कविता मानस की पीड़ा -सीमा सचदेव ( पिछले अंक से जारी...) मानस की पीड़ा भाग 11. सुमित्रा का त्याग भरत को रा...
कविता
मानस की पीड़ा
-सीमा सचदेव
(पिछले अंक से जारी...)
मानस की पीड़ा
भाग 11. सुमित्रा का त्याग
मांगे कैकेई ने दो वचन
मजबूर था अब राजा दशरथ
वन में राम और राजा भरत
पर क्या करता रघुकुल रीति
प्रण के लिए मरो यही नीति
श्री राम को भी बता दिया
माँ का आदेश सुना दिया
राम तो खुश था मन ही मन
खुशी से जायेगा वह वन
पर ऐसे में नहीं रहा लखन
उसका तो भर आया था मन
बोला मैं भी वन जाऊंगा
भैया के बिना मैं न रहूंगा
माँ ने सुत से खुश हो के कहा
यह मेरा अति सौभाग्य रहा
तुझ सा बेटा जाया मैंने
जीवन में सब पाया मैंने
जाओ भाई के संग रहना
वन में उसकी सेवा करना
नहीं कष्ट राम को देना कभी
उसके दुख तू ही सहना सभी
सीता को माँ समझ लेना
कोई उलाहना कभी न देना
मेरे दूध की लाज बचा लेना
सारे कष्टों को सह लेना
पर सेवा से नहीं मुँह मोड़ना
श्री राम का साथ नहीं छोड़ना
आज मुझे दो एक वचन
तेरा नहीं मैला हो कभी मन
जो बीच में छोड़ के आओगे
जिन्दा न मुझे फिर पाओगे
मुझे सोच है अब तेरी पत्नी
जलेगी विरह की अग्नि
पर वह भारत की नारी है
और मेरी बहु प्यारी है
उसे कष्ट नहीं होने दूँगी
माँ बन उसकी रक्षा करूँगी
देखो ! तुम कभी नहीं सोचना
यहाँ खुश रहेगी तेरी माँ
दुख तो है वन को जाने का
और चौदह वर्ष बिताने का
पर प्रण है उसे पूरा करना
जाओ तुम नहीं पीछे हटना
सच्च कहती हूँ मुझे बड़ी खुशी
मुझ सी कौन माता है सुखी
जिसका सुत राम का प्यारा है
वह कहाँ किसी से हारा है
ऐसे सुत नहीं होते सबके
मेरे तो भाग्य है अच्छे
मेरा सिर गर्व से ऊँचा आज
इससे बढ़ कर नहीं कोई ताज
मेरा सफल हो गया माँ बनना
अब तुम श्री राम के ही रहना
अब मर जाऊँ परवाह नहीं
इससे बढ़कर कोई चाह नहीं
मेरे सुत ने चुना सही मार्ग
नहीं उसके मन में कोई लालच
सेवा में लगे है दोनों सुत
इक राम की और दूजा भरत
यह खुशी मैं नहीं बता सकती
किसी को भी नहीं समझा सकती
मेरे तो मन में आता है
कितना प्यारा यह नाता है
जाओ तुम सदा सुखी रहना
भाई भाभी को हर खुशी देना
देखो अब गुस्सा नहीं करना
भाभी के गुस्से से डरना
इक डर तुम गुस्सा करते हो
फिर कहाँ किसी की सुनते हो
पर जानती हूँ राम है तेरे साथ
तुम्हें समझायेगा प्यार से बात
भाई की बात समझ लेना
अपने गुस्से को हर लेना
यूँ लखन को माँ समझाती है
और स्वयं को धन्य बताती है
लक्ष्मण तो चला गया था वन
धन्य है सुमित्रा का जीवन
शत्रुघ्न से भी कहा उसने
समझना है भरत को अब तुमने
वह व्यथित है राम वियोग में
नहीं बात करे अपनी माँ से
हर क्षण पीड़ा में रहता है
और सर को झुकाए रखता है
खुद में शर्मिन्दा होता है
और मन ही मन में रोता है
स्वयं को ही दोषी माने
नहीं आता किसी के भी सामने
ऐसे में तुम ही हो सहाई
तुम हो उसके छोटे भाई
जाओ उसकी सेवा में रहो
और मेरी चिन्ता नहीं करो
उस माँ के त्याग के क्या कहने
नहीं देगी किसी को दुख सहने
वह सबकी पीड़ा समझती है
और स्वयं को अर्पण करती है
कौशल्या कैकेई को उसने
समझा ही था ऐसे समय में
जब दोनों ही सह रही थी पीड़ा
ऐसे में उठाया था बीड़ा
वह घर को नहीं टूटने देगी
नहीं रघुकुल को मिटने देगी
वह स्वयं भले मिट जाएगी
पर जीने की राह दिखायेगी
वह भी तो विधवा हुई थी
और खून के आँसू रोई थी
पर छोड़ी नहीं थी हिम्मत
यही तो उसकी थी किस्मत
कभी कौशल्या के पास जाती
उसको धीरज देकर आती
कैकेई के पास कभी जाती
और प्यार से उसको समझाती
तीनों बहुओं को सँभाला था
रघुकुल का वही उजाला था
सौंप दिए दोनों ही सुत
न जरा सी भी थी मन में नफरत
बहु की पीड़ा भी जानती थी
और उसके त्याग को मानती थी
दूत को भी कभी भेजती वन
कैसे है सिया राम औ लखन
जब दूत ने आ के बताया था
सिया हरण का किस्सा सुनाया था
तब सुमित्रा ने कहलवाया था
सुत को सन्देश भिजवाया था
सीता का मान नहीं जाए
भले तेरी जान चली जाए
सिया को ढूँढ के ले आना
फिर ही अपना मुँह दिखलाना
जब सुना था रावण का किस्सा
सुमित्रा को आ गया था गुस्सा
रिपुदमन से बोली थी यूँ माँ
मानो सुत यह मेरा कहना
सेना संग तुम तैयार रहना
होगा रावण से युद्ध करना
फिर राम को भी कहलवाया था
उसको भी सब समझाया था
मेरा सुत सेना संग खड़े यहाँ
आज्ञा दो जा के लड़े वहाँ
तुम कहो तो मैं भी आ जाऊँ
अपना युद्ध कौशल दिखलाऊँ
क्षत्राणी हूँ मैं भी लड़ सकती
बहु के लिए स्वयं भी मर सकती
रावण संग युद्ध लड़ना होगा
आज़ाद सिया को करना होगा
रोकते नहीं राम तो लखन की माँ
आ जाती लेकर के सेना
राम ने दूत को भेजा था
मँझली माँ से वह बोला था
इक वही है रघुकुल की आशा
उसके लिए नहीं कोई भाषा
मुश्किल के समय में डटी रही
और फर्ज से पीछे हटी नहीं
दोनों मांओं को सँभाला है
कोई और न समझने वाला है
दोनों ही सुत है सौंप दिए
जाने कितने है त्याग किए
मँझली माँ जो यह नहीं करती
दोनों माँ घुट -घुट कर मरती
कभी बड़ी तो कभी बन गई छोटी
अकेले में ही बैठ रही रोती
देखती है नव-वधु की पीड़ा
फिर भी उठाया कुल का बीड़ा
उस त्याग को कोई नहीं जानता
उस ममता को कोई नहीं पहचानता
रखती है मन में सदा हिम्मत
दूसरों की सेवा में रहती है रत
धन्य शत्रुघ्न और लखन
ऐसी माँ ने जिनको दिया जन्म
जो सबका ही हित करती है
पर स्वयं नहीं कुछ चाहती है
कोई शब्द नहीं माँ तेरे लिए
कभी बोलो क्या आज्ञा मेरे लिए
नहीं तेरा कर्ज़ चुका सकता
तेरा त्याग और नहीं जर सकता
तेरे चरणों में झुका हूँ माँ
यही बसता है सारा जहाँ
यह जीवन कम ऐसी माँ के लिए
जो जाती है बस उपकार किए
कोटि नमन तुझको हे माँ
पर क्षमा करो यहां ना आना
जैसे अब तक तुमने देखा
उन माओं को जिन्दा रखा
जिनका दिल वक्त से टूट गया
और पति का साथ भी छूट गया
दुख तो , हे माँ! तुमने भी सहा
पर तेरा धैर्य बना रहा
जो तुम में धैर्य नहीं होता
रघुकुल का ना जाने क्या होता
क्या राज काज और क्या प्रजा
अब तक तुमने है सब देखा
सबको हिम्मत है दी तुमने
और सबको ही समझा तुमने
जैसे अब तक समझा तुमने
वैसे ही देखना अब आगे
तुम बस अवध में ही रहना
हालात को अब भी समझ लेना
घर में ना पता चले किसी को
रावण ने हर लिया है सिया को
हम जब घर वापिस आएँगे
आकर ही सबको बताएँगे
वादा है सिया को लाऊंगा
नहीं तो यह मुँह न दिखाऊंगा
दूत से सुन के ऐसी बात
सुमित्रा को कुछ तो मिली राहत
फिर जुट गई वह काम खास
और बन गई ऐसा इतिहास
भारत की नारी ऐसी है
लक्ष्मण की माँ के जैसी है
जो त्याग के पथ पर चलती है
दूसरों के लिए ही मरती है
कोई मन में इच्छा न करती है
सबके कष्टों को हरती है
इसलिए महान है वह नारी
विपदा उसके सम्मुख हारी
हर चुनौती को स्वीकार किया
हँस के कष्टों को पार किया
उस त्याग को समझा कोई नहीं
वह इक माँ थी जो रोई नहीं
दूसरों का हित करने के लिए
कभी रातों में भी सोई नहीं
सबकुछ जिसने था सौंप दिया
प्रणाम है ऐसी माता को
उस सच्चे त्याग के आगे तो
झुकना ही पड़ा विधाता को
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(जारी क्रमशः अगले अंकों में...)
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संपर्क:
सीमा सचदेव
एम.ए.हिन्दी,एम.एड.,पी.जी.डी.सी.टी.टी.एस.,ज्ञानी
7ए , 3रा क्रास
रामजन्य लेआउट
मरथाहल्ली बैंगलोर -560037(भारत)
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