आलेख स्त्री का आत्मसंघर्ष : उत्तराधुनिक होती स्त्री की मुक्ति के सवाल -सुशील कुमार प्रतिवाद से संवाद : सन्दर्भ : 'काजी जी दुब...
आलेख
स्त्री का आत्मसंघर्ष : उत्तराधुनिक होती स्त्री की मुक्ति के सवाल
-सुशील कुमार
प्रतिवाद से संवाद :
सन्दर्भ : 'काजी जी दुबले क्यों ?' डा. रंजना जायसवाल कृत आलेख
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'चाणक्य विचार' अंक,दिसंबर,07 में डा रंजना जायसवाल का आलेख 'काजी जी दुबले क्यों ? को पढ़कर खेद और विस्मय का मिश्रित अनुभव हुआ । आलेख की भूमिका में डा. रंजना जायसवाल ने अशोक सिंह के साथ-साथ मुझ पर भी कवयित्री निर्मला पुतुल को लिंग के चश्मे से देखने का आरोप लगाया है ,हालाँकि अपने पूरे आलेख में उन्होंने कहीं मेरा जिक्र नहीं किया जिससे मुझे हैरानी भी हुई । आलेख के अंतिम पृष्ठ पर मेरी फोटो छापने के पीछे क्या इंगित है , यह मुझे संपादक जी से पूछना होगा ।
पहले तो मैं डा रंजना जायसवाल जी से विनम्र आग्रह करना चाहूँगा कि वे अक्तूबर, 07 अंक में प्रकाशित मेरी प्रतिक्रिया और प्रो. परमानन्द श्रीवास्तव जी का स्पष्टीकरण फिर से और मनोयोग से पढ़ें । बात यहां किसी कवि के स्त्री या पुरुष होने का नहीं है ,काव्य के अंतर्वस्तु , उसके अर्थबिम्ब ग्रहण और कविता में प्रयुक्त रुप भाषा और काव्यविवेक का है ,निरंतर ढलान की ओर प्रवहमान पुतुल के काव्य सौष्ठव का है क्योंकि उनकी काव्यकृति (अनुदित) नगाड़े की तरह बजते शब्द रचनाकाल 2001 में स्त्री मुक्ति का कविस्वर जितना मुखर और प्रखर था, क्या बाद की उनकी स्वयं की लिखी हिन्दी कविताओं में वह परिलक्षित होता है ? यह तो बहस का विषय भी नहीं हो सकता क्योंकि कोई भी सजग पाठक दोनों तरह की रचनाओं को पढकर उसका अनुभव स्वयं कर लेता है । पत्र में मैने जो सवाल और मुद्दे उठाये हैं,उनमें दो ही विषय मुख्य हैं एक, हिन्दी अनुवादक की हितचिंता को लेकर और दूसरा अगस्त अंक में छपी पुतुल की कविताओं पर प्रायोजित टिप्पणी को लेकर । इसमें व्यक्तिगत आक्षेप या चरित्र हनन की बात कहां दीख गयी ? मेरी पूरी प्रतिक्रिया सिर्फ उनकी रचनात्मकता और हिन्दी अनुवादक के साथ संप्रति हो रही वंचना पर केंद्रित है । कहीं डा. जायसवाल यह तो नहीं कह रहीं कि स्त्री कवि चाहे जैसा भी लिखे ,उस पर टिप्पणी करने का अधिकार किसी को नहीं है, वरना वह पूर्वाग्रह से ग्रसित स्त्री विरोधी और सामंती सोचवाला करार दिया जाएगा । (इस भय से तो कहीं मैं भी ईश्वर से स्वयं को स्त्री ही बना देने की प्रार्थना न करने लग जाऊँ जैसा कि पुतुल ने अपनी कविता में ईश्वर से सभी पुरुषों के लिये की है ! )
अब मैं रंजना जी के आलेख पर आता हूँ । शीर्षक तो बड़ा व्यंग्यात्मक और चोटिल है काजी जी दुबले क्यों ? पूरा आलेख ही हवाई आक्रोश में लिखा गया प्रतीत होता है और आलेख वर्तमान साहित्य के अगस्त 06 अंक में छपी अशोक सिंह की एक कविता के प्रतिक्रिया स्वरुप है जिसका शीर्षक है'एक सामुहिक शोक गीत: अपने शहर की चर्चित कवयित्री के पलायन पर । यह अच्छी बात है कि अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता का अधिकार सबको इस देश में मिला है पर साहित्य में अभिव्यक्ति या प्रतिवाद जरुर थोड़ा कठिन होता है और धीरज से काम लेना पड़ता है क्योंकि प्रतिवाद में यदि मर्यादा और साहित्यिक प्रतिमानों का ध्यान न रखा जाय तो फिर वह वस्तु न तो श्लील रह पाता है और न साहित्य जगत में अपनी पहचान ही बना पाता है बल्कि अर्थहीन होकर अपनी मूल्यवत्ता भी खो बैठता है । यह बात अशोक सिंह और रंजना जी दोनों के उपर एक सीमा तक यहां लागू होता है । विरोध या समर्थन तो साहित्य में सृजन की रचनात्मकता को लेकर होनी चाहिए , इसलिये दायरा तोड़कर किसी को लड़ने की जरुरत ही नहीं ।
जिस कविता को लेकर इस पूरे आलेख का तानाबाना बुना गया है उसे मैंने भी अक्षर-अक्षर, आद्दोपांत पढा है । खंड खंड में कविता की पंक्तियां आलेख में उधृतकर , उसके केंद्रीय भाव को तोड़कर एक स्त्री विरोधी चरित्र के रुप में रचनाकार को चित्रित का जो उपक्रम किया गया है, वह एक असफल प्रयास है और निंदनीय भी । सब जानते हैं कि 'वर्तमान साहित्य हिन्दी की गिनीचुनी पत्रिकाओं में से एक है। इनके संपादक प्रो. कुंवरपाल सिंह और नमिता सिंह जी न सिर्फ हिन्दी के सशक्त हस्ताक्षर हैं बल्कि मार्क्सवादी जनवादी आलोचना के क्षेत्र में उल्लेखनीय अवदान के लिये जाने जाते हैं। ये कभी भी अश्लील साहित्य को 'वर्तमान साहित्य में स्थान नहीं दे सकते । अगर श्रम की संस्कृति की भावभूमि पर रचे गये साहित्यिक संचेतनाओं का कहीं उचित मूल्यांकन होता है (जिसमें माटी की गंध से पूरित और जनपदीय झाड़झंखाड से सने हिन्दी प्रदेश के श्रमशील श्वांसों में धडकते जीवन का वैविध्य और धूल-धूसरित किंतु खरा पवित्र चरित्र परिलक्षित होता है )तो वह आज 'कृति ओर, वर्तमान साहित्य आकंठ सरीखी कुछ ही पत्रिकाओं में गोचर है । इसलिये मैं समझता हूँ कि यह कविता प्रकाशित कर वर्तमान साहित्य ने कोई गैर साहित्यिक कार्य नहीं किया बल्कि लोकचेतना और प्रगतिशीलता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को ही दुहरायी है । इसलिये पत्रिका पर दोष मढ़ना कतई उचित नहीं। एक रचनाकार का व्यक्तित्व उसके कृतित्व से समग्रत: उसी प्रकार जुड़ा होता है जैसे किसी पात्र में जल रखा हो । जल हमेशा उस पात्र के गुणधर्म से प्रभावित होगा । एक लेखक के समग्र लेखनचिंतन दर्शन पर कहीं न कहीं उसके व्यक्तित्व का अक्स दिखलायी देता ही है । इसलिये रचनाओं में आरोप व्यक्तिगत नहीं होता, बल्कि उसका सार्वजनिक होना उसकी रचना को गहराई से समझने के लिये भी जरुरी है क्योंकि सृजन की रचनाधर्मिता समाज की नियति से जुड़ी होती है ।
गौरतलब है कि अशोक सिंह की उक्त कविता भी यहां इस अर्थ में सोद्देश्यपूर्ण है ताकि निर्मला पुतुल की उत्तरकालीन कविताओं के मर्म और उसके आसन्न खतरों ठीक से समझा जा सके । रंजना जी कविता के उस अंश को उधृत करना क्यों भूल गयीं हैं जिसमें कविता का मूल भाव केंद्रित है। लीजिये ,मैं ही उधृत किये देता हूँ
'इस तरह, एक ऐसे समय में /जब जंगलपहाडों में/शोषण,लूट और अत्याचार के खिलाफ /छोटेछोटे मोर्चे पर लड़ते लड़ते /अपने लोगों का साथ छोड़ /वह सस्ती लोकप्रियता के लिजलिजे पुल से होकर पहुंच गयी है दिल्ली /.......तलाश रही है मिलकर रातोंरात चर्चित हो / कोई बड़ा पुरस्कार पाने का सूत्र प्रसंगवश हाल में ज्ञानोदय में छपी वरिष्ठ कवि भगवत रावत की उस बहुचर्चित कविता की बात करना चाहता हूँ जो दिल्ली के उस सूरतेहाल का बयान करती है जिसने कई सिद्धहस्त साहित्यिक हस्तियों को निगल लिया ? रंजना जी का इस पर क्या विचार है ? दिल्ली की आबोहवा जानने के लिये रावत जी की इस कविता से रंजना जी का गुजरना बेहद जरुरी है।
लगे हाथ यह भी बताते चलूँ कि अशोक सिंह की उक्त कविता 'हंस के अगस्त 07 अंक में छपने वाली थी , किंतु पूर्व में'वर्तमान साहित्य में छप जाने के कारण घोषणा के बाबजूद इसे हटा दिया गया और शहंशाह आलम की कविता बदले में दी गयी जो टिप्पणी में वहां देखा जा सकता है । यह कविता अगर इतनी महत्वपूर्ण न होती तो कथाकार संजीव इसे 'हंस में देने का मन थोड़े ही बनाते ! अगर मूल में कहा जाय तो इस कविता के माध्यम से कवि ने अपने सहकर्मियों को अपने लेखकीय संघर्ष से विमुख हो नागर जीवन शैली में फंस दोहरे चरित्र जीने से सावधान करने का काम किया है जो एक कवयित्री के पलायन से उपजे शोकगीत के रुप में व्यक्त हुआ है जिसमें अपने जनपद की माटी में लौट आने और जीवन संघर्ष में शामिल हो जाने का मौन चित्कार भी मौजूद है । लेकिन आधुनिकता और स्त्री मुक्ति की आड लेकर लेखिका रंजना ने कविता को 'पूर्वाग्रह से भरी, स्त्री विरोधी और सामंती सोच का नमूना ही घोषित कर दिया । उनकी इस सोच से मैं यह सोचने को विवश होता हूँ कि ऐसे लोग साहित्य में जनपक्षधरता की जगह रुपवाद , निरा कलावाद और रीतिवाद को ही प्रश्रय देंगे । आलेख में मुझे उनकी एक बात बेहद पसन्द आयी । उन्होंने लिखा है कि 'समुद्र को जानने के लिये तो गोताखोर बनना पड़ता है,तह में उतरना पड़ता है । आधुनिकता और स्त्री मुक्ति के सही अर्थ को जानने के लिये भी उन्हें इसकी बारीक पड़ताल करनी होगी, वह भी भारतीय परिप्रेक्ष्य में । पाश्चात्य विचार की परिधि में नहीं क्योंकि हम जिस देश, जिस जनपद, जिस गाँव में रहते हैं , हमें वहीं से उठना है ।
अभी हाल में ही 'कृति ओर के 45 वें अंक में संपादकीय के बहाने वरिष्ठ कवि-समालोचक विजेंद्र जी का आधुनिकता के संबंध में सहज, बोधगम्य और बहुत ही व्यापक फलक वाला विचार पढ़ने को मिला जो कविता के सौंदर्यशास्त्र की जानकारी रखने की दृष्टि से भी बहुपयोगी और मूल्यवान है । मैं यहां उनके इस विचार के कुछ अंश प्रसंगवश यहां उन्हीं के शब्दों में रख रहा हूँ -
'यदि कोई व्यक्ति आधुनिक है तो यह जरुरी नहीं कि वह प्रगतिशील या जनवादी भी हो । पर एक प्रगतिशील या जनवादी को आधुनिक होना पहली शर्त है। ये दोनों बातें कविता के सौंदर्यशास्त्र से जुड़ी हैं ।........एक तो मैं यह कहता रहा हूँ कि आधुनिकता या उत्तराधुनिकता या योरोप से आया कोई अन्य विचार हमें अपने देश के ऐतिहासिक सन्दर्भ में भी समझना चाहिए। बल्कि कहें कि उसे उन सभी देशों के ऐतिहासिक सन्दर्भ में भी समझना चाहिए जिनकी नियति हमारे देश की संघर्षशील जनता से जुड़ी है । या उससे मुक्त होकर साम्राज्यवाद की अमानवीय क्रूरता से लड़ रही है। ....लेकिन ऐसी आधुनिकता जो सबकुछ जानते हुए भी मनुष्य की तबाही बडे निरपेक्ष भाव से देखकर अपनी सुखसुविधाओं पर इतरा रहा है, यानी ऐसी आधुनिकता जो हमें अकेला, पस्तहिम्मत, निस्सहाय और जनविमुख बनाती है, ऐसी आधुनिकता का विरोध हर भारतीय को करना उसका मानवीय दायित्व है। क्योंकि वह हमारे इतिहास और समाज की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से उपजी आधुनिकता नहीं है । यह उधार ली हुई पतनशील औपनिवेशिक आधुनिकता है। प्रतिगामी भी । पूँजीवादी विकृतियों से भरी हुई ।........
दूसरे, आधुनिकता वह नहीं है जिसे योरोप के बूर्जुआ चिंतकों और लेखकों ने बताया है । एक और भी आधुनिकता है जो आदमी के संघर्ष से जुडी होती है । सच्ची आधुनिकता तो वही है है जो इतिहास क्रम में विकसित मानवीय चेतना की दृष्टि से कथ्य और रुप , दोनों में नई प्रासंगिक और अग्रगामी हो । दूसरे, विज्ञानसम्मत हो। लोकोन्मुख और जनपक्षीय भी । ऐसी आधुनिकता का भी इतिहास है। वह शून्य,आकाश या हमारी निरी कल्पना से से नहीं जन्मी। उसका जन्म इतिहास की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के गर्भ से हुआ है ।......
इस तरह यदि हम अपने ऐतिहासिक विकास को देखें तो लगेगा कि पूरा इतिहास सतत सामाजिक विकास की विभिन्न मंजिलों और स्तरों तक वर्ग संघर्ष का ही इतिहास है। कभी कम , कभी ज्यादा । कभी दृश्य, कभी अदृश्य । जैसे जमीन ठंडी है पर इसके भीतर ज्वालाएं जीवित हैं ।तो फिर आगे विकल्प क्या है? इसके लिये वर्ग संघर्ष के बुनियादी तरीके से सर्वहारा को (इसमें सारे दलित और आदिवासी शामिल हैं) शोषण और उत्पीड़न से मुक्त कराना होगा । इस आधुनिकता के सोच ने ही हमें बताया है कि योरोप की पूँजी केंद्रित आधुनिकता ने हमारे परस्पर 'काव्यात्मक मानवीय रिश्तों को छीन हमारे अंत:करण में शून्य स्वातंत्र्य की मनोदशा पैदा की है । बल्कि कहें कि हमारे गरिमापूर्ण, कोमल और जीवंत मानवीय संबंधों को केवल धन-संबंधों में बदल दिया है ।
विजेंद्र जी के उपर्युक्त विचार-गांभीर्य के आलोक में यदि हम रंजना जायसवाल जी की आधुनिकता और स्त्रीमुक्ति की अवधारणा को व्याख्यायित करें जिसकी उन्होंने एक कवयित्री के लिये वकालत की है तो कहना पड़ेगा कि आलेख में विचार औपनिवेशिक आधुनिकता से पोषित वह विचार है जहां उनकी स्त्री मुक्ति की अवधारणा स्त्री के आत्मसंघर्ष और लोक से विमुख होकर भटकाव और चेतना शून्यता की ओर जा रही है । एक स्त्री तो सही अर्थ में तब मुक्त हो सकेगी जब वह उसी जमीन पर अडकर, खडी रहकर अपनी अस्मिता और स्वातंत्र्य के लिये अपने हिस्से की लड़ाई लड़े जहां से वह पलायन को विवश है और उस संघर्ष में अपने समाज के नारीसमूह को भी शामिल करे ,न कि संघर्ष से अपना मुंह मोड़कर वहां से महानगर की ओर पलायन कर जाय और अपनी सुखसुविधा पीछे लवलीन होकर जीने का अलग रास्ता ढूँढ ले क्योंकि स्वतंत्रता और स्वेच्छाचारिता में बहुत अंतर है , दोनों अलग अलग विचार हैं। स्वतंत्रता विकास और सुख का मार्ग प्रशस्त करती है, जबकि स्वेच्छाचारिता तमस और दुख में ला डालती है। तब फिर स्त्री मुक्ति का अर्थ ही बेमानी हो जायगा ।
यहां यह कहना समीचीन होगा कि वैश्वीकरण की कोख से जन्मा बाजारवाद वह सर्वग्रासी विचार है जो स्त्री मुक्ति के भारतीय संदर्भ की खिल्ली उड़ाकर उसे पाश्चात्य अवधारणा में तब्दील कर देने पर आमादा है । यह प्रक्रिया हमारे देश में तेज हो गयी है । यहां भी बहुत से उत्तर आधुनिकतावादी अवतरित हो गये हैं जो स्वेच्छाचारिता और बेहयाई को ही स्वतंत्रता और विकास का जामा पहनाकर उसे स्त्री मुक्ति के रुप में प्रचारित कर रहे हैं। अत: इसके फलाफल पर सूक्ष्मता से विचार करते हुए स्त्रीमुक्ति को सही संदर्भ और अर्थ देना अब भारतीय लेखकों का नैतिक दायित्व भी हो गया है ।
इस परिप्रेक्ष्य में अशोक की उपर्युक्त कविता आधुनिकता का पोषक, स्त्री मुक्ति के भारतीय सन्दर्भ को सही अर्थ देने वाली और प्रगतिशील जनवादी धारा की सफल कविता मानी जायगी । अतएव इसके काव्यवस्तु को किसी कवयित्री के चरित्र पर लांछन मानना कहीं से तर्कसंगत नहीं जान पड़ता क्योंकि कवयित्री के पलायन पर शोकगीत गाना उसको अपने जनपद में वापस बुलाने की आवाज है, पुकार है । और निर्मला के गाँव घर के लोग और पाठक भी यही चाहेंगे । निश्चय, इस कविता की अंतर्वस्तु महानगरीय जीवनशैली से प्रसूत उन असंगतियों के विरोध में है जिसका साफ प्रभाव आज की पुतुल की कविता में दृष्ट्व्य है ।
हां , इतनी बात जरुर है कि रंजना जायसवाल के आलेख की तरह ही यह कविता भी एक आवेग में लिखी गयी प्रतीत होती है जिसमें कहीं कहीं अतिशयोक्तियां हैं। कविता और छोटी होती तो काव्यवस्तु और 'इनटैक्ट' होता । प्रभावोत्पादकता ज्यादा तीक्ष्ण होती । कविता में कवयित्री का दिल्ली जाना,साहित्यिक हस्तियों से उसकी चर्चाएं और मेल जोल ,रेलवे के समय सारणी की बारीक जानकारी,और भी उसके दिनचर्या की बातें कविता के मूल भाव में धार को भोथरा ,और प्रसंग को महत्वपूर्ण कम, बोझिल अधिक बनाते हैं फिर भी कहीं से यह स्त्री का चरित्रहनन नहीं करता । जिन लोगों ने अशोक जी की 'बेटियां , औरतें , तुम होती हो तो इत्यादि कविताएं पढ़ी होगी ,उन्हें इसका पता अवश्य मिल गया होगा कि अशोक सिंह का कवि स्वर मर्दवादी अहंकार और सामंती सोच की परिधि से अनावृत है । खुद 'नगाड़े की तरह बजते शब्द की सभी कविताएं जिनमें कई स्त्री मनोविज्ञान की बेहतरीन कविताएं हैं, के अनुवादक स्वयं अशोक सिंह हैं जिसे पढ़कर हिन्दी की मूल रचना होने की भ्रम होता है,यह संकेत देती है कि स्त्रीविरोधी सोच रखने वाला कोई व्यक्ति यह काम इतना सफलतापूर्वक कर ही नहीं पायेगा । संभवत:निर्मला पुतुल से अंधी आत्यांतिक आत्मीयता के कारण ही डा. रंजना जायसवाल ने अपने आलेख में अशोक सिंह के उपर एकदम से आंधी पानी की तरह बरस पड़ी हैं,पर इससे अधिक चिंताजनक बात यह है कि पुतुल के व्यक्तिगत जीवन को लेकर उन्होंने जो विचार और सुझाव दिये हैं वे वह खुद पर एक भारतीय नारी होने के नाते शायद लागू नहीं कर पायेंगी फिर , उन्हें संताली परिवार से आनेवाली सीधी-साधी महिला को गुमराह करने क्या हक बनता है ? उनके नेक विचार को प्रस्तुत करती कुछ पंक्तियों को मैं नीचे उन्हीं के आलेख से उद्धृत कर रहा हूँ
'अगर निर्मला ने समय के साथ खुद को ढाल लिया है इसमें बुरा क्या है ? अगर उसने अपनी पसन्द के पुरुषों से संबंध बनाये भी हो तो आपको आपत्ति क्यों है ? मुक्त करिए स्त्री को...जीने दीजिए अपनी देह, मन और प्रतिभा के साथ अपनी मर्जी से....फैलाने दीजिए पंख...
यह तय करना अब सुधी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ कि डा. रंजना जायसवाल स्त्री मुक्ति के किस सन्दर्भ के पक्षधर हैं भारतीय अथवा औपनिवेशिक आयातित पूँजीवादी आधुनिकता के ? क्या यह विचारधारा हमें मध्यकालीन परंपरावादी सामाजिक धारणाओं के जंगल में नहीं घसीटकर ले जायेगी जहां सुख-संभोग और विलासिता के बाजारवाद ( या कहो ,दलदल ) में फंसकर, तथाकथित आधुनिक हमारी स्त्रियां एक भोग्यावस्तु मात्र बनकर रह जायेगी जबकि इतने कठिन समय में स्त्रीमुक्ति के संघर्ष की अंतहीन यात्रा अभी अशेष है ?
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रचनाकार परिचय:
सुशील कुमार, जन्म 13 सितम्बर, 1964, पटना सिटी में, किंतु पिछले तेईस वर्षों से दुमका (झारखण्ड) में निवास- शिक्षा -बी0ए0, बी0एड0 (पटना विश्वविद्यालय)- घर के हालात ठीक नहीं होने के कारण पहले प्राइवेट ट्यूशन, फिर बैंक की नौकरी की - 1996 में लोकसेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण कर राज्य शिक्षा सेवा में. संप्रति +2 जिला स्कूल चाईबासा में प्राचार्य के पद पर - हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में लिखने-पढ़ने में गहरी रूचि- कविताएं कई प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित यथा, 'अक्षरपर्व' अंक : जुन 04, अंक नवम्बर' 06, 'अपेक्षा' अंक 16-17, 'काव्यम्' अंक : मई 06, 'कथाबिंब' अंक : जून 06, 'युगतेवर' अंक फरवरी,07 और मई,07,वागर्थ:अंक मई,07. 'उद्भावना' अंक : 72, 'प्रतिशीर्षक' अंक : 55, 'कृति ओर' अंक : 42, , 'हिमप्रस्थ', 'छपते-छपते' दीपावली विशेषांक : 2006, 'कंचनलता' अंक - 81, 'आकंठ' अंक-72, मार्च'07, 'नई धारा' अंक-11-12, 'कौशिकी' अंक-79, नवम्बर 06 में .
कई प्रमुख हिन्दी पत्रिकाओं में कविताएं स्वीकृत होकर प्रकाशन की प्रतीक्षा में - यथा : 'उन्नयन', 'साहित्यम्', 'शब्द-कारखाना', में पुन:, 'दोआबा', 'दस्तावेज', 'परीकथा', 'दलित साहित्य', 'लेखन-सूत्र', 'कृति ओर' इत्यादि में.
संपर्क:
--सुशील कुमार
हंसनिवास /कालीमंडा /हरनाकुंडी रोड / पुराना दुमका /दुमका/झारखंड 814101 (भारत)
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(चित्र - रेखा की जलरंगों पर बनी कलाकृति)
क्या आप वह कविता ब्लोग पर प्रकाशित कर सकेंगे...हम भी पढ़ना चाहेंगे...वाकई समिक्षा करना बहुत ही कठिन कार्य है...आप सही कह रहे है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार सबको इस देश में मिला है पर साहित्य में अभिव्यक्ति या प्रतिवाद जरुर थोड़ा कठिन होता है और धीरज से काम लेना पड़ता है क्योंकि प्रतिवाद में यदि मर्यादा और साहित्यिक प्रतिमानों का ध्यान न रखा जाय तो फिर वह बात न तो श्लील कही जाती है और न ही लेखक साहित्य जगत में अपनी पहचान ही बना पाता है बल्कि अर्थहीन होकर अपनी मूल्यवत्ता भी खो बैठता है ।...
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