कवि-कथाकार-आलोचक शैलेन्द्र चौहान से जय प्रकाश मानस ने शैलेन्द्र की उनकी अपनी रचनाधर्मिता, उनके अपने साहित्यिक क्रियाकलापों और तमाम अन्य पहलु...
कवि-कथाकार-आलोचक शैलेन्द्र चौहान से जय प्रकाश मानस ने शैलेन्द्र की उनकी अपनी रचनाधर्मिता, उनके अपने साहित्यिक क्रियाकलापों और तमाम अन्य पहलुओं पर लंबी बातचीत की. प्रस्तुत है कुछ विशिष्ट चुनिंदा अंश :
प्र - शैलेन्द्र जी आप समकालीन कविता और कहानी के गलियारों में विगत कई दशक से घूमते-फिरते नजर आ रहे हैं । इस भ्रमण के लिए प्रस्थान कैसे हुई ? प्रस्थान की भाव-भूमि और परिवेश गत प्रेरणा को कैसे देखते हैं अब ?
उ - भाव-भूमि तो यह रही कि मैं पिता के साथ विदिशा जिले के गाँवों और फिर विदिशा में अकेला रहता था । पिता प्रायमरी स्कूल में शिक्षक थे । माँ गाँव पर थीं छोटे भाई बहनों के साथ । पिता गुस्सैल थे । बात-बात में गाली-गलौज करते । मैं डिप्रेस रहता । अच्छी बात यह थी कि वह पढ़ते बहुत थे । घर में पत्रिकाएँ, किताबें हमेशा मौजूद रहती । सो खाली समय में मैं उन्हें उलटता पलटता और इच्छा होने पर पढ़ता । धीरे-धीर मेरी रुचि साहित्य पठन में विकसित होती गई । साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, सारिका, कादंबिनी, इन पत्रिकाओं में साहित्य और विज्ञान से संबंधित रचनाएं पढ़ता । कभी-कभी किताबों को भी टटोलता और कहानी, कविता, उपन्यास पढ़ डालता । यह समय था 1966 से 1970 तक का । यानी मेरे हायर सेकण्डरी स्कूल तक का । यही वह महत्वपूर्ण प्रभाव था जिसने मुझे बाद को लेखन के क्षेत्र में आने को प्रवृत्त किया ।
प्र - तो आपकी सृजन यात्रा कब और कहाँ से प्रारंभ होती है ?
उ - हायर सेकण्डरी पास करने से पहले ही मैंने कुछ कविताएँ लिखी थीं, जो एक दिन मैंने स्वयं फाड़कर गाँव के पोखर में बहा दीं । मुझे उनमें परिपक्वता नहीं दिखी । और फिर मुझे पिता से भी डर लगता था कि कहीं वह देख न लें । पर जब मैंने कॉलेज में एडमीशन लिया और अपने कुछ मित्रों को बाद की लिखीं रचनाएँ पढ़वाईं तो उन्होंने मुझे लिखते रहने को प्रोत्साहित किया । हमारे पीछे उन दिनों वरिष्ठ कवि श्री जगदीश श्रीवास्तव रहते थे । वह सिरोंज में हायर सेकण्डरी स्कूल में शिक्षक थे । एक दिन बातों ही बातों में उन्होंने कहा "गुरू तुम कुछ लिखते जरूर हो । तुम्हारी बातें और तुम्हारे साहित्यिक रुझान से ऐसा लगता है"।" उनके काफी आश्वस्त करने और प्रेरित करने पर मैंने उन्हें अपनी रचनाएँ पढ़वाईं । वह बोले तुममें संभावना है, लिखते रहो । एक वर्ष बाद मैंने इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया और अपने अभिन्न मित्र कृष्णानंद की सहायता से म्युनिसिपल लायब्रेरी का सदस्य बन गया । वहाँ से लगातार साहित्यिक किताबें लेकर पढ़ीं । कृष्णानंद से बातें करता । उसकी साहित्यिक जानकारी बहुत थी यद्यपि वह विज्ञान का छात्र था । उन्हीं दिनों मैंने ट्यूशन करने का सोचा, एक अन्य मित्र कैलाश सत्यार्थी ने मुझे एक ट्यूशन दिला दी । दसवीं कक्षा का छात्र था वह मुझे गणित और साइंस पढाना था । उस छात्र के बड़े भाई श्री अवध श्रीवास्तव अपना एक साप्ताहिक अखबार निकालते थे और दैनिक 'वीर अर्जुन' अखबार में संवाददाता थे । उन्होंने वीर अर्जुन का पता देकर कहा इसमें आप अपनी रचनाएँ भेजिए, छपेंगी । मेरी पहली कहानी जो वहाँ छपी वह थी 'दादी' । तब तक मैं कहानियाँ भी लिखने लगा था । यह सन 1974-75 की बात है । फिर दो-एक कहानियाँ व कुछ कविताएँ वहाँ और छपीं । तदुपरांत 'देशबंधु' रायपुर एवं दैनिक भास्कर, भोपाल में मेरी कहानियाँ और कविताएँ आईं ।
प्र - समाचार पत्रों से आगे पत्रिकाओं का रुख कैसे हुआ ?
उ - मेरे मित्र कृष्णानंद ने ही मुझे पत्रिकाओं के साथ पत्राचार की सलाह दी । मैंने तब श्री धर्मवीर भारती और श्री कमलेश्वर से पत्राचार किया । संकोच और डर के मारे रचनाएँ नहीं भेजीं । हाँ कादंबिनी में प्रवेश स्तंभ में एक कविता 'तृष्णा' भेज दी जो प्रकाशित हुई और उस पर बहुत पत्र आए । इस तरह बात आगे बढ़ी और लघु पत्रिकाओं तक पहुँच गई । श्री स्वप्निल शर्मा मनावर, धार से एक पत्रिका उन दिनों निकालते थे 'यथार्थ,' उन्होंने कविताएँ बुलाईं और प्रकाशित कीं । मथुरा से श्री सव्यसाची 'उत्तरगाथा' प्रकाशित करते थे उसमें मेरी एक कविता 'संकल्प' छपी । धीरे-धीरे सभी पत्रिकाओं में मैं छपने लगा ।
प्र - आपकी पुस्तक "नौ रुपये बीस पैसे के लिए" 1983 में आती है । फिर 'श्वेतपत्र' को 19 वर्ष, लगभग दो दशक क्यों लग जाते हैं ? आपका रचनाकार उस अंतराल में कहाँ चूकने लगा था ? जबकि फिर 2002 और 2004 में आपकी कृतियाँ साहित्यिक संसार में प्रविष्ट होतीं हैं । अपनी संपूर्ण रचना-यात्रा को किस तरह संतुष्टिप्रद पाते हैं ?
उ - सन 1980 से 1983 तक मैं इलाहाबाद में था । वहाँ श्री ज्ञानरंजन, सं-पहल, मेरी मुलाकात श्री शिवकुमार सहाय जो कि परिमल प्रकाशन के मालिक थे उनसे करा देते हैं । ज्ञान जी 'पहल' छपवाने के सिलसिले में इलाहाबाद आए हुए थे । फिर सहाय जी मुझे पाण्डुलिपि लिए बिना नहीं छोड़ते । बहुत अधिकार और स्नेह से कहते संकलन दीजिए, इसी वर्ष छापना है । तब तक मेरी ऐसी कोई तैयारी नहीं थी संकलन देने की । मुझे लग रहा था कि यह थोड़ा जल्दबाजी का मामला है । मैं वक्त चाहता था । पर सहाय जी की जिद और कुछ मित्रों के प्रेरित करने पर मुझे अपनी पत्नी मीना के सहयोग से पाण्डुलिपि तैयार करनी पड़ी । जो 1983 में 'नौ रुपये बीस पैसे के लिए' शीर्षक से आई । उसके बाद मुझे लगा कि अब बीच में कमसे कम तीन-चार वर्ष का गैप तो होना ही चाहिए सो निश्चिंत हो गया । पर कविताएँ और कहानियाँ नियमित लिखता रहा जो पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं । फिर मेरे लगातार होने वाले स्थानांतरणों के कारण मैं पुस्तक प्रकाशन की ओर ध्यान नहीं दे सका । यहाँ एक और बात का जिक्र आवश्यक है कि इस बीच प्रकाशन का स्वरूप और रणनीति में परिवर्तन होता है । कविताएँ प्रकाशित नहीं हो पातीं, कहानी और उपन्यास की माँग बढ़ जाती है । चूँकि मैं इलाहाबाद से कानपुर, कानपुर से मुरादाबाद, कोटा, जयपुर, गाजियाबाद, फरीदाबाद फटाफट स्थानांतरित हो रहा था सो पुस्तक प्रकाशन की ओर ध्यान ही नहीं गया । 1995 में पुन: सहाय जी का फोन आया 'आपका कहानी संग्रह देना है जल्दी से कहानियाँ भेजिए' । आठ-दस कहानियाँ थीं इकट्ठी कर के भेज दीं । कहानी संग्रह 1996 में आया 'नहीं यह कोई कहानी नहीं' । अब फरीदाबाद से भी मेरा डेरा लद गया । नागपुर पहुँचा, वहाँ से आगे चंद्रपुर भेज दिया गया । फरीदाबाद में रहते हुए मैं आलोचना में अधिक सक्रिय हो गया था । नागपुर और चंद्रपुर प्रवास में भी मैंने इसी ओर अधिक ध्यान दिया । स्थानीय दैनिक 'लोकमत समाचार' में पुस्तक समीक्षाएँ विस्तार से लिखता । जनसत्ता, अक्षर पर्व, वर्तमान साहित्य, कृति ओर एवं कुछ अन्य पत्रिकाओं में आलोचनात्मक लेख लिखता । इस बीच कविताएँ भी आती रहीं । एक दिन श्री जगदीश श्रीवास्तव मथुरा में मिले और अपना प्रकाशन प्रारंभ करने की सूचना दी और लगे हाथ मेरी कुछ कविताएँ जो मैं श्री रामकुमार कृषक को देने के लिए ले गया था वे उन्होंने फोटोकॉपी करके अपने पास रख लीं । यह अजीब स्थिति थी । मैं नहीं जानता था कि वह कैसे प्रकाशित करेंगे पर पुराने संबंधों का खयाल भी रखना था सो चुप रहा । उन्होने 2002 में 'श्वेतपत्र' का प्रकाशन किया । 2004 में 'ईश्वर की चौखट पर' छपा । मेरी सक्रियता निरंतर बनी हुई थी पर पुस्तक प्रकाशन अवश्य बिलम्बित होता रहा।
प्र - पैतृक स्थान मैनपुरी, विदिशा में शिक्षा, जयपुर में बस गए और कई-कई स्थानांतरणों के बाद बड़ौदा में कर्मरत । भूगोल को किस तरह आप अपनी रचनाओं के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं । भूगोल किस हद तक रचनाकारों को अपनी इमेज में लपेटने में कारगर होता है ? गाँव और शहर को एक रचनाकार और एक रचनाधर्मिता की दृष्टि से किस तरह चरितार्थ करते हैं आप ?
उ - बहुत अच्छा प्रश्न किया आपने । मध्य काल में संत कवि निरंतर घूमते रहते थे । उनका भौगोलिक ज्ञान उनकी रचनाधर्मिता को संवर्धित भी करता था और धार भी पैदा करता था । वे बहु धर्मी और विविध रुचि व संस्कार के मनुष्यों को पास से देखते थे । उनकी यह सधुक्कड़ी और घुमक्कड़ी उनके सृजन को सशक्त एवं संप्रेषणीय बनाती थी । राहुल सांकृत्यायन ने तो घुमक्कड़ी को बाकायदा शास्त्र के रूप में देखा । निश्चित तौर पर अनुभव की विविधता से साहित्य सृजन समृद्ध और बहु कोणीय हो जाता है । उसमें संश्लिष्टता और गहरी संवेदनशीलता आती है । यथार्थ और पैनापन भी आता है । रही बात गाँव और शहर के चित्रण की तो कम से कम मेरे लिए तो दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । मैं गाँवों में बहुत रहा हूँ इसलिए मुझे ऐसी कोई कठिनाई नहीं होती ।
प्र - आप युवा रचनाकारों में एक खास मुकाम में देखे जाते हैं, पाठकीय प्रतिक्रिया इस बीच कैसी रही, उस प्रतिक्रिया पर आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी ?
उ - दर असल पाठकों का मुझे प्रारंभ से ही भरपूर स्नेह मिला है । मेरी सोच, शैली, अभिव्यक्ति और प्रस्तुति सब सहज एवं स्वाभाविक रहे हैं । वे आरोपित नहीं हैं । इसलिए मेरी अपनी एक खास जगह है । अपने पाठकों की हर प्रतिक्रिया मेरे लिए महत्वपूर्ण होती है । कभी-कभी तो वे एक गंभीर चुनौती पेश करते हैं आपको उस चुनौती का मुकाबला करना होता है । यह आवश्यक नहीं कि वही लिखा जाए जो पाठक चाहते है, हमारी अपनी चेतना और समझ भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती है पर पाठकों की हर प्रतिक्रिया का मैं पूरा सम्मान करता हूँ ।
प्र - आप अंतरजाल पर भी सक्रिय रहे हैं । क्या आप समझते हैं कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यम प्रकाशन माध्यम को लगातार कोने में रखने के लिए सक्रिय हैं ? क्या आप यह भी सोचते हैं कि इंटरनेट मीडिया आने वाले दिनों में पश्चिमी दुनिया की तरह प्रिंट मीडिया को पीछे धकेल देगा ?
उ - दोनों का अपना महत्व है । यह संभव है कि कभी ऐसा हो कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रिंट मीडिया को गहरी चुनौती दे पर तब भी प्रिंट मीडिया का अपना अस्तित्व कायम रहेगा । पश्चिमी देशों में भी पूरी तरह से प्रिंट मीडिया को समाप्त नहीं किया जा सका है ।
प्र - आपने अपने अग्रज रचनाकारों यथा त्रिलोचन, शील जी पर भी 'धरती' के संपादन के माध्यम से महत्वपूर्ण काम किया है । इन रचनाकारों के योगदान को आप किस तरह आँकते हैं ?
उ - बाबा नागार्जुन, त्रिलोचन जी, शील जी, शमशेर जी, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल बड़े रचनाकार थे । हिंदी साहित्य को उनका महत्वपूर्ण अवदान रहा । इन लोगों का सान्निध्य, मुक्तिबोध को छोड़कर यदा-कदा प्राप्त होता रहा । इन लोगों से बहुत सीखने-समझने को मिला है । 'धरती' के कुछ अंक अच्छे निकले हैं, लोगों ने उनकी सराहना की है । हाल ही में युयुत्सु कवि शलभ श्रीराम सिंह पर अंक निकला है ।
प्र - आप अपने समकालीन कवियों और कहानीकारों में स्वयं को किस तरह पृथक देखते हैं ? मैं यह भी आपसे समझना चाहूँगा कि इस सूची से बाहर जो सृजन रत रहे हैं, उनको आपके नहीं जान-पढ़ पाने का क्या कारण रहा है ? आप अपने समकालीनों की सूची किस आधार पर तय करते हैं - तथाकथित स्तरीय पत्रिकाओं में रचना - प्रकाशन के आधार पर, तथाकथित आलोचकों द्वारा गिनाई गई सूचियों के आधार पर या फिर निजी शोध एवं प्रयत्न से संभव पठनीयता पर ?
उ - मेरे समकालीन रचनाकार मित्र अपने साहित्यिक कैरीयर को लेकर अति संवेदनशील रहे हैं । कैरीयर में गति देने के लिए उनके अपने संसाधन और संपर्क रहे हैं । तथाकथित स्तरीय पत्रिकाओं के संपादकों के भी वे स्नेहपात्र रहे हैं । उन्होंने ढेरों पुरस्कार और बड़े सम्मान प्राप्त किए हैं । लेखन में चर्चित रहे हैं । मेरा यह रास्ता नहीं रहा । मैं अपनी समरेखीय रचनात्मकता को ही ठीक मानता रहा हूँ । बड़े प्रकाशकों, संपादकों, आलोचकों का वरद हस्त ना कभी मेरे ऊपर रहा, ना ही मैंने ऐसा कोई प्रयत्न किया । यह एक मूलभूत अंतर रहा । तथाकथित सूचियों के बाहर के रचनाकारों को न जान पढ़ पाने के कुछ कारण ये भी हैं कि कैसे ऐसे रचनाकारों तक पहुँचा जाए । पत्रिकाओं में रचना-प्रकाशन एक बड़ा स्रोत है । आलोचकों की सूची को मैं बहुत महत्व नहीं देता, वहाँ राजनीति होती है । लेकिन कुछ रचनाकार मुझे पसंद रहे हैं जैसे कवि अरुण कमल, उदय प्रकाश, ज्ञानेंद्र पति, एकांत श्रीवास्तव ।
प्र - क्या आप भी मानते हैं कि अक्सर हम साहित्य वाले (खासकर आलोचक) अपनी पहुँच के आधार पर ही किसी विधा के सक्रिय रचनाकारों को परख कर (?) उसकी अंतिम सूची की घोषणा करने के आदी हो चुके हैं, जबकि हिंदी का भूगोल अति विस्तृत है । एक ओर दिल्ली, इलाहाबाद, भोपाल हैं दूसरी ओर कहीं सुदूर गाँव देहात हैं जहाँ अधिक उर्वर और पृथक रचनाकार हैं, मतलब एक समूचा संसार है जिसका मूल्यांकन हम नहीं करना चाहते ?
उ - आप बिल्कुल सही कह रहे हैं, अधिकांशत: ऐसा ही हो रहा है आजकल । त्रिलोचन जीने एक बार कहा था अच्छे रचनाकार अब कस्बों, देहातों से ही निकलेंगे । दिल्ली वालों को तो बसों में चलने, लोगों को मनाने, टी वी, पत्रिकाओं, अकादमिओं, संस्थानों आदि में जुगाड़ करने में ही अधिकांश समय निकल जाता है, उन्हें अच्छा लिखने की फुरसत कहाँ ।
प्र - एक सच्चे विधा-परीक्षक की पहुँच कहाँ तक होनी चाहिए ? यह किस तरह का इतिहास रचना है साहित्य का ? कुछ पत्रिकाओं में छपने के आधार पर या कुछ संग्रह आ जाने पर, इन दिनों आलोचक चिरपरिचित रचनाकारों को गिना कर शेष की उपेक्षा किए जा रहे हैं यह उनकी सीमा है या लाचारी या अतिवादिता ?
उ - आदर्श रूप में तो एक सच्चे विधा-परीक्षक की पहुँच सुदूर देहातों तक होनी चाहिए पर सीमाएँ तो होती ही हैं । हाँ जो लोग जान-बूझकर सिर्फ कुछ ही लोगों को उछाल रहे हैं वे अच्छा नहीं कर रहे । यह उनके उथलेपन का ही सबूत है और बे-ईमानी का भी ।
प्र - एक आलोचक के रूप में आप किसी विधा के समस्त रचनाकारों तक कैसे पहुँचते हैं ? क्या आप भी उस सुविधा के अनुयायी हैं जिसमें यह जरूरी होता है कि रचनाकार आलोचक की पसंदवृत का चेहरा हो, अनुगामी पत्रिका में छपे, पसंदीदा खेमे का हो, मनमाफ़िक विचारों का शरणागत हो ? क्या आप इस सीमा को लाँघने का प्रयास किए हैं ?
उ - आप बहुत सही बात पर हैं । असल में समस्त रचनाकारों तक पहुँचना मायने नहीं रखता, यह संभव भी नहीं है । हाँ जो अच्छा रच रहे हैं उनकी बहुविध खोज न करना और पता चलने पर उनकी उपेक्षा करना गलत है जो आजकल हो रहा है । बाकी आपका कहना सही है कि अधिकांश आलोचक संकीर्णता के शिकार हैं और अपने दायरे में ही कैद हैं । गुटबाजी और खेमेबाजी को भी वे प्रश्रय देते हैं पर हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है कि अधिकतर रचनाकार उन्हें बाइज़्ज़त ढोते रहते हैं । मैंने हर वक्त इस प्रवृत्ति के खिलाफ अपनी असहमति दर्ज़ की है और आगे भी करता रहूँगा ।
प्र - एक आलोचक के रूप में किसी रचना को परखते समय आप किन औजारों को उपयोग में लाते हैं ?
उ - रचना की परख के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात जो मुझे लगती है वह है कि रचना आपको संवेदित, विचलित या आनंदित करती है या नहीं । उसका कथ्य, निर्वाह, शैली, प्रस्तुति और भाषा किस सीमा तक रचना को प्रभावी बनाने में सक्षम हो पाए हैं । कुल मिला कर यह कि रचना अपना समग्र प्रभाव छोड़ पाने में समर्थ है या नहीं । रचना परिवेश और समय को कितना अभिव्यक्त कर पाती है ।
प्र - आप अपनी आलोचना में किन पौर्वात्य ( और पाश्चात्य भी ) सिद्धांतकारों को समीचीन पाते हैं, आज जिनके साँचों में कविता और कहानियों को रखकर आप तटस्थ रूप से उसकी मूल्यवत्ता ज्ञात करते रहे हैं ?
उ - कई ऐसे सिद्धांतकार हैं जिनसे कुछ सीखा जा सकता है । लेकिन हर व्यक्ति का अपना एक व्यक्तित्व होता है । आज शास्त्रीयता का समय नहीं है कि किसी एक को मानक के रूप में रखा जाए । पर फिर भी आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध सभी से बहुत कुछ सीखा जा सकता है ।
प्र - मैंने पाया है और आप भी देख रहे होंगे - आलोचना का मतलब आज कथ्य में सरोकार की तलाश हो गया है । भाषा, छंद, प्रतीक, और बिंबों तथा साहित्यिक मूल्य आदि में जाने की जोखिम कम ही आलोचक उठा रहे हैं । आप क्या सोचते हैं ?
उ - कथ्य महत्वपूर्ण है । भक्तिकाल, रीतिकाल, वीरगाथा काल प्रत्येक समय में अच्छी रचनाओं में कथ्य को प्रमुखता दी गई है । रचनाकार की दृष्टि भी महत्वपूर्ण होती है । कथ्य में सरोकार भी निहित होता है पर जैसा कि मैंने पहले कहा है कि कथ्य के साथ भाषा, शैली, निर्वाह, प्रस्तुति का भी महत्व है प्रभावी रचना में । मीडियॉकर आलोचक साँचे में बँधी आकृतियाँ ही देख पाते हैं । यह उनकी सीमा है ।
प्र - क्या ऐसा करने वाला आलोचक एक तरह से संभावित रचनाकारों को साहित्य के नैसर्गिक मूल्यों से दूर नहीं ले जा रहा है ?
उ - यह कुछ ऐसा ही है- नीम हकीम खतरे जान । ऐसा अधकचरा आलोचक सिवाय भ्रम पैदा करने के और लोगों को गुमराह करने के अलावा क्या करेगा ?
प्र - आपकी पसंद का आलोचक और उसका कारण ?
उ - जैसा मैंने पहले भी कहा है कि एक श्रंखला है विद्वान आलोचकॊं की और मैंने उनसे बहुत सीखा है । आचार्य शुक्ल, डॉ रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध आदि । आजकल जो लोग अच्छा काम कर रहे हैं वे हैं - वीरेंद्र मोहन, सूरज पालीवाल, शंभु गुप्त ।
प्र - चौहान साहब, क्या यह सही नहीं है कि सभी विधाओं में रचनाकारों की संख्या बढ़ती चली गई है बावजूद पूर्व की अपेक्षा, रचनाओं का प्रभाव समाज पर कमतर होता चला गया है । आज के समय में साहित्य का समाज पर क्या प्रभाव है ?
उ - आप सही कह रहे हैं । इसके कई कारण हैं - पहली बात साहित्य से किसी को सीधा कोई लाभ नहीं प्राप्त हो सकता जबकि आज लाभ-वादी समय है । बिना लाभ के हर कार्य निरर्थक है । दूसरी अहम बात है रचनाकारों का उथला लेखन । जड़ों से कटकर कोई भी सार्थक और प्रभावी रचना नहीं दे सकता पर आज के समय का मूलमंत्र है स्व-चर्चा, सामान्यत: मीडियॉक्रिटी ही आज रचना पर हावी है । इसी कारण साहित्य समाज से उदासीन हो गया है ।
प्र - मैं बुद्धिनाथ मिश्र जी की बात दोहराना चाहता हूँ - 'समाज में साहित्य को फालतू का काम माना जाता है और साहित्यकार वह खुला डाँगर, जिसको मुफ़्त में कोई कहीं भी ले जा सकता है ।" यदि समाज अन्य क्षेत्रों-श्रेणियों के महान लोगों की तरह साहित्यकारों को तवज्जो देता तो उसका मतलब यह भी होता कि साहित्य समाज का दिशाबोधक यंत्र है ।
उ - बात एक हद तक सही है । लेकिन मैं इसके लिए सिर्फ़ समाज को दोष नहीं दूँगा । मेरी नजर में हिंदी का लेखक इस दुर्दशा के लिए स्वयं जिम्मेदार है । वह न तो गरिमापूर्ण आचरण का स्वामी है न स्वाभिमानी । वह बिकाऊ है । इसलिए उस पर समाज क्यों नाहक तवज्जो दे । जब जरूरत होगी तो कुछ मुद्राओं के लिए वह खुद ही दौड़ा चला आएगा ।
प्र - आपका अगला प्रोजेक्ट क्या है ? कोई नई पुस्तक ?
उ - हाँ एक उपन्यास तैयार है यह मेरे बचपन के संस्मरणॊं के आधार पर लिखा गया है । यह "पाँव जमीन पर" नाम से आयेगा ।
आपने अपना बहुमूल्य समय निकाला, बहुत बहुत धन्यवाद । आपका सृजन निरंतर अधिक से अधिक समृद्ध हो इस हेतु अमित शुभकामनाएँ ।
जय प्रकाश मानस,
संपादक - सृजन गाथा,
रायपुर (छत्तीसगढ)
सव्यसाची और उत्तरगाथा का जिक्र पढ़कर मन अजीब हो गया। सव्यसाची के बारे में हमारे लोगों ने अभी ढंग से लिखा नहीं है। उनके काम का मूल्यांकन बाकी है। -धीरेश (ek-ziddi-dhun.blogspot.com)
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