कविता मानस की पीड़ा -सीमा सचदेव ( पिछले अंक से जारी...) मानस की पीड़ा भाग 9. कैकेई का पश्चाताप पत्थर आँखें और मूक जुबां ...
कविता
मानस की पीड़ा
-सीमा सचदेव
(पिछले अंक से जारी...)
मानस की पीड़ा
भाग9. कैकेई का पश्चाताप
पत्थर आँखें और मूक जुबां
नहीं कोई रहा दिल में अरमां
आँखें नहीं पलक झपकती है
इक टक ही देखती रहती है
आँसू भी अब तो नहीं बहते
थक गई आँखें रोते-रोते
पर मन तो हर क्षण रोता है
इक पल भी चैन न मिलता है
कड़वी यादें नहीं जाती है
मन तो क्या रूह रुलाती है
तब क्यों फिर गई मेरी बुद्धि
और मैं बन गई थी जिद्दी
क्यों स्वार्थ मुझमें समाया था
जब दासी ने भरमाया था
क्यों माँगें मैंने ऐसे वचन
बिगड गया सबका जीवन
तब मैंने क्यों नहीं सोचा
भाग्य दे जाएगा धोखा
क्यों दासी की बातों में आई
और इतना क्यों ललचाई
नहीं सोचा राम भी मेरा सुत
क्यों भर गई थी मन में नफरत
जो राम मेरी गोदी खेला
उसी को मैंने वन भेजा
वह मेरे पास ही रहता था
मुझे माँ से बढ़ के समझता था
जब खेलते थे चारों भाई
वह मेरे पास तो छुपता था
खाना मेरे हाथों खाता था
और मेरे पास ही सोता था
कभी कुछ क्षण मैं न दिखी उसको
तो वह कितना रोता था
मुझे याद है भरत औ राम का प्यार
दोनों के ही कितने सद विचार
रिपुदमन लखन छोटे भाई
दोनों ने ही जोड़ी बनाई
लक्ष्मण तो राम के संग रहता
रिपुदमन भरत को भाई कहता
दोनों इक दूजे का पक्ष लेते
बस ऐसे ही खेलते रहते
राम मेरी गोदी रहता
मुझको ही अपनी माँ कहता
और मेरे सुत का यह कहना
माँ कौशल्या है मेरी माँ
कभी किसी के मन में आया नहीं
सुत पे अधिकार जताया नहीं
कभी फर्क नहीं समझा मन में
चारों भाई तीनों की धड़कन में
क्यों भूल गई जब ब्याह आई
महलों में सुख सुविधा पाई
बड़ी बहनो ने प्यार दिया ऐसे
कोई माँ दे बेटी को जैसे
क्षमा की मेरी हर एक भूल
क्यों मैं बनी उनके लिए शूल
अब भी किसी को कोई गिला नहीं
मुझे नफरत से कोई मिला नहीं
क्यों कोई मुझसे नहीं कहता
हर कोई मन में घुटता रहता
अपना सुत दूर किया मैंने
क्यों आएगा अब मेरे कहने
कभी सामने भी तो आता नहीं
अपना दुख ही तो बताता नहीं
कुटिया में बैठा रहता है
जाने कितने दुख सहता है
मैं कुछ भी तो नहीं कह सकती
मुझमें नहीं वो माँ की शक्ति
मैं सारी ही मर्यादा भूली
और चढा दिया दुख की शूली
कितना अपराध किया मैंने
सबको ही कष्ट दिया मैंने
वो बहुएँ न देखी जाती है
जो जोगन बन कर रहती है
सीता तो पति संग पर वन में
ऊर्मिला विरह की अगनी में
सब कुछ होते ही भरत पत्नी
कर रही है वो तपस्या कितनी
पति पास है फिर भी दूर है
भाग्य भी कितना क्रूर है
कभी पति को हँसते नहीं देखा
क्या बन गई उसकी भाग्य रेखा
उनके सम्मुख भी जाऊँ कैसे
इक माँ का फर्ज निभाऊँ कैसे
कोई शब्द नहीं है मेरे पास
अभी भी नहीं होता विश्वास
सच्च में अपराध किया मैंने
सबको ही कष्ट दिया मैंने
यह मेरी करनी का फल है
अब नहीं इसका कोई हल है
कैकेई यूँ ही बैठी रहती
महलों से बाहर नहीं आती
खुद में शर्मिन्दा होती है
और हर क्षण ही रोती है
कभी सामने किसी के नहीं आती
अपनी पीड़ा नहीं बतलाती
कभी मिलने जाए कोई उससे
नहीं शब्द बोलती कोई मुख से
बस फूट फूट कर रोती है
और मुख आँसुओं से धोती है
वह नहीं कर सकती कोई बात
ऐसा लगा है मन पे आघात
बस सोचो में गुमसुम रहती है
गम खाती औ आँसू पीती है
लक्ष्मण की माँ समझाती है
उसे प्यार से गले लगाती है
यह भाग्य है ऐसा जान लो
नहीं दोषी तुम यह मान लो
विधाता को यही मंजूर था
नहीं तेरा कोई कसूर था
तुम तो बस माध्यम बनी इसका
इसमें बस चलता है किसका
अब छोड़ दो तुम ये सब बातें
कभी बीतेगी काली रातें
यहाँ पर भी उजियाला होगा
सब कुछ पहले जैसा होगा
पर कैकेई का मन नहीं माने
अपराधी ही खुद को जाने
कहाँ से आएगा वह सुहाग?
कैसे किस्मत जाएगी जाग ?
मेरे कारण तो पति भी छोड़ चला
मैं कैसे भूल जाऊँ ये भला
क्या यह कहुँ राम की माता से
कि किया है सब विधाता ने
मैंने नहीं राम को भेजा वन
नहीं लिया था मैंने कोई वचन
नहीं किसी को भी समझा सकती
अपनी पीड़ा न बता सकती
जो रूह को मेरी जलाती है
और खून के आँसू पिलाती है
कितनी प्यारी है बहु ऊर्मिला
जो नहीं करती कभी कोई गिला
हर सुबह यहाँ पर आती है
मेरे पाँव छू के जाती है
चेहरे पे तो रहती है उदासी
लगती है कोई वनवासी
आँखों में उसकी कितने प्रश्न
जिसे देख के भर जाता है मन
इधर वो देखो भरत पत्नी
भोली सी मेरी बहु अपनी
जैसे मन में कोई खुशी नहीं
होठों पे कभी हँसी नहीं
देखो छोटा सुत शत्रुघ्न
उसने भी मार लिया है मन
सारी जिम्मेदारी उस पर
नहीं पत्नी पर उसकी नज़र
सबसे छोटा पर सबसे बड़ा
उस पर ही तो यह राज्य खड़ा
जिम्मेदारी कितनी उस पर
अभी तो छोटी सी है उमर
देखते ही हो गया कितना बड़ा
सर पर कितना ही बोझ पड़ा
कैसे उसे आई इतनी समझ
उठा लिया सारा ही बोझ
उसकी पत्नी भी कितनी भली
वो प्यारी सी नन्हीं सी कली
कहाँ खो गई उसकी चँचलता
सहमी रहती क्या उसकी खता
त्याग की देवी लक्ष्मण माँ
उसकी हिम्मत का क्या कहना
न रोती न मुसकाती है
पर हर किसी को समझाती है
क्या घर राज्य या प्रजा
सबमें ही है ऊँचा दर्जा
सबको ही उसने सँभाला है
रघुकुल का वही उजाला है
देखी वह प्यारी बहु जानकी
अब तो रानी है वह वन की
वह महलों में नाज़ों से पली
और प्यारी सी नाज़ुक सी कली
आँखों में कितने लिए सपने
आएगी कभी महल अपने
मन में नहीं उसके कोई हलचल
पिया संग प्यारा उसको जंगल
और मेरा प्यारा सा लक्ष्मण
कर दिया उसने खुद को अर्पण
अभी तो छोटा सा बच्चा था
कितना ही क्रोध वह करता था
कुछ दिन में ही बड़ा हुआ कितना
नहीं सयाना कोई उसके जितना
क्यों न हो ? सुमित्रा ने जाया
धन्य माँ जिसने यह सुत पाया
और राम तो दया की है मूरत
उसमें तो है ईश्वर की सूरत
वह साक्षात नारायण है
नहीं वह कोई जन साधारण है
बस मैंने ही नहीं समझा सबको
दे दिया धोखा मैंने खुद को
कितनी खुश थी मैं सुन के बात
कि राम सँभालेगा अब राज
हम तो अब बूढे हो गए
पहले जैसे नहीं प्राण रहे
पति को चाहिए था अब आराम
वृद्ध आयु में नारायण का नाम
पर भाग्य ने बुद्धि फेरी मेरी
भरमा गई मुझको इक चेरी
मैंने तो कभी सोचा ही नहीं
ऐसी भावना कभी रही नहीं
कि राजा कौन बनेगा अब
सोचा मन्थरा ने कहा जब
उलटा विचार भरमा ही गया
मेरे भी मन में आ ही गया
और माँग लिया राजा से वचन
तब नहीं डोला मेरा भी मन
पति को रोते हुए देखती रही
पर कोई बात भी सुनी नहीं
कितना ही कहा मुझसे उसने
थोड़ा तो सोचो अब मन में
नहीं सुखद तुम्हारा दूसरा वचन
जिसमे तुम राम को भेजो वन
मैं भरत को राजा बना दूंगा
प्रजा को भी समझा दूंगा
पर राम को वन में भेजने से
क्या पाओगी जरा सोचो मन में
पर तब नहीं मुझको समझ आया
सारा ही कुछ तो गँवा दिया
यह मेरे ही करमों का फल है
आज सूना सा जो यह महल है
पछतावे की आग में जलते हुए
हर पल ही आहें भरते हुए
चौदह वर्ष तो बीत गए
और फिर से सारे मिल गए
पर खत्म नहीं हुआ पछतावा
ज्यों रिसता हो हर दम लावा
थी फिर से फटी ज्वालामुखी
कैकेई कभी नहीं रही सुखी
जब फिर से सीता गई वन
कैकेई के मन में फिर से अगन
न मैं ही माँगती कोई वचन
न लगता सीता पर लाँछन
उस देवी पे उँगली न उठती
जो मैं ही तब जिद न करती
मैंने ही सीता के भाग्य में
लिख दिया है जा के रहो वन में
उस एक वचन की ऐसी सज़ा
गलत मैं सिया की क्या खता
इससे अच्छे थे चौदह साल
नहीं सीता के मन में था मलाल
चाहे रहती थी जंगल में
पर रहती तो थी पति संग में
वन के कष्टों को सहती रही
फिर भी पति के संग खुश रही
पर अब वह कैसे सहेगी सब
वन में अकेली जाएगी जब
ऊपर से है वह गर्भवती
कैसे समझे सीता का पति
मैं चाह कर कुछ नहीं कर सकती
न जिन्दा हूँ न ही मर सकती
अब मैं कुछ और न सह सकती
अब दुनिया में नहीं रह सकती
इस तरह से वह सोचती रहती
बस पश्चाताप करती रहती
गम का रिसता रहता लावा
नहीं खत्म हुआ कभी पछतावा
************************
(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
-------------
संपर्क:
सीमा सचदेव
एम.ए.हिन्दी,एम.एड.,पी.जी.डी.सी.टी.टी.एस.,ज्ञानी
7ए , 3रा क्रास
रामजन्य लेआउट
मरथाहल्ली बैंगलोर -560037(भारत)
COMMENTS