प्रेम कुमार की कहानी : तिब्बत बाजार

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कहानी तिब्बत बाजार -प्रेम कुमार फुब्बू, तुम्हारे अलीगढ़ से जाने के बाद भी एक पत्र लिखा था। उसका क्या हुआ, मालूम नहीं। जब तुम्हारा ...


कहानी

तिब्बत बाजार

-प्रेम कुमार

फुब्बू,

तुम्हारे अलीगढ़ से जाने के बाद भी एक पत्र लिखा था। उसका क्या हुआ, मालूम नहीं। जब तुम्हारा ठौर-ठिकाना ही नहीं मालूम तो पता तो कुछ इसका भी नहीं है, पर फिर भी लिख रहा हूँ। देखो तो बीस वर्ष बीत चले हैं बिना तुम्हें देखे। पर तुम्हारे साथ के हिस्से में का न कुछ रीता हुआ है, न धुँधला। तुम्हारे देश की बात पर या तुम्हारे हम वतनों को देखते ही हमेशा तुम जैसे शरीर मेरे सामने आ खड़ी होती हो-उन खूबसूरत आँखों में न अट पा री अपनी सागर जितनी उस व्यथा के साथ। मन के अंदर की आग से दीपते-दमकते अपने उस खूबसूरत चेहरे के साथ। समझ नहीं आता कि इतनी अधिक उम्र और ताकत कहाँ से पाती रहती हैं ये यादें ! कभी आग, कभी पानी तो कभी तूफान बनकर अचानक आ धमकने का जादू इन्हें कौन सिखा जाता है फुब्बू? उम्र के असर से बेअसर ये यादें क्या अधिक पुरानी और ज्यादा तीखी, धारदार हो जाती हैं? किसी उम्मीद, इंतजार या भुला सकने के लिहाज से बीस वर्षों जितनी लम्बाई कुछ कम तो नहीं होती न ? इतने इन वर्षों में कितना कुछ नहीं हो गुजरा है इस देश और दुनिया में। बदलावों की ऐसी आँधियाँ आईं कि आदमी तो आदमी देशों तक के इतिहास, भूगोल, दीन-धर्म, ईमान तक बदल गए। कुछ हिले, टूटे तो कुछ इतने ताकतवर और जद्दी हो गए कि उनकी खुदाई एक तरफ और सारी दुनिया की यातनाएँ एक तरफ। पर हाँ, वो आँधी अभी आना बाकी है जिसकी तुम्हें प्रतीक्षा है और इंतजार मैं भी कर रहा हूँ। इसीलिए जब बहुत याद आती हो तो मन में जतन से सहेज-संभालकर रखे तुम्हारे हिस्से के गंगाजल से खुद को शीतल, पवित्र कर लेता हूँ और मान लेता हूँ कि मैंने तुमसे बात कर ली है।

तुम्हें नहीं मालूम तुम्हारे जाने के बाद के साल, उसके अगले साल और फिर अगले साल रेलवे रोड पर लगी तिब्बतियों की दुकानों पर तुम्हें कितना ढूंढा - तलाशा था मैंने। न तुम मिलीं, न तुम्हारे पिता। इतना भर पता चला कि तुम वतन के काम से तिब्बत चली गई हो। मुझे पता था कि तुम तिब्बत जरूर जाओगी। मेरे सामने ही तो किया था तुमने अपने पिता से यह वादा कि तिब्बत से लौटने के बाद तुम शादी जरूर कर लोगी। अगले साल पता चला कि तुमने अपने मंगेतर को भी तिब्बत बुला लिया है और अब तुम्हारे पिता तुम्हारे बिना दुकान लगाने भी नहीं निकल पा रहे हैं। फिर कभी उधर जाने की हिम्मत नहीं हुई। पता नहीं किससे कहाँ क्या सुनने को मिल जाए। पर ऐसे ये सिलसिले कभी थमते हैं क्या फुब्बू?

हर साल तिब्बत दिवस के अगले दिन मैं अखबारों में तुम्हारा नाम, तुम्हारा चित्र तलाश रहा होता हूँ। टी०वी० के समाचारों में तुम्हारी शक्ल ढूँढ रहा होता हूँ। चीन से आए राजनेताओं के विरोध-प्रदर्शनों की खबरों और तस्वीरों में से हमेशा मैंने तुम्हें ढूँढ निकाल लेना चाहा है - शायद नारे लगाती भीड़ की अगुआई करती तुम दिख जाओ, पुलिस की निगाहों से बचकर किसी इमारत पर अपना झंडा फहराती तुम दिख जाओ ...... पुलिस से उलझती जूझती ही शायद कहीं दिख जाओ। पर तबकी गईं तुम न फिर कभी मिलीं, न कभी दिखीं।

पर हाँ....... वह दिन........वह तिब्बती......और वह लड़की! हकबक था मैं.......हैरान रह गया था। एकदम अचानक घटा और जादुई-सा लगा। लगा कि इतने वर्षों बाद जैसे तुम मेरे पास हो, मेरे साथ हो। वही सब तो बताना-सुनाना है तुम्हें। उन दिनों का सब कुछ शेयर करना है तुमसे आज। पर पहले वह जो शायक तुम्हें पता न हो। सर्दी शुरू होते ही अब भी अलीगढ़ में तिब्बती लोग आते हैं। तुम्हारे समय से कई गुना ज्यादा। वे तुम्हारी या तुम्हारे पिता की तरह पीठ या कंधों पर कपड़ों के गट्ठर लादे-लादे घर-घर, गली-गली आवाजें लगाते नहीं घूमते। न तुम लोगों की तरह सस्ते होटलों या धर्मशालाओं में गिचपिच-गिचपिच इकट्ठे रहते हैं। साठ-सत्तर परिवार हैं। मालवीय पुस्तकालय और दुबे के पड़ाव का कुछ तो ध्यान होगा तुम्हें? इन दोनों जगह तिब्बती बाजार लगते हैं अब। तीस-तीस, चालीस-चालीस दुकानों वाले एक नहीं.......दो-दो बाजार! बाजार हो चली दुनिया के इस अलीगढ़ में दो-दो तिब्बती बाजार फुब्बू! कितनी बार मन हुआ, नहीं गया। वही डर कि पता नहीं क्या सुनने को मिले वहाँ तुम्हारे बारे में! सालों-साल टलता गया वहाँ जाना।

पर उस दिन........। दरअसल उन दिनों करमापा के भारत आने ने हम सबको उद्वेलित कर रखा था। हर रोज यहाँ करमापा, दलाईलामा, पंचेनलामा, तिब्बत और चीन से जुड़े समाचार छापे - दिखाए जा रहे थे। कैसे कहाँ-कहाँ से छिप-छिपाकर करमापा भारत पहुँचे, किसको क्या लगा, अनेक इंटरव्यूज, बहुत सारे दृश्य - यही सब छाया रहा था अखबारों में, टी०वी० चैनल्स पर। चीन के आरोप, भारत की चिंताएँ, तिब्बतियों की आँखों में जागी उम्मीद की चमक........। कदम-कदम पर तुम याद आती रही थीं उन दिनों। शायद इसीलिए तुम्हारे हम वतनों की आँखों में जागी उस चमक को देखने का लोभ जागा था उस दिन। या फिर तुम्हारी कोई खबर पा लेने की उम्मीद जागी थी मन में और फिर उस दिन वहाँ जाना नहीं टला तो नहीं ही टला। व्यग्र, आवेशित, उत्तेजित-सा मैं तिब्बत बाजार जा ही पहुँचा। कमाल यह कि जाना एक बार ही नहीं हुआ, तीन बार हुआ। एक सप्ताह में तीन बार।

तब वहाँ भीड़भाड़ नहीं थी। दुकानों के आस-पास कुछ बच्चे धूप में खेल रहे थे। कुछ वृद्ध-वृद्धाएँ खुले में बैठे आँखें बंद किए मालाएँ फेरने में मग्न थे। कुछ अकेले गुमसुम बैठे धूप सेंक रहे थे। कुछ घेरा बनाकर बैठे किसी चर्चा में मस्त थे। एक-दो दुकानों पर इक्का - दुक्का ग्राहक मोल-भाव में लगे थे। मैं बाजार के दो चक्कर लगा चुका था। कोई एक तो ऐसा दिखे जिससे कुछ पूछूं बात करूँ। तलाश तो तुम्हारी वाली उस बेचैनी, आग और रोशनी की भी थी, पर उसकी छाया तक किसी चेहरे पर नहीं दिखी। ऊँचाट मन वापस हो ही रहा था कि उस पर दृष्टि पड़ी-जींस, शर्ट पहने तब वह उन महिला ग्राहकों को स्वेटर्स की खूबियाँ गिना रही थी। कदम वही अड़ गए। लगा कि बीस साल पहले वाली तुम मेरे सामने आ खड़ी हुई हो। अपनी उस पारंपरिक तिब्बती वेशभूषा में नहीं, एकदम आधुनिक लिबास में। वैसी शांत, शर्मीली-सी नहीं, बहुत मुखर, चंचल, वाचाल-सी। पलभर को लगा कि मैं भी बीस साल पहले वाला वही हो गया हूँ जो तुम्हें पहली बार देखने के बाद हुआ था - सहमा, सकुचा, डरा-डरा सा! बात करने को मन हुआ। ठिठका-सा कुछ देर खड़ा भी रहा। पर तभी तीन-चार और महिलाएँ दुकान पर आ जमी थी। धुक-धुक जैसे कुछ तेज हुई........ और कदम खुद-ब-खुद आगे बढ़ लिए।

दो-तीन दुकानों की ही दूरी तय की थी कि वह दिखा। शांत, गंभीर आकर्षक-सा वह युवक ट्रांजिस्टर कान से सटाए कुछ सुन रहा था। अकेला, फुर्सत में दिखा तो उसके पास जा पहुँचा। मन में कहीं यह भी था कि शायद इतनी देर में वह लड़की फुर्सत में आए। पास जाते ही लगा कि इससे बात की जा सकती है। नाम पूछा तो कहा - शिम्मी-शिरिंग डोल्मा। जल्दी ही लगने लगा था कि जैसे हम अरसे से परिचित-आत्मीयता हैं। तिब्बत के जक्र के साथ ही जैसे कई दीपक उसके अंदर एक साथ जल उठे थे - ’नहीं, हम धर्मशाला में पैदा हुआ। पर क्या बात करते हैं आप? देश को मर सकता है कभी। सेना में था हम। दो साल पहले छोड़ा। बीबी लद्दाख - बच्चे कॉलिज! फीस बहुत-सो अर्निंग को ये धंधा। वो जो दिल्ली में आग लगाया चीनी मंत्री के आने पर वो हमारे साथ था सेना में। उसने अपना सपना देखा था - पूरा कर लिया। बहुत बहादुरी से लड़ा हमारा लोग सेना में। सामने से देखो तो अपने से कितना बड़ा दिखे। और हमारा आदमी छोटा-सा, इतना-सा। गाली मारो तो दिखे नहीं। हम खुखरी से, चाकू से मारा उनको।.....सेना में अब वैसा अफसर नहीं.........करप्शन इंडिया, को खा गया। रेल में जाओ तो टी०टी० पैसे माँगता है, थाने-पुलिस का आदमी आता है तो माँगता है........। करमापा की चर्चा तो लगा कि जैसे वह तिब्बत की निर्वासित सरकार का कोई बड़ा अधिकारी हो गया था - ’हम कहीं और नहीं जा सकते। अगर इंडिया परमीशन नहीं दिया तो करमापा को हम इंग्लैंड, कनाडा, आस्ट्रेलिया, अमेरिका या कहीं और भेज देगा। हाँ, हम लोगों का आदमी भेजेगा.......।........चीन से क्या डरना? हाँ, अमेरिका कुछ करेगा हमें भरोसा नहीं! भारत-भारत क्या करे?.......हाँ, लड़ाई ये करेगा नहीं।......कब मिलेगा, नहीं पता, पर आजादी हमें मिलेगा। जरूर.......। वह जोश में था, बहुत उत्साहित था - ’तब वहाँ था क्या? कुछ नहीं था, ऊसर था। पानी नहीं था। दलाईलामा जी वहाँ गया तो कमाल हो गया। काया पलट हो गया। अपने लिए वो सड़कें, वो अस्पताल, वो कॉलोनियाँ - सब तिब्बतियों ने बनाया। बाप रे, आज देखो तो कैसा लगता है। सुनसान इलाके.......वो जंगल आज.........सब दलाईलामा जी की कृपा।‘

तब चीनी विदेश मंत्री की भारत यात्रा की बात मैंने शुरु ही की थी। उसकी आँखें जैसे दहक उठी थीं और शब्द-शब्द चिंगारी हो गया था - ’बिल्कुल गलत बात है! चाइना का मिनिस्टर आया - भूख हड़ताल किया हमारा लोग इंडिया का पुलिस उनको जबर्दस्ती उठाकर ले गया। वो जलना चाहा था - उसे जलने नहीं दिया। गलत बात है न ये? क्यों किया वो लोग ऐसा? ? ? उसका स्वर पीड़ित और शिकायती हो उठा। देर तक सफाई-सी दी तो लगा कि स्वर कुछ नर्म हुआ, पर शिकायत तब भी बाकी थी - ’कोई ना नहीं कहेगा-इंडिया गवर्नमेंट बहुत किया था पहले। इंडिया अगर आज जैसा सिक्सटी टू में होता तो कुछ और बात होता! लाल बहादुर शास्त्री आज होता - तब वह न मरता तो हालत कुछ और होता। ....हाँ, राजीव गाँधी गया था चीन-तब कैसा उम्मीद जगा था सबको! पर अब - ऐसा चुप क्यों है? आप सुना-वैसा सब नहीं बोलना था इंडिया को........हमारा लोग सुना तो लगा कि भारत तिब्बत को चीन का मान लिया........।‘

उदास चेहरा, खोयी-भटकती-सी आँखें - वह आसमान को तक जा रहा था। इतनी लम्बी चुप्पी हम दोनों पहली बार सुन रहे थे। कुछ और बुलवाने के लिए मैंने दलाईलामा के विरोध में उठी कुछ आवाजों की चर्चा की थी। सुनते ही जैसे उसकी आँखों में, चेहरे पर - सब जगह क्रोध उग आया था - ’दलाईलामा जी, करमापा को जो बुरा, बोला, गलत कहा, वो सब चीनी दलाल-चीन का एजेन्ट! पैसे का लालची ऐसे ही बोलेगा। ऐसा लोग चीन के इशारे पर कब से कह रहा है - दलाईलामा को कैंसर हो गया, वो ज्यादा नहीं जीएगा। कभी बोलता है दलाईलामा डर गया, बिक गया........। इन सबको हमारा लोग छोड़ेगा नहीं........इन सबको साफ कर देगा हमारा लोग.........‘ उसकी तेज हो उठी साँसों की आवाज को सुनते-सुनते अचानक मुझे तुम्हारी एम्बैसी होटल के कमरे वाली मुद्रा याद हो आई थी। तुम्हें रेलवे रोड पर न पाकर मैं अचानक वहाँ जा पहुँचा था। दरवाजा खोलते ही मुझे सामने देख तुम्हारा चेहरा फक्क पड़ गया। तुम्हारी वो हड़बड़ाहट, तुम्हारे उन दो साथियों का हाथों में लगे हथियारों को इधर-उधर छिपाना.......तुम्हारा कुछ न बोल पाना - सब कुछ एक क्रम में मुझे याद आए जा रहा था।

तभी चोर-चोर चोर की तेज-तेज आवाजों ने हम दोनों का ध्यान अपनी ओर खींचा था। शिम्मी तीर की गति से भीड़ में जा मिला था। तिब्बती औरतें चिल्लाए जा रही थीं - चोर, चोर, चोर! तिब्बती पुरुष भी वहाँ आ इकट्ठे हुए थे। एक प्रौढ़ा चीख-चीखकर, हाथ नचा - नचा कर बता रही थी कि क्या हुआ, कैसे हुआ। एक महिला किसी ग्राहक महिला के थैले की तलाशी ले रही थी और जब उसने चोरी किया स्वेटर थैले में से निकाल लिया तो वह भीड़ को उसे दिखा रही थी, चिल्लाए जा रही थी - चोर, चोर, चोर! मैं डरा कि शिरीन अब इतना जरूर कहेगा कि आफ यहाँ ऐसा ये भी होता है। पर नहीं, वह ऐसे लौटा जैसे कोई तमाशा देखकर लौटा हो। मैंने हाल के घटित से ध्यान हटाने के लिए अलीगढ़ के लोगों के बारे में उसकी राय जाननी चाही। खिन्न, परेशान-सा हुआ था जैसे - ’आदमी के बारे में? क्या तो आप सुनेगा, क्या तो मैं बताएगा? यह शहर गंदा। ग्राहक यहाँ अच्छा नहीं! मारुति वाला खराब, साइकिल वाला अच्छा! सुना था यहाँ का आदमी बदमाश है - झिक-झिक करेगा, लड़ेगा-झगड़ेगा। महाराष्ट्र का आदमी बहुत सॉलिड है - एकदम बढ़िया। पर वहाँ भी बम्बई में अब गुंडागर्दी है.......। बगल की दुकान से उलझती-झगडती-सी आवाजें आ रही थीं। शिरीन का ध्यान उधर जा पहुँचा था।

-’ऐसा सब होता है तो कैसा लगता है शिरीन?‘ कोई उत्तर नहीं। ’ग्राहक लोग लड़ता है तो तुम लोग क्या करते हो शिरीन? देर तक कुछ सोचता सा चुप रहा। फिर थकी - धीमी-सी आवाज सुनाई दी - ’उधर देखो न उस दुकान पर। यहाँ का आदमी जब ऐसा-वैसा बोलता है, झिकझिक करता है, झगड़ता है तो पहले हम जोर से बोलता है - खूब जोर से। नहीं मानता तो हम सब मिलकर धमकाता है उसे। सब आ जाता है - इकट्ठा होकर। फिर भी नहीं मानता तो....... तो क्या - हाथ जोड़ देता है बस। और क्या करेगा हम?‘ पलकें तेज-तेज उठ गिर रही थीं। झिलमिल-झिलमिल सी उन पुतलियों में जैसे किरकिराने लगा हो अचानक कुछ - ’और क्या कर सकता है हम? ये तो लड़ सकता है, अपने देश में है। हम तो उनके देश में हैं। यह हमारा देश नहीं, यहाँ हमारा घर नहीं। बहुत तकलीफ होता है तब.........रोना आता है तब।‘ गीली-भीगी-सी हो आईं वे आँखें रो पड़ने को उतावली-सी दिखीं - रात को सोचता है तो नींद उड़ जाती है। हमारा क्या होगा? कब जाना होगा, ये तो नहीं मालूम पर जाना तो होगा। हम अपने देश लौटेगा जरूर........।‘ देर तक हममें से किसी को किसी की आवाज सुनाई नहीं दी थी। जैसे दोनों की वाणी ही मूक-पंगु हो गई थी अचानक।

छूटे, छिने, बीते को किस-किस तरह जीते दुहराते रहते हैं ताउम्र हम फुब्बू! सारी यात्राएँ, तलाशें, खाजें - सब उसी कुछ को ही तो पा-जी लेना चाहती हैं फिर-फिर। शिरीन से मिलकर बड़ा छटपटाना था मैं। फिर भी तीसरे दिन के आते-आते लगा कि उस लड़की से मिलना - बात करना जरूरी है - एकदम जरूरी। न रुक पाया तो दोपहर में भीड़-भाड़ न होने से सोच तिब्बत बाजार जा पहुँचा।

तब भी वह दुकानदारी में व्यस्त थी। थोड़ा फासला बनाकर खड़ा मैं उसे, उसके दुकानदारी के अंदाजों को देख - सुन रहा था - ’कहीं ट्राईकर लो। इसमें इतनी कमाई नहीं है। हमको माल खत्म करना है जल्दी.......।........अच्छा आप बताओ - लास्ट।‘ साढ़े तीन सौ से शुरु होकर दो सौ से होती हुई बात अब एक सौ अस्सी पर आ टिकी थी - ’ले लो, देखा - ये वाला इन्होंने पहना है - ये भी इसी रेंज में है.........।..........नहीं, दीदी कसम से टू हंड्रेड खरीद........ कमाई नहीं है......आपकी जबान पर दे रही हूँ......खराब निकला तो और कौन हम लौटाएगा न......अगली बार नहीं आएगा क्या हम........? सौदा करके बिगाड़ता है अब.......आप लो, ना लो.......सौ मैं तो हमें भी नहीं मिला........हाँ, हाफ - बोला न आपको - हंड्रेड टेन में लेना है क्या?.......दे दूँ क्या?‘ उँगलियों में पहनी अँगूठियाँ, नेल पालिश के रंग में रंगे लंबे, नुकीले नाखून, सिर की जुंबिश के साथ थिरक-मचल उठते गोल बडे-बडे कुंडल... लता की तरह हिलती - लहराती अनिंद्य सी उसकी वह देहयष्टि...बातों के बीच - में हँसी के नन्हे-मुन्ने से झरने, पतली, लम्बी-सी नदियाँ......हाँ, उसकी वह हँसी कभी किसी बच्ची की तरह, कभी किशोरी की तरह तो कभी एक दम एक युवती की तरह....। उसे मुग्ध-सा निहारता मैं तुम्हें याद किए जा रहा था।

ग्राहक टले तो मैं दुकान के करीब जा पहुँचा। मुझे देखकर उसने सामने से जाते एक लड़के को आवाज दी। लड़का पास आया तो चहकती-सी उससे बातों में व्यस्त हो गई - ’कल जाएगा क्या फेरे में?‘

- हाँ, जाएगा। तीन चार दिन में एंड हो लेगा।

- हाथरस जाएगा क्या?

- नहीं, वहाँ का दुकान वाला चिढ़ता है - लड़ता है।

- क्यों? क्या बोलता है?

- बोलता क्या है.....झगड़ता है। माल नहीं लगाने देता हमें वहाँ।

- पता है, मैं और दीदी गया था - सड़क के बीच में लगा के बेचा था माल.......।

- सच?

- और नहीं तो क्या! हम गली-गली घूमा भी और बाजार में सड़क पर लगा के भी बेचा..........हाँ, दीदी और मैं.......

उस तरह खड़े रहना जब ज्यादा खलने लगा तो मैं दुकान के और करीब जा पहुँचा। तभी उनका हम उम्र एक और लड़का सीटी बजाता, कुछ गाता-सा हाथ में एक कैसिट लिए वहाँ आ पहुँचा! गाते-गाते इशारे से उसने लड़की से कुछ कहा तुरंत कूदकर अंदर रखे स्टूल पर जा बिराजा। अब जरा जोर से गाया है उसने.......तरस गया हूँ.......बंदूक है गोली नहीं है। अपना दाँया हाथ लड़की की ओर बढाते हुए जैसे उसने खुजलाने का आग्रह किया है।

शरारत आ मिली है लड़की के अंदाज में भी - ’क्या मिलेगा?‘ असमंजस में घिरा मैं वहीं का वहीं खड़ा रह गया हूँ। अचानक लड़का घबराया-सा उठ खड़ा हुआ - ’अरे बुड्ढा आ गया।‘ लड़की की आवाज में गुस्सा आ मिला है - ’मेरे सामने ऐसे कभी नहीं बोलना। कभी तो तू भी बुड्ढा होगा। मेरा बाप बुड्ढा है......?‘ लड़के ने मुँह बिचकाया है - ’मैं सामने - मुँह के आगे बोलता है, पीछे नहीं।‘ लड़की और चिढ-झल्ला रही है - ’कभी मेरा बाब हीरो की तरह चलता था। कद मालूम है उसका? पाँच फुट छह इंच। हूँ - बुड्ढा आया है.......बुड्ढा आया है......।‘

लगा कि लड़के अब भाग जाऐंगे और मैं लड़की से बात कर सकूँगा। पर कहाँ? अब तक बाहर खड़ा वह लड़का भी कूदकर अंदर जा पहुँचा। उनकी हँसी - मजाक, बहसबाजी को सुनता मैं अब अधीर हो रहा था।....... ’अरे वो तो अम्मा है। अपने टाइम में टॉप रहा होगा वो भी।‘ लड़के के हाथ से कैसिट छीनकर लड़की उस पर के लिखे को पढ़ रही है। थका-चिढ़ा मैं बिना किसी से कुछ पूछे दुकान के पटरे जा बैठा हूँ। उनमें शामिल होने के लिए मैंने कैसिट के बारे में जानना चाहा है। वे ऐसे मस्त-खोए हैं बातों में कि उनमें से न कोई रुका, न चौंका। फिर से पूछा तो लड़की ने उत्तर दिया। क्षणभर को लगा कि जैसे मैं उन्हीं में से एक हूँ और देर से उनकी बातों में शामिल हूँ - ’नेपाली गीत का कैसिट लाया है.....एक गेम है.......सबको बुला रहा है.........आनन मेहरा-मेहरा हमने लगा दिया है.......हमेशा आनंद में रहता है.......।‘ एक लड़का जोर से हँसा है। दूसरे नेपाली सुपर स्टार गायक प्रेमराज महत की बात करते-करते उसके गीत की एक पंक्ति गुनगुनाई है - देश की याद सताती है.......। मैंने उनमें और घुल-मिल जाने के इरादे से हिन्दी फिल्मों की चर्चा छेडी है। अब वे जिस तरह मुझे देख रहे थे उससे साफ था कि उन्हें मेरे गैर होने का अहसास हो रहा है। एक लड़के ने अनमना-सा उत्तर दिया है - ’हाँ, अच्छा लगता है हिन्दी पिक्चर.......स्टोरी समझ आता है.......।‘ दूसरे ने मेरी ओर से मुँह फेरकर लड़की को बताया है - ’छह को निकलना है हमें।‘ लड़की झुँझलाई-सी बोली - ’छह को दिल्ली में मनाएगा। क्या मनाएगा वहाँ तू? यहाँ से बस में जाएगा.......रोड देखा है? गंदा-गंदा, मिट्टी-मिट्टी हो, जाएगा.......।‘ मैंने और करीब आने के इरादे से छह के बारे में पूछा। लगा कि लड़की का स्वर कुछ नर्म और मीठा हुआ है - ’छह को हमारा न्यू ईयर! हाँ, जैसे लोहिड़ी! छह से पूजा होगा धर्मशाला में। पन्द्रह दिन चलेगा......।‘ एक लड़का अब गाते-गाते जोर से हँसे जा रहा है। हँस-हँसकर उस नेपाली गीत की जैसे व्याख्या कर रहा है - ’लड़की से माँ स्मार्ट है.......मालूम है किससे?......लिपिस्टिक से, पाउडर से! मेरी माँ मेरी सब कुछ.........।‘

मुझे फिर तुम और तिब्बत की आजादी के लिए तुम्हारा वह जुनून याद आया। इन गीतों - बातों को सुनकर लगा कि मैं राख की किसी ऐसी ढेरी को कुरेद रहा हूँ जिसमें बहुत गहराई तक न कोई चिंगारी है, न कोई ताप या रोशनी है। अंदर तेज घुमड़न हुई क्या बदलाव की आँधियाँ ने किसी को भी नहीं बख्शा है? कुछ तो हुआ ही है। नहीं तो कोई एक ताकत, कोई एक देश बडे-बडे समुदायों, समाजों, राष्ट्रों को बाँटने-बर्बाद कर देने की हिमाकत न करता। मुझे चिंता हुई थी फुब्बू! शायद थोड़ा और अंदर, और अंदर ही छिपा हो कुछ। मैंने और गहरे तक कुरेदने के इरादे से ही सीधे तिब्बत की चर्चा छेड़ दी उनसे। सबकी मस्ती जैसे यकायक गुम हो गई थी। गर्दन झुकाए, चुप बैठे वे तीनों अचानक कहीं खो-से गए थे। बुलवाने की बहुत कोशिश की तो लड़की ने ऊबे-उकताए अंदाज में मैदान की ओर इशारा किया था - ’वो बैठा है उधर धूप में। उससे सुन ले सब। जा तो वहाँ। मेरे बाबा की कहानी सुनेगा तो थक जाएगा। बहुत लम्बा है उसकी कहानी। मैं नहीं सुनती सो गुस्सा करता है मुझसे। आप सुनेगा तो खुश होगा मेरा बाबा........।‘ साफ था कि वे नहीं चाहते कि मैं वहाँ रुकूँ। लड़की मेरे साथ चली तो पीछे से हँसी मिली एक आवाज सुनाई दी - ’बाबा सुनाता है तो आँख बंद करके सो जाता है चुप! तो फिर सुनेगा कैसे........।‘

अकेले स्थितप्रज्ञ मुद्रा में बैठकर धूप सेकते अपने बाबा को लड़की ने पता नहीं क्या समझाया। सिर हिला-हिलाकर बच्चे की तरह वे हाँ-हाँ किए जा रहे थे। सिलवटों भरे, गोरी उदासी लपेटे उनके पोपले मुँह से हो-हो की आवाज के साथ हँसी भी सुनाई दे रही थी। पैंट, स्वेटर, सिर परहैट! चुस्त-दुरुस्त सी उनकी काया में अब फुर्ती आ भरी थी। उन्हें सुनते कई बार लगा कि फुब्बू कि जैसे इतने दिनों बाद मैं तुम्हारे पिता की चिंता, चाहत, थकन, खुशी, हैरानी, परेशानी से एक बार फिर से गुजर रहा हूँ। शुरु में थोड़ी देर उनकी तर्जनी धरती पर कुछ लकीरें खींचती रही। फिर गर्दन झुकाए-झुकाए रुकते-अटकते से उन्होंने बताया कि वे कब कहाँ कर्म या ठंडे हिस्सों में रहे, वे कब कहाँ-कहाँ घूमे। कुल्लू, मनाली, शिमला, सिक्किम, नैनीताल, आसाम, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश.........। तिब्बत की बात चली तो जैसे वे उसी काल और जगहों पर जा पहुँचे थे। उनकी आँखों में तमाम उम्र की चढ़ाइयाँ उतराइयाँ साफ-साफ दिख रही थीं। कई-कई रंग उनके चेहरे पर जल्दी-जल्दी आ जा रहे थे। किसी रौ में बहे-से बडे भोले अंदाज में वे बता रहे थे - अस्सी से आगे हूँ अब! तिब्बत से आया तो बत्तीस का था। छोटा था तब आसाम आया था पहले। छः बेटी दो बेटे हुए। एक बेटा मर गया। उसकी एक बेटी है। तुमने कैसे सोचा कि भूल गया होगा हम? कैसे भूलेगा हम? पोटाला का राजमहल तुम कभी देखा? एक हजार कमरे, बहुत बडे-बडे हॉल, सोने जड़े खम्भे.........कोई भूलेगा क्या? सागा, न्यालम, ल्हात्से, नारी तुम देखा होता तो मरते तक नहीं भूलने होता। हम कैसे भूलेगा कभी? चीन हमारा तिब्बत तीन टुकड़ों में बाँट दिया। हमारे आम्दो और खाम को चालाकी कर अपने में मिला लिया। एक हिस्से को बोलता है कि ये तुम्हारा तिब्बत है। हम लोग का धर्म बदला वहाँ, मंदिर तोड़ा, लैंगुएज, कल्चर सबको मिटाने में लगा है........। क्या-क्या भूलेगा हम?‘ वे ऐसे हाँफ रहे थे जैसे मीलों लम्बी दौड़ लगाई हो अभी-अभी........ ’तुम कुछ सुना-पढ़ा कि नहीं? ल्हासा में अब लड़का-लड़की नाचता है, बीयर पीता है। बाहर का लाग देखने आता है। जोखंग मंदिर चौक पर अब डांस बार चलता है। भौत ऊँचा-ऊँचा इमारत बन गया है बहुत सारा। वहाँ का लोग को चीन डराता है.......खरीद लेता है सब........।‘ फुफकारते-से शब्दों के साथ झाग-झाग थूक बाहर गिर रहा था। आँखों में से चटखती-सी चिंगारियाँ इधर-उधर छिटके जा रही थीं।

चलने लगा तो मेरी हथेलियाँ उनकी हथेलियों की गिरफ्त में थीं। उन्हें दबाते, उनका सहारा सा लेते वे मेरे साथ उठ खड़े हुए थे। चार कदम ही चले थे कि रुके, मेरे करीब आए। उनकी दांई हथेली ने मेरे बाएँ कंधे को जल्दी-जल्दी कई बार थपथपाया। अपने होठों को मेरे कान के अधिकाधिक करीब लाकर ऐसे फुसफुसाए जैसे राजभरी कोई खास बात उन्हें कहनी हो - ’हम बुद्ध को मानता है न। आदमी के साथ आदमी क्यों नहीं रह सकता भला? चीन वहाँ आया, बोला - हमारा लोग रहने दो। हम कहा - रहो। वो दोबारा आया। फिर बोला - अब तुम जाओ। हमारा लोग मना किया। वो लड़ा। हमारा देश तो बहुत महान-बड़ा, पर हम पर लड़ने को इतना सब नहीं था। इलाईलामा जी यहाँ आया। पंडित नेहरू बोला - तुमको हम रखेंगे। फिर तो बहुत लोग आया यहाँ........।‘ बोलना रुका। इधर-उधर ऐसे देखा कि कोई और तो नहीं सुन रहा - ’तुम तो पढता-लिखता है न? कुछ पढा सुना क्या वहाँ के किसान मजदूर के बारे में, उनकी हडताल के बारे में? तुम वो सुना जो हमारा रिंपोचे दस मार्च को धर्मशाला में बोला‘?

इतना करप्शन बढा है वहाँ........कि वो चीन को जरूर कमजोर करेगा। हांगकांग, ताइवान, कोरिया का कैसा-कैसा फैक्ट्री लगा है वहाँ। माओ का सब उलट दिया देंगशियाओं पिंग ने। माओ मरा तो उसकी बेबा को अरेस्ट किया चीन। वो बेईमानी करता है, जुल्म करता है। रिंपोचे बोला.......चीन जल्दी टूटेगा.......करप्शन और जोर जुल्म उसे तोड़ देगा.......।‘ उनकी आँखों में एक चमक थी और हाँफती सी उस आवाज में एक चाहत बेहद दीन क्षणों में की गई किसी प्रार्थना की सी उन अनुगूँजों को मैं बाद तक, आज तक सुनता रहा हूँ फुब्बू।

फुब्बू, शिरीन और उस लड़की के बाबा से मिलने ने मुझे खुशी भी दी थी और उत्तेजित भी किया था। पर उस लड़की से बातें न हो पाने की कसक ने मुझे बेहद तंग किया। इसीलिए, तुम हैरान होगी, मैं अगले दिन फिर से - हाँ, तीसरी बार तिब्बत बाजार जा पहुँचा। प्रवेश के साथ ही उसके बाबा सामने की दुकान पर बैठे दिखे। प्रणाम के उत्तर में चहकते से अपने पास आने का इशारा किया - ’हाँ, तुम जिसके बारे में पूछा‘ ये बताएगा उनका खबर। ये लोग भी देहरादून का है। उसका नाम इन्हें बताओ। जिनसे पूछने को मुझसे कहा गया वे दोनों आँखें बंद किए माला फेरते हुए कुछ बुदबुदाए जा रहे थे। उनकी आँखें लगभग साथ-साथ खुलीं। छुपा, वुंजू में पुरुष और छुपा, वुंजू के साथ पंगधिन पहने, खाली चोक्ता को पीठ पीछे लटकाए वह स्त्री। मैं बार-बार नाम बताता रहा - फुरबू डोल्मा, नुरबू डोल्मा..........। पर हर बार उनकी गर्दन हिलती रही, होठों से ना ही ना निकलता रहा। बातों को अगर वहीं रोक देता तो शायद उन्हें बुरा लगता। यही सोचकर पूछ लिया-माला फेरते में क्या कहते हैं आप लोग?

- ओम मानी मैं हूँ........ओम नमः शिवाय की तरह.......बहुत लम्बा है यह!

- क्या माँगते हैं आप ईश्वर से अपनी इस उम्र में?

- हम पैसा, मकान नहीं माँगता। माँगता है कि पहले हमें आदमी बनाओ! अगले जनम में हम कुत्ता नहीं बनें, मच्छर-मक्खी न बनें। हाँ, हमारी आँख बंद होने से पहले तिब्बत देखना माँगता है हम........।‘ पकी उम्र की वे उम्रदराज आँखें बहुत छोटी-सी होकर तेजी से मिचमिचाती-सी डबडबाने लगी थी। फुब्बू उन आँखों के बिफर कर बह पड़ने के उस अवश अधैर्य ने मुझे अलीगढ़ से विदा के समय के तुम्हारी आँखों में के उस हौसले और संकल्प की याद दिला दी थी - ट्रेन दिल्ली की ओर रेंगना शुरु कर चुकी थी। तुम्हारी दोनों मुट्ठियाँ खिड़की की सलाख को जकड़े हुए थीं। तुम्हारे शब्दों में उत्तेजना और आवेश का स्वर तीव्रतर होता जा रहा था। डिब्बे के साथ-साथ चलते हुए मैंने तुम्हारे वे आखिरी शब्द सुने थे - ड० फेला डोगी येन-हम तिब्बत लौटेंगे!..........मेरी निगाह ने डिब्बे के अंदर छलांग लगाई थी। मेरी ओर देखती तुम्हारी वो आँखें..........उन आँखों के आसमानों में तूफानी तेजी से घिर आए वो बादल, वो कड़कती बिजली-सी कौंध........और फिर तेज बरसात की सी वो झड़ी........।

इत्तफाक था कि वह लड़की तब दुकान पर अकेली बैठी कोई अंग्रेजी अखबार पढ़ रही थी। मुझे देखा तो उसकी आँखों में पहचान का एक भाव आया। पटरे पर मेरे बैठने के लिए जगह बनाते हुए शिष्ट, आदर मिले अंदाज में बैठने का इशारा किया। आज वो एकदम बदली-सी लगी। शांत, सौम्य, गंभीर, शिष्ट तुमसे पहली बार मिलने को याद करते-करते पता नहीं कैसे यह खयाल आया - यदि तुमने तब शादी कर ली होती तो इतनी इस उम्र की यह लड़की तुम्हारी बेटी भी हो सकती थी। मैंने उसका नाम पूछा बोली - कुसांग डोल्मा! पढ़ाई-लिखाई की बात चली तो बताया कि बी०ए० किया है। नौकरी की बात पर आवाज कुछ ऊँची हुई - ’रखा कहाँ है नौकरी?‘ इंडिया गवर्नमेंट कहाँ देगा..........क्यों देगा हमें नौकरी? धर्मशाला में हमारा सरकार कितनों को देगा?‘ कुसांग के उस लाल-सुर्ख हुए चेहरे को देखकर मुझे उन लाखों-करोड़ों युवकों का ध्यान हो आया था जिनकी देह को कंकाल-सा बना दिया है बेरोजगारी ने। क्या वह आत्म निर्भरता के किन्हीं पाठों का परिणाम था फुब्बू? या फिर निर्वासित जीवन के दबावों-अभावों के लिए दूसरों से कोई उम्मीद न रखने का कोई अभ्यास? क्या उम्मीदें भी दुधारी होती हैं फुब्बू? एक तरफ से जिलाने का दमखम रखती है तो दूसरी तरफ से अपंग भी कर सकती हैं वे? मौन तोड़ने को धीमे से पूछा था मैंने - ’अगर कहीं नौकरी मिले तो.........?‘ अधीर-सी जल्दी में बीच में ही बोल पड़ी -

’नौकरी......सच बात ये कि हमारा शादी हो गया.........।‘

शादी......? अवाक, चकित हुआ मैं विवाहित की पहचान करा सकने वाले कुछ चिह्नों-प्रतीकों को तलाशने में जुट गया था। आश्चर्य प्रकट न होने देने के लिए पूछ लिया - ’ससुराल वाले क्या नौकरी करने को मना करते हैं?‘

- ’नहीं, ऐसा कुछ नहीं.........।‘

- तुम्हारी उम्र क्या है कुसांग?

- नाइनटीन ईअर्स..........।

- शादी को कितना समय हुआ?

- ऐट मंथ्स।

- इतनी जल्दी............?

- हाँ, कोई-कोई का हो जाता है। वैसे ट्वंटी फाइव, ट्वंटी सिक्स-सेविन तक भी करता है। हमारा ग्रांडफादर की लड़की का तब ट्वेल्व ईअर में होता! अब नहीं होता वो........।

- तुमने मना क्यों नहीं किया?

- नहीं, वो क्या था कि लव मैरिज था हमारा।

- लव मैरिज........यानी।

- हाँ, मथुरा से मुलाकात..........फिर डलहौजी, राजपुर-आसाम में साथ-साथ दुकान था हमारा। पहले तब शुरु हुआ बात जब हमारा फादर-मदर लुधियाना गया था माल लेने। उसका सिस्टर के साथ बात हुआ रास्ते में। मेरा हस्बैंड..........? आसाम साइड का! उसका सिस्टर का थ्री चिन्ड्रेन। हमारा ग्रांड फादर उसका लैंगुएच समझा। वो फ्रैंड जैसा हो गया.........। फिर क्या? फिर लव हो गया। उसने रीक्चेस्ट किया........शादी हो जाना बस.......। वह अनरुके बोले जा रही थी। फुब्बू! किसिम-किसिम की हँसियाँ बीच-बीच में आकर थिरकती-कूकती रहीं थीं उसके होठों पर। ऋजुता के वैसे उज्ज्वल पवित्र प्रपातों में तुमसे मिलने के बाद दूसरी बार स्नान कर रहा था मैं। किसे कब मिलता है ऐसा सौभाग्य फुब्बू! पर कुछ था जो अंदर-अंदर चुभे जा रहा था। लव और मैरिज की इस तरह इतनी देर तक बातें कर रही इस लड़की ने एक बार भी अपने तिब्बत को याद नहीं किया। तुम भीं कि तिब्बत के अलावा तुम पर कोई और बात जैसे होती ही नहीं थी। लव और मैरिज की बात पर तो तुमने अपने फादर तक की नाराजगी मोल ली थी।

हाथ में लगे अंग्रेजी अखबार से शुरु होकर बात अब हिन्दी पर आ टिकी थी। मैंने उसे खुश करना चाहा था - ’बहुत अच्छी हिन्दी बोल लेती हो तुम! कैसे सीखी तुमने इतनी अच्छी हिन्दी?‘ झिझकती-शर्माती-सी बोली - ’नहीं मुझे कहाँ आती है अच्छी हिन्दी - शिरींग को आती है........।‘ कुछ देर मौन रहीं। अचानक न जाने क्या हुआ कि उसकी भाव-भंगिमा बदलती दिखी। विचित्र सा तीखापन आ मिला था उसकी आवाज में - ’इंडिया का आदमी जब दूसरे कंट्री जाता है तो कैसे सीख लेता है वहाँ का लैंगुएज। वो तो वहाँ जैसा ही बोलने लगता है, करने लगता है सब। हमारा लोग तो फिर भी तिब्बत की तरह जीता है न यहाँ आज तक। इंडिया का आदमी इंग्लैंड गया तो वहाँ का जैसा और अमेरिका गया तो वहाँ का जैसा सब कुछ.......।‘ दहकते-चुभते से उन वाक्यों को सुनकर मुझे तुम्हारा बहुत गुस्से में दिया लगभग ऐसा ही एक उत्तर याद हो गया था - ’पेट, जरूरत, धंधा क्या-क्या नहीं सिखा देता इंसान को। मजबूरी में फंसेगा तो तुम भी सीख लेगा कुछ भी।‘

चलने से जरा पहले मैंने उसके घर वालों के नाम पूछे थे। कई बार बोलने के बाद भी जब मैं ठीक से नहीं समझ पाया तो वह परेशान सी दिखी। कागज पैन लेकर नामों को अंग्रेजी में लिखा। बार-बार बोलकर मुझसे उनका उच्चारण कराया। सही बोल देने पर ऐसे खुश हुई जैसे किसी कमअक्ल बच्चे को कोई अध्यापक मुश्किल-सा पाठ पढ़ा देने में कामयाब हो गया है। मुझ पर उस समय भी तुम्हारे साथ के अतीत का एक हिस्सा हावी हो गया था। मैंने उससे हिन्दी में कुछ लिखने को कहा। वह सकुचाई। जिद की तो थोड़ा सचेत होकर लिखा - यूकपा, मोमो, छोछो, चाउमिन..........। मस्तिष्क में तो तुम्हारे लिखकर दिए कुछ वे वाक्य घूम रहे थे। मैंने कुछ ऐसा लिखकर देने को कहा जिसे मैं बाद तक पास रख सकूँ। उसने मेरी आँखों में देखा। ऐसे जैसे मेरा मन पढ़ लेना चाहा हो उसने। फिर एकदम छोटे बच्चे की तरह संभल-संभल कर खुशखत-खुशखत उसने लिखना शुरु किया - ’मैं एक तिब्बती लड़की हूँ मेरा नाम कुसांग है हमारे तिब्बत देशचीन के कब्जे में है लेकिन हमने कभी तिब्बत देश को नहीं देखा है मगर ये जरूर जानती हूँ कि हमारा देश बहुत ही बडा और अच्छा जगा है सब कहते हैं वहाँ कुछ लोग पैसे के पीछे भागना शुरु किया है। चीन उनको बहलाता है। सच पूछो तो मैं वहाँ जाना चाहती हूँ बल्कि मैं ही नहीं हमारे सारे तिब्बतियाँ चाहते हैं और मैं भगवान से मांगती हूँ कि जब मेरी आखिरी सांस आएगी उस घड़ी से पहले मैं अपने देश को एक बार जरूर देखने का मिले और दलाई लामा जी का नाम तब तक रोशन रहे, जब तक सूरज रहे चाँद रहे?

मुझे पढते न देख लिया होता तो वह और भी कुछ लिखती। पर अब उसकी तन्मयता भंग हो चुकी थी। मैं चलने को खड़ा हुआ तो अनमनी, उदास-सी वह भी यंत्रवत उठ खड़ी हुई। मन में अचानक ऐसा कुछ घुमड़ा कि मेरी हथेली उसके कंधे को थप-थपाने लगी। मृगछोने की सी उसकी दूधिया आँखों में चलते जादुई रंग-बिरंगे खेलों को जी भर देखलेने के लिए मेरी आँखें मोहाविष्ट सी वहाँ आ जमीं। लगा कि उन आँखों में एक पल घने काले बादल गरजे थे। अगले पल तेज बिजली चमकी थी और फिर लगा कि बेबसी और पीड़ा का भयानक-सा एक समुद्र उन नन्हीं-सी आँखों में हिलोरें ले रहा है। मजेदार बात यह कि हर लहर के शीर्ष पर अपनी लौ को खूब ऊँचा किए कई-कई दीपक एक साथ जल रहे थे।

चकित, सम्मोहित सा मैं चुप खड़ा था और हाथ जोड़े मंत्रविद्ध-सी वह निर्निमेष मेरी ओर देखे जा रही थी। कुछ कहना जरूरी था - बहुत मुश्किल भी। जैसे-तैसे अंतस की आवाज को शब्दों की पोशाक पहनाई - ’जिनके पास साहस और ताकत के ऐसे नायक - ऐसे स्रोत होते हैं - उनके प्रति ऐसा विश्वास और इतनी आस्था होती है - उन्हें कभी कोई थका, झुका, हरा नहीं सकता कुसांग। समय की कैसी कितनी भी राख दिलों में दबी-छुपी आग को कभी बुझा-मार नहीं सकती कुसांग.......।‘

बस फुब्बू! फिलहाल इतना ही। तुम पास आ पाती तो.......। दुआ करता हूँ कि जल्दी ही तुम अच्छी खबर दो।

लाड़-दुलार के साथ तुम्हारा वहीं इंडियन अंकल।

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संपर्क:

प्रेम कुमार,

१७-ए, कृष्णधाम कॉलोनी

आगरा रोड, अलीगढ (उ०प्र०)

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प्रस्तुति:

फिरोज अहमद

संपादक, वाङ्मय

http://www.vangmay.com

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(चित्र - कृष्णकुमार अजनबी की कलाकृति)

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नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद 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रचनाकार: प्रेम कुमार की कहानी : तिब्बत बाजार
प्रेम कुमार की कहानी : तिब्बत बाजार
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