मेराज अहमद की कहानी : सही

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कहानी सही - मेराज अहमद गाँव के लोग काहिल होते हैं।‘‘ बेटे की मां ने उसके पेपर में आये सवाल को दुहराते हुए कहा, ’’बताओ सही कि गलत?‘‘ ...


कहानी

सही

- मेराज अहमद

गाँव के लोग काहिल होते हैं।‘‘ बेटे की मां ने उसके पेपर में आये सवाल को दुहराते हुए कहा, ’’बताओ सही कि गलत?‘‘

बेटे को जवाब मालूम था इसलिए वह मेरी तरफ देखकर मुस्कुराया। मुझे लगा कि वह अभी कहेगा गलत। मगर उसने जवाब नहीं दिया। वह मुस्कुराये ही जा रहा था। न जाने क्यों लगा कि वह मेरा मजाक उड़ा रहा है। हालांकि इसके लिए अभी उसकी उम्र नहीं हुई थी, फिर भी मुझे गुस्सा आने लगा। मैं सुबह ही गाँव से लौटा था। वैसे तो ट्रेन का सही समय दो बजे के आस-पास का था, मगर ट्रेन लेट हो गयी। यदि ट्रेन सही समय पर आयी होती तो मैं नींद पूरी करके ताजादम हो जाता और सुबह आठ बजे तक उठने के बाद काम पर आसानी से पहुँच जाता। सोना इसलिए जरूरी था कि काम ही कुछ ऐसा था कि दिनभर की भागदौड़ थी इस साइट से उस साइट भागना पड़ता था। कम्पनी में पैसे तो इतने अच्छे मिलते थे कि हर कोई इस कम्पनी में आना चाहता है, मगर ड्यूटी? बाप रे! ऊपर से सख्ती से वक्त की पाबन्दी! थके और कमजोर आदमी के लिए तो काम करना लगभग नामुमकिन-सा था।

आकर बिस्तर पर लेटने के बाद जैसे ही नींद आनी शुरू हुई बीवी ने खटर-पटर शुरू कर दी। बेटे की परीक्षाएँ चल रही थीं। वैसे भी इसी समय उठकर घरेलू कामों को शुरू कर देना उसकी दिनचर्या थी। नींद आते-आते उचट गयी, फिर तो हजार प्रयत्न किए मगर जब नींद गायब तो गायब। लेकिन बिस्तर छोड़ने का मन नहीं हुआ। मेरी कसमसाहट से बीवी को भी मेरे नींद न आने का एहसास हो गया इसलिए आठ से पहले ही एक-दो बार कमरे में आकर टोक भी गयी कि, ’’ नींद नहीं आ रही तो उठ जाओ।‘‘

बीवी के बार-बार टोकने के बावजूद मैंने बिस्तर नहीं छोड़ा। उठने की जैसे हिम्मत ही नहीं हो रही थी। आज की ड्यूटी तो खैर गयी ही। न जाने क्यों यह बात मन में संतुष्टि का भाव भर रही थी। यही नहीं! बार-बार यह भी ख्याल जोर मार रहा था कि नौकरी ही क्यों न छोड़ दूं। आखिर इसमें जान खपाने से हासिल क्या होगा?

ईद के ठीक से दो महीने भी नहीं गुजरे थे जब मैं सपरिवार घर गया था। मेरी कम्पनी की एक विशेषता यह भी थी कि छुट्टियों को लेकर ना-नूकर करने में मैनेजर लोहनी साहब मेरे मालिक वर्मा जी से भी एक कदम आगे थे। उनकी तो जन्दगी ऐसी थी कि बस काम...काम! इसके अलावा कुछ भी नहीं। कहने को मैनेजर थे वरना सबको पता था कि पूरे तीस प्रतिशत की हिस्सेदारी भी उनकी कम्पनी में, कहते, ’’कंस्ट्रक्शन की दुनियाँ में मैंने मेट की पोजीशन से काम शुरू किया। तुम लोग तो बडी-बडी डिग्रियों के साथ आये हो। चाँद सितारों से भी आगे बढ सकते हो। मगर क्या है कि जब देखो छुट्टी की एप्लीकेशन लिए हाजर! साल में कम से कम चार बार जाते हो मुलुक। फॉरेन का सपना भी देखते हो! खान वहाँ से कैसे बार-बार आओगे?‘‘

कभी-कभार शाम में समय से घर पहुँचने का मन होता तब भी लोहनी साहब की भाषणबाजी का ख्याल आते ही हिम्मत पश्त हो जाती। ’’अगर घर ही रहने का इतना शौक था तो गवर्मेंट जॉब देखते। सिविल में तो पैसा भी खूब है।‘‘ इसी के साथ यह कहना कभी नहीं भूलते कि, ईमानदारी के सैटिस्फैक्शन का जो मजा और आगे बढ़ने के जितने चान्सेज यहाँ है। वहाँ भला कहाँ? नेता लोग भी अब तो गुन्डों ठेकेदारों के साथ-साथ सर पर सवार रहते हैं।

घर में सर पर सवार बीवी को अपनी ही शिकायतें थीं, ’’सरकारी नौकरी के कितने ठाठ हैं! काश तुम्हारे भी दिमाग में यह बात उस वक्त आ गयी होती।‘‘

’’कब?‘‘ मैं उसकी बातों को हवा में उड़ा देने की गरज से कहता।

’’जब नौकरी में आये और कब?‘‘

मैं हंसकर कहता, ’’उस वक्त तुम जो मिल गयी होतीं तब न। मगर तब तो न जाने किसके ख्वाब में मुब्तला रही होंगी!‘‘

वह मेरे मजाक के प्रत्युत्तर में चिढ़ने के बावजूद अपनी ही रव में कहती ’’ कम से कम सलीके का घर तो होता।‘‘

’’मगर होता तो वह भी सरकार का। क्या फर्क पड़ता? किराये का हो या सरकारी। बल्कि किराये के मकान में अपनी मरजी के चुनाव की आजादी तो है।‘‘ मैं अपनी कमजोरी को ढंकने की गरज से कमजोर सा तर्क देने की कोशिश करता।

’’यही दो कमरुल्ली का घर! कौन सी अपनी मरजी का है?‘‘ वह फिर सवाल करतीं और कहतीं, ’’खुदा जाने कब अपनी जमीन और अपना घर होगा?‘‘

मैं उस पर प्रभावी होने की कोशिश करता, ’’ईमानदारी से इतनी मोटी रकम मिलती है सरकारी नौकरी में? मरजी का भी हो जायेगा बस अपना घर होने तो दो।‘‘

’’पहले एक घर से तो निपट लो फिर दूसरे घर के बारे में सोचो।‘‘ वह अपनी बात बड़ी सादगी और सामान्य लहजे में कहकर इस प्रकार से खुद को पेश करती मानो उसे घर की कोई परवाह ही नहीं। उसने तो बस यूँ ही घर बात निकली तो कह दिया।

उसकी इस अदा पर मैं तिलमिलाए बगैर नहीं रह सका।

’’उठो जी! साढ़े नौ बजने वाले हैं। ड्यूटी नहीं जाना है? तुम्हारे लोहनी साहब?‘‘ वह आगे कुछ कहते-कहते रुक गयी और पल भर की चुप्पी के बाद संजीदा स्वर में पूछा, ’’गाँव का क्या हाल है? अब्बा-अम्मा ठीक तो हैं न? आखिर क्या बात थी कि इतनी इमरजेन्सी का बुलावा आ गया?‘‘

मैंने उसके सवाल का कोई जवाब नहीं दिया। चुप ही रहा। थोड़ी देर तक मेरे जवाब का शायद उसने इन्तजार किया हो? मगर मुझे दुबारा आँख बंद करके सोने का उपक्रम करते देख वह अपने काम में लग गयी।

मैं जानता था कि उसे अनुमान हो गया होगा। वह इतनी भी बुद्धू नहीं कि जाने का कारण न समझती। दरअसल समझना आसान भी था। इस प्रकार जल्द-असजल्द घर किसी को बुलवाने के दो ही अहम कारण होते हैं। पहला, तब जब कि किसी की शदीद तबियत खराब हो या किसी की मौत हो गयी हो और उसे इस गमगीन खबर के साथ सफर न करने देने का इरादा हो! दूसरा, इसका सम्बन्ध किसी न किसी गम्भीर घरेलू समस्या से होता है। बुलाने वाले समस्या को फोन इत्यादि से साफ-साफ बताने के बजाय केवल उसका संकेत मात्रा करके इसलिए बुलाते हैं कि जाने वाला समस्या को अपने पैमाने पर भी तो तोलेगा। और यदि पलड़ा हल्का पड़ गया तो! बहरहाल कारण पहला होता तो अब तक उसे खबर मिल गयी होती। दूसरे किस्म के बुलावे और बाद में सामने आने वाले जवाज से अक्सर-व-बेश्तर हमारा साबका पड़ता रहता। समझने के बाद भी व अनजान बन रही है! मैंने उसके सारे सवालों को दरकिनार करके सिर्फ ड्यूटी वाले सवाल के जवाब देने की गरज से कहा, ’’नहीं!‘‘

उसने भी बजाय कुछ और बोलने के मुस्कुरा कर कहा, ’’नौकरी छोड़ने का इरादा है क्या?‘‘ सहज रूप में अथवा व्यंग्य के लहजे में वह बोली, मेरे लिए समझना जरा मुश्किल था। ’’गाँव में चलेंगे रहने। कम से कम घर की फिक्र से तो फुरसत मिलेगी।‘‘ कुछ देर खामोश रहने के बाद वह वैसे ही चहकी जैसे कि बेटा पेपर देने आने पर चहक रहा था, ’’अल्ला कसम! मजा आ जायेगा!‘‘

गाँव में अच्छा खासा दो खन का दादा के जमाने का बना लखौरी ईंटों का घर था। आगे ढलान और उससे लगी अन्दुरूनी कमरों की कतार चूने के छत की थी। बाकी का हिस्सा कोठेदार बनावट का खपरैल का था। लोग कहते पुराने जमाने में गाँवों में इतने अच्छे घर कम होते थे। दादा की कोई खास हैसियत भी नहीं थी। पूरा गाँव ही जमींदारों का था, मगर कहने के लिए अपनी ही जोत की जमींदारी थी। जमीन भी कितनी? सीलिंग के भी दायरे में न आ सकी। परिवार भरा पूरा था। दो बड़ी बहनें। चार भाई। वालिद की तो घर में मौजूदगी भर थी। दादा के इन्तकाल के बाद वालिदा ने अपने मैके की भव्यता से मिले तजुर्बे और व्यक्तित्व के बल पर घर को संभाला। खेती-बाड़ी उन्हीं के दम पर हो रही थी। हालांकि वक्त की बदलती रफ्तार का साथ ठीक से खेती दे नहीं पा रही थी, मगर उसी के बल पर जितनी जो ले सका उसे उतनी तालीम देने के कोशिश की। बडे भैया ने तो इंटर किसी तरह कर भी लिया मगर मझिले और छोटे कई-कई स्कूल बदलने के बाद भी हाई स्कूल की दीवार को फांद नहीं सके। सब घर थे, इसका मतलब था कि खेती में ही लगे हैं। करें चाहे जो, अगर मैं कुछ भी कहता तो गाँव में रहने का मुझ पर एहसान लादते हुए छोटे के अतिरिक्त सभी यह जरूर कहते कि, गाँव में रहो तो पता चले।

जब भी मैं सपरिवार गाँव आता तो भाभी पत्नी से यह कहे बिना रहती ही नहीं कि, ’’दुल्हन मौज तो तुम्हारी है। अकेली जान सास-नन्द और देवरानी-जिठानी की झंझटों से पाक!‘‘ फिर वह बडे विश्वास के साथ यह जरूर बतातीं कि, ’’ मैंने तो सुना है शहरों में राज ही औरतों का चलता है घरों में।‘‘ शुरू में तो मुझसे ऐसी बातें नहीं कहतीं मगर अब तो बराबर मुझसे भी ताने तवाजे की लात मारते हुए अपनी जानकारी के सम्बन्ध में समर्थन की आकांक्षा से हुंकारी भरवाने के लिए अन्त में यह भी कहतीं ’’क्यों बाबू?‘‘

बडे भैया थे! बाहर अफलातून बने घूमते। समझते कि सारे इलाके की राजनीति की बागडोर उन्हीं के हाथों में है। हाँ, भाभी के आगे उनकी एक न चलती। पूरे परिवार के न चाहने के बावजूद अपने तीनों बेटे बेटियों को उनके ननिहालियों को सौंप दिये थे। भाभी की देखा-देखी मझिले की बीबी ने भी तिरछी चाल में चलना शुरू कर दिया। काम-धाम तो कितना करना पड़ता है अब गाँवों में? उसका सारा समय भी शिकवे-शिकायत में बीतता। वह भी पत्नी से हर बार यह जरूर कहती कि, ’’बाजी! मेरी तो किस्मत ही फूट गयी। न जाने क्या देखकर ब्याह दिया अब्बा ने। ढंग के काम काज से तो दुश्मनी है इनकी।‘‘ ऐसे अवसरों पर वह कभी-कभी बड़ी व्यावहारिक बातें करती ’’बेटी माशा अल्लाह पानी की तरह बढ़ रही है। तीन-तीन बेटे भी हैं, मगर इन्हें अभी भी खेल-तमाशे से फुरसत नहीं। बस एक धुन। हाय क्रिकेट! हाय क्रिकेट। कभी मैच तो कभी टूर्नामेंट। कभी वालीबाल तो कभी हाकी। एक बार अब्बा ने कहा भी कि यहीं आकर कस्बे में कोई दुकान डलिया करो तो इनकी बात तो छोड़ो! पूरा खानदान आग का गोला बन गया। अब जो खुद हमारे यहाँ दरगाह के लिए सिन्नी-बताशा और अगरबत्ती बनाने का काम होता है तो वही तो कहेंगे? या कि इनके लिए हवाई जहाज का कारखाना लगवाऐंगे।‘‘

लोग कहते कि छोटा थोड़ा कमअक्ल है, मगर मुझे उसकी कमअक्ली संजीदगी लगती। किसी को रही हो या न मुझे उससे ही कुछ करने की उम्मीद थी लेकिन समय के साथ बढ़ती उसकी एकान्तप्रियता ने मेरी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। मन में यह भी ख्याल आता कि उसे किसी तरह बाहर ही भेज दिया जाय मगर उसकी इस विशेषता का ख्याल आते ही यह विचार अपने आप ही खारिज हो जाता। पहले कभी-कभी घर में कारोबार के सिलसिले में चर्चा भी चलती, मगर मेरी पढ़ायी पूरी होने के बाद नौकरी लगते ही मानो इस प्रकार की चर्चा अब गुनाह हो गयी। घर के खर्चे बढ़ रहे हैं। भला कैसे काम चलेगा? मैं सोचता। मेरी भी नौकरी कोई ऐसी नहीं कि धन बरसता हो। पसीना ढरकाओ तो जाकर पैसे मिलें। घर का मोटा किराया, बच्चे की पढ़ायी का अनाप-शनाप खर्च, हसब-हैसियत का खयाल भी तो रखना पड़ता है। ऊपर से घर वालों का यह तुर्रा कि तुम्हारे ही जितनी कमायी जो अरब में करते है उनकी बिल्डिंगें लहरा रही हैं। जब कोई यह कहता तो मेरे दिमाग की नसें फटने लगतीं। उन्हें यह समझाना भी तो आसान नहीं था कि मुझमें और मेरे काम और अरब वालों और उनके काम में क्या फर्क है। ऐसी बातों से काटने से पहले ले जाये जा रहे मुर्गे की तरह फड़-फड़ाकर मैं शान्त हो जाता फिर घरेलू समस्याओं को सुलझाने की नयी-नयी योजना बनाने में लग जाता।

छोटे ने इशारतन ट्रैक्टर निकालने की बात की, भैया और मझिले ने उसके लाभ को गिनवाया तो मेरे मन में आशा का संचार हुआ। छुट-पुट खाद-पानी के लिए दी जाने वाली हर महीने की निश्चित रकम के साथ मैं नयी हीरोहोन्डा मोटर साइकिल और ट्यूबवेल पर इंजन के लिए एक मुश्त रकम भी दे चुका था। कुछ पैसे प्लाट के लिए जोड़ रक्खे थे मगर इस कार्यक्रम को मुल्तवी करके लोन के साथ नकद जमा करने के लिए सारे पैसे दे दिए। ट्रैक्टर आ गया।

घर जब पहुँचा तो पता चला कि समस्या का सम्बन्ध ट्रैक्टर से ही है। चाय पानी से फारिग होता इससे पहले ही आंगन में सपरिवार मोर्चेबन्दी के साथ तैयार बैठी अम्मा सामने आ गयीं। ’’बाबू! आरसी कटने वाली है। अब तक तो किसी तरह भैया ने तुम्हारे रोक रखा था मगर अब?‘‘

’’मतलब?‘‘ मैं सन्नाटे में आ गया।

’’हर बात में मतलब ढूँढने की यह नयी आदत ठीक नहीं यार।‘‘ भैया ने थोड़ा झुंझला कर कहा। फिर बोले, ’’मतलब साफ है। किस्त जमा नहीं हुई।‘‘

’’मगर क्यों?‘‘ मैंने रोषपूर्ण आवाज में कहा, ’’जब भी मैं पूछता तो यही कहा जाता कि हो जायेगी।‘‘

मझिले ने मेरी तरफ इस तरह सवालिया निगाहों से देखा मानों कहना चाह रहा हो, नहीं हुई तो?

मैं कुछ तल्ख बोलता मगर मानों मेरे तेवर को पढ़ते हुए अब्बा ने बात को सँभालने की कोशिश की ’’बेटा खेती-बाड़ी में हजार झंझटें हैं। जितनी तुम समझते हो लोन की अदायगी आसान नहीं।‘‘

’’बिल्कुल। खेत की मेड़ पर जाओ तो पता चले।‘‘ मझिले ने लुक्मा दिया।

’’इसका मतलब तो यह है कि खेती जब इतनी बड़ी झंझट है तो उसे छोड़ देना चाहिए। जब लोन वापस करना इतना मुश्किल था तो लेना ही नहीं चाहिए था।‘‘ मैंने भरसक सामान्य लहजे में कहा।

छोटे ने मासूमियत से कहा, ’’मगर लेते तो सभी हैं।‘‘ ’’जो लेते हैं वह नहीं सोचते कि वापस भी करना है?‘‘ मैंने उसी के लहजे में उससे सवाल किया।

सब मेरा मुँह देखते रहे किसी ने कुछ कहा नहीं चुप ही रहे। मैं ही फिर बोला, ’’लोन अगर वापस न किया जाता तो ये जो बैंक वगैरह हैं, कब के बंद हो गये होते। हाँ वापसी के लिए मेहनत की जरूरत जरूर होती है।‘‘

’’इसका मतलब है कि हम लोग मेहनत नहीं करते?‘‘ भैया बोले।

’’करते तो यह नतीजा सामने आता?‘‘

’’मतलब?‘‘

’’मतलब यह कि, मेहनत का नतीजा मिलना ही मिलना है... थोडी देर-सबेर भले हो।‘‘

’’हमें तम्बीहों की जरूरत नहीं।‘‘

’’यह तम्बीह नहीं सच्चायी है।‘‘

’’सच्चायी बड़ी तल्ख और धार-धार होती है। उसका बयान तो आसान है।‘‘ कहकर भैया थोड़ा जजबाती से हो गये। ’’कभी बाढ़ तो कभी सूखा! आजकल तो वक्त से काम के लिए मजदूर तक नहीं मिलते।‘‘

’’इस तरह के ’खुदायी कहर और अचानक की परेशानियों का सामना तो हर कारोबार में करना पड़ता है। नौकरी जितनी आसान लगती है उतनी है नहीं। उसमें भी हजार झंझटों से सामना होता है।‘‘ मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की।

’’सुकून तो है।‘‘ उन्होंने झट जवाब दिया।

’’यहां से कम! अकेले की जिन्दगी! कोई अपना नहीं। सब अपनी अपनी दुनिया में खोये।‘‘

’’पैसे हों तो पराये भी अपने हो जाते हैं।‘‘

’’पैसों के लिए मेहनत की जरूरत होती है।‘‘

’’मैंने एक से एक मेहनत करने वालों को देखा है।‘‘ अब्बा को भी मेरा लहजा सम्भवतः अच्छा नहीं लगा।

’’अब्बा। यह बात गये जमाने की हो गयी जब गाँव में जद्दो-जहद के अलावा कुछ नहीं था। अब न शहर न गाँव। कोई फर्क नहीं है दोनों जगहों की जिन्दगी में।‘‘

’’तुम्हारा मकसद?‘‘ काफी देर से खामोश बैठी अम्मा ने अपनी चुप्पी तोड़ी।

’’मेरे कहने का मकसद यह है कि कोई काम नहीं करना चाहता इस घर में। जैसे जिम्मेदारी का किसी को एहसास ही नहीं।‘‘ मैंने झुंझलाते हुए स्वर में कहा, ’’मैं अरब में मजदूरी नहीं करता कि पेट काट-काटकर घर वालों को पैसे भेज-भेजकर ऐश कराऊँ।‘‘

’’जरूरतें पूरी करने को ऐश कहते हो! वाह बेटा, यही सुनने के लिए पाल-पोस कर इतना बड़ा किया था?‘‘ अम्मा खुद कितनी भावुक थीं मेरी समझ में नहीं आया मगर यह बात मुझे भावुक करने के लिए ही कही थी, मैं समझ रहा था।

मेरी भावुकता का ही यह नतीजा था कि मैं अपने और अपने बाल-बच्चों के लिए कुछ भी नहीं जोड़ सका था। कोई ऐसी नौकरी भी नहीं थी कि फंड पेंशन का सहारा हो। भावुकता को परे धकेल मैंने कहा, ’’शहर में नहीं पैदा हुआ मैं भी इसी गाँव में रहा हूँ। सब कुछ जानता-समझता हूँ। मेरा भी हक है लेने का भी, न कि देता रहूँ। देता रहूँ।‘‘

’’हक की बात कर रहे हो बाबू? जो जहाँ वहीं उसका हक।‘‘ भाभी भी आखिरकार बहस में कूद ही पडीं, ’’हक पाने के लिए अदा भी करना पड़ता है।‘‘

’’मतलब?‘‘

’’मतलब यह कि हम सब भी माँ-बाप हैं। बच्चे जब बडे हो जायें और माँ-बाप बूढ़े हों तो उनके लिए बच्चों का भी कुछ हक बनता है।‘‘

’’मैंने हक अदा करने से गुरेज किया?‘‘

’’थोड़े से पैसे देकर समझ लिया कि हक अदा?‘‘ भारी भरकम सवाल करके भैया ने मेरी बोलती बन्द करना चाहा।

’’मैंने या मेरी बीवी ने सेवा सुभीता से कभी भागने की कोशिश की? मना किया?‘‘

’’मना नहीं किया तो! किया?‘‘ भाभी ने जो एक बार जबान खोल दी तो भला कहाँ रुकने वाली थीं।

उनके इस पलटवार से मेरी बोलती बन्द सी होती लगी मगर मैंने फिर हौसला रखते हुए कहा, ’’कितना तो कहते हैं हम इन लोगों से! चलिए साथ।‘‘

’’लो! इनकी सुनो! हम लोग इस उमर में शहर जायेंगे इनके साथ!‘‘ अम्मा ने व्यंग्य भरे लहजे में कहा,

उनके व्यंग्य भरे लहजे से मैं खिसिया सा गया, ’’फिर तो एक ही रास्ता है। सेवा करने को नौकरी छोड़कर चला आऊँ।‘‘

अब्बा एक बार फिर बात को संभालने के लिए आगे बढ़े, ’’यही तो इस घर की शान है। बहस-मुबाहसे के अलावा भी कोई कुछ करना चाहेगा भला? सामने जो मुश्किल आयी है उसका सामना कैसे हो सोचने की बात तो यह है।‘‘ कहकर वह खामोश हो गये।

इसमें सोचना क्या है? सीधी-सी बात है, मुझे पैसे का इन्तजाम कहीं न कहीं से करना है। करूँगा ही। सबको पता है। चाहे इसके लिए फिर लोन ही क्यों न लेना पड़े। मन में आया कि कह दूँ, मगर न जाने कौन सी ताकत थी जिसने मुझे रोक दिया। मन उलझने लगा। घर छोड़ने को कोई तैयार नहीं। अव्वल तो सोचेंगे ही नहीं कारोबार के बारे में, सोचें तो उसके लिए भी एक मुश्त रुपयों का सवाल! खेत में जाकर काम करने की कौन कहे? वहाँ जाने में सबकी हेठी होती है। सब कुछ मजदूरों के जिम्मे है तो खाक फायदा होगा। बडे भैया को तो बस सुबह अच्छा सा नाश्ता चाहिए फिर मोटर साइकिल स्टार्ट की और कस्बे की बाजार में हाजिर। बेमकसद! इस दुकान उस दुकान बैठक करेंगे। फुरसत है तो लोगों की बेगार करनी ही पड़ेगी। किसी की तारीख तो किसी का थाने का मामला हल करने के लिए मुफ्त का आदमी तैयार हो तो फिर लोग तो करवाना चाहेंगे ही। दो घड़ी रात के बाद वापसी होगी, फिर देर रात तक दरवाजे पर लोगों का जमावड़ा लगेगा। मुफ्त की चाय और पान-दोहला मिलेगा तो लोग तो आयेंगे ही! सबको फुरसत ही फुरसत है। जवान होने से पहले बच्चों को बम्बई, दिल्ली भेज देंगे। नरक भोगने के लिए! आने वाले मनीआर्डर के बल पर सभी एक दूसरे को देख लेने की योजना बनाते सामने वाले को खाक में मिला देने को तैयार रहेंगे। अगर घर से एकाध बच्चा अरब चला गया तब तो कहना ही क्या? एक जमाने में इसी गाँव में पढ़े-लिखे कितने तो सरकारी नौकरी में थे, मगर आज? मुसलमानों को नौकरी तो मिलती नहीं, कहकर बच्चों के पढ़ाने-लिखाने की जिम्मेदारी से बचने के लिए पढ़ाकर टाइम न खराब करने का एक नया बहाना गढ़ लिया।

’’बाबू! कहते हो कि तनखाह पूरी नहीं पड़ती है। तो? यहाँ तो इतना बड़ा परिवार है! खेती को छोड़ा भी तो नहीं जा सकता‘‘ अब्बा ने यह कहकर मुझे सचेत किया।

’’भैया। खेती पैसा चाहती है।‘‘ अब्बा आगे कोई तर्कपूर्ण बात कहते, इससे पहले ही मझिले ने उनकी बात को कुतरा।

’’देती भी तो हैं?‘‘ मैंने उससे ये सवाल किया।

’’यकीनन देती तो हम सब राजा होते।‘‘ उसने तुरन्त जवाब दिया। फिर गहरी नजर से मेरी तरफ देखने लगा मानो कहना चाह रहा हो, अब जवाब दो।

एक सीमा तक उसका ये तर्क सच्चायी पर आधारित था। मेरी समझ में तुरन्त जवाब नहीं आया तो कहा, ’’राजा इस लिए नहीं कि मेहनत नहीं करता है। जो करता है वह राजा ही है।‘‘ कहकर मैं जैसे ही चुप हुआ तुरन्त पंजाब के किसानों का ख्याल आया, मगर लगा यहाँ ऐसी बातें करना सावन के अन्धों के सामने सूखे की बात करने से बढ़कर कुछ नहीं होगा, न ही कोई समझेगा। मैंने सच ही कहना मुनासिब समझा, ’’दिन भर चौराहे-चौराहे मीटिंगें करना। आठ बजे, नौ बजे तक सोना और बेमतलब की कारगुजारियों लगे रहते हो तो भला खेती में क्या होगा?‘‘

’’बाबू पढ लिखकर जो आज इस जगह न होते तो ऊँची-ऊँची निकलती‘‘ अम्मा ने तल्ख लहजे में कहा।

’’अम्मा! मैं किसी राजघराने से नहीं कि कम्पनी ने नौकरी देकर खुद को इज्जत बख्श दी है। मेहनत इतनी करनी पड़ती है कि मजदूर भी क्या करते होंगे।‘‘

’’सब मौका-मिलने की बात है!‘‘ मझिला बोला, ’’अगर मौका न मिला होता तो निकलती इतनी बड़ी-बड़ी बात?‘‘

’’अब मैं क्या कहूँ तुमसे? पढ़ाने की सबको कोशिश की गयी मुझसे ज्यादा ही। मगर पढ़ायी में भी मेहनत और जज्बे की जरूरत होती है। मौज मस्ती की नहीं। सोचते-सोचते मन उदास हो गया। अतीत की छवियाँ सामने आ गयीं। इन्टर के बाद दो साल तक जब इन्जीनियरिंग का इन्टरेन्स क्लियर न कर सका तो स्वागत ही ताने तवाजों से करती थीं भाभी। पीछे से भैया भी रुपये पैसों की बरबादी पर अच्छा-खासा भाषण दे देते थे। खुद इन्टर करने शहर गये और अनाप-शनाप पैसे लेते थे। बी.ए. सिर्फ इसलिए नहीं किया कि पहले ही साल में थे तो प्रिंसिपल से तू-तू मैं-मैं करके पढ़ायी छोड़ दी। ये साहबजादे हैं ऐसे पोज करते जैसे सोबर्स, बस वेस्टइंडीज से बुलावा आते-आते रह गया। पढ़ायी-लिखायी क्या खाक करते! अम्मा भी गाँव देहातों में शुरू हुए कुकुरमुत्तों के ढेर जैसे टूर्नामेन्टों में मिले जग-गिलासों और प्लेटों को लोगों को दिखा-दिखाकर निहाल होती रहती हैं। दादा ने अपने ही वक्त में दोनों आपाओं की शादियाँ न कर दी होतीं तो...? मैं सोचकर सिहर जाता।

मेरी चुप्पी से अम्मा शायद कुछ सहम-सी गयीं और मान-मनुहार करने वाले अन्दाज में आहिस्ता से कहा ’’सब अपनी-अपनी तकदीर है।‘‘

इसी तकदीर और अपने साथ हो रहे भेदभाव भरे रवैये की दुहायी देकर कितनी पश्ती की तरफ बढ़ रही हमारी कौम? पढ़ायी लिखायी में आगे बढ़ने के बजाय पीछे जाती, मेहनत-मशक्कत से दूर होती। खेती-बाड़ी में आसानी के लिए नयी-नयी मशीनें आ रही हैं मगर उसको सही सिम्त में इस्तेमाल के बजाय आराम तलबी का साधन बना लिया है सबने। बस एक ख्वाब गल्फ का! बच्चों को जितनी जल्दी हो सके गल्फ भेजा जाय। राजनीति ने भी खूब अपने पाँव पसार लिए हैं। सब उसमें डूबकर न जाने कौन सा अमृत पा लेना चाहते हैं। सबकी झुन्ड की झुन्ड औलाद हैं। उनकी रोटी तक ख्याल नहीं है किसी को, मुर्गी बकरियों को पालकर कितने घरों में औरतें कैसे-कैसे तो चूल्हा जलाने का इन्तजाम करती हैं। सब, सबकी जानते हैं। कोई कुछ कहता सुनता नहीं किसी से। अचानक मन में आया कि ये बात मैं चीख-चीख कर कहूँ। आँगन में सारा गाँव इकट्ठा हो जाये। मेरी आवाज गोली बनकर लोगों के कानों के बंद पर्दे को छेदती हुई जड़ ही चुकी दिमाग की नसों में प्रहार करके रक्त का संचार कर दें। मगर आश्चर्यजनक रूप से सीने में ही घुट कर रह गयी, तमाम कोशिशें की आवाज नहीं फूटी। घबराहट होने लगी, लगा कि साँसे भी टूट सी रही हैं। दिल बैठा जा रहा है।

’’पापा! पापा!‘‘ बेटा बाहर से थोड़ी देर तक खेलकर आया और मेरे कान के पास मुँह करके बोला। हालाँकि उसकी आवाज में लाड़ था मगर मुझे लगा कि वह चीख रहा है। उसने फिर उसी अंदाज में कहा, ’’मैंने जवाब नहीं दिया मम्मी को तो आप ने भी समझा होगा कि मुझे जवाब का पता नहीं।‘‘ वह मेरी तरफ मुँह करके फिर मुस्कुराया।

’’चलो भागो। शोर मचाकर सोने भी नहीं देते। उसकी मुस्कान के प्रत्युत्तर में मैंने अकारण ही उसे डांटा।

बच्चे ने सहमकर मुंह गिरा लिया। दरअसल मैं जब भी बाहर से आता तो बेटे के साथ मुझे भी उस पर कुछ अधिक ही लाड़ आने लगता। मैं अपनी गैर मौजूदगी में किये गये उसके तमाम कारनामों की जानकारी लेता और इतना बड़ा हो जाने के बावजूद उसे अपनी गोद में बैठाकर दुलारता। इस समय भी शायद वह उसी उम्मीद से आया था और मेरे डाँटने के बावजूद कुछ देर तक मेरे सर के पास खड़ा रहा। मैंने आँखें नहीं खोलीं न उससे कुछ कहा-सुना तब वह वहाँ से चला गया। शायद रूठ गया हो! मेरे मन में एक बार आया तो! फिर भी मैं आँखें बन्द किये बिस्तर पर पड़ा ही रहा।

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संपर्क:

मेराज अहमद

रीडर - हिन्दी विभाग,

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़

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(चित्र : कृष्ण कुमार अजनबी की कलाकृति)

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. very touching. a true story about problems of Indian Muslims. can encouraging girls for education be a solution? since last many years Muslims girls have been getting positions in merit list all over India at least on middle and high school level

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रचनाकार: मेराज अहमद की कहानी : सही
मेराज अहमद की कहानी : सही
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