कविता मानस की पीड़ा -सीमा सचदेव ( पिछले अंक से जारी....) मानस की पीड़ा भाग 10. कौशल्या की पीड़ा राज्य की ...
कविता
मानस की पीड़ा
-सीमा सचदेव
(पिछले अंक से जारी....)
मानस की पीड़ा
भाग10. कौशल्या की पीड़ा
फिर भी नहीं माँ को कोई गिला
राम को बनना था राजा
खुश हो जाती जिससे प्रजा
शुभ मुहूर्त भी निकलवाया था
राम राजा बनने वाला था
माँ कौशल्या खुश थी ऐसे
मिल गया हो त्रिभुवन ही जैसे
पर भाग्य नहीं यह सह पाया
राम घर में भी नहीं रह पाया
अवध का राम राजा तो क्या
वह तो वहाँ की प्रजा भी न रहा
गए वन को सिया ,लखन औ राम
इक रात में यह सब हो गया काम
माँ की कहाँ थी नियत खोटी
कैकेई को समझा बहन छोटी
राम भी तो उसका दुलारा था
कैकेई की आँखों का तारा था
कितना करती थी स्नेह उसे
वह सब भाइयों से प्यारा था
फिर कैकेई ने सोचा यह क्या
राम को क्यों वनवास दिया
वह किसी को तो बतला देती
अपना पक्ष समझा देती
राम बने या भरत राजा
किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता
क्यों मांगा उसने ऐसा वर
यह सोच के आँखें जाती भर
माँ कौशल्या यूँ सोच रही
और स्वयं से ही कुछ बोल रही
वह भरत को राजा बना देती
पर राम को वन में नहीं भेजती
कहाँ लखन सिया औ राम होंगे
वन में कैसे रहते होंगे
कोमल सी नाज़ुक कली सीता
जिसको था राम ने ही जीता
हाथों की मेहंदी भी उतरी नहीं
अभी तो मेरे पास भी रही नहीं
कैसे पथ पर चलती होगी
कितने ही दुख झेलती होगी
मैंने दिया था उसकी माँ को वचन
जब किया राम ने सिया का वरण
मेरी बेटी होगी जानकी
रक्षा करूँगी उसके मान की
कैसे बोले थे तब मिथिलेश
मेरे पास तो कुछ भी नहीं शेष
सीता ही मेरी सम्पत्ति
इसको नहीं हो कोई आपत्ति
हाथ जोड़ कर गिर गए थे
मेरे पैरो में पड़ गए थे
यह जिम्मेदारी आपकी है
नहीं बेटी यह अब इस बाप की है
मेरी विनती इक मान लेना
सीता को बेटी जान लेना
यह फूलों सी नाज़ुक है
मन कोमल और चञ्चल है
यह अभी तो बच्ची ही है
उम्र भी तो कच्ची ही है
हर बात इसे समझा देना
जैसी है इसे अपना लेना
सीता तो है कितनी प्यारी
सारी दुनिया से है न्यारी
मेरे पास वो बेटी बन के रही
कभी कोई गलती की नहीं
क्या कहूंगी मैं सिया की माँ से
और देवता समान उसके पिता से
धन्य है वे माता पिता
जिनकी ऐसी बेटी सीता
कितनी छोटी अभी उम्र में है
पर कितनी दृढ़ निश्चय है
वह तो है सच्ची पतिव्रता
उसके आगे राम भी क्या करता
वह लक्ष्मण कितना बड़ा हो गया
और राम के प्यार में यूँ खो गया
नव वधु को छोड़ के गया वन में
क्या नहीं इच्छा कोई जीवन में
कल हे की बात वे लड़ते थे
बच्चे थे झगडा करते थे
आज , इतने बडे हो गए कैसे
अब भी लगे वैसे के वैसे
भाई की सेवा की इतनी लगन
और चला गया उसके संग वन
मुझे याद है जब वो बच्चा था
तब तो वह समझ में कच्चा था
जब राम था मेरे पास आता
लक्ष्मण को गुस्सा आ जाता
राम को उठा के गोदी से
स्वयं गोदी में बैठ जाता
नहीं जाता था अपनी माँ के पास
बस राम पे ही उसे था विश्वास
हर बात पे क्रोधित हो जाता था
फिर राम ही उसे मनाता था
राम के संग ही खाता था
उसी से गुस्सा हो जाता था
गर राम नहीं कभी बात करे
तो वह भी नहीं सह पाता था
और सदा सरल स्वभाव राम
बस अपने ही काम से काम
सब भाइयों में समझदार
कितने उत्तम उसके विचार
मुझे याद है जब वह छोटा था
तब भी तो नहीं रोता था
मेरी हर बात समझता था
जो कहती ,वही तो करता था
जब खेलते थे चारों भाई
कैकेई के पास जा छुपता था
जब ढूँढ लेते तीनों मिलकर
फिर उसकी गोदी चढ़ता था
कैकेई भी नहीं रह पाती थी
राम को पास सुलाती थी
अपने हाथों से खिलाती थी
और मीठी लोरी सुनाती थी
राम को लेकर गोदी में
वह स्वयं को धन्य समझती थी
राम कभी उसे नहीं दिखे
मछली की तरह तड़पती थी
मैंने बस राम को जन्म दिया
कैकेई ने उसका पालन किया
कितनी सरल लक्ष्मण माता
उसने तो जीवन व्रत साधा
बेटों को समझाती रहती
बस उनको यह कहती रहती
भाइयों का मानना सदा कहना
तुम दोनों उनके संग रहना
नहीं लखन राम को कभी छोड़ता
छोटा तो भरत के संग रहता
न जाने अब कैसे होंगे
क्या खाते कहाँ सोते होंगे
वन भी तो कभी नहीं देखा
कैसी है यह भाग्य रेखा
बेटा घर छोड़ के वन को गया
और सुहाग भी उजड़ गया
सबकुछ होते हुए कुछ भी नहीं
अब जीने की कोई चाह नहीं
न पति के साथ थी मर सकती
न बेटे को घर में रख सकती
हे प्रभु यह कैसी है दुविधा
कितनी बड़ी आ गई यह बाधा
बेटे नर है ,वे रह लेंगे
वन के कष्टों को सह लेंगे
कैसे रहेगी सीता लाड़ली
जो है सदा नाज़ों में पली
सघन वन भयानक जानवर
जिसे सोच के हम जाते है डर
सीता कितना डरती होगी
मन ही मन वह रोती होगी
कितने ही कष्ट सहती होगी
पर किसी से क्या कहती होगी
डरती हूँ कही अनजान में
सीता को अकेली उस वन में
कभी छोड़ गए गर राम लखन
रोएगी उसका कोमल है मन
कहाँ वह खाना खाते होंगे
बस भूखे ही सोते होंगे
नहीं आती होगी नींद उन्हें
बस किस्मत को रोते होंगे
राम के संग है वन में सिया
पर उसके संग है उसका पिया
पर क्या करे वह प्यारी ऊर्मिला
जो जल रही है विरह ज्वाला
सीता को पति का सुख तो मिला
पति के संग उसका जीवन खिला
सौभाग्यवती यहाँ पर ऊर्मिला
दुख सहती है नहीं करती है गिला
उसके सामने मैं जाऊँ कैसे
वह धैर्य धरे समझाऊँ कैसे
कितनी ऊँची है लखन की माँ
पुत्र को वन जाने को कहा
छोटी हूँ मैं उसके सम्मुख
उसे देख के मन में आता है दुख
खुशी से सुत को भेजा वन
पर नहीं लाई कभी कोई शिकन
कैकेई भी कितनी दुखी मन में
जल रही पछतावे की अगन में
मेरे सामने कभी नहीं आती
पीड़ा किसी को नहीं बतलाती
अन्दर ही जलती रहती है
आँसू ही पीती रहती है
बस बोलती न ही हँसती है
बस स्वयं को दोषी समझती है
कैसे उसको समझाएँ हम
उसको अहसास कराएँ हम
यह लीला तो विधाता ने रची
बस वह तो इक माध्यम ही बनी
यूँ ही सोचते हुए राम की माँ
काट रही थी समय अपना
पीड़ा ही समाई थी मन में
बस सोच ही रह गई जीवन में
पति का भी साथ नहीं था रहा
सुत वियोग औ वैधव्य सहा
सिर पर जिम्मेदारी भारी
नहीं भूली मर्यादा सारी
मन में बस दुख ही दुख सहकर
महलों में ही योगी बन कर
सारे कर्तव्य निभाती है
सुत मिलन की आस लगाती है
सचमुच धन्य है ऐसी माँ
सब कुछ था वार दिया अपना
फिर भी नहीं कोई गिला किया
नारी को यह सन्देश दिया
भारत की नारी है ऐसी
सीता औ कौशल्या के जैसी
प्रण की खातिर है मर सकती
पर फर्ज से पीछे न हट सकती
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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संपर्क:
सीमा सचदेव
एम.ए.हिन्दी,एम.एड.,पी.जी.डी.सी.टी.टी.एस.,ज्ञानी
7ए , 3रा क्रास
रामजन्य लेआउट
मरथाहल्ली बैंगलोर -560037(भारत)
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