भूपेन हजारिका दिल हूम-हूम करे -दिनकर कुमार ( पिछले अंक से जारी ....) तीन एम. ई. स्कूल के शिक्षक नीलकान्त हजारिका बाद में सरकारी अधिकारी बन ग...
भूपेन हजारिका
दिल हूम-हूम करे
-दिनकर कुमार
(पिछले अंक से जारी....)
तीन
एम. ई. स्कूल के शिक्षक नीलकान्त हजारिका बाद में सरकारी अधिकारी बन गये थे और उनका तबादला असम के कई शहरों में होता रहा था। बचपन के शुरुआती कुछ साल भूपेन हजारिका ने गुवाहाटी में अपने ननिहाल में गुजारे थे। गुवाहाटी के भरलुमुख इलाके में नाना का घर था। विभिन्न भाषा-भाषी लोग रहते थे। बंगाली लोगों का कीर्तन कार्यक्रम देखने भूपेन जाते। वहीं थाने में बिहारी सिपाही रहते थे, जो भोजपुरी में गाया करते थे। उनके गीतों को भी भूपेन मन लगाकर सुना करते थे। मां के साथ ‘ओजापाली' (महापुरुष शंकरदेव द्वारा प्रारम्भ की गयी नृत्यनाटिका की परम्परा) देखने जाते थे।
नाना के घर के पास से छोटी नदी ‘भरलू' बहती थी, जो ब्रह्मपुत्र में मिलती थी। सबको तैरते हुए देख भूपेन का जी चाहता कि वह भी तैरें, मगर तैरना नहीं आता था। एक दिन भूपेन ने देखा कि एक छोटी लड़की नदी में नहा रही है। किनारे पर खड़े किसी आदमी ने कहा कि वह डूब जाएगी। भूपेन फौरन नदी में कूद गये। बच्ची ने उन्हें जकड़ लिया। दोनों डूबने लगे। तभी एक बिहारी पुलिसवाले ने उन्हें पानी से बाहर निकाला। बाहर निकालने के बाद पुलिस वाले ने भूपेन को धमकाया कि आइन्दा इस तरह की हरकत नहीं करे। उसकी डांट सुनने के बाद बालक भूपेन ने तय कर लिया कि वह तैरना अवश्य सीखेगा। अगले दिन वह एक बांस की सहायता से तैरना सीखने लगा। एक घण्टे तक कोशिश करने के बाद वह तैरना सीख गया। जब तैरना आ गया तो भूपेन ने तय किया कि रेलवे के पुल पर उस समय खड़ा होकर पानी में छलांग लगाने में बड़ा मजा आएगा, जब रेलगाड़ी आ रही होगी। उसने वैसा ही किया। कामाख्या स्टेशन से रेलगाड़ी गुवाहाटी की तरफ आ रही थी। तभी भूपेन पानी में कूद गया। तैरते हुए किनारे के एक पेड़ के पास पहुंचा। रेलगाड़ी आगे जाकर रुक गयी। गार्ड ने उतर कर फटकारा, ‘मरना चाहता है क्या ?' भूपेन भागता हुआ नानी के पास पहुंच गया और सारा हाल कह सुनाया।
गार्ड ने जो फटकारा था, उससे बालक भूपेन नाराज हो गया था। उसने तय किया कि रेलगाड़ी को पटरी से गिराना होगा, तब उस गार्ड को सजा मिल जाएगी। अगले दिन भूपेन ने रेल की पटरी पर पत्थरों को ढेर के रूप में रख दिया। इसके बाद घर में आकर खाट के नीचे छिप गया और बेसब्री के साथ रेलगाड़ी की प्रतीक्षा करने लगा। रेलगाड़ी की आवाज सुनाई पडी। भूपेन के दिल की धड़कन तेज हो गयी। रेलगाड़ी तेजी से गुजर गयी। पटरी से रेलगाड़ी उतरी नहीं। बालक भूपेन ने दुबारा वैसी कोशिश नहीं की।
चार
नीलकान्त हजारिका का जल्दी-जल्दी तबादला होने का प्रभाव बालक भूपेन की पढ़ाई पर पड़ना स्वाभाविक था। 1933 में गुवाहाटी के सोनाराम स्कूल की तीसरी कक्षा में भूपेन का दाखिला हुआ। 1935 में धुबड़ी के प्राइमरी स्कूल में भूपेन का दाखिला हुआ। छह महीने बाद ही भूपेन का दाखिला गुवाहाटी के काटन कॉलेजिएट स्कूल में करवाया गया। जहां से पांचवीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद भूपेन को पिता के साथ तेजपुर जाना पड़ा। तेजपुर हाई स्कूल की छठी कक्षा में भूपेन का दाखिला हुआ। 1936 से 194॰ तक भूपेन तेजपुर में रहा और ये चार वर्ष उसके जीवन के अत्यन्त ही महत्वपूर्ण वर्ष साबित हुए, क्योंकि इन्हीं चार वर्षों में भूपेन के भीतर की प्रतिभा को उजागर होने का मौका मिला।
तेजपुर में उस समय असमिया साहित्य-संस्कृति के दो युग पुरुष ज्योतिप्रसाद अग्रवाल और विष्णु राभा सक्रिय थे। उनके प्रयासों से तेजपुर
में सांस्कृतिक वातावरण बन गया था। पद्मधर चालिहा, पार्वती प्रसाद बरुवा जैसे गीतकार-संगीतकार थे। इन सबके सम्पर्क में आने के साथ ही भूपेन के भीतर का कलाकार पल्लवित-पुष्पित होने लगा। बंगाली मंच पर रवीन्द्र संगीत प्रतियोगिता हुई। तब भूपेन को केवल एक रवीन्द्र गीत गाना आता था, जिसे गाकर भूपेन ने प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया। पुरस्कार के रूप में सोने का पदक मिला। पांच वर्ष की उम्र से भूपेन हारमोनियम बजाना सीखने लगा था। तेजपुर में विष्णुराभा ने शास्त्रीय संगीत की बुनियादी बातें सिखाई।
असम में तब लोकगीतों एवं सत्रों के नृत्य-संगीत को प्रचारित करने का कोई प्रयास नहीं हुआ था। बांग्ला भाषा के तर्ज पर फूहड़ और सस्ते गीतों का प्रचलन हो गया था। ज्योतिप्रसाद और विष्णुराभा इस माहौल को बदलने की कोशिश कर रहे थे। वे असमिया लोकगीतों को जनप्रिय बनाने का आन्दोलन चला रहे थे। संगीत के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग कर रहे थे। विष्णु राभा गजल के अंदाज में असमिया में गीत लिखते थे और भूपेन को सिखाते थे। एक ऐसा ही गीत था ‘आजली हियार माजे बिजुली कण मारे, पूवर दुवार भेलि आहे ताई किरण ढालि, हिया जे मोर चमके ...' (भोले दिन में बिजली की तरह वाण मारती है, पूरब का दरवाजा खोलकर वह किरणें फैलाती है, मेरे दिल में रोशनी फैल जाती है)। भूपेन छोटा था और ऐसे गीतों का भावार्थ समझ पाने में असमर्थ था। इसके बावजूद मंच पर वह गाने लगा था। भविष्य के कलाकार को खाद-पानी मिलने लगा था। भूपेन बचपन में ही सोचने लगा था कि क्या गीत से समाज का कुछ उपकार किया जा सकता है ? स्कूल में छठी कक्षा में पढ़ते हुए उसने पहला गीत लिखा - ‘कुसुम्बर पुत्र श्रीशंकर गुरु'। 1939 में एक और गीत लिखा - मई अग्निकुमार फिरिंगीत'। फिर लिखा - ‘कंपि उठे किय ताजमहल'।
तेजपुर के वाण रंगमंच पर आये दिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता था। भूपेन के पिता भी नाटकों में अभिनय करते थे। ज्योतिप्रसाद पिआनो बजाते थे। भूपेन मां के साथ कार्यक्रम देखने जाता और महिलाओं की गैलरी में बैठकर कार्यक्रम देखता। ज्योतिप्रसाद के व्यक्तित्व का उस पर गहरा प्रभाव पड़ रहा था। तभी भूपेन को पता चला कि ज्योतिप्रसाद ने असमिया की पहली फिल्म ‘जयमती' बनायी थी, हालांकि तब तक फिल्म प्रदर्शित नहीं हो पायी थी। ज्योतिप्रसाद ने वाण रंगमंच को जीवन्त रूप प्रदान किया था। अधिकतर लोग केवल उनकी एक झलक देखने के लिए आते थे। जब तक ज्योतिप्रसाद से परिचय नहीं हुआ था तब तक भूपेन के मन में बड़ी इच्छा थी कि किसी तरह ज्योतिप्रसाद के करीब पहुंच जाए।
महापुरुष शंकरदेव (असम के प्रख्यात वैष्णव सन्त) की जयन्ती के अवसर पर भूपेन की मां ने उसे धोती-कुर्ता पहनाकर जयन्ती कार्यक्रम में एक ‘बरगीत' गाने के लिए भेज दिया। मां ने भूपेन को ‘बरगीत' गाना सिखाया था - ‘जय जय यादव जलनिधि यादव धाता'। इससे पहले केवल पांच साल की उम्र में भूपेन ने गुवाहाटी में मंच पर पहली बार गीत गाया था। तब असमिया साहित्य के जनक लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा ने मंत्रमुग्ध होकर उसे चूम लिया था। दूसरी बार धुबड़ी में भूपेन ने गाया था। तीसरी बार तेजपुर में बरगीत का गायन प्रस्तुत कर भूपेन ने भूरि-भूरि प्रशंसा अर्जित की। लोग कहने लगे कि नीलकान्त हजारिका का लड़का मीठे सुर में बरगीत गाता है।
तेजपुर के घर में गुवाहाटी से आने वाले मेहमान ठहरते थे। भूपेन तब आठवीं के छात्र थे, जब उनका परिचय गुवाहाटी से आये कमलनारायण चौधरी से हुआ। कमल बहुत अच्छे गायक थे। उन्होंने भूपेन को एक गजल गाना सिखा दिया।
भूपेन तब छठी में था, जब एक दिन ज्योतिप्रसाद अग्रवाल, विष्णु राभा और फणि शर्मा भूपेन के पिता से मिलने आये। ये तीनों व्यक्ति तेजपुर के सांस्कृतिक आकाश के झिलमिलाने वाले सितारे थे। उन्होंने बताया कि भूपेन को कलकत्ता ले जाना चाहते हैं और उसकी आवाज में रिकार्ड तैयार करना चाहते हैं।
दो दिन दो रात का सफर तय कर भूपेन कलकत्ता गये। रिकार्डिंग कम्पनी एचएमवी के स्टुडियो में भूपेन ने गाया। बालक भूपेन के कद के हिसाब से माइक ऊंची थी, इसलिए दो लकड़ी के बक्से जोड़कर भूपेन को उस पर खड़ा कर दिया गया था। ‘जयमती' और ‘शोणित कुंवरी' फिल्म के लिए नायिका की आवाज में भूपेन ने गीत रिकार्ड करवाए। भूपेन को ‘यंगेस्ट आर्टिस्ट ऑफ हिज मास्टर्स व्यॉइस ऑफ इण्डिया रिकार्ड संगीत' का सम्मान मिला। गले में सोने का मेडल पहनकर भूपेन ने जो तस्वीर खिंचवाई उसे बंगाल की ‘रिकार्ड संगीत' पत्रिका ने आवरण पर प्रकाशित किया। इससे पहले मास्टर मदन ने कम उम्र में गाने का कीर्तिमान स्थापित किया था। फिल्मों में गाने रिकार्ड हो गये तो ज्योतिप्रसाद ने तय किया कि दो गाने स्वतंत्र रूप से भूपेन की आवाज में रिकार्ड किए जाएं। विष्णु राभा ने गीत रचा और आधे घण्टे में धुन तैयार की और रिकार्डिंग करवा दी। इससे पहले असमिया गानों के इक्के-दुक्के रिकार्ड निकले थे। पहला रिकार्ड अच्छा लगा तो ज्योतिप्रसाद ने भूपेन की आवाज में दूसरा रिकार्ड भी तैयार करवा दिया।
कलकत्ता से लौटकर भूपेन ने परीक्षा दी और उत्तीर्ण हुए। गणित में खराब नम्बर मिले। शिक्षकगण भी भूपेन को अजीब नजरों से देखने लगे - कैसा लड़का है, जो पढ़ाई-लिखाई छोडकर गाने रिकार्ड करवा रहा है। भूपेन के पिता स्वयं शिक्षक थे, इसलिए घर पर भूपेन को पढ़ाते थे। घर में साहित्यिक पत्रिका ‘जयन्ती' और ‘असमिया' आती थी। भूपेन उन पत्रिकाओं को पढ़ते थे और कुछ लिखने की छटपटाहट उनके भीतर होने लगी थी। तेजपुर गवर्नमेण्ट हाई स्कूल की हस्तलिखित पत्रिका के लिए भूपेन ने ‘अग्नियुगर फिरिंगति' गीत की रचना की। भूपेन के पिता ने चार हजार दो सौ रुपए में एक फोर्ड कार खरीदी थी और एक गैरेज बनाया था। भूपेन उसी गैरेज में बैठकर आरम्भिक साहित्य साधना करने लगे। घर में एक विशाल पलंग पर माता-पिता और भाई-बहनों के साथ भूपेन सोते थे। जब पिता को पता चला कि भूपेन गैरेज में बैठकर पढ़ता-लिखता है तो उन्होंने भूपेन के लिए एक अलग कमरे की व्यवस्था कर दी। भूपेन ने पिता से वादा किया कि एकान्त पाकर वह मन लगाकर पढ़ाई करेंगे। मगर पिता ने भांप लिया कि अलार्म बजने पर भूपेन मां का उबला हुआ अण्डा खा लेते हैं और फिर रजाई में दुबक कर सो जाते हैं। पिता ने भूपेन को रात में उबला हुआ अण्डा देने पर रोक लगा दी।
शुरू में भूपेन का प्रिय विषय इतिहास था। इतिहासकार पद्मनाथ गोहाईंबरुवा से मिलने के लिए भूपेन अक्सर जाते थे। इसी तरह इतिहास के मर्मज्ञ राजमोहन नाथ भूपेन के पिता से मिलने के लिए आते थे। उन्होंने भूपेन से कहा था - एक पत्थर को उठाना, पूछना, पत्थर तुमसे ढेर सारी बातें करेगा। वह बताएगा - मेरे सीने से ह्वेनसांग गुजरा था, मेरे सीने में उषा ने स्नान किया था। पिता ने भूपेन को ‘बुक ऑफ नॉलेज' के दस खण्ड खरीद कर दिये थे। इसके अलावा हिटलर की आत्मकथा का बांग्ला अनुवाद का बांग्ला अनुवाद पढ़कर काफी प्रभावित हुए थे। बालक भूपेन पर जिस व्यक्ति का सबसे गहरा प्रभाव पड़ा था, वह थे ज्योतिप्रसाद। जीवन के प्रति एक सर्वांगीण दृष्टिकोण विकसित करने में ज्योतिप्रसाद ने उल्लेखनीय योगदान किया। तेजपुर में भूपेन चार साल रहे। इन चार सालों में भविष्य के भूपेन के निर्माण के लिए ठोस बुनियाद रखी जा चुकी थी।
पांच
194॰ में मैट्रिक की पढ़ाई पूरी कर भूपेन ने तेजपुर को अलविदा कर दिया। गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज में भूपेन को दाखिला मिला। तब भूपेन मामा के घर में रहकर पढ़ाई करने लगे। भूपेन ने केवल 13 साल 9 महीने की उम्र में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। वास्तव में उनकी पढ़ाई तीसरी कक्षा से शुरू हुई थी और उनके पिता ने उनकी उम्र एक वर्ष बढ़ाकर लिखवाई थी। हाफ पैंट पहनकर जब भूपेन कॉलेज गए तो चौकीदार ने पूछा - ‘क्या तुम कॉटन कॉलेजिएट स्कूल में पढ़ते हो ?' भूपेन ने कहा - ‘मैं कॉलेज में पढ़ने आया हूं।' चकित होकर चौकीदार ने पूछा - ‘क्या तुमने मैट्रिक पास कर लिया है ?' भूपेन ने कहा - ‘हां !' इसी तरह कक्षा में अध्यापक पी. सी. राय ने नन्हें भूपेन को देखकर वही सवाल पूछा। फिर जब भूपेन ने दृढ़ता के साथ बताया कि वह मैट्रिक उत्तीर्ण कर कॉलेज में पढ़ने आये हैं, तब जाकर पी. सी. राय को यकीन हुआ।
कॉलेज में नवागत विद्यार्थियों के लिए स्वागत समारोह आयोजित हुआ। भूपेन को पिता ने एक भाषण अंग्रेजी में लिखकर दिया था। जब भूपेन को मंच पर बुलाया गया तो भाषण भूलकर उन्होंने गाना सुनाया -
दुरनिर हरिणी सरू गांवखनि
तार एटि पंजाते सरू बांधेर मुखबनि ...
विद्यार्थियों के साथ ही अध्यापकगण भी भूपेन का गायन सुनकर मंत्रमुग्ध हो उठे। पी. सी. राय, वाणीकान्त काकती, लक्ष्मी चटर्जी, डॉ. सूर्य कुमार भुइयां आदि अध्यापकों ने भूपेन को आशीर्वाद दिया। भूपेन कॉलेज में लोकप्रिय हो गये।
भूपेन संगीत विषयक पुस्तकें ढूंढ-ढूंढकर पढ़ते थे। भातखण्डे की पुस्तक का बांग्ला अनुवाद उन्होंने पढ़ा। इसके अलावा लक्ष्मीराय बरुवा लिखित ‘संगीत कोष' का भी उन्होंने अध्ययन किया। साहित्यिक पत्रिका ‘आवाहन' में प्रकाशित होने वाले संगीत विषयक लेखों को भी वह गौर से पढ़ते थे।
भूपेन के पिता गुवाहाटी आ गये थे और एक छोटे से किराये के घर में भूपेन अपने माता-पिता के साथ रहने लगे थे। उसी समय द्वितीय विश्वयुद्घ छिड गया था और कॉटन कॉलेज अमेरिकी सैनिकों का अड्डा बन गया था। अचानक महंगाई बढ़ गयी थी। चावल पांच रुपए प्रति सेर बिकने लगा था। उधर पिता सेवानिवृत्त होने वाले थे और पेंशन के रूप में उन्हें 145 रुपये प्रतिमाह मिलने वाले थे। तब भूपेन आठ भाई-बहन थे। इतने बड़े परिवार के भविष्य का प्रश्न था। पिता ने जीवन भर दूसरों की मदद की थी। कभी अपने परिवार के सुरक्षित भविष्य के लिए कोई बचत नहीं की थी, न ही जमीन-जायदाद खरीदी थी।
युद्घ के कारण जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। 1942 में भूपेन के पिता सेवानिवृत्त हुए। परिवार का गुजारा चलना मुश्किल हो गया। उस दौरान भूपेन को भयंकर अभाव की स्थिति का सामना करना पड़ा। गोपीनाथ बरदलै को भी फाकाकशी की स्थिति से गुजरना पड़ रहा था। भूपेन के पिता के साथ उनकी दोस्ती थी। वे आपस में चावल बांटते थे, ताकि दोनों के परिवार के चूल्हे जलते रहें।
पिता ने भूपेन से कहा कि उसे बनारस जाकर आगे की पढ़ाई करनी होगी। कलकत्ता में बम गिराया गया था और वहां के हालात ठीक नहीं थे। इसीलिए पिता ने भूपेन को बनारस भेजने का फैसला किया। पिता ने कहा कि वह प्रतिमाह भूपेन को 6॰ रुपये भेजेंगे। 6॰ रुपये से ही भूपेन को अपने रहने, खाने और पढ़ने का खर्च चलाना पड़ेगा।
छह
सन् 1942 में भूपेन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आ गये। तब बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की ख्याति दुनिया भर में फैली हुई थी। सर्वपल्ली राधकृष्णन विश्वविद्यालय के कुलपति थे। स्वतंत्रता आन्दोलन के वरिष्ठ नेता अक्सर भाषण देने के लिए आते थे। समावर्तन समारोहों में आचार्य कृपलानी, पण्डित जवाहरलाल नेहरू, तेज बहादुर सप्रू, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद आदि नेताओं का वक्तव्य भूपेन ने सुना था। जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय में छिपकर रहते थे। आचार्य नरेन्द्रदेव ने विश्वविद्यालय में सोशलिज्म फोरम का गठन किया था। देशप्रेम की जो लहर चल रही थी, भूपेन पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा था। बनारस पहुंचकर भूपेन का हिन्दी और उर्दू साहित्य के साथ परिचय हुआ था। मुंशी प्रेमचन्द, फिराक गोरखपुरी आदि की रचनाएं भूपेन पढ़ने लगे थे। शास्त्रीय संगीत के नये रूप से भूपेन का साक्षात्कार हुआ था, भूपेन गजल गाने लगे थे।
विश्वविद्यालय में अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों को मासिक शुल्क नहीं देना पड़ता था। भूपेन चाहते तो आवेदन पत्र देकर मासिक सात रुपये बचा सकते थे। पर उन्होंने वैसा नहीं किया। उनके मन में जिद थी कि किसी प्रकार की अनुकम्पा लेकर आगे नहीं बढ़ना है। जो भी पाना है, अपनी प्रतिभा और मेहनत के सहारे ही पाना है।
उसी दौरान बनारस की एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए गोपीनाथ बरदलै ने हिन्दी में कहा था - हमारे असम को अगर लेना चाहते हैं जिन्ना साहब, पाकिस्तान का हिस्सा बनाना चाहते हैं तो हम कहते हैं कि वे आसमान का चांद भी ला सकते हैं, लेकिन असम को कभी भारत से अलग नहीं कर सकते।
बनारस में पढ़ रहे असमिया विद्यार्थियों ने ‘असम एसोसिएशन' का गठन किया था, जिसकी बैठकों में भूपेन शामिल होते थे। एसोसिएशन की वार्षिक पत्रिका में भूपेन का लेख प्रकाशित हुआ था।
बनारस में भूपेन चार वर्षों तक रहे। 1946 में राजनीतिशास्त्र विषय से उन्होंने एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भूपेन से कहा - यू आर दी यंगेस्ट इट सिम्स ! भूपेन ने कहा - यस सर। बीस साल की उम्र में भूपेन ने एम. ए. की पढ़ाई पूरी कर ली थी।
बनारस की दालमण्डी गली में कोठे पर अक्सर तवायफों का गायन सुनने के लिए जाते थे। कोठे पर जाने के लिए पच्चीस रुपये देने पड़ते थे। भूपेन अपने साथियों के साथ पांच-पांच रुपये का चन्दा देकर इस राशि का इन्तजाम करते थे। भूपेन की उम्र कम थी और तवायफें अक्सर उनका मजाक उडाती थीं - देवर, तू क्यों आया ! भूपेन कजरी और गजल सुनने के लिए उनके मजाक की तरफ ध्यान नहीं देते थे।
इसी दौरान भूपेन के मन में तूफान मचा हुआ था - भविष्य को लेकर। दस भाई-बहन का परिवार। पिता को 145 रुपये पेंशन मिल रहा था। भूपेन सोचते थे कि एम. ए. पढ़ने के बाद पत्रकारिता करेंगे। कानून की पढ़ाई करेंगे। यह सोचकर भूपेन ने हार्डिंग यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया था। अर्ल लॉ कॉलेज में भी दाखिला लिया था। कलकत्ता गये तो वहां भी लॉ कॉलेज में दाखिला लिया था। शुरू से मन में इच्छा थी - नौकरी नहीं करनी है, गाते रहना है। भूपेन सोचते थे कि ‘नतून असमिया' या ‘असम ट्रिब्यून' में पत्रकारिता करेंगे। कभी यह नहीं सोचा था कि केवल संगीत उनकी जीविका का आधार बनेगा।
परिवार में अभाव की स्थिति गम्भीर होती जा रही थी। जब भूपेन एम. ए. में पढ़ रहे थे तब उनके सबसे छोटे भाई समर हजारिका का जन्म हुआ था। भूपेन ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए नहाते हुए शेक्सपीयर की भाषा में चिल्लाकर कहा था - दस फार एण्ड नो फर्दर। बदले में भूपेन को पिता का चांटा खाना पड़ा था। भाई अमर हजारिका रेडियो इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए पूना जाना चाहता था। एक भाई बॉटनी की पढ़ाई कर रहा था। खर्च का इन्तजाम भूपेन को करना था। बहन सुदक्षिणा का विवाह करवाना था।
उस समय देश स्वतंत्रता की प्रसव पीड़ा से गुजर रहा था। भूपेन पर कार्ल माक्र्स, महात्मा गांधी का प्रभाव पड़ रहा था, दूसरी तरफ असम के शंकरदेव, ज्योतिप्रसाद आगरवाला और विष्णुप्रसाद राभा का प्रभाव पड़ रहा था। धरती को सुन्दर बनाने का सपना दिमाग में कौंध रहा था। कला को समाज परिवर्तन का हथियार बनाने का संकल्प दृढ़ होता जा रहा था। आगरा में ताजमहल देखकर उसी दौरान भूपेन ने लिखा था - ‘कांपि उठे किय ताजमहल ...'।
सन् 1948 में असम में भारतीय गण नाट्य संघ की स्थापना हुई। भूपेन संघ के साथ जुड गये। ज्योतिप्रसाद आगरवाला, हेमांग विश्वास, विष्णुप्रसाद राभा आदि सांस्कृतिक कर्मियों के साथ भूपेन समाज परिवर्तन के लिए संस्कृति के हथियार का इस्तेमाल करने में जुट गये थे।
गुवाहाटी लौटकर परिवार की तंगहाली को देखते हुए सन् 1947 में भूपेन गुवाहाटी के बी. बरुवा कॉलेज में अध्यापक की नौकरी करने लगे थे। इसके बाद उन्हें आकाशवाणी में नौकरी मिल गयी थी। डेढ साल तक आकाशवाणी में नौकरी करने के बाद भूपेन को अमेरिका में मास कम्युनिकेशन विषय में शोध करने के लिए छात्रवृत्ति मिल गयी थी। माता-पिता ने प्रोत्साहन दिया था - जाओ, शोध करके लौट आओ। फिर जो करना होगा, करना। भूपेन अमेरिका जाने के लिए तैयार हो गये थे।
(जारी क्रमशः अगले अंकों में...)
शुक्रिया!!
जवाब देंहटाएंवाह विस्तृत जानकारी…आप को साधुवाद
जवाब देंहटाएंश्री भूपेन जी के बारे में पढ़ कर दिल हूम हूम कर उठता है, अच्छी प्रस्तुति के लिये बधाई
जवाब देंहटाएंरवि भाई । आप तो जानते ही हैं भूपेन दा हमारे प्रिय कलाकार हैं । इतनी जानकारियां चाहकर भी कहीं से जमा नहीं कर सकते थे जितनी यहां हैं । दिनकर कुमार का भी शुक्रिया ।
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