कविता मानस की पीड़ा -सीमा सचदेव ( पिछले अंक से जारी...) भाग 3. दुविधा में दशरथ सारे महलों में कितने खुश पाये जो थे सब अनुप...
कविता
मानस की पीड़ा
-सीमा सचदेव
(पिछले अंक से जारी...)
भाग 3.दुविधा में दशरथ
सारे महलों में कितने खुश
पाये जो थे सब अनुपम सुख
शिक्षा दीक्षा सब हुई पूरी
इच्छा नहीं रही थी अधूरी
चारों ही सुत थे ब्याहे गये
दशरथ के सपने पूरे हुए
कितनी प्यारी बहुएँ उनकी
भोली है कितनी ही मन की
गर्वित कितना राजा दशरथ
जिसके चारों ऐसे थे सुत
एक से बढ़कर गुणी एक
और सबमें ही था विवेक
सामने था भविष्य का आइना
और दशरथ का यह कहना
अब मुझमें शक्ति हुई कम
बूढ़ी हड्डियों में नहीं दम
जिसमे हो अवध राज्य का भला
अब वही फैसला मैं लेने चला
यह सोच के गुरु को बुलवाया
दशरथ ने गुरु को बतलाया
अब राम ही राज्य सँभालेगा
वही अवध का अब राजा बनेगा
मैं और नहीं अब कर सकता काम
मुझको भी चाहिये अब आराम
जितनी जल्दी हो शुभ मुहूर्त
देखूँ राम में राजा की सूरत
खुश होगी अवध की भी प्रजा
मेरे सिर से उतरेगा कर्जा
शुभ मुहूर्त भी निकलवाया
अगला दिन शुभ यह बतलाया
पर गुरु तो डर गया था मन मे
क्यों राम दिखा मुझको वन मे
मन ही मन वह था समझ गया
पर राजा से कुछ नहीं कहा
होगा वही, जो ईश्वर इच्छा
इसमें नहीं किसी का बस चलता
पर कितना खुश था दशरथ
अति उत्तम जो शुभ है मुहूर्त
प्रजा को भी था कहलवाया
रानियों को भी जा के बतलाया
तीनों रानी कितनी प्रसन्न
दे रही दुआएं मन ही मन
नहीं किसी के मन में कोई प्रश्न
खुश था अवध का हर एक जन
सबसे ज्यादा खुश कैकेई
दासियों को रत्न लुटा रही
अब अवध का राजा होगा राम
सीता बैठेगी उसके वाम
जोड़ी कितनी है यह प्यारी
सारी दुनिया से यह न्यारी
पर जब देखी दासी मन्थरा
देखा उसका चेहरा उतरा
कैकेई यह नहीं सब सह पाई
पूछे बिन भी नहीं रह पाई
बोली! यहाँ आओ मेरे पास
क्यों फिरती हो इतनी उदास?
मन्थरा ने अब मुँह फेरा
कुबुद्धि ने उसको था घेरा
तुम्हें क्या चाहिये मुझसे बोलो
और अब तुम अपना मुँह खोलो
ऐसे न मुँह फुलाये रहो
सब खुश है तुम भी खुश रहो
होंगे ही खुश सब , इस महल में
पर मैं नहीं हुँ खुश दिल में
तुमको नहीं बेशक कोई गिला
पर मैं चाहती हूँ तेरा भला
रोक दो तुम यह राज्याभिषेक
नहीं तो पछताओगी दिन एक
चुप रहो तुम यह क्या कहती हो?
मन ही मन जलती रहती हो
नहीं करो कोई ऐसी बात अशुभ
कोई सुनेगा , मन में होगा दुख
तुम दासी की बात क्यों मानोगी?
बनोगी दासी , तब जानोगी
राम बनेगा जो राजा
कौशल्या होगी राज माता
तुम बस दासी बन जाओगी
फिर रोओगी और पछताओगी
कैकेई की थोड़ी बुद्धि फिरी
और दुर्भावना में वह घिरी
मन्थरा फिर से बतियाने लगी
उसको वह राज बताने लगी
दशरथ ने दिये थे तुम्हें वचन
माँगना जब तेरा चाहे मन
उसके लिये अब अवसर अच्छा
और राजा है प्रण का सच्चा
वह वचन से कभी न भागेगा
बेशक उसको कुछ दुख होगा
यूँ कह के मन्थरा चली गई
कैकेई की बुद्धि मारी गई
उसको न सूझी कोई और बात
यूँ सोचते ही हो गई रात
जा के बैठी वह कोप भवन
कोई न समझ पाया कारन
सोचा किसी बात से हुई नाराज़
कुछ मनवाना चाहती है आज
यही तो वह करती थी हर बार
कुछ चाहती तो हो जाती नाराज़
यह देख के हँसती थी कौशल्या
उसने ऐसा ही स्वभाव पाया
आज भी कुछ चाहती होगी
तभी कोप भवन बैठी होगी
दशरथ गये थे हर बार की तरहा
बैठी थी वह गुस्से में जहां
राजा जाके यूँ मनाने लगा
कैकेई को गुस्सा आने लगा
दिए थे तुमने दो मुझे वचन
आज उसे मांगने का मेरा मन
भरत राजा यह पहला वचन
और दूसरा राम को भेजो वन
वन में रहेगा वह चौदह साल
छोड़े राजा बनने का ख्याल
राजा ने तो मज़ाक समझा
और प्यार से कैकेई से बोला
क्यों कर रही हो तुम ऐसे हँसी
तेरी जान तो राम में ही है बसी
जब देखा आँखों में शत्रु-पन
राजा का दहल गया था मन
खुद पे विश्वास भी नहीं हुआ
यह उससे रानी ने क्या कहा?
ऐसे समय में यह क्या मानेगा?
जब राम बनने वाला राजा
यह सोच के गिर गया था दशरथ
कैसे भेजूं राम को वन के पथ?
राजा भरत , नहीं कोई हरज
पर दूसरा कैसा है वर ?
क्यों राम बने अब वनवासी
जग में होगी कितनी ही हँसी
क्यों कैकेई यह सब गई भूल
उसकी बुद्धि पर पड़ी धूल
क्या कर रही है? यह नहीं जानती
कोई बात भी तो अब नहीं मानती
कितना कैकेई को समझाया
पर उसकी समझ में नहीं आया
अपनी ही बात पे अड़ी रही
बर्बादी की राह पे खड़ी रही
दशरथ के मन में बड़ी दुविधा
कहने में नहीं हो रही सुविधा
वह क्या करे? और क्या न करे?
रहे जिन्दा या जीते जी ही मरे
राम तो उसका जीवन है
क्या उसके भाग्य में वन है?
नहीं भेजूं तो जायेगा कुल का मान
भेजूं तो जायेगी मेरी जान
पर राम से बड़ा न कोई मान
सह लूँगा मैं यह भी अपमान
पर राम को वन न भेजूंगा
ऐसा प्रण न पूरा करूँगा
रघुकुल रीति भी जायेगी
मर्यादा नहीं रह पाएगी
होना पड़ेगा मुझे शर्मिन्दा
नहीं ऐसे में रह पाऊंगा जिन्दा
मर जाऊँ मुझे कोई नहीं परवाह
नहीं राम को भेजूंगा वन की राह
पर इससे नहीं कोई हित होगा
प्रण तोड़ना भी अनुचित होगा
पूरे कुल को बदनाम करूँ
मैं तो दोनों ही तरफ मरूँ
नहीं राम वियोग भी जर सकता
कुल को बदनाम न कर सकता
समझ सोच सारी खोई
आज राजा की आँखें रोई
जीवन भर नहीं झुका था जो
आज जमी पर पड़ा था वो
बेसुध होकर गिरा हुआ
और दुविधा में घिरा हुआ
नहीं सोच सका वह हित की बात
ऐसे ही बीत गई थी रात
श्री राम को अब था बुलवाया
रानी का प्रण भी बतलाया
तुम्हें कहता है यह पिता तेरा
तुम आज विरोध करो मेरा
तेरे साथ रहेगी सब सेना
मुझे राज्य से बाहर कर देना
पर नहीं जाना यूँ तुम वन
बिताना यहाँ पे सुखी जीवन
किसी की आज्ञा नहीं जरूरी
मानना भी नहीं तेरी मजबूरी
मैं तुमको आज बताता हूँ
तुम्हें कूटनीति सिखलाता हूँ
यह प्रजा को जाकर कह दो
और अपने पिता का विरोध कर दो
मैं यह सब तो सह जाऊंगा
पर, बिन देखे तुम्हें मर जाऊंगा
तुम्हीं में बसती है मेरी जान
तुम ही तो मेरे हो अरमान
तुम बिन जिन्दा न रहूंगा मैं
सारे अपमान सहूंगा मैं
नहीं, नहीं ऐसा नहीं बोलो आप
नहीं कुल का बन सकता मैं श्राप
नहीं कहो ऐसा करने को पाप
जो कुल के लिये बने अभिशाप
नहीं सीखनी मुझे कूटनीति
मैं तो जानता रघुकुल रीति
मैं अपनी जान भी दे सकता
नहीं माँ को रुसवा कर सकता
माँ की आज्ञा तो सर्वोत्तम
यही तो मेरा भाग्य उत्तम
मैं माँ की आज्ञा मानूंगा
और अब जा के वन में रहूंगा
मुझे जरा भी मन में नहीं मलाल
नहीं करो अपना ऐसे बुरा हाल
इससे बड़ा क्या उत्तम भाग्य
माँ से बढ़कर मुझे नहीं राज्य
नहीं टूटने दूंगा आपका वचन
बिना सोचे अब जाऊंगा वन
नहीं रखो कोई मन में दुविधा
और खुशी से मुझको करो विदा
यूँ कह के राम ने ठान लिया
वन में रहने का वचन दिया
श्री राम ने खत्म कर दी दुविधा
पर राजा को नहीं हुई सुविधा
रोते हुए पिता को छोड़ गए
श्री राम तो वहाँ से चले गए
साथ में ले के सिया औ लखन
श्री राम तो चले गए थे वन
पर हुआ था पिता-सुत का वियोग
क्या बुरा बना था वह संयोग
राजा दशरथ नहीं जी पाए
कुछ दिन में ही प्राण त्याग दिए
बस राम राम श्री राम राम
अन्तिम समय में बस यही नाम
कितने ही दिल में दर्द लिए
राजा ने अपने प्राण दिए
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(जारी क्रमश: अगले अंकों में)
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संपर्क:
सीमा सचदेव
एम.ए.हिन्दी,एम.एड.,पी.जी.डी.सी.टी.टी.एस.,ज्ञानी
7ए , 3रा क्रास
रामजन्य लेआउट
मरथाहल्ली बैंगलोर -560037(भारत)
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