देवी नागरानी की पुस्तक समीक्षा : प्रवासिनी के बोल

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" प्रवासिनी के बोल " सं पादकः डॉ॰ अंजना संधीर प्रिय अंजना, महिलाओं का तू चितवन है सुंदर और सलोना मधुबन है तेरी...


"प्रवासिनी के बोल"

संपादकः डॉ॰ अंजना संधीर


प्रिय अंजना,
महिलाओं का तू चितवन है
सुंदर और सलोना मधुबन है
तेरी सोच व शीरीं सी बातें
कितना उनमें अपनापन है
तेरे स्नेह स्वरूप ये "बोल" मिले
तेरे श्रम का ही ये दरपन है.

-देवी नागरानी


डॉ॰ अंजना संधीर ने एक अनोखी विचार धारा को इस संग्रह के रूप में साकार करके अनूप और अनोखा स्वरूप दिया है और एक सूत्र में पिरोकर प्रस्तुत किया है, लग रहा है जैसे नारी जाति के सन्मान में एक नया मयूर पंख लगा है. उनका दृढ़ संकल्प ही इस काव्य संग्रह "प्रवासिनी के बोल" के रूप में प्रकाशित हो पाया है.
"ख़्याल उसका हरेक लम्हा मन में रहता है
वो शम्मा बन के मेरी अंजुमन में रहता है
मैं तेरे पास हूं, परदेस में हूं, खुश भी हूं
मगर ख़्याल तो हर दम वतन में रहता है." अंजना

अंजना जी के इस कथन में एक निचोड़ है, एक अनबुझी प्यास का अहसास जो सीने में कहीं न कहीं पनपता तो रहता है पर खिल नहीं पाता, खिलता है तो महक नहीं पाता, उस अनजान तड़प को उन्होंने शब्द दिये है "प्रवासिनी के बोल". भरी आंखों और तड़पती हृदय वेदना परदेस में रहने वालों की, उनकी कलम की नोक से पीड़ा स्वरूप बहती सरिता बन कर सामने आई है. मुझे अपनी एक गज़ल के चंद शेर याद आ रहे हैः

इल्म अपना हुआ तो जान गई
मैं ही कुरआन, मैं ही गीता हूँ.

है अयोध्या बसा मेरे मन में
वो तो है राम, मैं तो सीता हूं.

दर्द सांझा जो सबका है देवी
मैं उसी दर्द की कविता हूं.

अपने देश और संस्कृति से कट कर प्रवासी जीवन में जो उपलब्धि और विघटन होता है, उसे नारी ह्रदय महसूस करता है और भावनायें कलम का सहारा पाने से नहीं चूकती. जाने अनजाने में वो पद चिन्ह बनकर कहीं न कहीं अपनी छाप जरूर छोड़ जाती हैं, जो कभी न कभी साकार स्वरूप अख्तियार कर लेती हैं.
एक फिलासफ़र राल्फ वाल्डो एमरसन के शब्दों में " सीधा सीधा रास्ता पकड़कर न चलो, वहां चलो जहां कोई रास्ता या सड़क न हो. चलो और अपने पीछे एक पगडंडी छोड़ जाओ. " इस विचार धारा को अंजना जी ने स्वरूपी जामा पहनाने का प्रयास किया है अपने श्रम परिश्रम के बलबूते पर, और साहित्य साधना की इस नई पगडंडी पर नारी जाति के मनोबल व सामर्थ्य को एक मुकाम पर लाने का बखूबी प्रयास किया है.

सारा आकाश नाप लेती है
कितनी ऊंची उड़ान है तेरी. देवी

जो स्वप्न अभी तक आंखों में तैरता रहा, उसकी नींव इस किताब के रूप में रक्खी है. देश से बाहर परदेस में, भाषा के विरोधी वातावरण में, अपनी हिंदी भाषा को कविता के माध्यम से जिंदा रखना अनुकूल क्रिया है. भाषा को ज़िंदा रखना हमारा कर्तव्य है, क्योंकि यह हमारे पास, आने वाली पीढ़ियों की धरोहर है . भाषा ज़िंदा है तो हम भी जिंदा रहेंगे. स्त्री मन को जागृत करके उसके मनोबल को पहचान देना एक साहस पूर्ण प्रयास ही नहीं, एक काबिले तारीफ कदम है, जो इतिहास के पन्नों पर उल्लेखनीय बन जाता है, और तो और भारत व अमरीकी हिंदी रचनाकारों के बीच एक सेतु बांधने का श्रेय भी उन्हें जाता है.

इसी प्रयास को अंजनाजी ने एक बागबान की तरह दिन रात की मेहनत से सींचकर एक महकते हुए मधुबन का स्वरूप देकर अमेरिका के नारी पक्ष को उजागर किया है. यहां पर वाली आसी साहब का शेर इस बात का संपूर्ण गवाह हैः

हमने एक शाम चरागों से सजा रखी है
शर्त लोगों ने हवाओं से लगा रखी है
हम भी अंजाम की परवाह नहीं करते यारों
जान हमने भी हथेली पे उठा रखी है.

उसी साहस और शालीनता का उदाहरण एक परिपूर्ण ग्रंथ (An anthology connecting the East & the West) के रूप में "प्रवासिनी के बोल" कुल मिलाकर ६२२ पन्नों के रूप में मनोभावों से भरपूर आपके सामने आया है, जिसमें यू़.एस.ए में रहने वाली ८१ अमरीकी भारतीय हिंदी कवयित्रियों की ३२४ कविताएं पहले भाग में दी गई हैं, हिंदी से जुड़ी ३३ प्रतिभाशाली महिलाओं का सचित्र परिचय दूसरे भाग में दर्शाया गया है, तथा तीसरे भाग में अमरीका में अब तक प्रकाशित महिला साहित्यकारों की प्रकाशित पुस्तक भी शामिल है. विदेश में रचा जा रहा साहित्य ही इस बात का प्रमाण है कि हम अपने देश से दूर जरूर है, पर देश हमसे दूर नहीं. दिल्ली से राजी सेठ का कथन है " भाषा के घेरे से परे रहकर अपनी भाषा की, देश से परे रहकर देश की, परिवेश से परे रहकर देश के रँग- रूप, तीज-त्यौहार. मिथिक -इतिहास को रचने की प्रेरणा इन्हें कौन देता होगा?" उनके उत्तर में मेरी ये दो पँक्तियाँ

हर नारी के ह्रदय की पुकार है, ललकार है.
दिल में देश बसाकर रखा हमने
धड़कन बनकर खुद हम बसते उसमें. देवी

हमारा घर, उसका वातावरण, दिन चर्या में हमारा चलन, आपसी व्यवहार, हमारी भाषा और संस्कृति को बरक़रार रखने के लिये हिंदी भाषा का अनुकूल उपयोग एक योगदान है. साहित्य के वरदान को अलग - अलग अनुभूतियों को भिन्न-भिन्न स्वरूप में से सजाकर इस संकलन में पिरोया गया है, जिनमें नारी हृदय के वात्सल्य के साथ करुणा, दया, प्रेम, सेवा के भाव लिये हुए अनेक मधुर ग़ज़ल, गीत, लोक गीत, कवितायें, तीज त्यौहार पर अपनी भावनाएं, अपने कोमल ह्रदय के ताने -बाने बुनते-बुनते कभी इन्हीं अहसासों को शब्दों का जामा पहना कर बड़ी सुंदरता से प्रस्तुत किया है नारी के तसव्वुर को "वसुधा" के प्रकाशक व सम्पादक श्रीमती स्नेह ठाकुर ने बड़ी खूबी के साथ प्रस्तुत किया है, पः ६७

नारी

अश्क हूं
वक्त की पलकों पर टिकी हूं
लहर हूं
सागर की बाहों में थमी हूं
शबनम हूं
ज़मीं के आगोश में बसी हूं
चिंगारी हूं
शोला बन कर भड़की हूं
किरण हूं
सूरज में समाई हूं
लता हूं
तन के सहारे बढ़ी हूं
नदी हूं
कगार के बँधन में बँधी हूं
फूल हूं
काँटों से उलझी हूं
कोमल हूं
रुई के फाहों से सहेजी जाती हूं
धरती हूं
अंबर के चँदोबे तले फली फूली हूं
अबला हूं
पुरुष की संरक्षता में रहती हूं
नारी हूं
पुरुष व पुरुषार्थ की जन्मदात्री हूं.

नारी मन आकाश से ऊँचा व पाताल से गहरा होता है यही सत्य है, क्योंकि नारी जन्मदात्री है, हर हाल में अपना आपा बनाये रखती है कारण कुछ भी हो.

मेरी एक कविता "प्रदर्शन" का एक चित्र कुछ इसी तरह का है. पः २०३
दरिद्रता को ढाँपे
अपने तन के हर पोर में
वह नारी फिर भी,
कर रही है
प्रदर्शन अपना,
उन भूखी आँखों के सामने
जो आर पार होकर
छेद जाती है निरंतर
पर देख नहीं पाती
उस नारी का स्वरूप
जो एक जन्मदाता है
जीवन को बनाये रखती है
उसको सजाने के लिये
बलि तो दे सकती है
पर, ले नहीं सकती.

और सच तो यही है, एक कण कविता का एक युग को ज़ायकेदार बना सकता है, और भाव प्रकट करने का एक निर्मल माध्यम बन जाता. आनेवाली कई पीढ़ियों तक औरत जाति के नाम के साथ अंजनाजी का नाम भी जुड़ा रहेगा. इल्म का दान उत्तम दान है, इसके द्वारा विकास व प्रगति के कई नये रास्ते खुल जाते हैं, इस युग में वतन की मिट्टी से दूर निवास करने वाली भारत के हर कोने में बसने वाली नारी, जो विदेश में आ बसी है, इस "प्रवासिनी के बोल" में अपनी कलम की जुबानी अपने मन के भावों को, अपने अंदर पनपते अहसासों को जुबाँ दे पाई है. पर अंजना जी ने इन्हें एक सूत्र में बाँध कर एक महिला संगठन को एक नई रौशनी की नींव पर खड़ा किया है. इस आशावादी संकल्प के बल पर प्रवासी कवयित्रियों की रचनाओं में, उनकी देश से दूर रहने की वेदना, कुछ अमरीका की खट्टी -मीठी अनुभूतियां, मन में उठती हर भावपूर्ण लहर को खुले मन से कविता द्वारा प्रकट करने के लिये यह क्रियाशील प्रयास किया है.

फिलास्फर इलेन लाइनर का कहना हैः " अगर लेखक ये न लिखते कि उन्हें क्या महसूस हुआ तो बहुत सारे कागज़ ख़ाली होते". इसी सच को यदि सामने रखा जाय तो देखने को मिलेगा, उन कवित्रियों के मन का मंथन, उनके अंदर की कोमलता, दृढ़ता, वेदना, संघर्ष, दुख, सुख, यादों की परछाइयां, मजबूरियां, तन्हाइयों के साथ बातें करने का अनुभव, देश के प्रति उमड़ते उनके ज़ज़बे जिनको इसी किताब से चुनकर मैंने यहां प्रस्तुत किया हैँ. अँतरमन की वेदना कुसुम टँडन ने "बनवास" नामक कविता से छलकती हुई, पः १६५

रच गया एक इतिहास नया
फिर से इस नये ज़माने में
दे दिया है बनवास राम ने
माता पिता को अनजाने में.
॰॰
मेरी एक कविता "यादों का आकाश" यादों की दीवारों को खरोंच रहा है
मेरी यादों के आकाश के नीचे
दबी हुई है
मेरे जमीर की धरती,
थक चुकी है जो
बोझ उठाकर
अपने जेहन के आँचल पर
झीनी चुनरिया जिसकी
तार तार हुई है
उन दरिंदों के शिकंजों से
उन खूंखार नुकीली नजरों से, जो
शराफत का दावा तो करते हैं
पर,
दुश्वारियों को खरीदने का
सामान भी रखते हैं
बिक रहा है जमीर यहां
रिश्तों के बाजार में
बस बची है अंगारों के नीचे
दबी हुई कुछ राख
मेरे जिंदा जज्बों की
जो धाँय धाँय उड़कर
काला स्याह करती जा रही है
मेरे यादों के आकाश को.
॰॰
डा. प्रियदर्शिनी का अनुभव जिंदगी के बारे में उनकी ज़ुबानी, पः ३५

ज़िंदगी
नदी पर बना हुआ
लकड़ी का वह अस्थाई पुल है,
जिस पर हम
डगमगाते - डोलते
हिलोरें खाते
भयभीत
नीचे खाई में न झाँकने का प्रयास करते,
उस पार पहुँचने की ललक किये
चलते जाते हैं.
॰॰
बीना टोडी "मेरा अस्तित्व" में मन को टटोल रही है, पः३१२

करता है प्रश्न अचानक मेरा मन
साये से क्या वजूद है मेरा
या है अस्तित्व साये का मुझसे?
॰॰
अंजना संधीर के अपने अहसास कुछ यादों की परछाई बने हैं, पः ८४

चलो
एक बार फिर लिखें
खुशबू से भरे भीगे खत
जिन्हें पढ़ते पढ़ते भीग जाते हैं हम
इन्तजार करते थे डाकिये का हम
बंद करके दरवाज़ा
पढ़ते थे चुपके चुपके
वे भीगे ख़त तकिये पर सर रखकर.
॰॰

"फिर गा उठी प्रवासी" की रचनाकार लावन्य शाह, का कोमल मन झूमता हुआ. पः ४१५
पल पल जीवन बीता जाए
निर्मित मन के रे उपवन में
कोई कोयल गाये रे!
सुख के दुख के, पंख लगाये
कोई कोयल गाये रे!
॰॰
सारिका सक्सेना की कल्पना इंद्रधनुषी रूप धारण करती हुई उड़ रही है, पः४६०

तितली बन मन पंख पसारे
बिखरे रंग घनक के सारे.
शोख हवा से लेकर खुशबू
लिख दी पाती नाम तुम्हारे.
॰॰
मेरी अपनी एक आजाद कविता "सियासत" का अंग देश के जवानों को ललकार कर खून की लाली को चुनौती

दे रहा है कुछ इस तरह
ऐ जवानो ! तुम बचालो
बरबादी के इस अणु से
आबादियों को आतिशों से
उठ के आगे तुम बढ़ो, कर लो
सामना तूफान का
करो कुछ काम ऐसा
अमन और शोहरत से मिलो...
॰॰
रजनी भार्गव के कोमल मन के अछूते अहसास "अभिमान" से , पः ३७०

आँगन में किलकती वीरानियां
जब तुलसी के आगे लौ में सुलगती है
कार्तिक की खुन्नक और लौ की गरमाहट- सा है
ये अभिमान मेरा.
॰॰
इला प्रसाद की जुबानी "यह अमेरिका है" पः १२१

रात भर चमकता रहा जुगनू
रह रह कर
किताबों की अलमारी पर,
हरी रौशनी, जलती रही, बुझती रही
मैं देखती रही, जब भी नींद टूटी
सोचती रही
"कल सुबह पकड़ूंगी
रख लूंगी शीशे के ज़ार में,
जैसे बचपन में रख लेती थी!"

इतने अनोखे अहसास, माध्यम कविता. इस नए संचार की श्रृंखला शुरू करके अंजना जी ने बहुत ही गौरवपूर्ण उदाहरण कायम किया है. विश्व कवि रवींद्रनाथ का कथन, बरसों बाद भी उसी सच्च को ऐलान कर रहा है. वे कहा करते थे कि शांतिनिकेतन का रचनाशील विद्यार्थी जहां कहीं भी जायेगा वहां एक छोटा भारत निर्मित करेगा. याद आ रहा है कालिदास का "मेघदूत" जो सालों पहले पढ़ा था, मेघ अर्थात बादल जो दूत बनकर संदेशा ले कर आते है. अंजनाजी का सफलपूर्ण प्रयास कविता की जुबानी पूरब और पश्चिम के बीच का सेतु बनकर यही सरमाया देगा, और इसी नज़रिये से यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्होंने अमेरिका में एक छोटा भारत निर्मित करने का सफल प्रयास किया है.

कहा जाता है, हासिल की हुई कामयाबी अगर जग को अच्छी लगती है पर अपने मन को नहीं भाती, तो वह अधूरी कामयाबी होती है. पर इस रचना को रचित करने में योगदान देने वाली हर नारी इस कामयाबी का हिस्सा है, जैसे एक परिपूर्ण परिवार का मिला जुला एक सफल यज्ञ है " प्रवासिनि के बोल". नई दिल्ली से डॉ॰ कमल किशोर गोयनका का कहना है " इस संकलन का सब से बड़ा कार्य यह है कि इतनी प्रवासी हिंदी कवयित्रियाँ पहली बार हिंदी संसार के सम्मुख आ रही हैं और इतनी प्रकार की अनुभूतियाँ हमें मिल रही हैं. मेरे विचार में यह प्रयास स्तुत्य है, स्वागत के योग्य है." इसी बात का समर्थन करते हुए मुझे भी ऐसे लगता है, इस किताब पर हर नारी के हृदय से निकले बोल "प्रवासिनी के बोल" के रूप में जी उठे हैं. इसी संदर्भ में, मैं सारी नारी जाति की तरफ़ से अंजना जी को हार्दिक धन्यवाद देती हूं, और शुक्रगुजार हूँ जो मुझे भी अपने इस क्रियाशील अनुभव में अपने स्नेह के धागे में पिरोकर सम्मानित किया है.
शुभकामनाओं के साथ

देवी नागरानी
न्यू जर्सी, यू.एस.ए
नवंबर ५, २००६
Email: devi1941@yahoo.com

अंजना संधीरः anjana_ sandhir@yahoo.com

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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रचनाकार: देवी नागरानी की पुस्तक समीक्षा : प्रवासिनी के बोल
देवी नागरानी की पुस्तक समीक्षा : प्रवासिनी के बोल
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