क्रान्तिवीर शहीद पाण्डेय गणपत राय -सुशील अंकन शहीदों के माजरों पर लगेंगे हर बरस मेले...... वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा......
क्रान्तिवीर शहीद पाण्डेय गणपत राय
-सुशील अंकन
शहीदों के माजरों पर लगेंगे हर बरस मेले...... वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा......
१५ अगस्त १९४७ को भारत आजाद हुआ। हम खुली हवा में श्वास लेने लगे। यहां के जंगल, पहाड़, नदी नाले सब आजादी के गीत गाने लगे। किन्तु यह आजादी हमें कैसे मिली ? इसके पीछे की कहानी और इस आजादी को हासिल करने के लिए न जाने कितने सरफरोशों ने अपनी आहूति दी है। भारत के लगभग हर प्रदेश हर जले हर कस्बे के शूरमाओं ने इस जंगे आजादी में हिस्सा लिया। हमारे झारखंड प्रदेश के धरती पुत्रों ने भी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जंग का बिगुल फूंका था। झारखंड प्रदेश के दो बडे हिस्सों, छोटानागपुर और संथाल परगना के वीर बांकुरों ने भी इस आजादी की जंग में अपने शौर्य और पराक्रम का प्रदर्शन किया था।
यहां के योद्धाओं में बडकागढ़ के ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पाण्डेय गणपत राय, शेख भिखारी, टिकैत उमराव सिंह, सिद्धों, कान्हु, चांद, भैरव, तेलंगा खडया, निलाम्बर-पिताम्बर, बिरसा मुंडा, बुद्धु भगत सहित ढेर सारे नामों की लम्बी फेहरिस्त है।
प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन के पहले चरण के वीर विद्रोहियों में ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव और पाण्डेय गणपत राय की जुगल बंदी की कथा अविस्मरणीय है। १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के वक्त लगातार २१ दिनों तक युद्ध कर इन दोनों योद्धाओं ने अपने पराक्रम और शौर्य का परचम लहराया था। जंगे आजादी के इतिहास के पन्नों में इन दोनों का नाम स्वर्णाक्षरों से अंकित है।
क्रान्ति वीर पाण्डेय गणपत राय का जन्म १७ जनवरी १८०९ ई. को वर्तमान लोहरदगा जले के भंडरा प्रखंड के भौंरो ग्राम में हुआ था। पिता रामकिशुन राय और माता सुमित्रा देवी के आंगन में इस वीर बालक ने जन्म लिया। उस समय किसको पता था कि वह बालक अपने गुलाम देश की आजादी के लिए ही जन्मा है। बालक गणपत के चाचा सदाशिव राय तत्कालीन छोटानागपुर महाराजा, पालकोट के दीवान थे। जाहिर सी बात है कि घर के बडे बुजुर्गों का प्रभाव घर के बच्चों पर पड़ेगा ही। इसलिए बालक गणपत राय के मन में गुलामी की बेड़ियों से निजात पाने की कशमकश और देशभक्ति का जज्बा बाल्यकाल में ही उमड़ने घुमड़ने लगा था। इसी जज्बे के कारण तीर, तलवार, लाठी, भाले चलाना उनका प्रिय शौक बन गया था। जीवन के प्रथम चरण में वे अपने माता पिता से ज्यादा, अपने चाचा के पास पालकोट में ही रहा करते थे। वहीं वे पंडितों से संस्कृत और मौलवियों से अरबी भाषा की जानकारी भी हासिल करते थे और इन सब के साथ दरबारी रीति नीति में भी धीरे धीरे पारंगत हो रहे थे।
उनके विवाह की कहानी भी अजीबो गरीब है। एक बार गणपत राय अपने चाचा के साथ गया जिले के कदवा ग्राम में एक बाराती बन कर गए थे। वहां की परम्परा के अनुसार जब बारातियों और सरातियों के बीच सवाल जवाब शुरू हुआ तो गणपत राय भी बारातियों की ओर से जवाब दे रहे थे। उनके जवाब से प्रभावित होकर लड़की वालों ने उसी मंडप में गणपत राय की शादी एक दूसरी लड़की से कर दी। बाराती बन कर गए गणपत राय जब अपने घर लौटे तो उनकी दुल्हन भी उनके साथ थी।
शायद विधि को यह मंजूर नहीं था कि गणपत राय की इस पत्नी को संतान सुख मिले। दिन बीतने लगे लेकिन उस परिवार के वंशवृक्ष की शाखाएं नहीं फूटी। वंश विहीन परिवार के दुर्भाग्य से उनकी पत्नी श्याम वंशी देवी पूरी तरह वाकिफ थी इसलिए उन्होंने अपने पति गणपत राय जी से कई बार, दूसरे विवाह के लिए अनुनय विनय किया और अंततः श्याम वंशी देवी ने पलामू जले के बंगलाडीह करार ग्राम के मोहन सिन्हा की पुत्री सुगंध कुंवर से अपने पति का विवाह, परिवार के पुरोहित के साथ मिलकर तय कर दी। कई मान्यताओं और वर्जनाओं के बावजूद उन्हें यह विवाह करना पड़ा और तब सुगंध कुंवर से उन्हें दो पुत्र, नवाब राय और श्वेताभ राय तथा तीन पुत्रियाँ प्राप्त हुईं।
इसी बीच गणपत राय के चाचा पाण्डेय सदाशिव राय का स्वर्गवास हो गया। सदाशिव राय के निधन से पालकोट महाराज के दीवान का पद वीरान हो गया। पालकोट महाराज के बुलावे पर गणपत राय ने पालकोट महाराज का दीवान बनना स्वीकार कर लिया और इनकी जिन्दगी को मिल गयी एक नई धार।
१० मई १८५७ को पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बज गया। आरा जगदीशपुर में बाबू कुंवर सिंह ने विद्रोह की कमान संभाल ली....दानापुर सैनिक छावनी के सिपाहियों ने भी बगावत का झंडा लहरा दिया तो बैरकपुर की सैनिक छावनी में भी विद्रोह की ज्वाला धधक उठी। सिपाही मंगल पाण्डेय की शहादत ने पूरे देश को विद्रोही बना दिया। ऐसे में झारखंड भी कहां पीछे रहने वाला था मातृभूमि की आजादी के लिए चुटियानागपुर भी जाग गया था। यहां का बच्चा बच्चा सर पर कफन बांधने को तैयार बैठा था क्योंकि यहां के योद्धाओं ने पहले ही डोरंडा फौज को धूल चटा दी थी जिससे इनका हौसला बुलंद हो चुका था।
इसी बीच ३० जुलाई १८५७ को आठवीं देशी पैदल सेना ने हजारी बाग में विद्रोह कर दिया। पहली अगस्त को डोरंडा छावनी के सिपाहियों ने भी बगावत का झंडा उठा लिया और दो अगस्त से पूरा छोटानागपुर संतालपरगना विद्रोह की ज्वाला में धधकने लगा। बाबू कुंवर सिंह को सहयोग करने के लिए ११ सितंबर १८५७ को रायगढ़ बटालियन के विद्रोही सूबेदार जयमंगल पाण्डेय और नादिर अली खां के दस्ते में ही बडकागढ़ के ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव और उनके दीवान पाण्डेय गणपत राय भी शामिल हो गए।
रांची जले में भी आजादी के मतवालों ने कहर बरपा दिया और यही मौका था जब आजादी के दिवानों ने बड़कागढ़ के ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को अपना नेता और पाण्डेय गणपत राय को अपना सेनापति चुना। दोनों योद्धाओं ने मिलकर अद्भुत पराक्रम एवं शौर्य का परिचय दिया। उन्होंने मिलकर अंग्रेजों की गिरफ्त वाली रांची कचहरी और थाने को लूटा साथ ही लगभग ३०० बंदियों को भी आजाद करवाया। उनके सर पर आजादी का जुनून सवार था जिसका खामियाजा अंततः अंग्रेजों को भुगतना ही पड़ा।
चूंकि पाण्डेय गणपत राय के पास कोई दुर्ग नहीं था इसलिए उन्होंने रांची पहाड़ी को ही अपना दुर्ग और योजना स्थली बनाया। अपने असले बारूद का भंडार भी यहीं बनाया। अंग्रेजों के पलायन की गवाही देती रांची पहाड़ी यहां के बरगद कदंब पीपल सभी आजादी के संग्राम में इन दोनों योद्धाओं के साथ शामिल थे।
१८५७ के सितंबर के अंत में दोनों योद्धा बाबू कुंवर सिंह से संधि करना चाहते थे इसलिए वे चंदवा बालुमाथ होते हुए चतरा पहुंचे लेकिन भाग्य को यह मंजूर नहीं था.......२ अक्टूबर १८५७ को मेजर इंग्लिश की सेना ने इन्हें चारों तरफ से घेर लिया। हजारी बाग ओल्ड रेकॉर्ड के पृष्ठ संख्या १०१ और १०३ मेजर इंग्लिश की कारस्तानियों की कहानी कहती है। अपनी जय पराजय की दास्तान ३ अक्टूबर १८५७ को ही मेजर इंग्लिश ने भारत सरकार को तार-पत्र भेजकर सुना दी थी कि कब कहां कितने सैनिक हताहत हुए कितने विद्रोही मारे गए और कितने असले बारूद लूटे गए। ४ अक्टूबर को हजारी बाग के सहायक कमिश्नर ने एक पत्र कैप्टन डाल्टन के नाम लिखा.......जिसमें कुंवर सिंह के दामाद लाल जगतपाल सिंह की सहायता से ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव और गणपत राय के संबंध कुंवर सिंह से बनने का जिक्र था। अंग्रेजी सरकार येन केन प्रकारेण इस विद्रोह को दबाना चाहती थी। इसलिए चतरा विद्रोह को उन लोगों ने छिन्न भिन्न कर दिया। इन योद्धाओं के लगभग चार तोपें ४५ गाड़ी गोलाबारूद छीन लिए गए। निहत्थे और साधन विहीन ये लोग वापस रांची आ गए। दिसंबर १८५७ तक इनकी सारी संपत्ति अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा जब्त कर ली गई।
आजादी का यह महासंग्राम फिर से शुरू करने के लिए इन्हें धन की जरूरत पड़ी। इन लोगों ने योजना बनाकर बरवे थाना लूटा किन्तु लोहरदगा कोशागार लूटने में ये असफल रहे। इसी बीच ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव गिरफ्तार कर लिए गए किन्तु गणपत राय अपने पुश्तैनी गांव भौंरो लौटने में सफल रहे और उसी गांव से अंग्रेजों को खदेड़ने की योजना बनाने लगे।
इसी बीच मेजर नेशन को भौंरो गांव में गणपत राय के होने की भनक लग गई और वह १०० सैनिकों के साथ पूरे भौंरो गांव को घेर लिया। गणपत राय चरवाहों के साथ चरवाहा बन मेजर नेशन को चकमा देकर भौंरो गांव से निकल गए और मेजर नेशन हाथ मलते रह गए।
२० अप्रैल १८५८ को लुका छीपी के खेल और अनेक जख्म खाने के बाद अपने पुरोहित उदयनाथ पाठक के साथ लोहरदगा की ओर बढ़े लेकिन रात अंधेरी होने के कारण रास्ता भटक गए और पहुंच गए परहेपाट... परहेपाट के जमींदार महेश शाही ने उनकी खूब खातिरदारी तो की .......लेकिन छल से उसने गणपत राय को मेजर नेशन के हवाले कर दिया। गणपत राय कुछ सोच पाते उसके पहले ही उन्हें हथकड़ियों में जकड़ कर रांची लाया गया जहां कमिश्नर डाल्टन ने उन्हें मौत की सजा सुना दी.....।
२१ अप्रैल १८५८ को आजादी के इस दिवाने को रांची जला स्कूल के निकट कदम्ब के वृक्ष पर फांसी दे दी गई। ब्रिटिश हुकूमत यह समझती रही कि इस फांसी से लोग डरकर विद्रोह छोड़ देंगे लेकिन हुआ उल्टा........इस फांसी से कुछ नए युवकों के दिलों में भी शहादत का जज्बा जाग उठा और उसके बाद तो झारखंड के इतिहास में ढेर सारे क्रांतिवीरों की फेहरिस्त बन गई।
मिट गए , न मिटने दी वतन की आबरू ......
ऐसे शहीदाने वतन को बारंबार मेरा सलाम .....
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