कविता मानस की पीड़ा -सीमा सचदेव ( पिछले अंक से जारी...) मानस की पीड़ा भाग 5. ऊर्मिला- लक्ष्मण संवाद लक्ष्मण-ऊर्मिला सं...
कविता
मानस की पीड़ा
-सीमा सचदेव
(पिछले अंक से जारी...)
मानस की पीड़ा
भाग5. ऊर्मिला- लक्ष्मण संवाद
लक्ष्मण-ऊर्मिला संवाद में वन गमन पूर्व का चित्रण किया है |
लक्ष्मण - ऊर्मिला तब नव - विवाहित थे |बहुत कठिन होता है
किसी के लिये भी ऐसे हालात में रहना , लेकिन ऊर्मिला और
लखन रहे जिसके बारे में हमने कभी सोचा ही नहीं |
कैसे रही होगी एक नव-विवाहिता चौदह वर्ष तक पति से अलग |
इसके लिए "विरहिणी ऊर्मिला" एक भाग अलग से लिखा है |
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हर्षित था अब लक्ष्मण का मन
मिल गया था जैसे नव जीवन
माँ का आशीष लेने को चला
ऐसा भाई होगा किसका भला?
माँ ने भी खुश हो कहा लखन
श्री राम की सेवा में जाओ वन
नहीं तुम केवल बेटे ही लखन
तुमसे है जुड़ा इक और जीवन
पत्नी की अनुमति भी ले लो
फिर जा के करम पूरा कर दो
मुझे गर्व है तुम जैसे सुत पर
हो जाएगा मेरा नाम अमर
यह अति उत्तम, था माँ से कहा
अब मुझे जाने की दो आज्ञा
उर्मि है सर्व गुण सम्पन्न माँ
नहीं टालेगी मेरा कहना
जाओ तुम अब खुशी से रहना
राम की दिल से सेवा करना
मुझ पर नहीं आए कोई उलाहना
सीता का मानना हर कहना
अब सीता को ही माँ समझो
उस देवी की सेवा में लगो
देखो, कभी न उनको तंग करना
उनका बेटा बनकर रहना
हाँ माँ , मैं अब यही करूँगा
सेवा में नहीं पीछे हटूँगा
नहीं परेशानी दूंगा उनको
नहीं मिलेगा उलाहना तुमको
अब चलता हूँ मुझे आज्ञा दो
हँस के इस सुत को विदा कर दो
खुश रहो भाई की सेवा में
रहना श्री राम के चरणों में
माँ से तो मिल गई विदा
कैसे होगा पत्नी से जुदा
कैसे उसको बतलाएगा
उसे छोड़ के वन को जाएगा
यूँ सोचते हुए मन ही मन
आ गया उर्मि के पास लखन
नहीं शब्द है कुछ भी कहने को
कैसे कहे अकेली रहने को?
बस झुका हुआ सिर लिए हुए
आँखें था नीची किए हुए
चुप-चाप खड़ा था लखन वहां
खुश थी पत्नी ऊर्मिला जहां
देखा उर्मि ने ऐसा लखन
और सोच यह मन ही मन
है कोई शरारत फिर सूझी
जिसको ऊर्मिला नहीं बूझी
बोली ! क्या सूझा अब तुझको
कभी समझ नहीं आया मुझको
अब फिर परिहास बनाओगे
और फिर से मुझे सताओगे
अब जल्दी से बोलो भी पिया
क्यों उदास है तेरा जिया
ऊर्मिला यूँ लखन से पूछ रही
मन की बातों को बूझ रही
जब लखन नहीं कुछ भी बोला
ऊर्मिला का ह्रदय भी डोला
क्या अनर्थ हुआ? आया मन में
साधा है मौन क्यों लक्ष्मण ने?
यह सोच के वह घबराने लगी
लक्ष्मण को फिर से बुलाने लगी
क्या हुआ मुझे भी बतलाओ
यूँ ऐसे न मुझको तड़पाओ
अब लक्ष्मण धीरे से बोला
मुश्किल से उसने मुँह खोला
तुम रहो अकेली महलों में
अब मैं जाऊंगा जंगलों में
भैया भाभी की सेवा में
रहूंगा उनके संग ही वन में
माँ कैकेई ने है वचन लिया
श्री राम को है वनवास दिया
यूँ लक्ष्मण थे बता रहे
वनवास की बात सुना रहे
सुन कर उर्मि तो रोने लगी
और मुख आँसुओं से धोने लगी
तुम जाओ यही उत्तम होगा
इससे अच्छा क्या करम होगा?
दुख उनका है वन में रहने का
वन के कष्टों को सहने का
गए नहीं है घर से बाहर कभी
पाई सुख सुविधा घर में सभी
वन में तो कुछ भी नहीं होगा
ऐसे में तुम्हारा साथ होगा
बाँटना उनका अब सारा दर्द
अब यही तुम्हारा है बस फर्ज
चाहती हूँ तेरे संग जाऊँ
वन में भी साथ तेरा पाऊँ
पर पूरा करना है करम तुम्हें
चाहे कितने भी कष्ट सहे
इस करम से नहीं पीछे हटना
दिल से अब सेवा में जुटना
नहीं करम में बनूंगी मैं बाधा
इस लिए मैंने निर्णय साधा
मैं तेरा साथ निभाऊंगी
जाओ तुम मैं रह जाऊंगी
माँ की सेवा में यहाँ रह कर
विरह के कष्टों को सहकर
मैं चौदह वर्ष बिताऊंगी
प्रण है! मैं नहीं घबराऊंगी
अब छोड़ो तुम चिन्ता मेरी
हर इच्छा पूरी होगी तेरी
मैं साथ के लिए भी नहीं कहूंगी
तुम बिन मैं अब यहाँ रहूंगी
सुन लखन के आँसू बहने लगे
पत्नी से ऐसे कहने लगे
तुम महान हो ! हे ऊर्मिला
पावन स्वभाव में हो सरला
बस मुझको इक दे दो वचन
भरेंगे नहीं कभी तेरे नयन
तुम रोओगी, मुझको होगा दर्द
नहीं पूरा कर पाऊंगा फर्ज
ऊर्मिला ने आँसू पोंछ दिए
और बोली , अब सुनो प्रिय
मेरे प्यार में इतनी है शक्ति
मैंने की है तेरी भक्ति
उस भक्ति को अपनाऊंगी
वादा नहीं आँसू बहाऊंगी
दोनों ही हो रहे थे भावुक
कितने ही पल वो थे नाज़ुक?
मौन हुए थे दोनों अब
जाने फिर वो मिलेंगे कब
भर गए थे दोनों के ह्रदय
फिर भी मुख पर मुसकान लिए
लक्ष्मण ने कहा अब करो विदा
दिल से नहीं मैं कभी तुमसे जुदा
माँ की सेवा में रहना तुम
हर सुख दुख माँ से कहना तुम
जा रहा तो हूँ तुमको छोड़ के
पर नहीं जा रहा नाता तोड़ के
हम एक है एक रहेंगे सदा
दिल से नहीं होंगे कभी जुदा
मैं इन्तज़ार में तेरी पिया
समझाऊंगी यह पगला जिया
माँ के ही पास रहूंगी मैं
पूरा हर फर्ज करूंगी मैं
लक्ष्मण उर्मि को छोड़ चले
महलों से नाता तोड़ चले
अब है तैयार वन जाने को
साथ राम का पाने को
ऊर्मिला थी देख रही ऐसे
चंदा को चकोरी देखे जैसे
पिया नाम पुकारती हर धड़कन
पर नहीं विचलित हुआ उसका मन
धन्य थी वो नारी ऊर्मिला
जिसको जीवन में सब था मिला
पर आज विरहिणी बन रही थी
फिर भी वह फर्ज निभा रही थी
देखते ही चले गए थे लखन
मन में जल रही थी विरह अगन
फिर मन को वह समझाती है
खुद को अहसास कराती है
चौदह ही वर्ष के बाद लखन
आएँगे हमारा होगा मिलन
तब तक मैं राह में बैठूँगी
पिया को सपने में देखूँगी
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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संपर्क:
सीमा सचदेव
एम.ए.हिन्दी,एम.एड.,पी.जी.डी.सी.टी.टी.एस.,ज्ञानी
7ए , 3रा क्रास
रामजन्य लेआउट
मरथाहल्ली बैंगलोर -560037(भारत)
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