घूमती हुई छतरी के नीचे - विनोद साव जून के महीने में एक दिन इतनी बारिश हुई कि मौसम विभाग के अनुसार पिछले पचास सालों का कीर्तिमान ध्वस्त हुआ। ...
घूमती हुई छतरी के नीचे
- विनोद साव
जून के महीने में एक दिन इतनी बारिश हुई कि मौसम विभाग के अनुसार पिछले पचास सालों का कीर्तिमान ध्वस्त हुआ। पर जुलाई में पूरे महीने बारिश नहीं हुई। यह मौसम का दूसरे किसम का कीर्तिमान था। उसकी आखिरी तारीख निकली जा रही थी और उस दोपहर की हवा में चिपचिपाहट थी। यह चिपचिपाहट सड़क पर चलने वालों के चेहरों पर भी देखी जा सकती थी। यह अप्रत्याशित था जब बारिश के दिनों में किसी फुहार की तरह उसका चेहरा दिखा था। तब मुंह से यह निकल भी गया था ’अरे! एकदम अप्रत्याशित।’
’हां!’ उसने खिलखिलाते हुए कहा था। धूप चश्मे को उसने आंखों से हटा लिया था जो उसकी पुरानी आदत थी किसी से मिलते समय न पहन पाने की। उसके हाथ में रंगीन छतरी थी जो घूम रही थी। कहा नहीं जा सकता कि यह अपने आप घूम रही थी या घुमाते रहने की उसकी कोशिश थी।
’तुम्हारी छतरी तुम्हारी साड़ी से मैच कर रही है।’
’हां!’ उसने पहले की तरह ही खिलखिलाते हुए कहा था।
’यह भी अप्रत्याशित है। अमूमन मैंने किसी की छतरी को उसकी साड़ी से इतना मैच होते नहीं देखा।’ जैसे यह छतरी उसकी पहनी हुई साड़ी के हिसाब से खरीदी गई हो। मैंने आगे भी कहा था ’क्या इस तरह की और भी छतरियां हैं?’
अबकी बार उसकी खिलखिलाहट में यह बात छुपी थी जैसे वह मेरा मंतव्य जान गई हो कि मैं यह पूछना चाहता हूं कि हर साड़ी के लिए क्या एक अलग छतरी है?
उसकी छतरी कभी कभी तेज घूम जाया करती थी। खासकर तब जब वह खिलखिलाकर हंसा करती थी। जैसे उसका खिलखिलाना किसी चकरी में लगी मोटर की आवाज हो और जो उसकी छतरी को घुमाने का काम करती हो।
’तुम अब भी वैसी ही हो जैसा बरसों पहले मैं छोड़ आया था।’
छतरी के नीचे उसके चेहरे में मौसम की नमी थी पर चेहरा वैसा ही हंसमुख बना रहा। वह उन लड़कियों में से थी जो बातें कम करती हैं और मुस्कुराती ज्यादा हैं। कुछ भी पूछने पर मुस्कुराना और ज्यादा जोर देने पर मुंह में हाथ रखकर हंस पड़ना। बातों का जवाब देने से बचना। या जवाब देने की विवशता में मुस्कुराना। या बिना मुस्कुराये जवाब न दे पाना।
’कितने साल हो गये! तुम्हें याद है?’ मुझे ये शब्द सुनाई दिये तब मेरा सर झुका हुआ था। जो अक्सर किसी लड़की से बातें करते समय झुका होता है। सुनते समय सर झुका होता है और बोलते समय उठता है। मैंने उसके कहे शब्दों की तरफ आंखें उठाकर देखा जिसे सर का उठा हुआ भी माना जा सकता है।
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’लगभग सात आठ साल!’ मैंने थोड़ा रुककर कहा था ’तुमसे मिलते हुए ऐसा लग रहा है जैसे मेरी उमर सात आठ साल कम हो गई हो।’
तब वह फिर खिलखिलायी थी। उसकी हर खिलखिलाहट जैसे मेरी बातों पर सहमति हो। या फिर लम्बे समय बाद मिलने पर महज औपचारिकता हो।
अब वह लड़की नहीं रही, एक प्रौढ़ महिला हो चुकी थी। पर जिसे हम लड़की के रुप में देख चुके होते हैं वह ता-उम्र लड़की ही नजर आती है। चाहे उसकी षष्ठपूर्ति क्यों न हो जाए। अपनी हमउम्र स्त्रियों से मिलने पर हम पाते हैं उनकी भाव भंगिमाएं सदा वैसी ही लगती हैं किसी लड़की की तरह।
हम दोनों स्कूल के दिनों के साथी की तरह मिल रहे थे। जो बड़े हो जाने के बाद एक दूसरे के ’जेनेटिक’ परिवर्तन को गौर से देखते हैं और इसलिए बातें करते समय बीच बीच में झेंपते हैं ’तुम्हें देखकर हंसी आ रही है!’ आखिर मैंने झेंपते हुए कहा था। प्रत्युत्तर में उसकी एक खनकती हंसी गूंजी थी।
’तुम इतनी धूप में कहां घूम रहे हो?’ यह पूछते समय उसके चेहरे पर ऐसे भाव आया जैसे मुझे अपनी छतरी के भीतर वह ले लेना चाहती हो। अगर हमारे पुराने दिन होते तो बेशक वह मुझे छतरी के नीचे ले लेती - राजकपूर और नर्गिस की तरह। पर यह बढ़ती उम्र की हिचकिचाहट थी कि हम ऐसा नहीं कर सके।
’चलो कहीं छाया में खड़े हो जाएं!’ छतरी के नीचे नहीं ले पाने की विवशता में उसने विकल्प सुझाया था। यह भी हमारी बढ़ती उम्र की असहनशीलता है जिसे सदाशयता भी कह सकते है जिसमें हममें से कोई भी एक दूसरे को थोड़ी भी तकलीफ उठाते नहीं देख सकता। हम सड़क से लगी हुई टेकरी पर चढ़ गए थे एक निर्माणाधीन मकान की छाया में। पर उसकी छतरी बंद नहीं हुई थी। शायद रोज घर से बाहर निकलते समय छतरी हाथ में रखना उसके अभ्यास क्रम में था।
अपनी छोटी, कद, भरे जिस्म व चेहरे, उठी हुई नाक और जूड़े में वह कोरियन नस्ल की किसी स्त्री की तरह लगी थी। उस पर उसके हाथ की छतरी ने उसके व्यक्तित्व में चार चांद लगा दिए थे। यह बात उसे शायद मालूम थी इसलिए छाया मिल जाने के बाद भी उसने छतरी बंद नहीं की थी। उन स्त्रियों की तरह जो हरदम अपने हाथ में कुछ न कुछ रखे रहना चाहती हैं - चाहे पर्स या बैग, हाथ की उंगली में कोई बच्चा या फिर छतरी।
’तुम थोड़ा करीब आ जाओ।’ उसने टेकरी की ढलान से बचाते हुए मुझे कहा था। पर करीब आ जाने वाले ये शब्द हम दोनों के बीच उतने ही करीब थे जितने बरसों पहले हम कभी थे। टेकरी के नीचे हमारे बीच जो दूरी थी तो वह टेकरी पर चढ़ जाने के बाद कम हो गई थी। अब हम सड़क पर चलने वालों को आसानी से देख सकते थे और सड़क पर चलने वालों की नजर से बचे हुए थे। ढलान से बचाते हुए मैंने अपना चेहरा उसकी ओर मोड़ लिया था। अब मेरी पीठ की ओर सड़क थी और मेरे सामने उसकी छतरी और छतरी के नीचे वह। छतरी के नीचे अब उसका चेहरा ऐसे लगा जैसे वह छतरी के ठीक बीचोंबीच फिट हो। किसी क्लोज-अप फोटो की तरह।
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कोई कितना फोटोजेनिक हो पर हर किसी का चेहरा क्लोज-अप में अच्छा नहीं दिखता। पर यहां ऐसी कोई बात नहीं थी। बल्कि उसके चेहरे के क्लोज-अप में उसकी आंखें ब्लो-अप हो रही थीं। जैसे सिने तारिकाओं में से किसी एक की आंखें हों जो बूझे जाने के लिए दी गई हों कि ये आंखें किसकी हैं? इनमें भावों के चढ़ते उतरते रेशे आसानी से पढ़े जा सकते थे। अब भावों की तीव्रता उसके चेहरे पर थी और शायद मेरे भी। उसके चेहरे पर उठे कई भाव जाने पहचाने थे। छतरी के नीचे उसका इकहरा बदन आज भी वैसे ही था। हर पल किसी की आगोश में समा जाने को आतुर।
’आगोशी!’ मुझे पता नहीं कब ये शब्द मेरे होठों से फूटे थे जो बरसों पहले उसके लिए कहे जाते थे। पर मोहित हो जाने के उसके अन्दाज में वह डूब नहीं थी जो कभी थी। यह किसी युवती के प्रौढ़ा हो जाने का संकेत था।
हमने एक दूसरे के बारे में जल्दी जल्दी पूछना शुरु कर दिया था जो कुछ भी इस लम्बे अंतराल में हम दोनों के साथ अलग अलग घटे थे। हम जब एक दूसरे के बच्चों के बारे में जानते तो आश्चर्य होता कि जिन्हें किसी दोपहरी में हम थपक थपक कर सुलाया करते थे वे इतनी जल्दी नौकरी पेशा कैसे हो गए। तब हमारी निकटता ने एक दूसरे के बच्चों को अपना जन्मना मान लिया था।
’तुम्हारे ’वो’ रिटायर हो गए!
’दो साल पहले।’
’तुमको देखते हुए तो उसे पांच साल का एक्सटेंशन और मिल जाना था।’ यह सुनकर खिलखिलाहट गूंजी थी जिससे सिर की छतरी फिर घूमने लगी थी।
’पूनम कैसी है!’
’ठीक है।’
’तुम्हारे साथ भी वैसा ही हुआ जैसा मेरे साथ हुआ था।’ उसकी आवाज में गमी थी जो कुछ अरसे पहले हुए हादसे की ओर मुझे ले गई थी। यह अप्रत्याशित था जो अक्सर वह कर बैठती थी। ठठाकर हंसते हुए किसी गम्भीर मसले पर आ जाना।
’तुमको याद है जिस दिन शील अस्पताल में गुजरा था उस दिन वेद जनमा था।’ उसने अपने मृत बेटे के बाद जनमे मेरे बेटे की मृत्यु की ओर ईशारा किया था जो जवान होकर पिछले बरस एक दुर्घटना में बीत गया था।
’मैने दूसरी बार अपना बेटा खोया है।’ अबकी बार उसकी आवाज में डूब थी किसी गहरी खाई से आती हुई आवाज की तरह।
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’मैने भी।’ दो शब्द मैंने भी कहे थे। यह लम्बे अरसे बाद हुई हमारी मुलाकात का उत्कर्ष था जिसके आगे बोलने के लिए कुछ रह भी नहीं गया था। हम दोनों सड़क पर आते जाते लोगों को देखते रहे निर्निमेष। फिर उसके भीतर की सतर्कता जागी थी ’चलो चलें यहां खड़े दस मिनट हो गए हैं।’
हम टेकरी से उतरकर नीचे सड़क पर आ गए थे।
’ठीक है।’ यह कहते हुए एक क्षण रुके बिना मैं चलता बना था। किसी का सलीके से साथ छोड़ना या उससे विधिवत बिदा होना मुझे नहीं आता। बिना किसी औपचारिकता या शिष्टता के मुंह मोड़ लेता हूं। हम विपरीत दिशाओं की ओर चल पड़े थे। मोड़ पर आकर मैंने उसे देखा था। अब वह नहीं केवल उसकी छतरी दिखाई दी थी। मुलाकात के दौरान हुई किसी बात पर वह खिलखिला रही होगी जिसके कारण उसकी छतरी घूम रही थी। एक क्षण के लिए सही जिन्दगी बड़े से बड़े हादसों को किस तरह भुला देती है।
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संपर्क:
विनोद साव,
मुक्तनगर,
दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
(चित्र - कृष्णकुमार अजनबी की कलाकृति)
एक क्षण के लिये ही सही जिन्दगी बडॆ से बडे हाद्सो को कैसे भुला देती है "" कितनी सही बात है ।आभार इस सुन्दर रचना को हम तक पहुँचाने के लिये "
जवाब देंहटाएंEk atti sunder rachana haath lagi!...dhanyawad Raviratlami!
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