनुशासन
स्वयं नहीं करते हैं कभी भी पालन
इच्छा से उनकी बदल जाते हैं नियम
बनाए होते हैं उन्होंने जो स्वयं
इच्छा के आगे न चलती किसी की
भले ही चली जाए जिंदगी किसी की
स्वार्थ के लोभी ये लालच के मारे
करें क्या ये होते हैं बेबस बेचारे
मार देते हैं ये अपनी आत्मा स्वयं ही
यही बन जाते हैं उनके जीवन करम ही
गिरते हैं ये रोज अपनी नज़र में
हर रोज,हर पल,हर एक भंवर में
आवाज़ मन की ये सुनते नहीं
परवाह ये रब्ब की भी करते नहीं
आदर्शवाद का ये ढोल पीटते हैं
जीवन में आदर्शों को पीटते हैं
जीवन के मूल्यों को करते हैं घायल
जनाब इन घायलों के होते हैं कायल
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११.समाज के पहरेदार
समाज के पहरेदार ही,
लूटते हैं समाज को |
करते हैं बदनाम फिर ,
रीति रिवाज को |
कुरीतिओं को यही लोग,
देते हैं दस्तक |
हो जाते हैं जिसके आगे,
सभी नतमस्तक |
झूठी शानो शौकत का,
करते हैं दिखावा |
पहना देते हैं फिर उसको,
रंगदार पहनावा |
अधर्मी बना देते ये फिर,
धरम के ठेकेदार को |
समाज के....................................................
लोगों के बीच करते हैं,
बड़े बड़े भाषण |
दूसरों को बता देते हैं,
सामाजिक अनुशासन |
अपनी बारी भूलते हैं,
सब क़ायदे क़ानून |
इन्हीं में झूठी रस्मों का ,
होता है जुनून |
ताक पर रख देते हैं,
ये शर्म औ लाज को |
समाज के.............................................
लालची हैं भेड़िए हैं,
भूखे हैं ताज के |
किस बात के पहरेदार हैं ,
ये किस समाज के |
अंदर कुछ और बाहर कुछ,
क्या यही सामाजिक नीति है?
लानत है कुछ और नहीं,
क्या रिवाज क्या रीति है |
क्या है क़ानून ?जो दे सज़ा,
ऐसे दगाबाज़ को |
समाज के................
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१२.एक सपना
कल रात को मैंने
एक सपना देखा
भीड़ भरे बाज़ार में
नहीं कोई अपना देखा
मैंने देखा
एक घर की छत के नीचे
कितनी अशांति
कितना दुख
और
कितनी सोच
मैंने देखा
चेहरे पे चेहरा
लगाते हैं लोग
ऊपर से हँसते
पर अंदर से
रोते हैं लोग
भूख, लाचारी, बीमारी, बेकारी
यही विषय है बात का
आँख खुली
तो देखा
यह सत्य है
सपना नहीं रात का
वास्तव में देखो
तो यह कहानी
घर-घर में
दोहराई जाती है
कोई बेटी जलती है तो
कोई बहु जलाई जाती है
कितनों के सुहाग उजड़ते रोज
तो कई उजाड़े जाते है
यह सब करके
भी बतलाओ
क्या लोग शांति पाते हैं ?
कितनी सुहागिनें हुई विधवा
कितने बच्चे अनाथ हुए
कितना दुख पाया जीवन में
और ज़ुल्म सबके साथ हुए
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१३.वह सुंदर नहीं हो सकती
अपनी ही सोचों में गुम
एक
मध्मय-वर्गीय परिवार की लड़की
सुशील
गुणवती
पढ़ी-लिखी
कमाऊ-घरेलू
होशियार
संस्कारी
ईश्वर में आस्था
तीखा नाक
नुकीली आँखें
चौड़ा माथा
लंबा कद
दुबली-पतली
गोरा-रंग
छोटा परिवार
अच्छा खानदान
शोहरत
इज़्ज़त
जवानी
सब कुछ............
सब कुछ तो है उसके पास
परंतु
परंतु, वह सुंदर नहीं हो सकती
क्यों?
क्योंकि............
उसके चेहरे पर निशान है
वक्त और हालात के थपेड़ों के
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१४.झोंपड़ी में सूर्य-देवता
पुल के नीचे
सड़क के बाजू में
तीलों की झोंपड़ी के अंदर
खेलते..............
दो बूढ़े बच्चे
एक नग्न और
दूजा अर्ध-नग्न
दीन-दुनिया से बेख़बर
ललचाई नज़रों से
देखते.........
फल वाले को
आने-जाने वाले को
हाथ फैलाते.....
कुछ भी पाने को
फल,कपड़े,जूठन,खाना
कुछ भी.........
सरकारी नल उनका
गुस्लखाना
और रेलवे -लाइन.....पाखाना
चेहरे पर उनके केवल अभाव
सर्दी-गर्मी का उन पर
नहीं कोई प्रभाव
अकेले हैं बिल्कुल
कुछ भी तो नहीं
उनके अपने पास
नहीं करते वे किसी से
हँस कर बात
और झोंपड़ी से
झाँकता सूर्य देवता
मानो दिला रहा हो
अहसास........
कोई हो न हो
लेकिन
मैं तो हूँ
और हमेशा रहूँगा
तुम्हारे साथ
तब तक.............
जब तक है
तुम्हारा जीवन
यह झोंपड़ी
और ग़रीबी का नंगा नाच
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१५.आज का दौर
आजकल रहती है सबको ही टेंशन
बी पी लो हो जाता है, लगते हैं इंजेक्शन
कोई कहता लड़ना है मुझको इलेक्शन
कोई कहता लग जाएगी इस साल पेंशन
किसी को है ख़याल चला है कौन सा फैशन ?
कौन सी पहनूं ड्रेस? लेते हैं सजेशन
कोई कहता पहनूंगा मैं जूते एक्शन
किसी को है चिंता कैसे बनें रिएक्शन?
कोई रह सोचों में, कैसे बनें रिलेशन?
कोई कहे किसको कितनी दी जाए डोनेशन?
कोई कहे इस वर्ष कैसे होगा एडमिशन?
और कोई कहे हमने तो पूरा करना है मिशन
पर मैं कहूँ सब ठीक ही है डोंट मेंशन
************************
१६.रक्षा- बंधन
एक बार रक्षा-बंधन के त्योहार में,
बहन भाई से बोली बड़े प्यार में
मेरी रक्षा करना तुम्हारा फ़र्ज़ है
क्योंकि तुम पर इस
रेशम की डोरी का क़र्ज़ है
भाई भी मुस्कुरा कर बोला
बहन के सिर पर हाथ रख कर
तुम्हारी इज़्ज़त की रक्षा करूँगा मैं
अपनी जान हथेली पर रखकर
यह सुना बहन ने तो बोली
थोड़ा सा सकुचा कर
यह इक्कीसवीं सदी का
जमाना है भाई
अपनी इज़्ज़त की रक्षा
तो मैं खुद कर सकती हूँ
मुझे तुम्हारी जान नहीं
पैसा ही नज़राना है भाई
अगर बहन की इज़्ज़त चाहिए तो
कलर टी. वी मेरे घर पहुंचा देना
इस बार तो इतना ही काफ़ी है
फिर
स्कूटर तैयार रख लेना
वी.सी.डी. भी दो तो चलेगा
फिर मेरे रूम में
ए.सी. भी लगवाना पड़ेगा
अगर बहन की इज़्ज़त है प्यारी
तो मुझे फ्रिज भी देना
स्टोव नहीं जलता मुझसे
इस लिए गैस-चूल्हा भी देना
डाइनिंग टेबल, सोफा-सेट,अलमारी
वग़ैरह तो छोटा सामान है
वह तो खैर तुम दोगे ही
इसी में ही तुम्हारी शान है
रक्षा-बंधन में ही तो झलकता है
भाई बहन का प्यार
यह त्योहार भाई -बहन का
आता क्यों नहीं वर्ष में चार बार
भाई बोला कुछ मुँह लटका कर
यह है भाई-बहन के प्यार का उजाला
एक ही रक्षा-बंधन (के त्योहार) ने
मेरा निकाल दिया है दीवाला
मैं कहती हूँ हाथ जोड़ कर
घायल न इसको कीजिए
भाई बहन के
पावन त्योहार को
पावन ही रहने दीजिए
पावन ही रहने दीजिए
***************************
१७.साइकिल
आज मेरे पौने दो साल के
बेटे ने जब
साइकिल की
ज़िद्द मारी
तो याद आई मुझे
वह अपनी
प्यारी सी लारी
दो पहियों की साइकिल पे
घूमना - घुमाना
वो मस्ती मनाना
न सुनना - सुनाना
सड़क के बीचों - बीच
कॉलेज को जाना
वो वाहनों का पीछे से
हॉर्न बजाना
साइकिल चलाते हुए गुन - गुनाना
सस्ती सी , अच्छी सी और
टिकाउ सवारी
सच्च में
साइकिल जैसी
नहीं कोई लारी
फिर आया हमारा वह
मोपेड का ज़माना
अपनी पॉकेट मनी को
पेट्रोल में लुटाना
और फिर बनाना
कोई
अच्छा सा बहाना
पर साइकिल तो साइकिल है
तब हम चलाते थे
लोहे का साइकिल
अब हम चलाते हैं
ज़िंदगी की साइकिल
सच्च में
सुख और दुख
ज़िंदगी की दो पहियों वाली
साइकिल ही तो है
ख़ुशी और ग़म
इस साइकिल की
ब्रेक हैं ...................
दो पहियों की साइकिल तो
चलती ही रहती
साइकिल जैसी
नहीं कोई
दूजी सवारी
मुझे सच्च में
साइकिल लगे प्यारी - प्यारी
साइकिल से गिर कर
चोट का
मेरी आँख पर
अब भी निशान है
लेकिन सच्च कहूँ तो
साइकिल चलाना
मेरा
अब भी अरमान है
**********************
१८.रेत का घरौंदा
देखी तस्वीर तो
मुझे याद आया
अपना बचपन
जो............
बन गया था
साया
हम भी रेत के
घरौंदे बनाते थे कभी
रेत पैरों पे अपने
थप - थापाते थे कभी
आराम से फिर .....
घरौंदे से पैर
को निकालना
और
प्यार से अपने
घर को संवारना
खेल ही खेल में
कुछ .................
पता न चला
और
प्यार का घरौंदा
एक बन ही गया
वह रेत का
घरौंदा
तो टूट ही गया
पर प्यारी सी यादें
वह छोड़ गया
वह तो एक
रेत का घरौंदा ही था
अपने पैरों से
जिसे हमने
रौंदा ही था
पर
दुआ करती हूँ
कभी ..........
प्यार का घरौंदा न टूटे
मानवता से प्यार का रिश्ता
कभी न छूटे
घरौंदा रेत का तो
फिर भी कभी
बन जाएगा
पर प्यार का घरौंदा
गर टूट गया
वह फिर न
कभी भी
बन पाएगा
*****************************
१९. आज़ाद भारत की समस्याएँ
भारत की आज़ादी को वीरों ,
ने दिया है लाल रंग |
वह लाल रंग क्यों बन रहा है ,
मानवता का काल रंग |
आज़ादी हमने ली थी,
समस्याएँ मिटाने के लिए |
सब ख़ुश रहें जी भर जियें,
जीवन है जीने के लिए |
पर आज सुरसा की तरह ,
मुँह खोले समस्याएँ खड़ी |
और हर तरफ़ चट्टान बन कर,
मार्ग में हैं ये आड़ी |
अब कहाँ हनु शक्ति,
जो इस सुरसा का मुँह बंद करे |
और वीरों की शहीदी ,
में नये वह रंग भरे |
भुखमरी ,बीमारी, बेकारी ,
यहाँ घर कर रही |
ये वही भारत भूमि है,
जो चिड़िया सोने की रही |
विद्या की देवी भारती,
जो ज्ञान का भंडार है |
अब उसी भारत धरा पर,
अनपढ़ता का प्रसार है |
ज्ञान औ विज्ञान जग में,
भारत ने ही है दिया |
वेदों की वाणी अमर वाणी,
को लूटा हमने दिया |
वचन की खातिर जहाँ पर,
राज्य छोड़े जाते थे |
प्राण बेशक त्याग दें,
पर प्रण न तोड़े जाते थे |
वहीं झूठ ,लालच ,स्वार्थ का है,
राज्य फैला जा रहा |
और लालची बन आदमी ,
बस वहशी बनता जा रहा |
थोड़े से पैसे के लिए,
बहू को जलाया जाता है |
माँ के द्वारा आज सुत का,
मोल लगाया जाता है |
जहाँ बेटियों को देवियों के,
सदृश पूजा जाता था |
पुत्री धन पा कर मनुज ,
बस धन्य -धन्य हो जाता था |
वहीं पुत्री को अब जन्म से,
पहले ही मारा जाता है |
माँ -बाप से बेटी का वध,
कैसे सहारा जाता है ?
राजनीति भी जहाँ की,
विश्व में आदर्श थी |
राम राज्य में जहाँ
जनता सदा ही हर्ष थी |
ऐसा राम राज्य जिसमे,
सबसे उचित व्यवहार था |
न कोई छोटा न बड़ा ,
न कोई अत्याचार था |
न जाति -पांति न किसी,
कुप्रथा का बोलबाला था,
न चोरी -लाचारी , जहां पर,
रात भी उजाला था |
आज उसी भारत में ,
भ्रष्टाचार का बोलबाला है |
रात्रि तो क्या अब यहाँ पर,
दिन भी काला काला है |
हो गई वह राजनीति ,
भी भ्रष्ट इस देश में |
राज्य था जिसने किया ,
बस सत्य के ही वेश में |
मज़हब ,धर्म के नाम पर,
अब सिर भी फोड़े जाते हैं |
मस्जिद कहीं टूटी ,कहीं,
मंदिर ही तोड़े जाते हैं |
अब धर्म के नाम पर,
आतंक फैला देश में |
स्वार्थी कुछ तत्व ऐसे,
घूमते हर वेश में|
आदमी ही आदमी का,
ख़ून पीता जा रहा |
प्यार का बंधन यहाँ पर,
तनिक भी तो न रहा |
कुदरत की संपदा का भारत,
वह अपार भंडार था |
कण-कण में सुंदरता का ,
चाहूं ओर ही प्रसार था |
बख़्शा नहीं है उसको भी,
हम नष्ट उसको कर रहे |
स्वार्थ वश हो आज हम,
नियम प्रकृति के तोड़ते |
कुदरत भी अपनी लीला अब,
दिखला रही विनाश की |
ऐसा लगे ज्यों धरती पर,
चद्दर बिछी हो लाश की |
कहीं बाढ़ तो कहीं पानी को भी,
तरसते फिरते हैं लोग |
भूकंप, सूनामी कहीं वर्षा हैं,
मानवता के रोग |
ये समस्याएँ तो इतनी,
कि ख़त्म होती नहीं |
पर दुख तो है इस बात का,
इक आँख भी रोती नहीं |
हम ढूंढते उस शक्ति को,
जो भारत का उधार करे |
ओर भारतीय ख़ुशहाल हों,
भारत के बन कर ही रहें |
**************************
२०.किस्मत का खेल
किस्मत का खेल निराला है ,
कहाँ कब क्या होने वाला है?
यही बात समझ में आ जाए,
तम घोर भी फिर उजाला है |
किस्मत का धनी कहलाता है,
जो सब कुछ ही पा जाता है |
दौलत ,शोहरत ,पदवी औ खुशी,
सचमुच जीवन में वही सुखी |
हर कदम पे सफल जो होता है
,और चैन की नींद जो सोता है |
जो चाहे वो सब कुछ पाता है,
गम भी हँस के अपनाता है |
गैरों के गम अपना लेना,
हँस-हँस के जीवन जी लेना |
नफ़रत की जगह नहीं होती,
और प्यार जिसे दुनिया करती |
ऐसे लोग कभी भी नहीं मरते,
मर कर भी जिंदा हैं रहते |
सचमुच है वह किस्मत वाला,
पिया जिसने अमृत का प्याला |
बिन कर्म के किस्मत सो जाती,
गुमनामी में ही खो जाती |
तदबीर चाबी, तकदीर ताला ,
इसे खोले कोई किस्मत वाला |
*************************
२१. जमाना अब भी वही है
वर्षों से सुनते आ रहे हैं
दादा-दादी,नाना-नानी,माँ-बाप
और
अब कहते हैं
अपने बच्चों से
कि
जमाना बदल गया है
बदल गई है
वो तस्वीर,
वो सोच,
वो रहन-सहन,
वो ख़ान-पान,
वो दोस्त,
वो सभ्यता,
वो संस्कृति,
वो रीति-रिवाज़
सब कुछ.............
सब कुछ वैसा नहीं ,
जैसा था.............
जमाना बदल गया है |
लेकिन...............
लेकिन आज
रास्ते में चलते
एक गली के अंदर
सरकारी प्राइमरी स्कूल
की टूटी हुई इमारत
इमारत के बाहर
वही छोटी सी दुकान
थोड़े से बेर,
बर्फ का गोला,
थोड़ी सी टॉफियाँ
वो नंगे पाँव
अर्धनग्न बच्चे
और बच्चों का झगड़ा
चीख-चीख कर
कर गये बयान कुछ इस तरह
अरे, पीछे मुड़कर देखो
कुछ भी तो नहीं बदला
देखो....................
वो ग़रीबी
वो बेकारी
वो दर्द
वो झगड़े
वो नफ़रत
वो लालच
वो भूख
---------------
---------------
---------------
सब कुछ बिल्कुल वैसा ही
और भी देखो...........
वो प्यार
वो सभ्यता
वो संस्कार
वो माहौल
वो माँ की ममता
वो बाप का स्नेह
वो रीति-रिवाज़
वो दिन-त्योहार
वो खुशी-गम
वो सुख-दुख
सब कुछ बिल्कुल वैसा ही
कुछ बदला..............?
कुछ बदला है तो तुम
केवल तुम..........
तुम्हारा रहन-सहन
तुम्हारा माहौल
तुम्हारी सोच
बस दूर हो गये हो हम सबसे
केवल तुम...............
तुम ही बढ़ गये आगे
और
नहीं देखा कभी
पीछे मुड़कर
केवल तुम ही छोड़ चले
वो गलियाँ
वो लोग
वो माहौल
देखने लगे आगे
और बढ़ते गये
अपनी ही धुन में
नहीं देखा..............
नहीं देखा कभी
कोई पीछे है तुम्हारे
और वो भी...............
उसी पथ के राही है
जहाँ से तुम गुज़रे हो कभी
और
तुम्हारे पीछे है
लंबी पंक्ति..................
जिसका कोई अंत नहीं
देखो कभी पीछे मुड़कर
और देखो......................
नज़र की गहराई से
तो पाओगे
सब कुछ बिल्कुल वैसा ही
जैसा............
पीछे छोड़ गये हो तुम
कुछ भी नहीं बदला
जमाना अब भी वही है |
******************************
२२.. धरती माता
धरती हमारी माता है,
माता को प्रणाम करो |
बनी रहे इसकी सुंदरता,
ऐसा भी कुछ काम करो |
आओ हम सब मिलजुल कर,
इस धरती को ही स्वर्ग बना दें |
देकर सुंदर रूप धरा को ,
कुरूपता को दूर भगा दें |
नैतिक ज़िम्मेदारी समझ कर,
नैतिकता से काम करें |
गंदगी फैला भूमि पर
माँ को न बदनाम करें |
माँ तो है हम सब की रक्षक
हम इसके क्यों बन रहे भक्षक
जन्म भूमि है पावन भूमि,
बन जाएँ इसके संरक्षक |
कुदरत ने जो दिया धरा को
उसका सब सम्मान करो |
न छेड़ो इन उपहारों को,
न कोई बुराई का काम करो |
धरती हमारी माता है,
माता को प्रणाम करो |
बनी रहे इसकी सुंदरता,
ऐसा भी कुछ काम करो |
*****************************
२३. वह मुस्काता सुंदर चेहरा
वह मुस्काता सुंदर चेहरा
मेरी आँखों में घूमता है
जब याद सताती है दिल को
कोई गूँज़ बताती चुपके से
तुम पा गई हो उस मंज़िल को
जहाँ तेरा-मेरा मेल नहीं
जीना मरना कोई खेल नहीं
तब न जाने किस कोने से
इक मधुर राग सा गूँजता है
वह मुस्काता......................
जब मिलने कि उत्सुक आँखें
अश्रु जल से भर जाती हैं
तब चीस निकलती सीने से
आँखों से आँसू गिरते हैं
और दिल भी रोने लगता है
वह मुस्काता सुंदर चेहरा
मेरी आँखों में घूमता है
*******************************
२४. 22वीं सदी में...........?
आज मैंने इक बड़े शहर को
और लोगों की खूब भीड़ को
पानी के लिए तरसते पाया
इक-दूजे पे बरसते पाया
आज हम पानी का भरते पैसा
मोल है उसका दूध के जैसा
उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार
चाहिए तुम्हें जैसा आकार
न जाने क्यों ख्याल ये आया?
कैसा होगा भविष्य का साया?
सौ साल आगे दिमाग़ घुमाया
तो कुछ इस तरह का पाया
हम सब दिखे कुली के जैसे
चलते फिरते मरीजों जैसे
पीठ पे रखे हरदम भार
आक्सीजन का भरा सिलेंडर
ले रहे थे हम हवा भी मोल
देता दुकानदार था तोल
उसमें भी कुछ थी वैरायटी
भिन्न-भिन्न जैसे है माटी
आया से पूछते बच्चे ऐसे
मेरे माता-पिता हैं कैसे?
क्या वो इस फोटो के जैसे?
या आंटी-अंकल के जैसे?
भीड़ में हम सब थे अकेले
तन्हाइयों के लगे थे मेंले
नहीं ये सब थे घर के झमेले
जहाँ पे चाहा वहीं वहाँ पे रहले
शादी तो इतिहास ही लगा
रिश्ता भी बकवास ही लगा
कौन है भाई ,कौन है बहना?
किसको माता-पिता है कहना?
पैदल हम नहीं चल रहे थे
भीड़ में ही हम खो गये थे
वायुयान में ही करते सवारी
नहीं दिखी कोई छोटी लारी
चाँद पे करते सुबह की सैर
वहाँ पे रख सकें हम पैर
वहाँ पर भी तो भीड़ ही देखी
और ऐसी गंदगी भी देखी
पशु भी देखे बैठे चाँद पर
नहीं उनकी थी जगह ज़मीं पर
परिंदों ने ढूँढा नया ठिकाना
चाँद से सूर्य पे आना-जाना
कोई भी अपना नहीं दिखा था
क्या भारत भी ऐसा होगा?
तब हम यहाँ से न देखेंगे
ऊपर से दीदार करेंगे
**************************
२५. किरण या साया
आज पहली बार
मैंने देखा ध्यान से
अपने आगे चलती परछाई को
तो मन में सोचा
ये काला साया
क्यों मेरे रास्ते में आया ?
क्या ये अंधेरे की भाँति,
सदा रहेगा मेरे सम्मुख?
कभी नहीं बदलेगा ,
यह अपना रुख़ ?
पीछे से सूर्य की तेज़ किरण
पड़ी मेरे सिर पर
और लगा
दिला रही है अहसास मुझे
मेरे सिर पर हाथ रख कर
देखो.................
मेरी तरफ देखो
मैं काला साया नहीं
किरण हूँ रोशनी की
मैं सदा साफ रखूँगी
तुम्हारा मार्ग
अगर देखोगी तुम मेरी तरफ़
मेरे स्वामी.....सूर्य की तरफ
................................
..................................
सूर्य तो तुम्हारे सामने
रोशनी ले आएगा
पर ये साया..........
ये साया तुम्हें केवल
अंधेरा ही दिखाएगा
अगर देखोगी तुम साए को
तो...................
रोशनी और अपने बीच
इस अंधेरे को पाओगी
और...............
रोशनी तक कभी नहीं पहुँच पाओगी
लेकिन..............
अगर मेरी तरफ
अपना मुँह घुमाओगी
तो इसी साए को
अपने पीछे भागता पाओगी
अब यह तुम सोचो
कि तुम
कुत्ते कि तरह साया चाटोगी
या फिर....................
मेरा साथ चाहोगी
मैं तोड़ा सा हिच किचाई
सोचा????????????
तो समझदारी मुझे
रोशनी की किरण में नज़र आई
बस............
मैंने उसी तरफ अपना सिर घुमाया
और तब
उस काले साए को
अपने पीछे आते पाया
************************************
२६.चुनाव अभियान
जैसे ही चुनाव आयोग ने
चुनाव आचार सन्हिता का बिगुल बजाया
तो नेता जी के शैतानी दिमाग ने
अपना अलग रास्ता बनाया
और नेता जी को समझाया
अब छोड़ो मेरा साथ ,मेरा कहना
और कुछ दिन केवल दिल के अधीन ही रहना
नेता जी जो कभी-कभी कविता लिखने का शौक फर्माते हैं
और कभी-कभी अपने दिमाग के कारण
समीक्षक भी कहलाते हैं
वही दिमाग अब नेता जी को समझाता है
अरे चुनाव अभियान में
समीक्षक नहीं
कवि ही काम आता है
कवि हो तो उसका फायदा क्यों नहीं उठाते ?
कुछ ऐसे नारे क्यों नहीं बनाते
जिसमे हो कुछ झूठे वादे, कसमें और नारे
जिसमे फंस जाये भोले-भाले लोग बेचारे
बस कुछ दिन में तो चुनाव खतम हो जायेगी
और तेरी-मेरी फिर से मुलाकात हो जायेगी
फिर हम दोनों मिलकर करेंगे राज
और करेंगे इन दिल के मरीजों को नजरन्दाज
नेता जी घबराये और बोले
तेरे बिना मैं क्या कर पाऊँगा?
यो ही दिल के हाथों मर जाऊंगा
अरे! मेरे होते तू क्यों घबराता है?
नेता का दिल भी तो उसका दिमाग ही चलाता है
बस फरक सिर्फ इतना है
कि दिल को थोड़े दिन
रखना है दिमाग से आगे
और देखना लोग आएंगे
तुम्हारे पीछे भागे-भागे
बस उनको दिल की बातों से बस में है करना
और दिमाग से है नामांकन भरना
होगा तो वही जो तुम चाहोगे
पहले भी लोगों को मूरख बनाया
आगे भी बनाओगे
जीतोगे और तुम्हें सम्मान भी मिल जायेगा
और
लोगों की मूर्खता का प्रमाण मिल जायेगा
______________________________
_________________________________
___________________________________
लेकिन
इस बार तो नेता जी के दिमाग ने धोखा खाया
लोगों ने अपना दिमाग चलाया
और
नेता जी को बाहर का रास्ता दिखाया
नेता जी,
जो स्वयम् को समझते थे
समाज का आईना
अब स्वयम को समाज के आईने में पाया
*****************************
२७..कुत्तों की सभा
कुत्तों ने इक सभा बुलाई
सबने अपनी समस्या सुनाई
सुन रहा कुत्तों का सरदार
हर समस्या पे होगा विचार
समस्या अपनी लिख कर दे दो
कोई एक फिर उसको पढ़ दो
हर समस्या का हल ढूंढेंगे
जो भी होगा सब करेंगे
आई समस्याएँ कुछ ऐसी
चलते फिरते मानव जैसी
समस्या आई नम्बर वन
भौंक के बीत गया यह जीवन
भौंकने में थे बड़ी मिसाल
पर नेता ने समझ ली चाल
भौन्कता है वो हमसे ज्यादा
हमें फेल करने का इरादा
समस्या नम्बर आई दो
सुनाई कुत्ते ने रो-रो
अब तो कोई करो इन्साफ
कर दो मेरी गलती माफ
मैंने इक हड्डी थी उठाई
गली में लावारिस थी पाई
उठा कर क्या गलती की मैंने
अब तक मुझको मिलते ताने
पानी में दिख गई परछाई
मैंने समझा मेरा भाई
भाई समझ कर मैं था भौंका
लोगों को बस मिल गया मौका
लालची कहकर लगे चिढ़ाने
बच्चों को शिक्षा के बहाने
सबने मुझको लालची कह दिया
मैंने मुकदमा दायर कर दिया
तब तो था मुझमें भी जोश
पर अब उड़ गए मेरे होश
नहीं और मैं लड़ सकता हूँ
न समझौता कर सकता हूँ
लालची सुनकर पक गया हूँ
अब मैं सचमुच थक गया हूँ
दिख गई मेरी एक ही हड्डी
पर खाते जो रोज सब्सिडी
उनको कोई लालची नहीं कहता
उनका चेहरा कभी न दिखता
कहते-कहते भर आया मन
कुत्ते के गिर गए अश्रु कण
पानी पिलाकर चुप कराया
अब तीसरी समस्या को लाया
उठते मेरी दुम पे स्वाल
कैसे है लोगों के ख्याल
बोले कभी सीधी नहीं होती
बारह साल दबाओ धरती
जो मेरी दुम सीधी होगी
तो क्या जगह को साफ करेगी
बताओ फिर यह कैसे हिलेगी ?
हिलाए बिना न रोटी मिलेगी
मेरी दुम के पीछे पड़े हैं
किस्से करते बडे बडे हैं
पर नहीं सीधे होते आप
टेढ़े हर दम करते पाप
अब सुनो समस्या फोर
कहते मुझको पकड़ो चोर
बताओ मैं किस-किस को पकडूँ
किस-किस को दाँतों में जकडूँ
मुझे तो दिखते सारे ही चोर
कहाँ-कहाँ मचाऊँ मैं शोर
समस्या नम्बर आई फाईव
देखो समाचार यह लाईव
हुई है नई कम्पनी लाँच
बाँध के रखे है कुत्ते पाँच
कहते है कुत्ते हैं वफादार
बाँधो इन्हें बिल्डिन्ग के द्वार
अन्दर बैठे धोखेबाज
कैसे -कैसे है जालसाज
भौन्के जब उन दगाबाज पे
तो बन जाए उनकी जान पे
अब आई है समस्या सिक्स
कैसे हो जाएँ सबमें मिक्स
बस करो ! सरदार चिल्लाया
गुस्से में फरमान सुनाया
पीले से मैं हो गया काला
लगा न तेरे मुँह पे ताला
झट से अपना बुलाया सहायक
यह सारे तो है नालायक
तुम एक सॉफ्टवेयर बनवाओ
सारा डाटा फीड कराओ
फिर हम उसमें सर्च करेंगे
समस्याओं का हल ढूँढेंगे
मेरे पास कभी न आना
पर जब चाहो मेल लगाना
मिनटों में हल होगी समस्या
नहीं करोगे कोई तपस्या
इक सी.सी.टी.वी. लगवाओ
मेरे केबिन में फिट कराओ
नज़र मैं अब हर पल रखूँगा
सबसे ही इन्साफ करूँगा
जो हुआ ! उसको जाने दो
क्षमा अब नादानों को करदो
पर आगे से रहे ध्यान
कुत्तों का न हो अपमान
ऐसी कोई गलती न करना
मेरे सम्मुख कभी न रोना
************************
२८.चलो हम भी चलते है.......?
जीवन रूपी
रथ के पहिए
हालात से जख्मी ,
लहू से
लथपथ नंगे पैर
चलते है
संसार रूपी सागर के किनारे
हालात के
बिछे बालू पर
छोड़ते हैं
अपने कदमों के निशान
और
एक ही लहर
मिटा देती है उन निशानों को
जो
धंस गए थे गहरे
उस सीली रेत में
रह जाती है बस यादें
सागर तट पर
कुलबुलाती मछलियों की भान्ति
सैकडों अनुभव
और जख्म खाए पैर
बन कर रह गए इतिहास
बन्द किताबों में
और यह बन्दर की औलाद
पढ़ती तो है
पर समझती नहीं
आखिर है तो
बन्दर की औलाद ही ना
जब तक पत्थर ना खाएगी
नहीं समझेगी
चलेंगे उसी बालू पर
बटोरेंगे अनुभव
पीटेंगे माथा नई पीढ़ी को
समझाने के लिए
पर यह नहीं समझेंगे
कि जब खुद ही
अपने अनुभव से सब समझा
तो यह नए जमाने के लोग
क्यों समझेंगे दूसरों से
अपनी राह बनाएँगे
फिर से वही क्रम दोहराएँगे
बार - बार यही दो पैर
आते है ,चले जाते है
और फिर
इतिहास बन
किताबों में बन्द हो जाते है
चलो हम भी चलते है
****************************************
२९..टीस
हृदयासागर पर
भावनाओं के चक्रवात को
चीरती निकलती है
विनाशकारी लहर
बह जाती
अनजान पथ पर
तेज नुकीली धार बन कर
मापती अनन्त गहराई
बिना किनारे और
मंजिल के
चलती बेप्रवाह
कही भी तो
नहीं मिलती थाह
या फिर
चीरती है
काँटे की भान्ति
मन-मत्स्य के सीने को
निकलती है बस
आह भरी चीस
भर जाती हृदय में टीस
***********************************
३०.तो अच्छा है................
ऊपर देखो मगर ,
पाँव ज़मीं पर ही रखो ,तो अच्छा है
बोलो अवश्य मगर,
विचार शुद्ध रखो तो अच्छा है
आगे बढ़ो मगर
किसी को रौंदो नहीं तो अच्छा है
सोचो उँचा मगर
जीवन में सादगी रखो तो अच्छा है
कहो सब कुछ मगर
बात में सच्चाई रखो तो अच्छा है
जीवन जिओ मगर
औरों को जीने दो तो अच्छा है
नफ़रत करो मगर
उसमें करम की बुराई को रखो तो अच्छा है
प्यार करो मगर
उसमें खुदाई को रखो तो अच्छा है
कर्म करो मगर
उसमें कर्म की अच्छाई को रखो तो अच्छा है
देखो सब कुछ मगर
नज़र में गहराई को रखो तो अच्छा है
सपने देखो मगर
इरादे नेक हों तो अच्छा है
********************************
३१.कुत्तों का भोजन
आज फिर हुआ
गंदे नाले के पास
एक अविकसित
कन्या का दाह संस्कार
जिसे कह रहे थे
कुछ तमाशबीन
किसी बिन ब्याही
माँ का पाप
और कुछ ने कहा
लड़की को श्राप
बना रहे थे बातें
बिना किसी प्रयोजन
और
आज फिर मिल गया था
कुत्तों को भोजन
*********************
३२.क्या खोया ?,क्या पाया?
हर रोज की कहानी
पढ़ते हैं सुनते हैं
समझते है
फिर भी
उसे दोहराते हैं
..........................
.........................
बस बढ़ता ही जाता है
??????????????????????/
बहुओं का जलना
दहेज की बलि चढ़ना
इज़्ज़त लूटना
मारना -पीटना
ज़ुल्म करना
अत्याचार
देह-व्यापार
बुरा-व्यवहार
रिश्तों का टूटना
लालच और अहंकार
पति-पत्नी का तलाक़
बच्चों संग दुराचार
हर जगह भ्रष्टाचार
रखना हाथ में हथियार
आपस में तकरार
युवा फिरते हैं बेकार
गलियों में..........
बूढ़े और बीमार
बच्चे.............
माँ -बाप से शर्मसार
दिखाना................
खुद को इज़्ज़तदार
झूठी शानो -शौकत
बहन भाई की नफ़रत
सिर पर कर्ज़
आत्महत्या का प्रयास
दुखी जीवन
हर पल तनाव
_______________
________________
कुछ कम हुआ
???????????????
तो वह है........
तन पर कपड़े
आपस का प्यार
खून के रिश्तेदार
सादा जीवन
उच्च विचार
सच्चाई का व्यापार
प्यार का व्यवहार
एकजुट परिवार
पारिवारिक सभ्याचार
चेहरे पे हँसी
जीने की चाहत
सुखी जीवन
इज़्ज़त की रोटी
ईश्वर में आस्था
सच्चाई से वास्ता
___________________
_____________________
और खो गया है
????????????????
बच्चों का बचपन
सुखमय जीवन
शुद्ध वातावरण
अंधेरे में इंसान
जवानी में नौजवान
शुद्ध पकवान
नव-वधू का अरमान
अपनी असली पहचान
सच्ची मुस्कान
अपने देश का प्यार
संस्कृति औ सभ्याचार
अच्छा व्यवहार
बुराई का तिरस्कार
आँख की शर्म
बड़ों की इज़्ज़त
छोटों से प्यार
बाप का स्नेह
माँ का दुलार
खून का लाल रंग
जीवन में उमंग
मानवता का अहसास
आपस का विश्वास
_________________
____________________
देखो अपनी अंदर की आँख से
बात करो अपने दिल से
यह जीवन हमें कहाँ से कहाँ ले आया
और हमने क्या खोया ?,क्या पाया?
*****************************
३३.मंदिर के द्वार पर
मंदिर के अंदर
स्वर्ण मूर्ति में
विराजमान भगवान
रत्नजड़ित आभूषण
अंग-अंग पर
गहने और
रेशमी वस्त्र पहने
...........................
.........................
आँगन में बैठे कुछ जन पंक्ति लगाए
अपना पूरा पेट फैलाए
खाते स्वादिष्ट पकवान
समझें स्वयं को भगवान
लेते दक्षिणा में माया
न जाने किसने क़ानून बनाया
..................................
.............................
बाहर उसी मंदिर के द्वार
बैठी बुढ़िया एक बीमार
चलने-फिरने को लाचार
कहती सबको ही पालनहार
माँगे रोटी और आचार
.....................................
.....................................
देखो लोगों का व्यवहार
कैसे-कैसे अत्याचार
करते उसको खबरदार
करो कुछ तो तुम विचार
करोगी तुम सबको बीमार
छोड़ो इस मंदिर का द्वार
*************************
३४.प्यार का उपहार
आज प्यार के त्योहार पर
पति को क्या उपहार दूं |
मेरे पास तो ऐसा कुछ भी नहीं
कुछ शब्दों का ही प्यार दूं |
जब से आए हो मेरी,
ज़िंदगी में तुम |
तभी से समाए हो ,
मेरी बंदगी में तुम |
मेरी हर स्वास पर
तेरा ही अधिकार है
तुझ से ही तो बसा
मेरा संसार है
तेरे प्यार से बढ़कर
तो कुछ भी नहीं
तेरे जैसा प्यारा और कोई
सच्च भी नहीं
तुमने हर पल दिल से
साथ दिया है मेरा
क्यों न दो ?आख़िर
तू ही तो पिया है मेरा
तेरे प्यार के लिए तो
कोई शब्द भी नहीं
कुछ गाऊँ तेरे लिए
कोई तर्ज़ भी नहीं
बस इतना सा ही
मैं तो कह सकती
तेरे बिना अब पिया
मैं नहीं रह सकती
प्यार करती हूँ तुमसे
मैं इतना सनम
कर दिया तेरे नाम
मैंने अपना जीवन
यह जीवन तो अब
तेरी सौगात है
जिसमे बस तेरे प्यार
की ही बरसात है
माँग के देख लो
पिया तेरे लिए
मेरी जान है हाज़िर
तेरी ख़ुशी के लिए
आज करती हूँ मैं
पिया वादा तुझे
साथ तेरा तो कुछ
नहीं चाहिए मुझे
माफ़ कर देना पिया
मेरी हर एक ख़ता
साथ देना सदा
चाहे दे लो सज़ा
तेरे बिना मेरा जीवन
है अधूरा सनम
तुम मिले मुझको
यह मेरा अच्छा कर्म
एक वादा करो
कभी छोड़ना नहीं
बंधन प्यार का पिया
कभी तोड़ना नहीं
**********************************
३५.अन्धों का आइना
अन्धेरे में
रहना तो
अन्धों का स्वभाव है
दुनिया के
झूठे आइनों से
नहीं कोई लगाव है
नहीं
देख सकते
झूठ कपट का आइना
नहीं
जानते वो
किसी के पद चिन्हों पर चलना
माना
नज़र वाले
होते है बहुत महान
पर
अन्धे भी
नहीं होते इतने नादान
माना
नहीं कर सकते
वे किसी की पहचान
पर
बन्द नहीं होते
उनके कान और जुबान
उठा
सकते है
वो भी उस पर प्रश्न
जिसे
कहकर
नज़र वाले मनाते है जश्न
आपने
कुछ कहा
वो तो बात हो गई
दिया
उत्तर कोई
तो वो खता हो गई
आपने
कहा कुछ भी
और मुक्त हो गए
उठाई
जिसने आवाज़
वो अन्धे हो गए
क्यों
देखे ऐसा आइना
जिसमे किसी का अहम ही नज़र आए
इससे
तो अच्छा है
ईश्वर अन्धा ही बनाए
*****************************
३६.हे कविते
हे कविते
क्या पावन
रूप है तुम्हारा
भावुक हृदय का
तुम्हीं तो हो सहारा
स्वच्छन्द प्रवाहित निश्चल
ज्यों
सूर्य की पहली किरण से
खिलता हुआ कमल
साहित्याकाश पर
सूर्य की भान्ति दैदीप्यमान
कोमल सुन्दर
निष्कपट , बन्धन रहित
भावों का अरमान
हुआ
क्रोञ्च पक्षी का वध
निकले मुँह से ऐसे शब्द
बहने लगी
भावों की ऐसी सरिता
हो गई अमर कविता
बदले
युगों-युगान्तरों में
न जाने तुमने कितने रूप
फिर भी
हे कविते
नहीं बदला तेरा सुरूप
वही
बनी रही
नाजुकता , कोमलता , भावुकता
रहा
हर युग में
कवि इसमें बहता
हे कविते
नहीं बन्ध सकती
तुम किसी बन्धन में
तुम तो
बसती हो
हर भावुक मन में
************************
३७.अगर हम गीतकार होते
कहते है
कुछ दोसत ! अबे सुन
क्या है
तुम्हारी कविता में
गेयता के गुण?
तुम इसे
गा सकती हो क्या ?
कविता का
कौन सा रूप है?
बता सकती हो क्या?
किसने दिया
तुम्हें यह अधिकार?
कि
लिखो कविता
बिना सोच-विचार
लिखना है
तो लिखो दोहा ,
छन्द या चौपाई
तुम्हारी
काव्य विधा हमारी
समझ में नहीं आई
कुछ
तो शर्म करो
और कविता पर रहम करो
बोलो
अब तक
तुमने क्या पढ़ा?
जो
कविता लिखने का
भूत सर चढ़ा
.......................
.......................
आपका कहना
सोलह आना सच्चा
पर
मेरा ही
विचार है कच्चा
नहीं
पिरोना आता
मुझे शब्दों को सूत्र में
और
नहीं बहना आता
छन्द अलंकारों की धार में
नहीं है
मुझमें इतनी सोच विचार
पर
क्या करूँ ?
नहीं कर सकती
भावनाओ का तिरस्कार
इनको
बहाना मजबूरी है
उसके लिए
लिखना जरूरी है
सच्च जानो
, इसके अलावा
नहीं कोई प्रयोजन
फिर
क्यों करते हो ?
मुझसे ऐसे प्रश्न
जिनके
मेरे पास
कोई उत्तर नहीं होते
दुनिया की
भीड़ में यूँ ही नहीं खोते
हम
लिख कर क्या
गा कर सुना देते
ए दोस्त !
अगर हम गीतकार होते
********************
३८.मुझे जीने दो
मुझे
जीना है
मुझे जीने दो
हे जननी
तुम तो समझो
मुझे दुनिया में आने तो दो
तुम
जननी हो माँ
केवल एक बार तो
मान लो मेरा भी कहना
नहीं
सह सकती मैं
और बार-बार अब
और नहीं मर सकती मैं
कोई
तो मुझे
दे दो घर में शरण
अपावन नहीं हैं मेरे चरण
क्यों
हर बार मुझे
तिरस्कार ही मिलता है?
मेरा आना सबको ही खलता है
हे जनक
मैं तुम्हारा ही तो
बोया हुआ बीज हूँ
नहीं कोई अनोखी चीज़ हूँ
बोलो
मेरी क्या ग़लती है?
क्यों केवल मुझे ही
तुम्हारी ग़लती की सज़ा मिलती है?
कब तक
आख़िर कब तक
मैं यह सब सहूंगी?
दुनिया में आने को तड़पती रहूंगी?
क्या
माँ का गर्भ ही
है मेरा सदा का ठिकाना?
बस वहीं तक होगा मेरा आना जाना?
क्या
नहीं खोलूँगी मैं
आँख दुनिया में कभी?
क्यों निर्दयी बन गये हैं माँ बाप भी?
कहाँ तक
चलेगी यह दुनिया
बिना बेटी के आने से?
बेटी बन कर मैंने क्या पाया जमाने से?
मैं
दिखाऊंगी नई राह
दूँगी नई सोच जमाने को
मुझे दुनिया में आने तो दो
मैं
जीना चाहती हूँ
मुझे जीने तो दो
******************
३९.कौन
करता है खुदकुशी.... ?
नव-वर्ष के जशन में लोगों का नाच
पूरा था आवेश,दे रहे थे शुभ-कामना संदेश
साथ में गा रहे थे गीत:-
आओ ना खुशी से खुदकुशी करें
सुन कर कान खड़े हो गये
नहीं विश्वास हुआ आँख और कान पर
पर यही तो था सबकी ज़ुबान पर
कुछ अजीब लगा-ऐसी शुभ-कामना
क्या सबकी यही है भावना
गा रहे थे खुशी से बिना डरे
अरे, आओ ना खुशी से खुदकुशी करें
...................................................
हम कोई समाज सुधारक नहीं
किसी समाज सुधार सभा
के परचारक भी नहीं
अच्छे विचारक भी नहीं
पर, ऐसी बात पर अमल क्यों करें?
कि आओ ना खुदकुशी करें
मुझे नहीं जानना इसमें
क्यों और क्या है मकसद
जो भी हो अच्छे नहीं लगे शब्द
हमें नहीं चाहिए ऐसी खुशी
जिसमें करने को कहा जाए खुदकुशी
कुछ देना चाहते हो तो ए दोस्त
कोई गम भले ही दे दो
पर जीने का कोई संदेश सुना दो
सब के लिए अच्छा यही
ना बाँटो ऐसी खुशी
अरे! कौन करता है खुशी से खुदकुशी ?
****************************
४०.हे भगवान......
हे भगवान
आओ और नष्ट करदो
वो प्यार
जिसकी नींव नफरत पर टिकी हो
वो विश्वास
जो अँहकार पर पलता हो
वो सुन्दरता
जिसके अन्दर कुरूपता हो
वो पुण्य
जो केवल स्व हित के लिए कमाए हो
वो अच्छाई
जो तुच्छ विचारों को जन्म दे
वो चेहरे
जो झूठ का नकाब ओढे हो
वो सँस्कार
जिसमे केवल अहित छुपा हो
वो आज़ादी
जो बस जड़ ही बनाती हो
वो आदर्श
जिसमे जीवन मूल्यों का मोल लगाय जाए
वो पहरेदार
जो परहित के भक्षक बन जाएँ
वो रीति रिवाज़
जो भेद भाव ही बताएँ
वो आशाएँ
जो मन्जिल तक न पहुँचाएं
वो अमीरी
जो गरीबों का लहु पिलाए
वो दृष्टि
जो मूक बधिर बनाए
वो जीर्ण विचार
जो विकास में बाधा बन जाएँ
वो सुख सुविधा
जो निट्ठला , निकम्मा ,आलसी बनाए
आओ विनाश कर दो यह सब
नष्ट कर दो भगवान
-----------------
-----------------
और नव सृजन करो
करो नव निर्माण
वह नफरत
जिसमे प्यार के अंकुर फूटे
वह अहँकार
जिसमे आत्म-विश्वास भरा हो
वह कुरूपता
जिसमे विचारों की सुन्दरता हो
वह पाप
जो पर हित खातिर किए जाएँ
वह बुराई
जो तुच्छ विचारों को मिटाए
वह चेहरे
जो झूठ का नकाब हटाएँ
वे सँस्कार
जिसमे सामाजिक हित सामने आए
वह बन्धन
जो विकास की राह पर चलना सिखाएँ
वे आदर्श
जो जीवन मूल्यों को अमूल्य बनाएँ
वह भ्रष्टाचार
जो भ्रष्ट आचार को दूर भगाएँ
वह रीति रिवाज़
जो भेद-भाव को मिटाएँ
वह निराशा
जो मंजिल तक पंहुचाए
वह गरीबी
जो सर उठा कर जीना सिखाए
वह विचार
जो कांटों को भी फूल बनाएँ
वह कष्ट
जो नई सोच और जागरूकता लाएँ
वह आवाज़
जो दूसरों की दृष्टि बन जाए
हे भगवान
कर दो नव निर्माण ऐसी सृष्टि
जिसमे सत्यम , शिवम , सुन्दरम
का बोलबाला हो
**********************************************
४१.हे भगवान
हे भगवान
पाञ्चाली का तन ढंकने के लिए
साडी का निर्माण किया तुमने
अब भी करो.....
जिससे अर्धनग्न तन ढक जाएँ
तुमने जेल के ताले तोड़ कर
आज़ादी हासिल की
अब भी तोड़ो बन्धन के ताले
जिससे सुन्दर भावों को आज़ादी मिल जाए
तुमने माखन चुराया
अब भी चुरा लो
जिससे कोई किसी को माखन लगा न पाए
तुमने शिव धनुष तोड़ा
अब भी तोड़ो परमाणु हथियार
जिससे दुनिया का विनाश न हो पाए
तुमने गोपियों को नचाया
अब ग्वालों को नचायो
जिससे दुनिया हमें नचा न पाए
तुमने राक्षसों का वध किया
अब भी करो
जिससे दुर्भाव रूपी राक्षस हमें खा न पाएँ
********************************
४२.औरत
सोते-जागते,उठते-बैठते
खाते-पीते,चलते-फिरते
कई बार अनायास ही
कौन्ध जात है मन में एक
अजीब सा सवाल
न जाने क्यों आता है ऐसा ख्याल
हर रोज सुनते है
औरत पर जुल्म की दास्ताँ
जुल्म भी इतने
जिनकी नहीं कोई सीमा
क्यों.........?
औरत ही जलती है
दहेज की बली चढ़ती है
औरत ही पिटती है
औरत ही मिटती है
औरत ही सहती है
औरत ही चुप रहती है
औरत ही रोती है
औरत ही खोती है
औरत ही मरती है
औरत ही डरती है
------------
-------------
कभी कभी भर जाता है मन
आखिर कौन है औरत का दुश्मन
सोचती हूँ
तो लगता है.............
औरत ही जलाती है
दहेज की बली चढ़ाती है
औरत ही पिटवाती है
औरत ही मरवाती है
औरत ही सहन करवाती है
औरत ही रुलाती है
औरत ही चुप करवाती है
औरत ही डराती है
-----------------
------------------
न जाने कितने रूप बनाती है
कभी माँ बन कर समझाती है
बहन बन कर हँसाती है
सास बन कर जलाती है
तो कभी.............
सौत बन कर सताती है
----------------
----------------
एक ही जिन्दगी में
औरत जीती है
कितने ही जीवन
ध्यान से सोचो तो
लगेगा............
औरत ही है औरत की दुश्मन
************************
४३.चरित्रहीन
माँ बाप बच्चा तो कभी भाई
की कस्में खा-खा कर
कब तक देती रहेगी वह सफाई
कि वह है बिल्कुल बेगुनाह
बस केवल इसलिए.....
कि चाहिए उसे एक घर में पनाह
माँ -बाप ,भाई का घर
तो होता ही है पराया
और जीवनसाथी ने
जीवन में साथ नहीं निभाया
कभी नहीं किया
उस पर भरोसा
हर बात पे उसके
बेशर्म होने का इल्जाम ठोसा
स्वयम् तो बाहर जाकर
गुलच्छरे उड़ाते है
और इज्जतदार पत्नी को
चरित्रहीन बताते है
*********************************************
४४.बूँद
स्वाति नक्षत्र
की एक बूँद से
सीप भी
मोती बन जाता है
एक
ओस की बूँद
कर देती है
स्वच्छ सुमन
एक ही
बूँद दे देती है
नव जीवन
एक बूँद नष्ट होकर भी
नहीं
मिटता
जिसका अस्तित्व
समा जाती है
बादल में
धुआँ बनकर
और
एक एक बूँद मिलकर
बरसती है वर्षा बनकर
फिर से वही
क्रम दोहराना
आना
और फिर
नष्ट हो जाना
भरती
खुशियों से हर आँचल
धरा को देती हरियाला तल
देना ही जिसका स्वभाव
नहीं उस पर कोई प्रभाव
बस निष्काम भाव से
होना समर्पित
और
परहित में
कर देना
स्वयम् को अर्पित
यह वही बूँद है
हर बन्धन को
तोड़ने की
शक्ति है जिसमे
भले ही नन्हीं सी है
पर नहीं
उस जैसा कोई महान
नहीं समझते
यह बातें
लोग अनजान
कि
बूँद से ही तो
पलता है जीवन
और खिलता है मन
******************************
४५.ऋतुओ की रानी
धरा पे छाई है हरियाली
खिल गई हर इक डाली डाली
नव पल्लव नव कोंपल फूटती
मानो कुदरत भी है हँस दी
छाई हरियाली उपवन में
और छाई मस्ती भी पवन में
उड़ते पक्षी नीलगगन में
नई उमंग छाई हर मन में
लाल गुलाबी पीले फूल
खिले शीतल नदिया के कूल
हँस दी है नन्हीं सी कलियाँ
भर गई है बच्चों से गलियाँ
देखो नभ में उड़ते पतंग
भरते नीलगगन में रंग
देखो यह बसन्त मस्तानी
आ गई है ऋतुओं की रानी
*********************************
४६.आन बसो कान्हा
कृष्ण कन्हैया धीरे - धीरे
और यमुना के तीरे तीरे
मुरली की धुन आज सुना दो
प्यार का फिर सन्देश सुना दो
देखो तेरी इस यमुना में
कुञ्ज गलिन में और मधुवन में
गली गली में वृन्दावन में
और ब्रज के हर इक आँगन में
कहाँ वो पहला प्यार रहा है?
बोलो! कान्हा अब तू कहाँ है?
क्यों तेरी पावन धरती पर
लालच ने डाला अपना घर?
कहा है माँ जसुदा की रस्सी?
और वो खट्टी-मीठी लस्सी
कहाँ वो छाछ ,दधि और दूध?
अब तो जैसे मची है लूट
कहाँ है वो ग्वाले और गोपी?
अब तो सारे बन गए लोभी
कहाँ है वो मीठी सी लोरी?
कहाँ गई वो माखन चोरी?
कहाँ गया वो रास रचाना?
मुरली बजा गायों को बुलाना
यमुना तट पर रास रचाना
और छुप-छुप कर मिट्टी खाना
कहाँ गया प्यारा सा उलाहना?
गोपियों का जो माँ को सुनाना
कहाँ है वो भोली सी बातें?
कहाँ गई पूनम की रातें?
कहाँ गया निर्मल यमुना जल?
जहाँ पे पक्षी करते कलकल
कहाँ गए सावन के झूले?
कान्हा !अब यह सब क्यों भूले?
कहाँ है कदम्ब वृक्ष की छाया?
जिस पर तुमने खेल खिलाया
कहाँ गए होली के वो रंग?
जो खेले तुमने राधा सन्ग
कहाँ है नन्द बाबा का प्यार?
कहाँ है माँ जसुदा का दुलार?
कहाँ गई मुरली की वो धुन?
कहाँ गई पायल की रुनझुन?
अब वहाँ कपट ने डाला डेरा
लालच ने सबको ही घेरा
आओ कान्हा फिर से आओ
आ कर मुरली मधुर बजाओ
फिर से वो ब्रज वापिस लादो
फिर से धुन मुरली की सुना दो
आन बसो तुम फिर से कान्हा
और फिर वापिस कभी न जाना
*****************************
४७.क्षितिज के उस पार
आओ
चलो हम भी
क्षितिज के उस पार चले
जहाँ
सारे बन्धन तोड़
धरती और गगन मिले
जहाँ
पर हो
खुशी से भरे बादल
और
न हो कोई
दुनियादारी की हलचल
बेफिक्र
जिन्दगी जहाँ
खेले बचपन सी सुहानी
जहाँ
पर नहीं हो
खोखली बातें जुबानी
खुले
आकाश में
पतंग की भांति
उड़े
और लाएँ
एक नई क्रान्ति
जो मेहनत
को बनाएँ
सफलता की सीढ़ी
तभी
आसमान छुएगी
हमारी नई पीढ़ी
दूर
खड़ा वृक्ष
दिलाता है मानो अहसास
अकेला है
तो क्या है
कभी मत होना उदास
मैं
भी तो
अकेला खड़ा हूँ यहाँ
थक
जाओगे जब
तो मैं तुम्हें दूँगा छाया
उठो
हम भी चले
यह धरती आस्माँ एक जहाँ
और
पाएँ अपा.....र शान्ति
नहीं कोई भिन्नता वहाँ
चलो
हम भी चले
क्षितिज के उस पार वहाँ
चलो
हम भी चले
क्षितिज के उस पार वहाँ
और
पाएँ अपा.....र शान्ति
नहीं कोई भिन्नता वहाँ
उठो
हम भी चले
यह धरती आस्माँ एक जहाँ
थक
जाओगे जब
तो मैं तुम्हें दूँगा छाया
मैं
भी तो
अकेला खड़ा हूँ यहाँ
अकेला है
तो क्या है
कभी मत होना उदास
दूर
खड़ा वृक्ष
दिलाता है मानो अहसास
तभी
आसमान छुएगी
हमारी नई पीढ़ी
जो मेहनत
को बनाएँ
सफलता की सीढ़ी
उड़े
और लाएँ
एक नई क्रान्ति
खुले
आकाश में
पतंग की भांति
जहाँ
पर नहीं हो
खोखली बातें जुबानी
बेफिक्र
जिन्दगी जहाँ
खेले बचपन सी सुहानी
और
न हो कोई
दुनियादारी की हलचल
जहाँ
पर हो
खुशी से भरे बादल
जहाँ
सारे बन्धन तोड़
धरती और गगन मिले
आओ
चलो हम भी
क्षितिज के उस पार चले
***********************************************
४८.प्यार में तो शूल भी फूल
प्यार से तो शूल भी फूल बन जाते है
कभी किसी को दिल में बसा के तो देख
सारी दुनिया अपनी सी लगने लगती है
कभी किसी को अपना बना के तो देख
लोग तो पत्थर में प्रकट कर लेते है भगवान को
अहम त्याग के कभी सर को झुका के तो देख
जीवन की राहों में नहीं चलना पड़ेगा तन्हा
कभी किसी के साथ कदम को मिला के तो देख
गमों का पहाड़ भी हल्का हो जाएगा
कभी किसी के गम को उठा के तो देख
तदबीर से बदल जाती है किस्मत की लकीर भी
कभी किसी से अपना हाथ मिला के तो देख
********************************************
४९.कविता में सिन्धु
कवि कविता नहीं लिखता
लिखती है कविता कवि को अकसर
आ जाती यह जब भी चाहे
न देखे यह कोई अवसर
न दुख सुख देखे यह कविता
न देखे यह खुशी य गम
यह तो आ जाती है वहाँ पर
जहाँ पे देखे आँखें नम
बह जाती मन में धारा सी
चलती है फिर बेप्रवाह
तोड़े हर बन्धन मर्यादा
भाव सिन्धु में पाती थाह
शब्द औ सोच है दो किनारे
तोड़े कविता सारे के सारे
रचना की धारा म बहकर
सागर हुई सागर में मिलकर
जिसका रहा न कोई किनारा
समाया कविता में सिन्धु सारा
***************************************
५०.क्या लिखूँ...........?
क्या लिखूँ और कैसे लिखूँ?
कुछ भी समझ में आए ना
सोच समझ के लिखने बैठूँ
सोच भी वाणी पाए ना
जाने ये शब्द कहाँ जाते है?
सोचने पर भी नहीं आते है
किसी अन्धेरे कोने में ये
जाकर कही पे छिप जाते है
पर जब नहीं लिखने की सोचूँ
उमड़ घुमड़ कर घिर आते है
गरजते है फिर हृदयाकाश पर
ढँढते हैं कोई ऐसा पर्वत
जिससे बरसे ये टकरा कर
मुक्त हो ये जलधार बहा कर
राहत मिलती है तब जाकर
तृप्त हो जब ये वाणी पाकर
जाने कहाँ कहाँ से आते
बरस के ही बस मुक्ति पाते
*****************************************
५१.जीवन के रास्ते
वो चेहरे की झुर्रियाँ
वो धवल बाल
गहराई आँखें
दन्तविहीन
वो काँपती आवाज़
दिल में ममता
अनुभव से परिपक्व
माँ ,दादी या किसी की नानी
करती है ब्यान अपने आप में
एक जीवन की कहानी
जिसने देखे
न जाने कितने उतार चढ़ाव
और अब आ गया
उम्र का वो पड़ाव
जहां पर फिर से
जीने की चाहत
लेती है अँगड़ाई
---------
---------
वो बच्चों सी जिद्द
तरसती आँखें
छोटी सी ख्वाहिशें
रूठना ,मनाना
जी का ललचाना
साथ की चाहत
सोच में भोलापन
चाहना बस अपनापन
दिलाता है अहसास
कि
लौट आया है
फिर से
वही मासूम सा बचपन
--------------
--------------
जीवन भर न जाने किये
कितने ही त्याग
लगाई
न जाने कितने ही
अरमानों को आग
सबको खिला कर खाना
छुप -छुप कर आँसू बहाना
जीना बस दूसरों के लिए
नि:स्वार्थ ही उपकार किए
वही
कितनी मजबूर ,
लाचार और बेबस है आज
कहाँ रहा उसका अपना कोई अन्दाज
बिलखती है, रोती है
बस अकेले ही सोती है
छोड़ चले
जवानी
काले बाल,
मुँह में दांत
अपने साथ
कहाँ गए
वो अनुभव
जो हासिल किए थे
स्वयम् को गला कर
--------------
--------------
चेहरे की झुर्रियों
के बीच फैलती
एक़ मुस्कान
कहती है मानो चिल्ला कर
मेरे दिल में भी है अरमान
देखो मेरी वास्तविक सुन्दरता
जो प्रदान की है मुझे
उस हर पल ने
जिन्होंने कभी खुशी
और
कभी गम का लेप किया
आसुँओं ने धोया
वक्त ने पीटा
हालात ने कभी
हँसाया तो कभी रुलाया
और
सबने मिलकर मेरा
यह रूप बनाया
यह लकीरें उसी की देन है
जिनमें लिखी है
लम्बी दास्तान
कभी यह भी थी नादान
पर जब पाया इन्होंने रूप
तो ढल गई थी जवानी की धूप
सान्ध्य बेला ,आगे अन्धकार
रह गए बस विचार
----------------
----------------
जिम्मेदारियों का बोझ निभाते निभाते
निकल आए इतनी दूर
कि छूट गए सब जीवन के रास्ते
वो भी छोड़ गए
खुद को छोड़ा जिनके वास्ते
********************************************
५2.मृगतृष्णा
एक दिन
पड़ी थी
माँ की कोख में
अँधेरे में
सिमटी सोई
चाह कर भी कभी न रोई
एक आशा
थी मन में
कि आगे उजाला है जीवन में
एक दिन
मिटेगा तम काला
होगा जीवन में उजाला
मिल गई
एक दिन मन्जिल
धड़का उसका भी दुनिया में दिल
फिर हुआ
दुनिया से सामना
पड़ा फिर से स्वयम् को थामना
तरसी
स्वादिष्ट खाने को भी
मर्जी से
इधर-उधर जाने को भी
मिला
पीने को केवल दूध
मिटाई
उसी से अपनी भूख
सोचा ,
एक दिन
वो भी दाँत दिखाएगी
और
मर्जी से खाएगी
जहाँ चाहेगी
वही पर जाएगी
दाँत भी आए
और पैरो पर भी हुई खड़ी
पर
यह दुनिया
चाबुक लेकर बढ़ी
लड़की हो
तो समझो अपनी सीमाएँ
नहीं
खुली है
तुम्हारे लिए सब राहें
फिर भी
बढ़ती गई आगे
यह सोचकर
कि भविष्य में
रहेगी स्वयम् को खोज कर
आगे भी बढ़ी
सीढ़ी पे सीढ़ी भी चढ़ी
पर
लड़की पे ही
नहीं होता किसी को विश्वास
पत्नी बनकर
लेगी सुख की साँस
एक दिन
बन भी गई पत्नी
किसी के हाथ
सौंप दी जिन्दगी अपनी
पर
पत्नी बनकर भी
सुख तो नहीं पाया
जिम्मेदारियों के
बोझ ने पहरा लगाया
फिर भी
मन में यही आया
माँ बनकर
पायेगी सम्मान
और
पूरे होंगे
उसके भी अरमान
माँ बनी
और खुद को भूली
अपनी
हर इच्छा की
दे ही दी बलि
पाली
बस एक ही
चाहत मन में
कि बच्चे
सुख देंगे जीवन में
बढ़ती गई
आगे ही आगे
वक़्त
और हालात
भी साथ ही भागे
सबने
चुन लिए
अपने-अपने रास्ते
वे भी
छोड़ गए साथ
स्वयम् को छोड़ा जिनके वास्ते
और अब
आ गया वह पड़ाव
जब
फिर से हुआ
स्वयम् से लगाव
पूरी जिन्दगी
उम्मीद के सहारे
आगे ही आगे रही चलती
स्वयम को
खोजने की चिंगारी
अन्दर ही अन्दर रही जलती
भागती रही
फिर भी रही प्यासी
वक़्त ने
बना दिया
हालात की दासी
उम्मीदों से
कभी न मिली राहत
और न ही
पूरी हुई कभी चाहत
यही चाहत
मन में पाले
इक दिन दुनिया छूटी
केवल एक
मृग-तृष्णा ने
सारी ही जिन्दगी लूटी
*********************************
५३.नारी शक्ति
हे विश्व की सँचालिनी
कोमल पर शक्तिशालिनी
प्रणाम तुम्हें नारी शक्ति
क्या अद्भुत है तेरी भक्ति
तू सहनशील और सदविचार
चुपचाप ही सह जाती प्रहार
तुझसे ही तो जग है निर्मित
परहित के लिए तुम हो अर्पित
तुमने कितने ही किए त्याग
दी अपने अरमानों को आग
जिन्दा रही ब दूसरों के लिए
नि:स्वार्थ ही उपकार किए
खुशियाँ बाँटी बेटी बनकर
माँ-बाप हुए धन्य जनकर
अर्धान्गिनी बनकर किए त्याग
समझा उसको भी अच्छा भाग
माँ बन काली रातें काटी
बच्चे को चिपका कर छाती
जीवन भर करती रही संघर्ष
चाहा बस इक प्यारा सा घर
नहीं पता चला बीता जीवन
हर बार ही मारा अपना मन
....................
....................
ऐसी ही होती है नारी
वही दे सकती जिन्दगी सारी
उस नारी के नाम इक नारी दिवस
खुश हो जाती है इसी में बस
नहीं उसका दिया जाता कोई पल
नारी तुम हो दुनिया का बल
तुझमें ही है अद्भुत हिम्मत
तेरी शक्ति के आगे झुका मस्तक
**************************
५४.अध्यापक दिवस
हम भारत के वासी है
गुरु परम्परा के अनुगामी
नत् मस्तक हो गुरु चरणों में
हम बना ले अपनी जिन्दगानी
कुम्भकार गुरु ,शिष्य है घड़ा
गुरु तो ईश्वर से भी है बड़ा
झुक कर गुरु के श्री चरणों में
शिष्य पैरो पर होता खड़ा
गुरु तो वह दीपक है जलकर
जो स्वयम् भस्म हो जाता है
मिटते-मिटते भी औरों को
जो प्रकाशित कर जाता है
श्री राम कृष्ण औ हनुमान
भी गुरु के आगे झुकते थे
गुरु के ही एक इशारे पर
न कदम किसी के रुकते थे
गुरु वाणी तो अमृत वाणी
जो शुभ ही शुभ फल देती है
और कष्ट मिटा कर जीवन के
भाग्य को उदय कर देती है
गुरु तो सदैव है पूजनीय
गुरु की निन्दा है निन्दनीय
जीवन की जो राह दिखाता है
वह गुरु सदैव है वन्दनीय
गुरु शिष्य नाता है अटूट
नहीं डाले इसमें कोई फूट
यह सभ्यता थी भारत की
कुछ दुष्टो ने जो ली है लूट
दुख तो है यह पावन नाता
क्यों रास किसी को नहीं आता
न गुरु तो न शिष्य है वही
सभ्यता भारत की कहाँ गई
पैसे के बन्धन में बन्ध गए
गुरु शिष्य दोनो आपस में
न प्रेम प्यार का सम्बन्ध है
न कोई भावुकता मन में
बस एक दिवस अध्यापक दिवस
बस यही गुरु शिष्य परम्परा
निभानी है हमें उस भारत में
जिसके बल पर यह देश खडा
वह गुरु कहाँ ? जो दिखला दे
मार्ग सत्य का शिष्य को
जल कर के स्वयम दीपक की तरह
उज्ज्वल कर दे जो भविष्य को
माना जीवन यापन के लिए
पैसा भी बहुत जरूरी है
पर भूल जाएँ गुरु के नियम
ऐसी भी क्या मजबूरी है
सत्य का मार्ग अध्यापक
है जो अपना ही नहीं सकता
इस राष्ट्र का निर्माता वह
अध्यापक हो ही नहीं सकता
नहीं कोई हक कहलाने का
अध्यापक उस इन्सान को
जो केवल पैसे की खातिर
बेचे अपने ईमान को
क्षमा चाहती हूँ फिर भी
कड़वा सच्च मुझको है कहना
लालची ,अयोग्य तो छोड़ ही दे
अध्यापक बनने का सपना
*************************
५५.कलम है कि रुकती नहीं
उमड़ते घुमड़ते जजबात
टकराते
बरस जाते
होते फनाह
उठते
घिर जाते
नश्वर हो कर भी अनश्वर
हर बार नया रूप
अरूप
बरसे तो सुखद
न बरसे तो दुखद
बरसते
स्वयम को मिटाने के लिए
मुक्ति पाने के लिए
मुक्त होकर होते अमर
हर क्षण जवाँ ,अजर
बह जाते अश्रु बनकर
मिट जाते
पर
पा जाते वाणी
कह जाते
हर बार नई कहानी
कब , कहाँ , कैसे आ जाएँ ?
कोई भी इनको समझ न पाए
हर बार नई क्रान्ति
नई तृष्णा
ऐसी प्यास
जो कभी बुझती नहीं
पकड़े रखती
कलाकार की कलम
जो कभी रुकती नहीं
************************
५६.सड़क आदमी और आसमान
खुली सड़क बनाती ह अपना मार्ग
करती है सारी बाधाओं को पार
टूटती है, मिटती है
लेकिन बता देती है डगर
चलता है आदमी उस रस्ते पर
छोड़ता है अपने कदमों के निशान
टिका कर पैर जमी पर
देखता है ऊँचा आसमान
आसमान...
जहां पलते हैं हजारों सपने
सपने......
जिनमें रहते हैं अपने
अपने .....
जिनसे खून का रिश्ता
रिश्ता ....
जिसमे भरा है स्वार्थ
स्वार्थ......
जिसमे पलती है नफरत
नफरत......
जिसमे छिपा है लालच
लालच
जिसमें गिरते हैं इन्सान
इन्सान....
जो बन जाते हैं हैवान
हैवान......
जिसमे नहीं कोई भावनाएँ
वो भावनाएँ.....
जो इन्सान को इन्सानियत सिखाएँ
इन्सानियत......
जिसमें हो केवल अच्छाई
अच्छाई.....
जिसमे बसती हो सच्चाई
सच्चाई.....
जिससे होता हो कल्याण
कल्याण.....
जो बन जाए सुन्दरता
सुन्दरता......
जिसमे छिपे हो ऊँचे विचार
विचार.....
जो छू ले आसमान
और सड़क पर चलता आदमी
छू कर ऊँचाई
पूरे करे अरमान
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५७.तीसरी आँख
सृष्टि
संहार करता
महादेव शिव का
खुला
रहता है तीसरा नेत्र
मानव
भी कहाँ है पीछे
छू
लिया हर क्षेत्र
ईज़ाद
कर ली तीसरी आँख
बना ली
दुनिया भर में अपनी साख
रखती है
यह नज़र अपलक
हर
आने जाने वाले की
दिखती इसमें झलक
देखो
वह रेलवे स्टेशन का दृश्य
ढूँढती है.......
माँ
रूठे हुए बेटे को
पत्नी
जिम्मेदारियों से
भागे पति को
बाप
पगड़ी रौन्द कर
घर से भागी बेटी को
भिखारी दाता को ,
लुटेरा जेब को
टी टी महाशय
बिना टिकट पैसेंजर को
लोह पथ गामिनी
सब की स्वामिनी
आई ,और
आ के चली गई
और
यह तीसरी आँख
चुपचाप देखती रही
इधर देखो
मनाया जा रहा है
किसी त्योहार का जश्न
सर से
सरकता है दुपट्टा
फटती है चोली
सभी के सभी
मूक दर्शक और
कुछ
ही क्षणों में
लुटती है निस्बत
वर्णन
करती है
आँखों देखा दृश्य तीसरी आँख
और
फिर
सबूत तलाशती पुलिस
देखती है
सरे बाज़ार
कटती है जेब
कसी
जाती है
राह चलती
लड़कियों पर फब्तियाँ
देख कर
अनदेखा करते लोग
देखती है
यह तीसरी आँख
सारा नजारा
बयाँ
करती है हाल सारा
बताती है
अपराध
पर अपराधी है गायब
वो
बैंक में
देखती है खुलते लॉकर
तनती
कर्मचारियों पर पिस्तौल
दिखाई
देती है
लुटेरों की पीठ
पीठ पर घुपते छुरे
चेहरे
पर नहीं दिखते
पीछे से
दी गई है चेतावनी
चेहरा
न दिखाना
नहीं तो
लगेगी
जिन्दगी भी डरावनी
अरे
यह तीसरी आँख देखती है
गुरुकुल में भी
घूमते शिष्यगण
हाथ में
थामे हुए गन
निशाना लगाती पिस्तौल
ढेर होती लाशें
दिखते मुफ्त के तमाशे
तो
क्या है
नाबालिग है बेचारे
क्षमा करो उनके अपराध सारे
बच्चे है
सुधर जाएँगे
एक दिन यही तो देश चलाएँगे
वो देखा
उठता धुँआँ
और फिर भभकती आग
शायद
किसी की
बेटी नहीं बहु चढ़ी है
दहेज की बलि
बलि का
देवता भी तो भूखा था
पकाया है
उसके लिये खाना
बहुत
अर्से से
मिला जो नहीं था खजाना
अब देखो
सरकारी अस्पताल में
मरीज
कुरलाते है किस हाल में
डॉक्टर साहब आते है
मरीजों को हाथ लगाते है
मोबाईल पर बतियाते हुए
अपने कारनामे बताते हुए
मरीज़ की नस को छुआ
और आगे निकल गए
वो देखो
माँ बनने वाली है
कोई
नन्हीं जान
दुनिया में आने वाली है
डॉक्टर साहब पीटते है माथा
इसको भी अभी आना था
जब
मुझे एक
पार्टी में जाना था
यहाँ
बेरोजगारों की हड़ताल
करते बहुत से सवाल
चुनाव
समीप है
इसी लिए सब नेता चुप है
विरोधी पक्ष का नेता आता है
मरण व्रतधारियों को जूस पिलाता है
और
अपनी पार्टी में शामिल
होने का देता है न्यौता
समय का
करता है सदुपयोग
क्योंकि सक्रिय है चुनाव आयोग
अब
बेफिक्र पाँच साल
पाँच साल बाद ही होगी हडताल
तब तक
काम चलाते है
अपनी सरकार बनाते है
यह
तीसरी आँख
देखती - दिखाती है सबकुछ
पर
नहीं है इसकी जुबान
आवाज उठाना
नहीं इसका काम
इसके
पीछे है
बी. पी. के नन्हें हाथ
( बी.पी.= भारतीय पुलिस)
जो
नहीं काबिल अभी
कि
पकड़ ले
इतनी बड़ी सौगात
केवल
दो आँखें है देखने को
दो कान है सुनने को
नन्हे से
हाथों में नहीं है इतनी शक्ति
बस
यह तो करते है
किसी और आँख की भक्ति
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५८.होली
होली आई , खुशियाँ लाई
खेले राधा सँग कन्हाई
फेंके इक दूजे पे गुलाल
हरे , गुलाबी ,पीले गाल
प्यार का यह त्योहार निराला
खुश है कान्हा सँग ब्रजबाला
चढ़ा प्रेम का ऐसा रँग
मस्ती में झूम अंग-अंग
आओ हम भी खेले होली
नहीं देंगे कोई मीठी गोली
हम खेले शब्दों के सँग
भावों के फेंकेंगे रंग
रंग-बिरंगे भाव दिखेंगे
आज हम होली पे लिखेंगे
चलो होलिका सब मिल के जलाएँ
एक नया इतिहास बनाएँ
जलाएँ उसमें बुरे विचार
कटु-भावों का करे तिरस्कार
नफरत की दे दे आहुति
आज लगाएँ प्रेम भभूति
प्रेम के रंग में सब रंग डाले
नफरत नहीं कोई मन में पाले
सब इक दूजे के हो जाएँ
आओ हम सब होली मनाएँ
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५९.आजादी की गुहार
ये तरसती आँखें
हालात की झुर्रियाँ
वक़्त के थपेड़ों से
जर्जर हड्डियाँ
बूढ़ी ख्वाहिशें
कंपकंपाती आवाज़
करते हैं ब्यान
अपने आप में एक दास्तान
कि ,
मरे है हर पल
पीकर गुलामी का जहर
जिए हैं
देखकर
अत्याचारियों का कहर
हर क्षण
खौफ समाया रहा मन में
नहीं मिला
हर्ष कभी जीवन में
अन्तर्मन में
बैठी रही
कोई न कोई अनहोनी
कि
अभी पड़ेगी
किसी न किसी
अपने की जिन्दगी खोनी
खौफ ने
डाला मन में ऐसा डेरा
कि नहीं
महसूस हुआ
कभी खुशियों का फेरा
कभी
हँसी न आई
चेहरे पर यही सोचकर
कि
न जाने
किस घड़ी
सूना हो जाए घर
और
मिल जाए
सदा का रोना
नहीं
चाहते थे
उस अदृश्य हँसी को खोना
इसी लिए
रखा छुपाकर
अन्दर ही अन्दर दबाकर
लग जाए
न किसी की बुरी नज़र
बस
ऐसे ही
काट लिया जिन्दगी का सफर
सारा
जीवन तो
मर मर के बिताया
और
अब जब
अन्त समय आया
जी लेना
चाहते है जी भर
मरे तो है ताउम्र
अब
तो हमें दे दो
खुल कर जीने की आजादी
लौटा दो वो हँसी
जिसकी
अनजाने खौफ ने
की जीवन भर बर्बादी
अब तो
बन्द करो अत्याचार
पनपने दो सदविचार
ता कि
हम भी जी सके
जीवन रस पी सके
ले लेने दो हमें भी
वास्तविक जिन्दगी का रसास्वाद
अब तो
करदो हमें आज़ाद
गुलामी से ,अत्याचार से ,खौफ से
और गहराई तक समाई अप्रिय तन्हाई से
दे दो आज़ादी हमें अब तो दे दो
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६०.मुसाफिर
जीवन पथ
का पथिक
थक हार के बैठा
तरु की छाया, सुस्ताया
बन्द आँखों ने
सपना सजाया
मोह ने भरमाया ,ललचाया
खुली आँख
तो
कड़वा सच्च नज़र आया
कि..............
सामने कुछ न बचा था
केवल खालीपन
सपनों
में ही
बिता दिया जीवन
तय
कर डाली
लम्बी डगर.............
गिरते सँभलते
चलता रहा
आँख नहीं खोली मगर
न ही
तृप्त किए नयन
न लिया
कभी दो पल भी चैन
देख कर
भी किया अनदेखा
नहीं
बदली भाग्य की रेखा
चाह कर
भी न खोली जुबान
दबा
लिए अपने अरमान
रह गया
एक ऐसा मुसाफिर बनकर
जो
चलते-चलते
पहुँचा हो उस मोड़ पर
जहाँ
खत्म हो जाती है
हर जीवन डगर
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संपर्क:
सीमा सचदेव
एम. ए. हिन्दी, एम.एड., पीजीडीसीटीटीएस, ज्ञानी
7ए, 3रा क्रास
रामाजन्या लेआउट
मारथाहल्ली
बैंगलोर - 560037
ई-मेल:- ssachd@yahoo.co.in , sachdeva.shubham@yahoo.com
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इस ईबुक के प्रस्तुतकर्ता : रचनाकार http://rachanakar.blogspot.com
You write so much..
जवाब देंहटाएंcongrats..