उपन्यास गरजत बरसत ----उपन्यास त्रयी का दूसरा भाग---- - -असग़र वजाहत दूसरा खण्ड ( पिछली किश्त से आगे पढ़ें...) .. ...
उपन्यास
गरजत बरसत
----उपन्यास त्रयी का दूसरा भाग---- -
-असग़र वजाहत
दूसरा खण्ड
(पिछली किश्त से आगे पढ़ें...)
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----२४----
रात तीन बजे के आसपास अक्सर कोई जाना पहचाना आदमी आकर जगा देता है । किस रात कौन आयेगा? कौन जगायेगा? क्या कहेगा यह पता नहीं होता। जाग जाने के बाद रात के सन्नाटे और एक अनबूझी सी नीरवता में यादों का सिलसिला चल निकलता है। कड़ियां जुड़ती चली जाती है और अपने आपको इस तरह दोहराती है कि पुरानी होते हुए भी नयी लगती है।
ये उस ज़माने की बात है जब मैंने रिपोर्टिंग से ब्यूरो में आ गया था। हसन साहब चीफ रिपोर्टर थे। उन्होंने खुशी-खुशी मेरे प्रोमोशन पर मुहर लगायी थी। उसके बाद नये चीफ के साथ उनके मतभेद शुरू हो गये। हसन साहब उम्र की उस मंज़िल में थे जहां लड़ने झगड़ने से आदमी चुक गया होता है। रोज़-रोज़ के षड्यंत्रों और दरबारी तिकड़मों से तंग आकर उन्होंने एक दिन मुझसे कहा था “मियां मैं सोचता हूं दिल्ली छोड़ दूं।”
मुझे हैरत हुई थी। सन् बावन से दिल्ली के राजनैतिक, सामाजिक परिदृश्य के साक्षी हसन साहब दिल्ली छोड़ने की बात कर रहे हैं जबकि लोग दिल्ली आने के लिए तरसते हैं। इसलिए कि दिल्ली में ही तो लोकतंत्र का दिल है। यही से उन तारों को छेड़ा जाता है जो पद, प्रतिष्ठा और सम्मान की सीढ़ियों तक जाते हैं।
“ये आप क्या कह रहे हैं हसन भाई?”
“बहुत सोच समझ कर कह रहा हूं. . .देखो हम मियां, बीवी अकेले हैं. . .हम कहीं भी बड़े आराम से रह लेंगे. . .मैं किसी तरह का 'टेंशन` नहीं चाहता. . .मैंने जी.एम. से बात कर ली है। अखबार से एक स्पेशल क्रासपाण्डेंट शिमला भेजा जाना है. . .हो सकता है, मैं चला जाऊं।”
“इतने सालों बाद दिल्ली. . .”
“मियां दिल्ली से मैंने दिल नहीं लगाया हैं।``
हसन साहब शिमला चले गये। सुनने में आता था बहुत खुश है। स्थानीय पत्रकारों से खू़ब पटती है। अपने स्वभाव, लोगों की मदद, हारे हुए के पक्ष में खड़े होने के अपने बुनियादी गुण के कारण बहुत लोकप्रिय हैं। शिमला से वे जो भेजते थे उसे चीफ रद्दी में डाल देते थे लेकिन उन्होंने कभी प्रतिरोध नहीं किया। पता नहीं जिंदगी के इस मोड़ पर उन्हें कहां से सहन करने की ताकत मिलती थी।
उनके शिमला जाने के कुछ साल बाद मैं तन्नो और हीरा के साथ शिमला गया था। वो वे मेरा सामान होटल से 'लिली काटेज` उठा लाये थे। पहाड़ के ऊपर ब्रिटिश पीरियड की इस काटेज में वे और भाभी रहते थे। यहां से शिमला की घाटी दिखाई देती थी। उन्होंने बाग़वानी भी शुरू कर दी थी और शहद के छत्ते लगाये थे। 'लिली काटेज` भी उनके साफ सुथरे और संभ्रांत अभिरुचियों से मेल खाती थी। नफ़ासत, तहजीब, तमीज़, खूबसूरती, मोहब्बत और रवायत के पैरवीकार हसन साहब अपनी जिंदगी से खुश थे। रोज कई किलोमीटर पैदल चलते थे। शाम बियर पीते हुए क्लासिकल संगीत सुनते थे। जाड़ों की सर्द रातों में आतिशदान के सामने बैठकर 'रूमी' और 'हाफ़िज़` का पाठ करते थे। उन्हें देखकर मैं बहुत खुश हुआ था।
शिमले एक दिन मुझे जबरदस्ती घसीटते हुए पता नहीं क्यों मुख्यमंत्री से मिलवाने ले गये थे। सचिवालय में मुख्यमंत्री के पी.एस. ने बताया कि कैबनेट की मीटिंग चल रही है। मैं खुश हो गया था कि यार मुख्यमंत्री से मिलना टल गया। मुझे यकीन था कि तन्नो और तीन साल के हीरा को मुख्यमंत्री से मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं है लेकिन हसन साहब मानने वाले नहीं थे। न्यूज़ वाले जो ठहरे।
तन्नो और हीरा को ऑफिस में छोड़कर वे मुझे लेकर गैलरी में आ गये। फिर गैलरियों की भूल भुलइया से होते एक छोटे से कोटयार्ड में पहुँचे जहां उस कमरे की खिड़कियां थी जिनमें कैबनेट की मीटिंग हो रही थी। वहां से मुख्यमंत्री दिखाई पड़े। उन्होंने जब हसन साहब को देखा तो हसन साहब ने उन्हें हाथ से इशारा किया और मुझसे बोले “चलो निकल आयेगा।”
हम ऑफिस में आये तो मुख्यमंत्री मीटिंग से निकलकर अपने चैम्बर में आ चुके थे।
मुख्यमंत्री से हम लोगों का परिचय हुआ। परिचय के बाद मुख्यमंत्री बड़ी बेचैनी से बोले “लाइये. . .लाइये. . .” मतलब वे यह आशा कर रहे थे कि हम किसी काम से आये हैं। हमारे पास काई प्रार्थना पत्र है जिस पर उनके हस्ताक्षर चाहिए।
“ये लोग तो घूमने आये हैं”, हसन साहब ने बताया।
“घूमने आये हैं. . .तो मैनेजिंग डायरेक्टर टूरिज्म़ को फोन करो”, उन्होंने अपनी पी.एस. से कहा।
एक दो अनौपचारिक बातों के बाद मुख्यमंत्री कैबनेट बैठक में चले गये।
“आपने काफी काबू में किया हुआ है”, मैंने बाद में हसन साहब से कहा।
“अरे भई. . . ये तो चलता ही रहता है. . .अभी यहां तूफान आया था। एक अंदाजे के मुताबिक दस करोड़ का नुकसान हुआ है. .मुझसे ये कह रहे हैं मैं 'द नेशन` में रिपोर्ट के साथ बीस करोड़ का नुकसान बताऊं. . .सेंटर से ज्यादा पैसा मिल जायेगा।”
शिमला जाने के कोई दस-ग्यारह साल बाद यह ख़बर मिली थी कि हसन साहब रिटायर होकर दिल्ली आ गये हैं ओर 'नोएडा` में किराये का मकान लिया है। सन् बावन से दिल्ली में रहने वाले हसन साहब के पास शहर में कोई अपना मकान या फ्लैट नहीं है।
एक बार बता रहे थे। काफी पुरानी बात है। दिल्ली के किसी मुख्यमंत्री को किसी 'घोटाले` के बारे में हसन साहब स्टोरी कर रहे थे। मुख्यमंत्री ने उन्हें ऑफिस बुलाकर उनके सामने पूरी 'सेलडीड` के काग़ज़ात रख कर कहा था हसन साहब दस्तख़त कर दो. . .कैलाश कालोनी का एक बंगला तुम्हारा हो जायेगा।
हसन साहब ने उसी के सामने काग़ज फाड़कर फेंक दिये थे। उनके 'नोएडा` वाले मकान में मैं कभी-कभी जाता था। रिटायरमेण्ट के बाद वे अपने नायाब 'कलेक्शन` को 'अरेन्ज` कर रहे थे। उनके पास सिक्कों का बड़ा 'कलेक्शन` था। एफ. एम. हुसैन ने उन्हें कुछ स्केच बना कर दिए थे। बेगम अख्त़र ने उनके घर पर जो गाया था उसकी कई घण्टों की रिकार्डिंग थी। चीन यात्रा के दौरान उन्होंने बहुत नायाब दस्तकारी के नमूने जमा किये थे। जापान से वे पंखों का एक 'कलेक्शन` लाये थे। इस सब में वे लगे रहते थे और वही उत्साह था, वही लगन, वही समर्पण और वही सहृदयता जो मैंने तीस साल पहले देखी थी।
एक ही आद साल पता चला उन्हें 'थ्रोट कैन्सर` हो गया है। वह बढ़ता चला गया। उन्हें 'ऐम्स` में भरती कराया गया। कुछ ठीक हुए। फिर बीमार पड़े और साले होते-होते 'सीरियस` हो गये। 'ऐम्स` में उनसे मिलने गया तो लिखकर बात करते थे। बोल नहीं सकते थे। आठ बजे रात तक बैठा रहा। घर आया तो खाना खाया ही था कि उमर साहब का फोन आया कि हसन साहब नहीं रहे।
भाभी को उमर साहब की बीवी लेकर चली गयी। हम लोगों ने रिश्तेदारों को फोन किए। रात में बारह के करीब उनकी 'बॉडी` मिली। दफ्ऩ वगै़रा तो सुबह ही होना था। सवाल यह था कि 'बॉडी` लेकर कहां जायें। उमर साहब ने राय दी कि जोरबाग वाले इमाम बाड़े चलते हैं। वहीं सुबह गुस्ल हो जायेगा और दफ्ऩ का भी इंतिज़ाम कर दिया जायेगा।
इमामबाड़े वालों ने कहा कि रात में 'डेड बॉडी` को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता। आप लोगों को यहां रुकना पड़ेगा। जाड़े के दिन थे। हम वहां कहां रुकते 'डेड बॉडी` के लिए जो कमरा था वहां 'बॉडी` रख दी गयी थी। उसके बराबर के मैदान में मैंने गाड़ी खड़ी कर दी। मैंने और उमर साहब ने सोचा, गाड़ी रात गुज़ार देंगे।
जब सर्दी बढ़ने लगी तो उमर साहब ने कहा “अभी पूरी रात पड़ी है और गाड़ी में बैठना मुश्किल हो जायेगा. . .चलिए घर से कम्बल और चाय वगै़रा ले आते हैं।”
उमर साहब ने बताया कि वे पास ही में रहते हैं। तुगल़काबाद एक्सटेंशन के पीछे उन्होंने मकान बनवाया है। गाड़ी लेकर चले तो पता चला कि तुगलकाबाद से चार पांच किलोमीटर दूर किसी 'अनअथाराइज़` कालोनी में उमर साहब का मकान है। कालोनी तक पहुंचते-पहुंचते सड़क कच्ची हो गयी और इतनी ऊबड़-खाबड़ हो गयी कि गाड़ी चलाना मुश्किल हो गया। कई गलियों में गाड़ी मोड़ने के बाद उनके कहने पर मैंने जिस गली में गाड़ी मोड़ी वह गली नहीं तालाब था। पूरी गली में पानी भरा था। दोनों तरफ अधबने कच्चे, पक्के घर थे और गली में बिल्कुल अंधेरा था।
मैंने उनसे कहा “भाई ये तालाब के अंदर से गाड़ी कैसे निकलेगी।”
-''यहां से गाड़ियां निकलती है`` उन्होंने कहा।
“मैं निकाल दूं। पर अगर गाड़ी फंस गयी तो क्या होगा? रात का दो बजा है. . .”
बात उनकी समझ में आ गयी। बोले “मेरा घर यहां से ज्यादा दूर नहीं है। मैं कम्बल और चाय लेकर आता हूं। आप यहीं रुकिए।”
उमर साहब के जाने के बाद पता नहीं कहां से इलाके के करीब पच्चीस तीस कुत्तों ने गाड़ी घेर ली और लगातार भौंकने लगे. एक टार्च की रौशनी भी मेरे ऊपर पड़ी। मैं कुत्तों की वजह से उतर नहीं सकता था। लोगों का शक हो रहा था कि मैं कौन हूं और रात में दो बजे उनके घर के सामने गाड़ी रोके क्यों खड़ा हूं।
ख़ासी देर के बाद उमर साहब आये और हम इमामबाड़े आ गये। रातभर हम लोग हसन साहब के बारे में बातचीत करते रहे।
अगले दिन हसन साहब को दफ्ऩ कर दिया गया। उनके रिश्तेदार सुबह ही पहुंच गये थे। हम दस-पन्द्रह लोग थे कब्रिस्तान में किसी ने मेरे कान में कहा “वो हिम्मत से ज़िंदा रहे और हिम्मत से मरे।”
----२५----
“भई माफ करना. .. तुम्हारी बातें बड़ी अनोखी हैं. . .पहली बात तो ये कि मुझे अजीब लगती हैं. . .दूसरी यह कि उन पर यक़ीन नहीं होता. . .मैं यह सोच भी नहीं सकता कि कोई दिल्ली में पैदा हुआ। पला बढ़ा लिखा और उसने लाल किला, जामा मस्जिद नहीं देखी”, मैंने अनु से कहा।
“अब हम आपको क्या बतायें. . .पापा की छुट्टी इतवार को हुआ करती थी। स्कूल भी इतवार को बंद होते थे. ..पापा कहते थे कि हफ्त़े में एक दिन तो छुट्टी का मिलता है आराम करने के लिए. .. उसमें भी बसों के धक्के खायें तो क्या फ़ायदा. . .फिर कहते थे अरे घूमने फिरने में पैसा ही तो बर्बाद होगा न? उस पैसे से कुछ आ जायेगा तो पेट में जायेगा या घर में रहेगा. ..”
“और स्कूल वाले. . .”
“अली साहब. ..म्युनिस्पल स्कूल वाले पढ़ा देते हैं यही बहुत है. . .वे बच्चों को पिकनिक पर ले जायेंगे?”
“दूसरी लड़कियों के साथ।”
“वे भी हमारी तरह थीं. . .छुट्टी में लड़कियां गुट्टे खेलती थीं और हम गणित के सवाल लगाते थे. . .सब हमें पागल समझते थे”, अनु हंसकर बोली।
“तो तुमने आज तक लाल किला और जामा मस्जिद नहीं देखी?”
“हां अंदर से. . .बाहर से रेलवे स्टेशन जाते हुए देखी है।”
“क्या ये अपने आप में स्टोरी नहीं है?”
“स्टोरी?” वह समझ नहीं पाई।
“ओहो. . .तुम समझी नहीं. . . मैं कह रहा था कि क्या ये एक नयी और अजीब बात नहीं है कि दिल्ली में . . .”
“मेरी बड़ी बहन ने भी ये सब नहीं देखा है और छोटी बहन ने भी नहीं देखा।”
“तुम्हारा कोई भाई है?”
“नहीं भाई नहीं है. . .हम तीन बहने हैं।”
“ओहो. . .”
“चलो तुम्हें जामा मस्जिद दिखा दूं. . .चलोगी”, मैंने अचानक कहा।
“अभी?”
“हां. . . अभी?”
“चलिए”, वह उठ गयी।
दरियागंज में गाड़ी खड़ी करके हम रिक्शा पर बैठ गये। मेरी एक बहुत बुरी आदत है. . .इतनी बुरी कि मैं उससे बेहद तंग आ गया हूं. . .छोड़ना चाहता हूं पर छूटती नहीं. . .ये आदत है सवाल करने और गल़त चीज़ों को सही रूप में देखने की आदत. . .रिक्शे, भीड़, फुटपाथ पर होटल, फुटपाथ पर जिंदगी. . .अव्यवस्था, अराजकता. . .सड़क ही पतली है, उस पर सितम ये कि दोनों तरह से बड़ी-बड़ी गाड़ियां आ जा रही है। सड़क पर भी जगह नहीं है. . .क्योंकि ठेलियां खड़ी हैं। रिक्शेवाले फुटपथिया होटलों में खाना खा रहे हैं। फक़ीर बैठे हैं। लावारिस लड़के बूट पालिश कर रहे हैं। रिक्शेवाले रिक्शे पर सो रहे हैं। बूढ़े और बीमार फुटपाथ पर पसरे पड़े हैं। धुआं और चिंगारियां निकल रही हैं।
कौन लोग हैं ये? जाहिर है इसी फुटपाथ पर तो पैदा नहीं हुए होंगे। कहीं से आये होंगे? क्या वहां भी इनकी जिंद़गी ऐसी ही थी या इससे अच्छी या खराब थी? ये आये क्यों?
इसमें शक नहीं कि ये भूखों मर रहे हैं। इनकी जिंद़गी बर्बाद है और चाहे जो हो वह इन हालात को अच्छा और जीने लायक नहीं मान सकता।
अब सोचना ये है कि वे यहां भुखमरी से बचने के लिए अपने-अपने इलाकों से आये हैं लेकिन आते क्यों हैं। ये लोग पेड़ तो लगा सकते हैं? गांवों के आसपास से महुए के पेड़ कम होते जा रहे हैं। महुआ इनके लिए बड़ा उपयोगी पेड़ हे। ये लोग महुए के पेड़ क्यों नहीं लगाते? जानवर क्यों नहीं पालते? अगर गुजरात में सहकारी आंदोलन सफल हो सकता है तो यहां क्यों नहीं हो सकता? क्या इलाके के लोग मिलकर सड़क या रास्ता नहीं बना सकते? शायद समस्या है कि इन लोगों के सामूहिकता की भावना को, एकजुट होकर काम करने की लाभकारी पद्धति को विकसित नहीं किया गया। सागर साहब ने जिन गांवों में यह प्रयोग किए हैं वे सफल रहे हैं। फिर ऐसा क्यों नहीं होता?
सामूहिक रूप से अपने जीवन को बदलने और संघर्ष करने की प्रक्रिया इन्हें सशक्त करेगी और सत्ता शायद ऐसा नहीं चाहती। आम लोगों का सशक्तिकरण सत्ता के समीकरण बदल डालेगा। क्या इसका यह मतलब हुआ कि गरीब के हित में किए जाने वाले काम दरअसल सत्ता के लिए चुनौती होते हैं और सत्ता उन्हें सफल नहीं होने देती। सत्ता ने बड़ी चालाकी से विकास की जिम्मेदारी भी स्वीकार कर ली है। इसका मतलब यह है कि विकास पर उनका एकाधिकार हो गया है। विकास की परिकल्पना, स्वरूप, कार्यक्रम और उपलब्धियों से वे लोग बाहर कर दिए गये हैं जिनके लिए विकास हो रहा है।
“आप क्या सोच रहे हैं”, जब हम जामा मस्जिद की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे तो अनु ने पूछा।
“बहुत कुछ. . .सब बताऊंगा लेकिन अभी नहीं. . .अभी तुम्हें जामा मस्जिद के बारे में बताऊंगा क्योंकि यहां तुम पहली बार आ रही हो”, हम अंदर जाने लगे तो किसी ने रोका कि इस वक्त औरतें अंदर नहीं जा सकतीं।
“मैं प्रैस से हूं. . .'द नेशन` का एसोसिएट एडीटर. . .एस.एस. अली. .. इमाम साहब का दोस्त हूं. . .” वह आदमी घबरा कर पीछे हट गया।
“आप लोगों के बड़े ठाट हैं।”
“हां यार. . .ये लोगों ने अपने-अपने नियम बना रखे हैं. . .जितने भी नियम कायदे बनाये जाते हैं सब लोगों को परेशान करने के लिए, आदमी को सबसे ज्यादा मज़ा शायद दूसरे आदमी को परेशान करने में आता है।”
वह हंसने लगी।
“आप कह रहे थे कुछ बतायेंगे मस्जिद के बारे में।”
“सुनो एक मजे का किस्सा. . .शाहजहां चाहता था कि मस्जिद जल्दी से जल्दी बनकर तैयार हो जाये। एक दिन उसने दरबार में प्रधानमंत्री से पूछा कि मस्जिद बनकर तैयार हो गयी है क्या?” प्रधानमंत्री ने कहा “जी हां हुजूर तैयार है” इस पर सम्राट ने कहा ठीक है अगले जुमे की नमाज़ मैं वहीं पढ़ूंगा। दरबार के बाद मस्जिद के निर्माण कार्य के मुखिया ने प्रधानमंत्री से कहा कि आपने भी ग़ज़ब कर दिया। मस्जिद तो तैयार है लेकिन उसके चारों तरफ जो मलबा फैला हुआ वह हटाना महीनों का काम है। उसे हटाये बगै़र सम्राट कैसे मस्जिद तक पहुंचेंगे? प्रधानमंत्री ने एक क्षण सोचकर कहा “शहर में डुग्गी पिटवा दो कि मस्जिद के आसपास जो कुछ पड़ा है उसे जो चाहे उठा कर ले जाये।”
ये समझो कि तीन दिन में पूरा मलबा साफ हो गया।
वह हंसने लगी।
यह लड़की मुझे अच्छी लगी है। मैं अब उसकी सहजता का रहस्य समझ पाया हूं।
“और बताइये?”
“सुनो. . .जैसा कि मैंने बताया शाहजहां चाहता था कि मस्जिद जल्दी से जल्दी बनकर तैयार हो जाये. . .मस्जिद का 'बेस` और सीढ़ियाँ बनाकर 'चीफ आर्कीटेक्ट` ग़ायब हो गया। काम रुक गया। सम्राट बहुत नाराज़ हो गया। सारे साम्राज्य में उसकी तलाश की गयी। वह नहीं मिला. . .अचानक एक दिन दो साल बाद वह दरबार में हाजिर हो गया। सम्राट को बहुत ग़ुस्सा आया। वह बोला “सरकार आप चाहते थे कि मस्जिद जल्दी से जल्दी बन जाये। लेकिन मुझे मालूम था कि इतनी भारी इमारत के 'बेस` में जब तक दो बरसातों का पानी नहीं भरेगा तब तक इमारत
मजबूती से टिकी नहीं रह पायेगी। अगर मैं यहां रहता तो आपका हुक्म मानना पड़ता और इमारत कमज़ोर बनती। हुक्म न मानता तो मुझे सज़ा होती। इसलिए मैं गायब हो गया।”
“मेरी भी अच्छी कहानी है”, वह बोली।
“मस्जिद से जुड़ी. . .कहानियां तो दसियों हैं. . .नीचे देखो वहां सरमद का मज़ार है. . .कहते हैं औरंगजेब ने सरमद की खाल खिंचवा कर उनकी हत्या करा दी थी. . .मुझे पता नहीं यह बात कितनी ऐतिहासिक है लेकिन किस्सा मज़ेदार है और लोग जानते हैं। एक दिन औरंगजेब की सवारी जा रही थी और रास्ते में सरमद नंगा बैठा था। उसके पास ही एक कम्बल पड़ा था। औरंगजेब ने उसे नंगा बैठा देखकर कहा कि कम्बल तुम्हारे पास है, तुम अपने नंगे जिस्म को उससे ढांक क्यों नहीं लेते?” सरमद ने कहा “मेरे ऊपर तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। तुम्हें कोई परेशानी है तो कम्बल मेरे ऊपर डाल दो।`` खैर सम्राट हाथी से उतरा। कम्बल जैसे ही उठाया वैसे ही रख उल्टे पैर लौटकर हाथी पर चढ़ गया।” सरमद हंसा और बोला “क्यों बादशाह, मेरे नंगा जिस्म छिपाना ज़रूरी है या तुम्हारे पाप?`` कहते हैं औरंगजेब ने जब कम्बल उठाया था तो उसके नीचे उसे अपने भाइयों के कटे सिर दिखाई दिए थे जिनकी उसने हत्या करा दी थी. . .कहो कैसी लगी कहानी?”
उसने मेरी तरफ देखा। उसकी उदास और गहरी आंखों में संवेदना के तार झिलमिला रहे थे।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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