पुस्तक समीक्षा ईश्वर की चौखट पर - कविता संग्रह कवि : शैलेंद्र चौहान अनुभव और इरादों की टकराहट में सिरजी कविताएं ''न दीद है न सुख...
पुस्तक समीक्षा
ईश्वर की चौखट पर - कविता संग्रह
कवि : शैलेंद्र चौहान
अनुभव और इरादों की टकराहट में सिरजी कविताएं
''न दीद है न सुखन, अब न हर्फ न पयाम
कोई भी हिल:-ए-तस्कीं नहीं और आस बहुत है''
-आत्माराम
कविता समझना मुश्किल काम है पर थोड़ी कोशिश के बाद बुद्धि समझ की दिशा में आगे बढ़ने लग ही जाती है। फिर जब आप लग ही जाते हैं कि भला कविताओं में वे बातें, जो एक बार पढ़ने में भली लगती हैं और सवाल करती हैं पढ़ने वाले से, तब हमें कुछ और भीतर जाने की इच्छा होती है। ऐसा भी कह सकते हैं कि आप नहीं जाना चाहते हैं तब भी कभी कभी अपने भीतर खींच लेती है कविता, तब आप क्या करते हैं? थोड़ी रस्सा-कस्सी के बाद मैं उसके भीतर जाने को उतावला हो जाता हूं। बस यहीं से जंग शुरू हो जाती है। कविता वह बात मनवाने लगती है जो काग़ज पर लिख दी गयी है और मैं उन बातों को खोज़ने लग जाता हूं जो कही गयी बातों की तह में छिपी होती हैं। इस तरह काग़ज पर लिखी इबारत एक जरिया बन जाती है मेरे लिए, वहां तक पहुंचने का, जहां से कविता का उद्भव होता है। निश्चित ही यह अमल पेचीदा है लेकिन क्या करें जड़ तक पहुंच कर वापस ऊपर उठना ही कविता को सहज समझने का अमल है। क्यों कि मैं समझना चाहता हूं और समझने के अमल में ही कहीं न कहीं समझाने या फिर तबादला-ए-खयाल का अमल जारी रहता है। इस तरह यह उस छोटे बच्चे का अमल है जो चीज़ों को खोल कर देखना चाहता है और इस तरह की लगातार प्रक्रिया में फिर वह इनको वापस जोड़ना भी सीख जात है और उसमें नया नया इजाफा करना भी सीख जाता है। अगर इस प्रक्रिया में वह 'ऐसा क्यों और कैसे होता है?' से दो-चार होना शुरू हो जाता है तो निश्चित ही करने और सोचने के बीच के पेचीदा अमल से भी वाकिफ हो जाता है। मैं सोचता हूं कि कविताओं के साथ भी ऐसा ही होता होगा। इसलिए कहा तो यही जाता रहा है कि रचनाकार ही अपनी रचनाओं को सबसे बड़ा जानकार होता है। यहां मैं आलोचक शब्द का इस्तेमाल नहीं करूंगा, क्यों कि इस शब्द के ठीक ठीक मायने अभी तक मेरी समझ में नहीं आये। बहरहाल, जहां तक कविताओं को समझने का सवाल है, इस प्रक्रिया में मुझे अपनी बुद्धि के साथ साथ उन लोगों पर भी निर्भर रहना पड़ता है जिन्होंने इस मार्ग पर चलने के लिए मुझे शुरू में आमादा किया और मेरे सहज होने तक कमान नहीं छोड़ी। अब जब मैं अपनी कमान खुद सम्हाले हुए हूं तो यह जिम्मेदारी मुझ पर आ गयी है कि मैं उन लोगों की कमाल सम्हालूं जो इस दिशा में सहज होने की जद्दोजहद में हैं। हालांकि यह एक मुगालता भी हो सकता है लेकिन सुखद है। बना रहे, क्या हर्ज है।
इसी दौर में शैलेंद्र चौहान की कविताओं की एक किताब, ''ईश्वर की चौखट पर'' मेरे सामने मेरे इसी काम का हिस्सा बने हुए है। छोटी सी, सुंदर जिल्द और साफ-सुथरी छपाई, देखने में भली लगती है। कवर पर चित्र भी एक बार आपको कुछ क्षण के लिए रोक लेता है। आप पना खोलकर चित्रकार का नाम जानना चाहते हैं और खुश होते हैं। हालांकि चित्रकार के बारे में नाम, उत्तमराव क्षीरसागर, के अलावा कोई और जानकारी नहीं दी गयी। यह वाकई जादती है। और अक्सर ऐसा होता है, जब कि यही वह बात है जो पाठक को पहली नज़र में पकड़ लेती है। दूसरी तरफ आखरी सफेह पर कवि की सुंदर तस्वीर और उसके बारे में ढेर सारी जानकारी और साथ में किसी एक नामी-गिरामी रचनाकार (रामकुमार कृषक) का आशीर्वाद, जिसकी सच्चाई और आवश्यकता पर हमेशा ही शक किया जाता रहा है, दिये गये है। हालांकि कृषक की यह बात, ''उसकी कविता एक व्यापक केवास पर जीवन-जगत के बहुविध सौंदर्य-चित्रों की सृष्टि करने लगती है।'' इन कविताओं की खास खूबियों में से एक है। किताब में 34 कविताएं हैं और उन्हें कब कब लिखा गया इसकी जानकारी नहीं दी गयी। मैं सोचता हूं इस तरह की जानकारी होनी चाहिये, जो पाठक को कवि तक आने में मदद करती है।
बहरहाल, कवि के अलावा एक और रचनाकार है, आवरण चित्र का सृजक, मेरे हिसाब से उसके बारे में जानकारी के बिना किताब वाकई अधूरी रहती है, ऐसा नहीं कहूंगा बल्कि यह सही है कि उसके बिना किताब पूरी नहीं होती। शब्दालोक, सी-3/59, नागार्जुन नगर, सादतपुर विस्तार, दिल्ली-110094 से 2004 में पेपर बैक्स में छपी, 100 सफेह की इस किताब का मूल्य, 70:00 रुपये है।
यह तो हुई वे बातें जो असल बात तक पहुंचने का जरिया और माहौल है। और अब उस बात पर आते हैं जिसके लिए इन कविताओं को मैंने अपने काम का हिस्सा बनाया है। मैं पहले ही कह दूं कि मेरे यहां कविताओं के साथ और इनके मार्फत कवि के मानस को समझने का यत्न किया जायेगा न कि कोई मुकम्मल राय बनाने का। हां, यह बात जरूर है कि इस अमल के दौरान कोई राय बनती है तो उसको ज़ेरे-बहस लाने की कोशिश की जायेगी ताकि बातचीत का यह सिलसिला इस किताब की हदें लांधकर आगे बढ़ सके।
एक बात और, अपने काम के दौरान जो मिसालें इस किताब में से मैं पेश करूंगा, वे सभी कविताओं को शायद ही समेटे लेकिन जहां तक बात का सवाल है, वह सभी कविताओं को बिना समेटे कभी पूरी हो ही नहीं सकती। इस काम के लिए मैंने जहां एक तरफ परखी से काम लिया वहीं दूसरी तरफ निहारिया का इस्तेमाल भी किया है। परखी का काम परखना और निहारिया से खोज़ के काम में मदद ली गयी, अत: यह कहा जा सकता है कि शैलेंद्र चौहान की कविताओं में मैं उन आधारों को तलाशने और परखने की कोशिश करूंगा जिनकी मदद से उनकी सृजन प्रक्रिया से होते हुए उनके कविकर्म के सरोकारों तक जा पाऊं। मेरी कोशिश रहेगी कि मेरा बात करने का तरीका, हर हालत में कविताओं का परीक्षण करने के स्कूली और अकादमिक मुहावरे को नकारता हुआ आगे बढ़ेगा, जिससे बहुत सारे पाठकों को खींझ हो सकती है, पर हो, मैं पूछता हूं अकादमी मुहावरे ने कविता को क्या दिया है सिवाय इसके के जन से काटकर जनपथ।
यहां से रास्ता बनता है इन कविताओं में दाखिल होने का-
''क्यों नहीं चल पाता सड़क पर चौकस
गाहे-ब-गाहे क्यों सोचता हूं
कविता के बारे में
होनी ही थी ग़फ़लत''
(उस्तरेबाज़)
अजीब बात है कवि आसानी से वह सिरा मेरे हाथ में दे देता है जिसकी पकड़ से उनकी सृजन प्रक्रिया के भीतर जाना आसान हो जाता है। ऊपर की पंक्तियों को बार बार पढ़ने के बाद यह बताने की जरूरत नहीं रह जाती कि कवि की सामाजिक हैसियत क्या है। उनकी मानसिक बुनावट के बारे में भी अंदाजा हो ही जाता है और अपने सृजन के बारे में उनकी अपनी राय तक भी पहुंचने का रास्ता यहीं से मिल सकता है। मसलन, इस बंद में से कविता के ताल्लुक से तीन अवधारणाएं सामने आती है-सड़क पर चलते हुए चौकस रहना, कविता के बारे में गाहे-ब-गाहे सोचना और ऐसा करने से ग़फ़लत का होना लाजमी है।
उस्तरेबाज़ अच्छी कविता है जो पाठक को लगातार इस बात का अहसास करवाती रहती है कि कवि की कल्पना शक्ति कितनी ऊंची उड़ान भरती है, इतनी ऊंची कि उसे अपने वजूद को खतरे में डालने तक की स्थिति में ला डालती है। एक तरफ कल्पना की उड़ान, जो एक आलमी हकीकत है और जिस माहौल में कवि खड़ा है वह देशज हकीकत-इन दोनो के बीच सामंजस्य बैठाने के फेर में जा टकराता है एक ट्रक से और जब हौश आता है तो एक विचारधारा अपना काम करना शुरू करती है जो कवि के अंतर-विरोधों का साफ-सुथरा बयानिया है, जरा देखें, ट्रक से टकराने के तुरंत बाद का बयान-
''क्यों बीच सड़क
खड़ा कर दिया ट्रक
इस बैनचो, हरामी ड्राइवर ने
जाहिल, गंवार स्साला''
और अब विचारधारा का दबाव। कवि कहता है-
''मैं तो कामरेड हूं
ऐसे गुस्सा नहीं होना
श्रम-जीवी वर्ग पर
दर्द था हल्का
पर बहुत बेमज़ा
एक हथेली
गूमड़े के स्पर्श से संवेदित
एक हिलती हुई बेतरतीब''
ये दो बंद कवि की वर्गीय स्थिति को भी वाजे कर देते हैं और उसके सरोकारों को भी। और फिर आगे के बंद नाई के उस्तरे और व्हाइट हाउस की कारस्तानियों के आसपास बुने गए हैं। पूरी कविता पढ़ने पर एक सहज सवाल ऊभरता है कि इस तरह की तुलनात्मक बुनावट में व्हाइट हाउस और नाई की दुकान की हलचल के साथ साथ कविता के कच्ची सामग्री तो तलाशी जा सकती है लेकिन इस बात का क्या जवाब है कि व्हाइट हाउस की कारस्तानी की वजह से वह दिन दूर नहीं जब नाई का हूनर छिन जायेगा। और असल बात तो यही है कि, यहीं आकर होती है ग़फ़लत और यहीं पर चौकस रहने की जरूरत है। अन्यथा कविता ही बनेगी जब की हमें तो इन कविताओं में उस अदद आदमी की तलाश है जो कविता सुनता सुनता बाल भी काटता रहे और वह ड्राइवर, जो बैनचौ, हरामी, जाहिल और स्साला गंवार है, आपकी कविता सुनने की उतावली में ट्रक को गलत जगह खड़ा कर दे। कवि अगर कामरेड है तो उससे इस तरह की उम्मीद कोई बेजा हरकत नहीं होगी। कहने का तात्पर्य यह कि सिरजनहार का कविता में दाखिल हो जाना, मतलब ईख का दारू में बदल जाना होता है, कवि को तो बस नषे का सृजन करना होता है, जब कि न तो ईख में दारू होता है और न ही दारू में ईख।
चौहान इतने ज्यादा सहज है कि उनकी यह सहजता बहुत बार कच्ची सामग्री की तलाश की बजाय भाशा के आग्रह को पूरा करने की मजबूरी बन जाती लगती है। हालांकि यह अमल अक्सर सायास होता है और मुझे कहने दें, यह मामला मौज़ूदा दौर की समकालीन(?) कविता के आग्रह को पूरा करने के साथ साथ उस ग़फ़लत से भी जन्मता है जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है। मतलब कामरेडी सोच और सहज मध्यम वर्गीय सोच के बीच का संघर्ष, जिसमें कौन, कब, किस तरह एक दूसरे पर हावी हो जाता है, पता ही नहीं चलता। असल में यहां पर कवि का चेतन मस्तिष्क उसके अवचेतन को चेतनता में बदलने की अतिसूक्ष्म प्रक्रिया में कहीं कहीं चूक जाता है।
मिसाल के तौर पर इस बात को चार बेहतर कविताओं को एक साथ पढ़कर समझा जा सकता है। एक, कामना, दूसरी, पश्चाताप, तीसरी, मारे गये हैं वो और चौथी, अस्मिता। इन कविताओं में चौहान बड़े ही सरल तरीके से कुदरती सहजता और सामाजिक पसोपेश में से कुदरत को चुनते हैं और कामना करते हैं ''शिशिर और हेमंत में/ हरित वृक्ष और पौधों से भरी/ देखना चाहता हूं मैं/ यह धरती''। यह चुनाव इतनी मासूमियत के साथ होता है, जिससे हमें लगता है कि अपने सामाजिक पसोपेश में इच्छित मुकाम हासिल नहीं कर पाने की मजबूरी में कवि अपने आप को इत्मीनान देने के लिहाज से, कभी कभी भूल ही जाता है कि सामाजिक विकास के करोड़ों बरसों के इतिहास में, यह मानवीय श्रम ही है जिसने इस जगत को इतना खूबसूरत बनाया है। कि अब हर संजीदा कवि उस अमानवीय हरकत के खिलाफ कमरकस कर खड़ा रहता है, जो इसको बदसूरत बनाने में लगी है- वे जो श्रम के लुटेरे हैं, वे जो खूबसूरती को खरीद-फरोख्त की जिन्स बनाते जा रहे हैं। इस संघर्ष में भागीदारी न करने की मजबूरी या कमजोरी उसे खालिस कुदरत की तरफ मोड़ देती है। इस तरह कुदरत की तरफ फिर से लौटने का एक मात्र अर्थ है, वह निराशा जो उम्मीदों से बहुत बड़ी है और कवि में इसके खिलाफ उठ खड़े होने की हिम्मत नहीं रही या फिर यह पेचीदगी अभी तक उसकी समझ के बाहर रह गयी है या फिर इसे ही समझने की कोशिश में लगा हुआ लिख रहा है, अन्यथा यह कहने का क्या अर्थ हुआ-
''बीहड़ खाइयां
परिदें पी पानी तलहटी का
आ बैठते नीम नीम की टहनियों पर
बड़ी मुश्किल से
हम खाइयों के भय से पीछा छुड़ाते
किलौल करते ये परिदें
हम को चिढ़ाते''
(कामना)
''यद्यपि तुम अपने जैसे ही
किसी व्यक्ति से
कहना चाहते हो वह
पर तुम्हें भय है
किसी और से न कह दे
वह तुम्हारी बात''
(पश्चाताप)
''साम्प्रदायिक नहीं था वह
फिर भी मरा
पुलिस की गोली से।''
''हादसे यूं ही
घटते रहते हैं अक्सर
निर्दोष, भोले-भाले
अव्यवहारिक
व्यक्तियों के साथ
मरे गये हैं सदैव वे।''
(मारे गये हैं वे)
''झोंपड़ी में दिया जलाना
आनंद का श्रोत है
सूर्य की रोशनी
बहुत तेज है
दीवारें परत छोड़ रही है
घर का मोह
मिटेगा अब।''
(अस्मिता)
शैलेंद्र चौहान के यहां अपनी बात कहने के लिए जिन अलामतों का इस्तेमाल किया गया है वे इस हद तक आम है कि जिस व्यक्ति को समकालीन कविता का खुमार चढ़ा हुआ हो उसके लिए इनके भीतर पैठकर इन्हें समझना बहुत ही कठिन होता है। असल में जैसा कि कहा गया है चौहान अपने जेहन में जिन बातों को लेकर कविता के गर्भ में उतरते हैं वे बातें उनके आसपास की हैं और आम जनजीवन से सराबोर हैं इसलिए उनके यहां बात का कविता बनना आसान होता है। मतलब यह कि उनको बहुत दंड पेलने की जरूरत नहीं पड़ती। हां, यह बात जरूर है कि बात को गुंथने के लिहाज से जिस रिद्म की जरूरत होती है, उसके लिए जितना जरूरी हो, उतनी कारीगरी को इन कविताओं में देखा जा सकता है। लेकिन आपको यह नहीं लगेगा कि कारीगरी चढ़कर कविता की सवारी कर रही है। हां, बाजवक्त जहां ऐसा हुआ है वहां कविता कम और लफ्ज़ों की भरमार ज्यादा दिखाई देती है। जहां तक मेरी जानकारी है इस बीमारी से हमेशा नहीं बचा सकता लेकिन संजीदा कवि कोशिश करता है कि इस बीमारी से जल्दी से जल्दी मुक्ति पाई जाय। मैं दोनों तरह की मिसालें यहां पेश कर रहा हूं।
''जार्ज बुश और लादेन
दो चेहरे हैं एक व्यक्ति के''
''सूचना अब
पूंजी के अभाव से झरती है
पूंजी पर आकर ही
खत्म होती है''
''एक औरत को
जिसकी आंखों में तैरती नमी
मेरे माथे पर फाहा बन सके
''मैं प्यार करना चाहता हूं तुम्हें
ताकि तुम
इस छोटी दुनिया के लोगों से
आंख मिलने के
काबिल बन सको।''
(मैं तुम्हें प्यार करना चाहता हूं)
'' जब होते हैं हम कवि
तब आदमी नहीं होते
जब करते हैं बात
कलुआ, रमुआ, सुखिया, होरी की
कोरी, चमार अघोरी की
तब हम बहुत दूर होते हैं
उन स्थितियों, परिस्थितियों एवं
संस्थितियों से।''
(चिड़िया और कविता)
मैंने यह भी देखा कि जहां अनुभव इरादों को मात करते नज़र आते हैं वहां कविता एक तरह का आख्यान बन कर सर चढ़कर बोलती है और जहां पर सूचनाओं और जानकारियों का पूरी तरह से आत्मसातीकरण नहीं हो पाया वहां कविता लेख की शक्ल इख्त्यार कर ले रही है। जैसे ''विचार: अगली शताब्दी की और'' और ''सोचना तो गुनाह नहीं'' और इसी तरह की कुछ और कविताएं हैं जहां बात तो है लेकिन कविता का नितांत अभाव दिखाई देता है।
यहां जो बात मुझे खास तौर पर कहने की जरूरत होती है कि शैलेंद्र चौहान की तबीयत में जिस कविता को मैं खोज रहा था वे कविताएँ ही इस संग्रह में बहुतायत में है और आप यकीन करें ये वे कविताएँ हैं जहां नदी सहज ढ़ंग से बहती है। हर हाल में अपना धैर्य नहीं खोती और अपने मकसद से नहीं भटकती। ये वे कविताएँ हैं जो बिना सिरजे रही नहीं गयी होंगी और सिरजते वक्त किसी अतिरिक्त सामग्री को नकारती रही होंगी। मैं इन कविताओं को उन्हीं के लफ्ज़ों में कहूं तो, '' और यह कि/ नदी को नदी कहा जाए'' ऐसी कविताएँ अपने भरपूर सौंदर्य के साथ कहती है, ''चिड़िया की बीट से/ गंदला गए हैं पत्तों/हम अपना अस्तित्व/भूल गये हैं।'' या फिर इस सवाल की तरह कि, ''क्या यही चाहती है कोई स्त्री/पुरुषों से/ जो पुरुष चाहते है स्त्रियों से'' या फिर अपनी पूरी संजीदगी के साथ यह कहना कि-
''कहीं का न रखा
इस भ्रम ने
कि धर्म और ईश्वर की अंधश्रद्धा
मन को मुक्त
कर सकती है दुखों से
इतिहास में दर्ज हैं
वे सारी कहानियां
जब ईश्वर की
चौखट पर तोड़ दिया दम
जीवन और प्रेम के लिए
प्रार्थनाएं करते हुए
मनुष्य ने''
और फिर मौजूदा भारतीय समाज की पारंपरिक विभागणी की वजह से पसीने और मेहनत पर जो जुल्म हुए हैं और उन जुल्मों को मेटने की बजाय शोषितों पर दया की मुहीम चलाई गयी है, जो इतनी भयानक है कि जिसका बयानिया नामुमकिन है। मामला यहीं नहीं रुकता आज के दौर में आम मेहनतकश और ईमानदार इनसान के साथ जो हो रहा है और साथ ही साम्राज्यवाद जो गरीब मुल्कों के साथ कर रहा है, इन तमाम बातों को इस छोटी कविता में जिस खूबसूरती से सिरजा गया है, अपने आप में सेल्फ रियलायजेशन की एक यूनीक मिसाल है। कविता है, ''दया : दलित संदर्भ में'' इस कविता ने मुझे देर तक रोके रखा।
कविता में हजार बातें अनकही छोड़ दी गयी है, जो कही गयी बातों के आधार पर ही समझी जा सकती हैं। बानगी के रूप में चंद पंक्तियां पढ़कर देखें-
''टाटा समर्थ है
देश और शासकों पर दया करने के लिए
बिड़ला लक्ष्मी नारायण पर
..........................
''वर्ल्ड बैंक, आई. एम. एफ, ए.डी.बी
अमरीका
दया कर रहे हैं
तीसरी दुनिया के गरीब देषों पर
.............................
''सवणों ने बड़ी दया की
रात-भर दलित प्रश्न हल किया
सामूहिक नरसंहार हुआ
उन्होंने खेद प्रकट किया
''पग-पग पर लोगों ने
मुझ पर दया की
''हर दया चस्पा है
मेरे मन पर
मेरा हर घाव रिस रहा है
मवाद बन कर।''
इस तरह की और भी कई मजबूत और सौंदर्यबोध से भरपूर कविताएं हैं जो हमें अक्सर रोक लेती हैं। हम से सवाल करने लगती हैं। हमें जवाब देने लगती हैं। हमें झकझोर कर रख देती हैं। और तो बाजवक्त हमारे बजूद को ही हिला देती है, यह कहते हुए कि क्या जवाब है इस छोटी सी बच्ची के सवालों का जो अपने अनुभवों से सीख चुकी है सवाल करना, पर हमारे पास इन सवालों का क्या जवाब है। हमारे पास, हम जो अपने मध्यम वर्गीय भ्रम में खुशफहमी पाले हुए नितांत असुरक्षा के बावजूद सुरक्षित होने के भ्रम में मुब्तिला हैं। पूछती है मेरी बेटी मुझसे-
''पूछती है अब
क्यों मरते हैं इतने लोग
कौन होते हैं मारने वाले
कहां से आती है इतनी
गोला-बारूद?
क्या करती है पुलिस, सेना
क्या करते हैं ये मंत्री
और
हम नहीं कर सकते क्या
कुछ भी?''
(क्या हम नहीं कर सकते कुछ भी)
इन सवालों का क्या जवाब हो सकता है जब कि अक्लमंदों की हालत तो यह है-
''सभी इस बात से पूर्ण-रूपेण एक मत थे कि आजकल
विचार पर विचार करना बहुत मुनाफे का व्यवसाय है।''
(विचार: अगली शताब्दी की ओर)
और अब वे कविताएं जो मुझे बेहद पसंद है। क्यों? इसलिए कि जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि जहां अनुभव इरादों को मात करते नज़र आते हैं वहां अदब परवान चढ़ता है। चढ़ता ही नहीं बल्कि उसमें अदबी जमालियात अपने उरुज पर होता है और पाठक को ले बैठता है, अपने साथ आओ, जरा हो जाय सीखने-सिखाने की कोई वो बात, जो अदब की समझ में कोई नया रास्ता निकाले सके। ऐसी कुछ कविताएं हैं और कुछ कविताओं में ऐसा बनने की भरपूर गुंजाइश है। ये कविताएं जहां, दिल और दिमाग़ एक हो चुके नज़र आते हैं, जहां कंटेन्ट और फार्म को एक दूसरे से जुदा करना पूरी तरह से नामुमकिन है। मिसाल के तौर पर, देहरी पर मेरी मां और लालसा, स्त्री प्रश्न] सनक जाने की खबर] ईश्वर की चौखट पर, दया: दलित संदर्भ में, कुर्बानी का मतलब आदि। इन कविताओं के कुछ बंद यहां देना वाजिब होगा।
''याद करने को कहो
तो
कुछ भी याद नहीं
यद्यपि बीते
पैंतीस साल
मैंने देखा
मां को
मरते हुए
.........
.........
जल गयी मां
मां और श्रम
वे मां से अधिक
एक श्रमिक थीं
मैं यह कभी न
भूल पाऊंगा
कभी नहीं''
(देहरी पर मरी मां)
''फिर, वाम दिशा में मैंने
खुद को पाया
लाल सूरज को मैंने
शीश नवाया
''मैंने तुमसे सीखा
तुमसे पाया
वह जो
जीवन-भर मैंने पाया।''
(लालसा)
''कहीं ऐसा नहीं हो कि
तुम्हारे देश की जेलों में भी
निर्दोष लोगों दंडित करने की
परंपरा कायम रहे और
आज़ाद दक्षिण अफ्रीका में
गोरे सामंतों की
काली नस्ल शासन करे''
(कुर्बानी का मतलब)
''छीजता है आत्मविश्वास
जब नहीं होती सहजता
संबंधों में
सनक गया है
कहते लोग अक्सर
चल देते मुंह फेरकर''
(सनक जाने की खबर)
''तमाम प्रार्थनाएं
रह गईं अनुत्तरित
जीवन और प्रेम
के लिए
जो की गईं
न केवल
अस्वीकृत रहीं वे
तरह तरह से
पीड़ा और दंश का
अनुभव भी दिया''
(ईश्वर की चौखट पर)
''न जाने कितने दयालु देखे हैं
मैंने जीवन में
और उनका कैसा-कैसा दान
यह दया उन्होंने किसके लिए और क्यों की
यह क्यों नहीं बताते साफ साफ''
(दया: दलित संदर्भ में)
और एक कविता है उपसंहार, थोड़ी कठिन है समझने में पर समझना जरूरी है इसे, क्यों कि इसमें विज्ञान और समाजविज्ञान की बातें हैं जो हमारे जीवन को निर्धारित करतीं हैं। और चौहान के पेशे से भी जुड़ी हुई हैं। अनुभवों और इरादों को जिस सुंदरता से इसमें पिरोया गया है, उसे पढ़कर जी खुश होता है और दिमाग़ को नयी ग़िजा मिलती है, सोचने का वह काम जिसकी जरूरत है, अभी और इसी वक्त। जरा इस बंद को पढ़े-
''ये क्षण
निर्णायक भी नहीं हैं
इतिहास की वर्तुल गति
बदला हुआ न्यूक्लियस
बाहरी आर्बिट में
घूमता इलेक्ट्रोन
बाह्य उर्जास्रोत से
किया जाना है विलग
बहुत शुभ दिखते हैं
विलग होने का
आभास देने वाले दिवस
दिख जाते हैं
जल से भरे पात्र प्रात:
कल्याणकारी नीलकंठ
उड़-उड़ बैठते हैं
टेलीफोन के तारों पर
................
फटने लगती हैं
परमाणु भठि्टयां
फैल जाती हैं दूर तक
धरा पर रेडियोधर्मिता।''
हजार बातें कही जा सकती हैं और फिर भी हजार कहने को रह ही जाती हैं बाकी। इतनी सारी बातों के बाद क्या रह जाता है बाकी कहने को कि यह होना चाहिये था सो नहीं हुआ या ऐसा हो सकता था, सो नहीं हुआ लेकिन इस तरह की बात करने की मेरी आदत जो नहीं है। मैं तो जो है उसे ही समझ रहा हूं। मैं तो यही कहूंगा कि जो नहीं है, वह हो, ताकि जो है उसे और ज्यादा पुख्ता और खूबसूरत बनाया जा सके। पर यह तो तब होगा जब इसे करने वाला समझेगा और फिर आगे के सफर की दुश्वारियों से दो-चार होगा। लेकिन, महज अपने अनुभव ही इसमें पूरी तरह से काम नहीं आते, इसमें परोक्ष अनुभवों का जोड़ होना जरूरी हैं अन्यथा यह जान पाना बहुत ही कठिन जो जाता है कि अब तक का सफर किन पेचीदगियों और मोड़ों से होता हुआ आपकी सोच का अवचेतन हिस्सा बना है। शैलेंद्र चौहान के यहां इसी बात को बार बार देखने की जरूरत है। तमाम कविताएं अपने पूरे लब्बोलुआब के साथ, पसीने के स्वभाव के साथ अपने आपको जोड़ने का प्रयास करती नज़र आती हैं और बाजवक्त ऐसा होता भी है लेकिन जहां तक सरोकारों को परिभाषित करने का सवाल है, अक्सर सवाल ही बना रहता है। कविताएं अपने कहन में पूरे मिजाज के साथ मानवीय सरोकारों से जुड़ी होने के बावजूद अपने लिबास में इन सरोकारों से विलग ही रहती है। यही कविता का अपना भीतरी अंतर-विरोध है और यही कवि का भी। और यही अंतर-विरोध पाठक और कवि के बीच भी साफ साफ देखा जा सकता है। इसका एक मात्र कारण है-उत्तर भारत की काव्य परंपरा से कवि का सीधे राबता कायम नहीं होना है। यह एक जरूरी सवाल है कि मौजूदा कविता में पेशकश की समस्या को किस तारीख से जोड़ कर हल किया जाय। हिन्दी की कविता के साथ यह समस्या बड़ी ही गहराई से जुड़ी हुई है। जब तक इस का कोई साफ-सुथरा हल नहीं निकाला जाय तब तक कविता पाठक के जेहन का हिस्सा बनने से गुरेज़ करती रहेगी। बात चाहे कितनी ही मजबूत क्यों न हो उसे पेश करने का ढंग ही उसे तारीख का हिस्सा बना पायेगी। इसलिए बात और पेशकश के तालमेल की तरफ जितना ज्यादा ध्यान दिया जायेगा, कविता उतनी ही व्यापक और उतनी ही गहराई तक अपना असर करेगी। इस काम के लिए जैसा कि फैज़ कहते हैं, हमें भी कुछ करना चाहिये-
'' आज इक हर्फ क़ो ढ़ूंढता फिरता है ख़याल
मद-भरा हर्फ़ कोई ज़हर भरा हर्फ क़ोई
दिलनशीं हर्फ़ कोई कहर भरा हर्फ़ कोई
हर्फ़े-उल्फ़त कोई दिलदारे नज़र हो जैसे
जिससे मिलती हो नज़र बोस:-ए-लब की सूरत
इतना रौशन कि सरे-मौज:-ए-ज़र हो जैसे
सोहबते-यार में आग़ाजे-तरब की सूरत
हर्फ़े-नफ़रत कोई शमशीरे-ग़ज़ब हो जैसे
ता-अबद शहरे-सितम जिससे तबह हो जायें
इतना तारीक के: श्मशान की शब हो जैसे
लब पे लाऊं तो मेरे होंठ सियाह हो जायें ''
( सारे सुखन हमारे )
बहरहाल, जैसा कि मैंने शुरू में कहा और फिर दोहरा रहा हूं कि कविता समझना मुश्किल काम है पर थोड़ी कोशिश के बाद बुद्धि समझ की दिशा में आगे बढ़ने लग ही जाती है। उसी तरह सृजन एक कठिन काम है और कठिन इसलिए कि यह जिम्मेदारी का काम है। इसके लिए गोर्की की इस बात के साथ ही आगे बढ़ना पड़ेगा। वे कहते हैं-
'' मानव श्रम तथा सृजनात्मकता का इतिहास मानव इतिहास से कहीं ज्यादा दिलचस्प और महत्वपूर्ण है। मनुष्य एक सौ बरस का होने के पहले ही मर जाता है लेकिन उसकी कृतियां शताब्दियों तक अमर रहती हैं। विज्ञान की अभूतपूर्व उपलब्धियों तथा उसकी द्रुत प्रगति का यही कारण है कि वैज्ञानिक अपने क्षेत्र विशेष के विकास के इतिहास की जानकारी रखते हैं। विज्ञान तथा साहित्य में बहुत कुछ समान है-दोनों में प्रेक्षण, तुलना तथा अध्ययन प्रमुख भूमिका अदा करते हैं। लेखक तथा वैज्ञानिक दोनों में कल्पना शक्ति तथा अन्तर्दृष्टि का होना आवश्यक है।'' ( मैंने लिखना कैसे सीखा )
यह कैसे होता है और इसे कैसे सीखा जाता है, इस मुद्दे को शैलेंद्र चौहान की आगे की कविताओं पर बात करते वक्त चर्चा के केंद्र में लायेंगे, तब तक के लिए इस बातचीत को मुल्तवी किया जाता है।
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आत्माराम
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