आलेख कुछ बोओ , तभी न काट पाओगे! - सीताराम गुप्ता बाइबिल में कहा गया है कि जो जैसा बोता है वह वैसा ही काटता है। प्रकारांत से यही बात हर ...
आलेख
कुछ बोओ, तभी न काट पाओगे!
- सीताराम गुप्ता
बाइबिल में कहा गया है कि जो जैसा बोता है वह वैसा ही काटता है। प्रकारांत से यही बात हर धर्म कहता है। यही कर्म सिद्धांत है। आप जो बोते हैं वही काटते हैं। चाणक्य ने भी कहा है, 'यथाबीजं तथा निष्पति:' अर्थात् जैसा कारण वैसा ही कार्य। कारण कार्य सिद्धांत। इसको दूसरी तरह भी समझा जा सकता है। आप काट नहीं सकते यदि आप बोते नहीं हैं। फसल पाने के लिए बीज बोना अनिवार्य शर्त है। ये तो हुई बाह्य जगत की बात जो सबको दिखलाई पड़ती है। और अन्दर? हाँ बाह्य जगत की तरह आंतरिक जगत अर्थात् मन में भी इच्छाओं का बीजारोपण अनिवार्य है। इच्छाओं का सावधानीपूर्वक बीजारोपण कीजिए और कोमलतापूर्वक उनका पोषण कीजिए बदले में वे आपको समृद्ध कर देंगी।
इच्छाओं के अभाव में आप कर्म नहीं कर सकते अपने जीवन के लक्ष्य को नहीं जान सकते और लक्ष्य को जाने बिना उसे कैसे प्राप्त करेंगे? जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए लक्ष्य अथवा उद्देश्य की स्पष्टता अनिवार्य है और यह तभी संभव है जब उसके मूल में कोई इच्छा विद्यमान हो। अत: इच्छाएँ कीजिए।
जो जैसा बोता है वैसा ही काटता है। आम का वृक्ष लगाने पर कालांतर में आम प्राप्त होंगे। वट वृक्ष लगाने पर गहन छाया मिलेगी लेकिन बबूल के बीज उगाएँगे तो काँटे हाथ लगेंगे। काँटे ही पैरों में चुभेंगे। इसलिए जरूरी है सही बीजारोपण करें। इच्छाएँ तो अनंत हैं। व्यक्ति को चाहिये कि सही इच्छाओं को उत्पन्न करने अथवा चुनने की क्षमता का विकास करे। क्योंकि इच्छाएँ अनंत हैं और अच्छी और बुरी अर्थात् सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की हैं अत: इच्छाओं की भूल भुलैया में खाने की अपेक्षा, इच्छाओं का दास होने की अपेक्षा इच्छाओं के सही चुनाव की योग्यता मनुष्य में होनी चाहिये।
इच्छारहित मनुष्य तो बंजर धरती के समान है लेकिन ग़लत इच्छाएँ जीवन को रेगिस्तान और ख़ारशार बना देती हैं जबकि सात्विक इच्छाएँ मनुष्य के जीवन को एक हरे-भरे उद्यान में परिवर्तित कर देती हैं। इच्छाएँ फूलों की तरह कोमल, सुवासित और रंग-रंगीली हों, फलों की तरह सरस और पोषण प्रदान करने वाली हों। सही इच्छाओं का बीजारोपण और विकास जीवन जीने की उत्तम कला है।
आज के वैज्ञानिक युग में किसान खेतों में बुवाई करने से पूर्व जिस प्रकार मिट्टी को भली-भाँति तैयार करके उसमें उच्च कोटि के बीज बोता है उसी प्रकार व्यक्ति भी मनरूपी जमीन को निर्मल करके उसमें सकारात्मक दृष्टिकोण से उत्पन्न अच्छे विचारों के बीज बोए। ये बीज हों सम्पूर्ण परिवार की सुख-समृद्धि, परस्पर प्रेम, उत्तम स्वास्थ्य, आरोग्य तथा दीर्घायु की कामना के, समस्त पड़ोसियों, मित्रों तथा स्वजनों की सुख-समृद्धि, परस्पर-प्रेम, उत्तम स्वास्थ्य, आरोग्य तथा दीर्घायु की कामना के, पूरे गाँव, कस्बे, नगर तथा संपूर्ण राष्ट्र व विश्व के सभी लोगों की सुख-समृद्धि, परस्पर-प्रेम, उत्तम स्वास्थ्य, आरोग्य तथा दीर्घायु की कामना के। जो अपने लिए चाहें अपने पड़ोसियों, मित्रों, रिश्तेदारों तथा अपने देश के सभी लोगों और विश्व के समस्त व्यक्तियों के लिए चाहें। जैसी कल्पना दिल्ली की करें उससे बेहतर पुणे, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता की करें। जैसे समृद्ध भारतवर्ष की कल्पना के बीज मन में उगाएँ, उससे भी अधिक समृद्धि की कल्पना के बीज पाकिस्तान, चीन, नेपाल और बांग्लादेश के लिए उगाएँ, पूरे विश्व के राष्ट्रों के लिए बोएँ।
इच्छाएँ ही हमारा जीवन है, इच्छाओं से ही हमारे व्यक्तित्व का विकास है और इच्छाओं से ही समाज का निर्माण है। जैसी इच्छाएँ वैसा जीवन, वैसा ही व्यक्तित्व और वैसा ही समाज। जीवन को सँवारना है तो इच्छाओं को सँवारना होगा। मन में उठने वाले हर भाव को देखना होगा। भावों को नियंत्रित करना होगा। ग़लत-सही का चुनाव करना होगा। अस्वस्थ भावों का त्याग करना होगा तथा स्वस्थ भावधरा का चुनाव या निर्माण कर उसे पोषित करना होगा। भाव ही तो बीज है। जिस भाव के बीज को बोना है उस भाव को सँभालना होगा। उसे दूसरे दूषित भाव-बीजों से बचाना होगा। विरोधी भाव बीजों के भूकंप से रक्षित करना होगा।
मन में हर क्षण असंख्य भाव उत्पन्न होते हैं, अनेक इच्छाएँ जन्म लेती रहती हैं। न तो सभी भाव स्पष्ट हो पाते हैं और न सभी इच्छाएँ स्पष्ट और पूर्ण हो पाती हैं। इच्छाएँ परस्पर एक-दूसरी इच्छा को बीच में ही समाप्त कर देती हैं अथवा मूल स्वरूप को परिवर्तित या विकृत कर देती हैं। न जाने कितनी इच्छाएँ, कितनी सात्तविक इच्छाएँ स्पष्ट ही नहीं हो पातीं। पूर्ण कैसे हों?
सबसे पहले सात्तविक इच्छा का चयन करना है। मन में उठने वाले भावार्णव में से उत्कृष्ट भाव का चयन करना है। शांत-स्थिर अवस्था में बैठकर भावों का विश्लेषण करें तो सात्तविक या उपयोगी भाव अथवा इच्छाएँ स्पष्ट हो जाती हैं। यदि इच्छाओं के जंजाल में से उपयोगी इच्छा या सात्तविक भाव का चयन नहीं हो पाता तो मनुष्य अपनी बुद्धि और विवेक का सहारा ले। हम सब जानते हैं कि क्या अच्छा है और क्या अच्छा नहीं है।
जिन्हें हम संकल्प कहते हैं वो यहीं से प्रारंभ होते हैं। इच्छा की तीव्रता या किसी कार्य को करने की दृढ़ इच्छा ही संकल्प है। किसी भाव का चुनाव कर लेना इच्छा की तीव्रता के फलस्वरूप ही संभव है। मुझे ये कार्य करना ही है। मुझे ये प्राप्त करना ही है। मुझे अच्छा इंसान बनना ही है। मुझे इन गुणों का विकास करना ही है। ये सब हमारे भाव ही हैं जो चुनाव और इच्छा की तीव्रता या दृढ़ता के कारण संकल्प का रूप ले लेते हैं। संकल्प का अर्थ ही है कि हमने इच्छा का चुनाव या उद्देश्य को स्पष्ट कर लिया है अब उसे पाना शेष है जिसके लिए प्रयास करना है। इसे हम गोल सैटिंग भी कह सकते हैं। किसी काम को सोच-समझ कर करना। करने वाले वास्तव में हम नहीं हैं। हम तो मात्रा सोच सकते हैं। विचार कर सकते हैं। विचार के साथ ही क्रियान्वयन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। हम विचार को नियंत्रित कर सकते हैं, उसे प्रभावी बना सकते हैं, नकारात्मक भाव को हटाकर उसके स्थान पर सकारात्मक भाव ला सकते हैं तथा भावों का पोषण कर इच्छित वस्तु को प्राप्त कर सकते हैं। इच्छाओं के द्वारा ही भौतिक जगत की सृष्टि संभव है। इच्छाएँ स्लॉट मशीन में डालने वाले सिक्के की तरह कार्य करती हैं। सिक्का मशीन में सामान बाहर। इच्छा मन में, सृष्टि भौतिक जगत में।
कहा गया है कि पुरुषार्थ के बिना कार्य सिद्ध नहीं हो सकता लेकिन पुरुषार्थ भी हम किसी इच्छा के वशीभूत होकर ही तो करते हैं। इच्छा के बिना पुरुषार्थ भी असंभव है। इच्छाएँ कीजिए, तभी कुछ प्राप्त कर पाएँगे। कुछ बोइये, तभी काट पाएँगे, यही शाश्वत नियम है।
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सीताराम गुप्ता
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