असग़र वजाहत का उपन्यास : गरजत बरसत (किश्त 5)

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उपन्यास   गरजत बरसत ----उपन्यास त्रयी का दूसरा भाग---- - -असग़र वजाहत दूसरा खण्ड ( पिछली किश्त  से आगे पढ़ें...)   .. ...

उपन्यास

 

गरजत बरसत

----उपन्यास त्रयी का दूसरा भाग---- -

-असग़र वजाहत

दूसरा खण्ड

(पिछली किश्त  से आगे पढ़ें...)

 

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दूसरा खण्ड

----१५----

अब्बा और अम्मां नहीं रहे। पहले खाला गुजरी उसके एक साल बाद खालू ने भी जामे अजल पिया। मतलू मंज़िल में अब कोई नहीं रहता। खाना पकाने वाली बुआ का बड़ा लड़का बाहरी कमरे में रहता है। मल्लू मंजिल का टीन का फाटक बुरी तरह जंग खा गया है। ऊपर बेगुन बेलिया की जो लता लगी थी वह अब तक हरी है। मौसम में फूलती है। मैं हर साल मल्लू मंज़िल की देखरेख पर हज़ारों रुपया खर्च करता हूं। यही वजह है कि दादा अब्बा के ज़माने की इमारत अब कि टिकी हुई है। साल दो साल कभी तीन-चार साल बाद घर जाना हो जाता है। मल्लू मंज़िल आबाद होती है। 'द नेशन` जैसे अखबार के ज्वाइंट एडीटर का उस छोटे से शहर में आना अपने आप ही खबर बन जाती है। स्थानीय अखबारों के सम्पादक, बड़े अखबारों के रिपोर्टर और कभी-कभी हमारे अखबार का लखनऊ संवाददाता आ जाते हैं। पत्रकारिता पर बेबाक बहसें होती हैं।

कोई सात-आठ साले आता था तो स्टेशन पर पत्रकार माथुर मिला करते थे। वे उस ज़माने में किस अखबार में काम करते थे, मुझे याद नहीं। हो सकता है या शायद ऐसा था कि किसी अखबार से उनका कोई संबंध न हो और पत्रकार हो गये हों। बहरहाल माथुर मुझे स्टेशन पर रिसीव करते थे। चाय पिलाते थे। उस दौरान आसपास से गुजरने वाले किसी सिपाही को बड़े अधिकार के साथ आवाज़ देकर बुलाते थे और कहते थे, सुनो जी दरोगा जी से कह देता दिल्ली 'द नेशन` के ज्वाइंट एडीटर साहब आ गये हैं। इंतिज़ाम कर लें और सुनो सामने पान वाले की दुकान से दो पैकेट विल्स फिल्टर और चार जोड़े एक सौ बीस के

बनवा लेना।

ज़ाहिर है सिपाही पान वाले को पैसे तो न देता होगा। वह दरोगा जी का नाम लेता होगा जैसे माथुर जी मेरा हवाला देते हैं। उन दिनों माथुर जी की ये सब चालाकियां मैं टाल दिया करता था यह सिर्फ अनुभव प्राप्त करने के लिए कुछ नहीं कहता था। कुछ अंदाज़ा था कि मेरे एक बार आने से माथुर के दो चार महीने ठीक गुज़र जाते होंगे।

मुझसे मिलने शहर के अदीब-शायर आ जाते हैं कभी-कभी कुछ पुराने लोग और कभी अब्बा के जानने वाले भी आते हैं। मेरे ज़माने के पार्टी वाले लोगों में करीब-करीब सब हैं। मिश्रा जी काफी लटक गये हैं। मेरे ख्याल से सत्तर से ऊपर है पर अभी भी पार्टी के जिला सैक्रेट्ररी है। कामरेड बली सिंह पूरी तरह मछली के व्यापार में लग गये हैं।

पिछले सालों जब मैं गया तो मिलने वालों में युवा लड़कों का एक गुट जुड़ गया है जो शहर में शैक्षणिक गतिविधियां करते रहते हैं। कस्बों से शहर आये लोग भी बढ़ गये हैं और उनमें से कुछ आ जाते हैं। मल्लू मंज़िल कुछ दिन के लिए गुलज़ार हो जाती है।

शहर की हालत वही है। उतना ही गंदा, उतना ही उपेक्षित, उतना ही भ्रष्टाचार, उतना ही उत्पीड़न और वही अदालतें जहां मजिस्ट्रेट महीनों नहीं बैठते, अस्पताल जहां डॉक्टर नहीं बैठते, सरकारी दफ्तर जहां बाबू नहीं बैठते।

नूर और उसके अब्बा, अम्मां की यही राय थी कि बच्चा लंदन के हैवेट अस्पताल में पैदा होना चाहिए। मैं जानता था कि मामला दिल्ली के किसी अस्पताल में कुछ गड़बड़ हो गया तो बात मेरे ऊपर आ जायेगी। मैंने नूर को लंदन भेज दिया था। वहां उसने हीरा को जन्म दिया था। हीरा का नाम उसके दादा ने रखा था। जाहिर है हीरे जवाहेरात का व्यापारी और क्या नाम रख सकता था। नाम मुझे इसलिए पसंद आया कि हिंदू मुसलमान नामों के खाँचे से बाहर का नाम है। बहरहाल हीरा के पैदा होने के बाद कुछ महीने नूर वहीं रही। फिर दिल्ली आ गयी। उस जमाने में मल्लू मंजिल आबाद थी। मैं नूर और हीरा को लेकर घर गया था। अब्बा को हीरा का नाम कुछ पसंद नहीं आया था। उन्होंने कुरान से उसका नाम

सज्जाद निकाला था और अम्मां अब्बा जब तक जिंदा रहे हीरा को सज्जाद के नाम से पुकारते थे।

गर्मियां शुरू होने से पहले नूर हीरा को लेकर लंदन चली जाती थी। मिर्जा साहब ने अपने नवासे के लिए लंदन से बाहर एसेक्स काउण्टी के एक गांव में किसी लार्ड का महल खरीद लिया था। इस महल का नाम उन्होंने 'हीरा पैलेस` रखा था। ये सब लोग गर्मियों में 'हीरा पैलेस` चले जाते थे। मैं भी एक आद हफ्ते के लिए वहां जाया करता था। हीरा पैलेस बीस एकड़ के कम्पाउण्ड में एक दो सौ साल पुराना महल है जिसमें चार बड़े हॉल, एक बड़ा डाइनिंग हाल, बिलियर्ड रूम, स्मोकिंग रूम, काफी लाउंज, पिक्चर गैलरी और बीस बेडरूम हैं। मुझे यहां ठहरना अटपटा लगता था। क्योंकि हमेशा ये एहसास होता रहता था कि किसी म्यूजियम में रह रहे हैं। मिर्जा साहब को यह पैलेस इस शर्त पर बेचा गया था कि वहां रखी कोई चीज़ हटायेंगे नहीं और उसमें कोई बड़ा परिवर्तन नहीं करा सकते। इसलिए वहां के बाथरूमों में रखे टोंटी वाले लोटों के अलावा कुछ ऐसा नहीं था जिसका मिर्जा साहब से कोई ताल्लुक हो।

पैलेस की 'विजिटर्स बुक` भी उतनी ही पुरानी थी जितना पुराना पैलेस था। मोटे चमड़े की लाल जिल्द चढ़ी इस किताब में ब्रिटेन के तीन प्रधानमंत्रियों के अलावा बर्टेंड रसेल के भी हस्ताक्षर और रिमार्क्स लिखे थे। इस किताब में जब मुझसे कुछ लिखने और दस्तख़त करने को कहा गया तो मुझे बड़ा मज़ा आया। लगा कि मेरे हस्ताक्षर इस रजिस्टर का मज़ाक उड़ा देंगे।

बुढ़ापे में मिर्जा इस्माइल लार्ड का खिताब हासिल करना चाहते थे और उसके लिए ज़रूरी था कि वो प्रभावशाली अंग्रेजों को एक शानदार महल में बुलाकर इंटरटेन करें। ऐसा करने के लिए ही उन्होंने यह पैलेस खरीदा था। एसेक्स काउण्टी के शेरे गांव के बाहर एक पहाड़ चोटी पर बना यह महल काफी दूर से जंगल में खिले फूल-सा लगता था।

एक बार गर्मियों में नूर ने हीरा का नाम लंदन के किसी मशहूर किण्डरगार्डेन स्कूल में लिखा दिया। मैं समझ गया कि अब वे दोनों वापस नहीं आयेंगे। लेकिन इससे बड़ी चिंता यह थी कि मैं हीरा को कुछ

नहीं सिखा पाऊंगा। मैं यह चाहता था कि वह अवधी लोक गीतों पर सिर धुन सके जैसा मैं करता हूं। वह 'मीर` और 'गा़लिब` की शायरी से ज़िंदगी का मतलब समझे। लेकिन अब वह सब ख्व़ाब हो गया था। लेकिन मैं नूर के ख्वाब को चूर-चूर नहीं करना चाहता था। लेकिन पता नहीं कैसे नूर ये समझ गयी थी। वह हीरा को हिंदी पढ़ाती थी। पूरा घर उससे हिंदुस्तानी में बातचीत करता था। नूर और हीरा जाड़ों में पन्द्रह दिन के लिए दिल्ली आते थे और मैं उन दिनों छुट्टी ले लेता था। हम खूब घूमते थे और मैं हीरा के साथ ज्यादा से ज्यादा वक्त गुज़ारता था। स्कूल पूरा करने के बाद हीरा अब बी.ए. कर रहा है। उसे समाजशास्त्र में बेहद दिलचस्पी है और इस बारे में हमारी लंबी बातचीत होती रहती है।

नूर के लंदन चले जाने के बाद मैं सुप्रिया के नजदीक आता गया। बंगाली और उड़िया मां-बाप की बेटी सुप्रिया के चेहरे की सुंदरता में दुख की कितनी बड़ी भूमिका है यह किसी से छिपा नहीं रह सकता। उसकी बड़ी-बड़ी ठहरी हुई आंखों से अगर उदासी का भाव गायब हो जाये तो शायद उनकी सुंदरता आधी रह जायेगी। उसमें हाव-भाव में दुख की छाया में तपे हुए लगते हैं। सुप्रिया के दोनों भाई कभी नहीं मिले और यह मान लिया गया कि पुलिस ने जिस बर्बरता से नक्सलवादी आंदोलन को कुचला था, वे उसी में मारे गये हैं। उनका कहीं कोई रिकार्ड न था। कहीं किसी आसतीन पर खून का निशान न था लेकिन दो जवान और समझदार लड़के मारे जा चुके थे।

सुप्रिया की मां उसके साथ रहती है। पिताजी कलकत्ता में ही हैं। उसकी मां को शायद मेरे और सुप्रिया के संबंधों के बारे में पता है लेकिन वह कुछ नहीं बोलती। दरअसल पूरे जीवन का संघर्ष और दो बेटों के दु:ख ने उसे यह मानने पर मजबूर कर दिया है कि कहीं से सुख की अगर कोई परछाई भी आती हो तो उसे सहेज लो. . .पता नहीं कल क्या हो। सुप्रिया और मेरे संबंध गहरे होते चले गये। मैंने सोचा नूर को बता दूं. . .फिर सोचा नूर को पता होगा। वह जानती होगी मैं और नूर साल में दो बार मिलते हैं और उसके बाद साल के दस महीने हम अलग रहते हैं तो जाहिर है. . .

सुप्रिया का संबंध चूंकि राजनैतिक परिवार से है इसलिए उससे मैं कुछ ऐसी बातें भी कर सकता हूं जो नूर से नहीं हो सकती। 'द नेशन` में जब मेरे 'पर कतरे` जाते हैं तो सुप्रिया के संग ही शांति मिलती है। मेरे अंदर उठने वाले तूफ़ानों को दुख से भरा-पूरा उसका व्यक्तित्व शांत कर देता है।

मेरे दो बहुत प्राचीन मित्रों अहमद और शकील के मुकाबले के वे अच्छी तरह समझती है कि मेरे सपने किस तरह छोटे होते जा रहे हैं ओर सपनों का लगातार छोटे होता जाना कैसे मेरे अंदर विराट खालीपन पैदा कर रहा है जो ऊलजलूल हरकतें करने से भी नहीं मरता।

कभी-कभी अपने अर्थहीन होने का दौरा पड़ जाता है। लगता है मेरा होने या न होने का कोई मतलब नहीं है। मैं पूरी तरह 'मीनिंगलेस` हूं। मेरे बस का कुछ नहीं है। मैं पचास साल का हो गया हूं लेकिन कुछ न कर सका और जब जिंदगी कितनी बची है। मेरा 'बेस्ट` जा चुका है। कहां गया, क्या किया, इसका कोई हिसाब नहीं है।

मैं ऑफिस से चुपचाप निकला था। लिफ्ट न लेकर पीछे वाली सीढ़ियाँ ली थीं और इमारत के बाहर निकल आया था। ऐसे मौकों पर मैं सोचता हूं काश मेरा चेहरा बदल जाये और कोई मुझे पहचान सके कि मैं कौन हूं। मैं भी अपने को न पहचान सकूँ और एक 'नॉन एनटिटी` की तरह अपने को आदमियों के समुद्र में डुबो दूं।

पीछे से घूमकर मुख्य सड़क पर आ गया और स्कूटर रिक्शा पकड़कर जामा मस्जिद के इलाके पहुंच गया। भीड़-भाड़, गंदगी, जहालत, गरीबी, अराजकता, अव्यवस्था की यहां कोई सीमा नहीं है। यहां अपने आपको खो देना जितना सहज है उतना शायद और कहीं नहीं हो सकता। पेड़ की छाया में रिक्शेवाले अपने रिक्शों की सीटों पर इस तरह आराम करते हैं जैसे आरामदेह बेडरूम में लेटे हों। आवाजें, शोर, गालियां, धक्का, मछली बाजार, मुर्गा बाजार, उर्दू बाजार, आदमी बाजार और हर गली का अपना नाम लेकिन कोई पहचान नहीं। मैं बेमकसद तंग गलियों में घूमता रहा। जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठा रहा। नीचे उतरकर ये जानते हुए सीख के कबाब खा लिए कि पेट खराब हो जायेगा

और सुप्रिया को अच्छा नहीं लगेगा। रिक्शा लिया और बल्ली मारान आ गया। गली कासिमजान से निकला तो हौजकाज़ी पहुंच गया बेमकसद।

रात ग्यारह बजे स्कूटर रिक्शा करके मैं ऑफिस के इमारत के सामने अपनी ऑफीशियल गाड़ी के सामने उतरा। मैं बीड़ी पी रहा था। मुझे यकीन था कि ऑफिस के ड्राइवर और मेरा ड्राइवर रतन मुझे देख लेंगे। पागल समझेंगे। ठीक है, मुझे पागल की समझना चाहिए।

रतन ने मुझे देखा। मैं बीड़ी पीता हुआ उसकी तरफ बढ़ा। “सर, आप चलेंगे”, उसने पूछा।

“हां चलो”, मैं गाड़ी में बैठ गया।

ये ऑफिस वाले मुझे अधपागल, सिड़ी सनकी, दीवाना, मजनूं समझते हैं। ये अच्छा है।

एक दिन एडीटर-इन-चीफ से किसी बात पर कहा-सुनी हो गयी। मुझे गुस्सा आ गया। मैं वापस आया और अपने चैम्बर के बाहर पड़े चपरासी के मोढ़े पर बैठ गया। सब जमा हो गये। कुछ मुस्कुरा रहे थे। कुछ मुझे अफसोस से देख रहे थे। चपरासी परेशान खड़ा था। जब काफी लोग आ गये तो मैंने कहा, “मैं यहां इसलिए बैठा हूं कि इस अख़बार में मेरी वही हैसियत है जो मुरारीलाल की है जो इस मोढ़े पर बैठता है।”

यार लोगों ने ये बात भी एडीटर साहब को नमक-मिर्च लगाकर बता दी।

गुस्से में आकर एडीटर-एन-चीफ ने मेरा ट्रांसफर मीडिया ट्रेनिंग सेण्टर में कर दिया था। ऑफिस आर्डर निकल आया था। मैंने ये आर्डर लेने से इंकार कर दिया था। मेरा कहना था कि मैं पत्रकार हूं और मुझसे पत्रकारिता पढ़ने या अखबार का ट्रेनिंग सेण्टर संचालित करने का काम नहीं लिया जा सकता। मैनेजमेंट कहता था, नहीं, ऐसा हो सकता है। मैंने तीन महीने की छुट्टी ले ली थी और सुप्रिया के साथ पश्चिम बंगाल घूमने चला गया था। हम दोनों ने बहुत विस्तार और शांति से बंगाल का एक-एक जिला देखा था। तस्वीरें खींची थी। मैं खुश था कि चलो इस बहाने कुछ तो हुआ।

शकील उन दिनों उपविदेश राज्यमंत्री था। मेरे मना करने के बावजूद वह 'द नेशन` के मालिक सीताराम बड़जातिया से मिला था और मामले को रफ़ा-दफ़ा करा दिया था। मैंने तो ये सोच लिया था कि 'द नेशन` को गुडबॉय कहा जा सकता है क्योंकि वैसे भी मैं वहां तकरीबन कुछ नहीं करता हूं। कभी साल छ: महीने में कुछ लिख कर देता हूं तो एडीटर छापता नहीं क्योंकि वह अखबार की पॉलिसी के खिलाफ होता है।

----१६----

रात के दो बजे फोन की घण्टी घनघना उठी। पता नहीं क्या हो गया है। सुप्रिया भी जाग गयी। मैंने फोन उठा लिया, दूसरी तरफ चीफ रिपोर्टर खरे था, “सर! मंत्री पुत्रों द्वारा फुटपाथ पर सोये लोगों को कुचल दिए जाने की एक और न्यूज़ है। मैं दरियागंज थाने से बोल रहा हूं।”

किस मंत्री का लड़का है?”

“सर, शकील अहमद अंसारी के लड़के कमाल अहमद अंसारी।”

“ओहो. . .” मैं और कुछ न बोल सका।

“सर. . .ऑफिस में अमिताभ है. . .उससे कह दीजिए सर पेज वन पर दो कॉलम की खबर है. . .हमारे पास पूरी डिटेल्स. . .”

“हां मैं फोन करता हूं।” मैंने कहा।

इससे पहले के मैं ऑफिस फोन करके नाइट शिफ्ट में काम करने वाले अमिताभ को निर्देश देता, शकील का फोन आ गया।

“तुम्हें न्यूज़ मिल गयी।” वह बोला।

“हां, अभी-अभी पता चला. . .कमाल कैसा है?”

“वह तो ठीक है. . .हां उसके साथ जो लड़के थे उनमें से एक लड़के को लोगों ने काफी पीट दिया है. . .वह अस्पताल में है।”

किसका लड़का है।”

“बी.एस.एफ. के डायरेक्टर जनरल का बेटा है रवि।”

“दूसरे और कौन थे?”

“हरियाणा के सी.एम. का लड़का था. . .”

“और?” मैंने पूछा।

“ये सब छाप देना।” वह बोला।

“हमारा चीफ रिपोर्टर थाने में है. . .उससे अभी मेरी बात हुई . . .पहले पेज पर दो कालम में खबर जा रही है।”

“यार हम तीस साल से दोस्त है।” वह बोला।

“दोस्ती से कौन इंकार करता है।”

“साजिद ये लोकल खबर है. . .तीसरे पेज पर जहां दिल्ली की खबरें लगती हैं, वहां लगा दो।”

“देखो ये लोकल ही खबर होती. . .इसमें अगर यूनियन पावर एण्ड इनर्जी मिनिस्टर शकील अहमद अंसारी का लड़का न इनवाल्व होता।”

“साजिद ये तुम क्या कह रहे हो. . .यानी मुझे बदनाम. . .”

“प्लीज शकील. . .आई एम सॉरी।”

उसने फोन काट दिया। मैंने ड्यूटी पर बैठे अमिताभ को इंस्ट्रक्शन दिए। सुप्रिया ने चाय बना डाली थी। वह जानती थी कि अब चार बजे के बाद फिर सोना कुछ मुश्किल होगा।

“मैं कमाल को बचपन से जानता हूं. . .तुम्हें पता है मैं शकील और अहमद यूनीवर्सिटी के दिनों के दोस्त हैं. . .शायद मेरे ही कहने पर शकील ने कमाल का एडमीशन दिल्ली पब्लिक स्कूल में कराया था। लेकिन शकील के पास टाइम नहीं है. . .तुम्हें पता कमाल के लिए यू.एस. से एक स्पोर्ट मोटर साइकिल इम्पोर्ट करायी थी शकील ने?”

“ओ हो. . .”

“हां, मेरे ख्याल से पांच हज़ार डालर. . .के करीब. . .”

“माई गॉड।”

“कमाल ने आज जो एक्सीडेंट किया है वह पहला नहीं है. . इससे पहले अपने बाप के चुनाव क्षेत्र में यह सब कर चुका है।”

“एण्ड ही वाज़ नॉट कॉट?”

“वो हम सब जानते हैं।”

“कानून, न्याय, प्रशासन, अदालतें, गवाह, वकील सब पैसे के यार हैं . . .अगर देने के लिए करोड़ों हैं तो कोई कुछ भी कर सकता

है. . .हमने इसी तरह समाज बनाया है. . . हमारे सारे आदर्श इस सच्चाई में दब गये हैं।”

“लेकिन शकील कैन टेल. . .”

“शकील क्या कहेगा? तुम्हें पता है पच्चीस साल की उम्र में ही कमाल शकील की सबसे बड़ी पॉलिटिकल स्पोर्ट है. . .उसके चुनाव की बागडोर वही संभालता है और बड़ी खूबी से 'आरगनाइज़` करता है क्योंकि यह सब बचपन से देख रहा है. . .अपने क्षेत्र से शकील ग़ाफ़िल रहकर दिल्ली की उठापठक में आराम से लगा रहता है और कमाल क्षेत्र संभाले रहता है. . .आजकल चुनाव क्षेत्र जागीरें हैं. . .बाप के बाद बेटे के हिस्से में आती है।”

“कमाल ने पढ़ाई कहां तक की है?”

“मेरे ख्याल से बी.ए. नहीं कर पाया है या 'क्रासपाण्डेन्स` से कर डाला है। बहरहाल, पढ़ाई में वह कभी अच्छा नहीं रहा लेकिन व्यवहारिक बुद्धि ग़ज़ब की है, जन सम्पर्क बहुत अच्छे हैं. . .मतलब वह सब कुछ है जो एक राजनेता में होना चाहिए।”

“वैसे क्या करता है?”

“शकील की कंस्ट्रक्शन कंपनी और 'रियल स्टेट डिवल्पमेंट कंपनी का काम देखता है. . .अभी इन लोगों ने वेस्टर्न यू.पी. के कुछ शहरों में कोई सौ करोड़ की ज़मीन खरीदी है. . दस कालोनियां डिवलप करने जा रहे हैं।”

“ओ माई गॉड इतना पैसा।”

“मैं उसका दोस्त हूं. . .मुझे पता है. . .दौ सौ करोड़ के उसके स्विस एकाउण्ट्स हैं।”

“हजार करोड़।”

“हां. . .”

छोटी उम्र में ही उसका कमाल का चेहरा पक्का हो गया है। उस का कद पांच दस होगा। काठी अच्छी है। कसरती बदन है। देखने से ही सख्त जान लगता है। हाथ मज़बूत और पंजा चौड़ा है। आधी बांह की कमीज़ पहनता है तो बांहों की मछलियाँ फड़कती दिखाई देती रहती है।

रंग गहरा सांवला है। आंखें छोटी हैं पर उनमें ग़जब की सफ़्फ़ाकी दिखाई देती है। लगता है वह अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ भी कर सकता है। उसमें दया, सहानुभूति, हमदर्दी जैसा कुछ नहीं है। वह जब सीधा किसी की आंखों में देखता है तो लगता है आंखें भेदती चली जा रही हों। एक कठोर भाव है जो अनुशासन प्रियता से जाकर मिल जाता है लेकिन अपनी जैसी करने और अपनी बात मनवा लेने की साध भी आंखों में दिखाई पड़ती है। नाक खड़ी और होंठ पतले हैं। गाल के ऊपर उभरी हुई हडि्डयां हैं जो बताती हैं कि वह इरादे का पक्का और अटल है। जो तय कर लेता है वह किए बिना नहीं मानता।। कमाल की गर्दन मोटी और मजबूत है जो सिर और शरीर के बीच एक मजबूत पुल जैसी लगती है। उसके चेहरे पर धैर्य और सहनशीलता का भाव भी है। पतले और तीखे होंठ उसके व्यक्तित्व के अनछुए पहलुओं की तरफ इशारा करते हैं। आंखें शराब पीने की वजह से थोड़ी फूल गयी हैं। लेकिन उनका बुनियादी भाव निर्ममता बना हुआ है। 'द नेशन` के प्रादेशिक क्रासपाण्डेंट बताते रहते हैं कि कमाल का आतंक एक जिले तक सीमित नहीं है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आठ-दस जिले और यहां तक कि लखनऊ तक कमाल का नाम चलता है। वह इतना शातिर है कि अपनी अच्छी पब्लिक इमेज बनाये रखता है। कभी बाढ़ आ जाये, शीत लहर चल जाये, गरीब की लड़की की शादी हो, बेसहारा को सताया जा रहा हो, कमाल वहां मौजूद पाया जाता है।

“सुनो, क्या हमारे नेता ऐसे ही होते रहेंगे?” सुप्रिया ने पूछा।

“ये राष्ट्रीय नेताओं की तीसरी पीढ़ी है। पब्लिक स्कूलों में पढ़ी लिखी या अध पढ़ी, अंग्रेजी बोलने वाली और हिंदी में अंग्रेज़ी बोलने वाली इस पीढ़ी का सिद्धांत, विचार, मर्यादा, परम्परा से कोई लेना-देना नहीं है. . .ये सिर्फ सत्ता चाहते हैं. . .पावर चाहते हैं ताकि उसका अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करें. . .ये चतुर चालाक लोग जानते हैं कि उनके पूर्वजों ने यानी पिछली पीढ़ी के नेताओं ने जनता को जाहिल रखा है. . .जानबूझ कर जाहिल रखा है ताकि बिना समझे वोट देती रहे।

“जाहिल कैसे रखा है?”

“इस देश को जितने बड़े पैमाने पर शिक्षित किया जाना था वह नहीं किया गया। साहबों और चपरासियों के अलग-अलग स्कूल अब तक चले रहे हैं. . .अब ये सरकार देशवासियों को शिक्षित करना अपनी जिम्मेदारी भी नहीं मान रही है. . .थक गये यार. . .गुलशन से कहो ज़रा चाय और बनाए।”

सुप्रिया लौटकर आयी तो उसके हाथ में अखबारों का पूरा बण्डल था। मैंने सबसे पहले 'द नेशन` खोला पहले पन्ने पर कमाल वाले 'एक्सीडेंट की खबर नहीं थी। ऐसा लगा जैसे मुझे किसी ने ऊपर से लेकर नीचे तक जलाकर राख कर दिया हो। सुप्रिया ने मुझे देखा। अखबार देखा और समझ गयी कि बात क्या है।

इससे पहले कि मैं न्यूज़ एडीटर को फोन करता। शकील का फोन आ गया। वह बोला, 'माफी मांगने के लिए फोन कर रहा हूं।`

किस बात के लिए माफी मांग रहे हो? मुझे ज़लील करके माफी चाहते हो।”

“नहीं. . .फिर तुम गलत समझे. . .”

“तो बताओ सही क्या है? क्या ये सच नहीं कि एक मंत्री होने के नाते तुमने मेरे अखबार पर दबाव डालकर वह खबर उस तरह नहीं छपने दी जैसे छपना चाहिए थी. . .और ऐसा करके तुमने ये साबित किया कि अखबार में मेरी कोई हैसियत नहीं है. . .मैं कुत्ते की तरह जो चाहे भौंकता. . .”

वह बात काटकर बोला, “तुम बहुत गुस्से में हो. . .मैं शाम को फोन करूंगा।”

“नहीं तुम शाम को भी फोन न करना।” मैंने गुस्से में कहा और फोन बंद कर दिया।

खबर न सिर्फ तीसरे पेज पर एक कॉलम में छपी थी बल्कि एक्सीडेंट की वजह टायर पंचर हो जाना बताया गया था। इस तरह कमाल को साफ बचा लिया गया था। यह भी लिखा था कि उस वक्त गाड़ी कमाल नहीं चला रहा था बल्कि ड्राइवर चला रहा था। ड्राइवर को पुलिस ने गिरफ्तार करके हवालात में डाल दिया था। उसकी जमानत करा लेना

शकील के लिए बायें हाथ का काम था।

“ऐसे समाज में इंसाफ हो ही नहीं सकता जहां एक तरफ बेहद पैसे वाले हों और दूसरी तरफ बेहद गरीब।” मैंने सुप्रिया से कहा। वह दूसरे अखबार देख रही थी। सभी अखबारों में खबर इस तरह छपी थी कि कमाल साफ बच गया था।

“अब देखे इस केस में क्या होगा? शकील मरने वालों के परिवार वालों को इतना पैसा दे देगा जितना उन्होंने कभी सोचा न होगा, गवाहों को इतना खिला दिया जायेगा कि उतनी सात पीढ़ियां तर जायेंगी . . .पुलिस को तुम जानती ही हो. . .न्यायालय मजबूर है. . .गवाह सबूत के बिना अपंग है. . .और अगर न भी होता तो शकील के पास महामहिमों का भी इलाज है. . .अब बताओ, किसका मज़ाक उड़ाया रहा है. . .मैं तो पूरे मामले में एक बहुत छोटी-सी कड़ी हूं।”

दफ्तर जाने का मूड नहीं था लेकिन सुप्रिया का जाना जरूरी था। उसकी वीकली मैगज़ीन का मैटर आज फाइनल होकर प्रेस में जाना था। उसके जाने के बाद मैं अखबार लेकर बैठा ही था कि गुलशन ने आकर बताया, मुख्तार आये हैं, मुख्तार का नाम सुनते ही सब कुछ एक सेकेण्ड में अंदर दिमाग में चमक गया।

खेती बाड़ी और राजनीति छोड़कर दिल्ली चले आने से एक-दो साल बाद एक दिन मुख्त़ार ऑफिस आ गया था। मुझे लगा था कि वह शायद पिए हुए था। मैं उसे लेकर कैंटीन आ गया था।

“आप चले आये तो हम भी चले आये।” वह बोला, मैं कुछ समझ नहीं पाया और उसकी तरफ देखने लगा।

“आपने वतन छोड़ दिया. . .दिल्ली आ गये. . .हम भी दिल्ली आ गये. . .”

“क्या कर रहे हो?”

“फतेहपुरी मस्जिद के पास एक सिलाई की दुकान में काम मिल गया है।”

“और वहां क्या हाल है?”

“ठीक ही है।” वह खामोश हो गया था।

“मिश्रा जी कैसे हैं?”

“उनसे मिलना नहीं होता. . .” मुझे आश्चर्य हुआ। वह बोला, “अब आपसे क्या छिपाना मिश्रा जी के साथ हम लोगों की निभी नहीं। आपके आने के बाद. . .उमाशंकर, हैदर हथियार, कलूट, शमीम सब अलग होते गये. . .रिक्शा यूनियन टूट गयी. . .सिलाई मज़दूर यूनियन भी खतम ही समझो. . .बीड़ी मज़दूर. . .” वह बोलता रहा और मैं अपराध भाव की गिरफ्त में आता चला गया था। मेरे दिल्ली आने के तीन साल के अंदर यूनियनें टूट गयीं, जिला पार्टी में झगड़े शुरू हो गये, जो लोग पार्टी के करीब आये थे, सब दूर चले गये। जिला पाटी सचिव मिश्रा जी का वही हाल हो गया जो पहले था। लाल चौक का नाम फिर बदल कर लाला बाज़ार हो गया. . .इतने लोगों, रिक्शे वालों, बीड़ी मज़दूरों, सिलाई करने वालों के दिल में एक आशा की किरन जगाकर उन्हें अधर में छोड़ देना विश्वासघात ही माना जायेगा। अपने कैरियर और पैसे के लिए मैं उन सबको उनके हाल पर छोड़ कर यहां आ गया. . .मिश्रा जी ने ठीक ही कहा था, “कामरेड हमें पता था, आप यहां रुकोगे नहीं।” इतना तय है कि मैं वहां रुकता तो यह न होता जो हो गया है और इसकी जिम्मेदारी मेरे ऊपर आती है। मैं पता नहीं कैसे अपने आपको प्रतिबद्ध और ईमानदार मानता हूं। मैं तो दरअसल अवसरवादी हूं। अगर मेरे अंदर हिम्मत नहीं थी तो मुझे वह सब शुरू ही नहीं करना चाहिए था।

एक बार दिल्ली आने के बाद मुख्त़ार वापस नहीं गया। शायद वह इतना हयादार है कि अपना चेहरा उन लोगों को नहीं दिखाना चाहता जिनके साथ उसने मेरी वजह से विश्वासघात किया है। वह दिल्ली में ही रहने लगा। रोज़ जितना पैसा कमाता था उससे शाम को एक 'अद्धा पाउच` खरीदता था। गटगट करके. . .पुराने स्टाइल में अद्धा पेट में उतारकर नमक चाटता था और थोड़ी गप्प-शप्प मारकर दुकान में ही सो जाता था। वह कभी-कभी साल छ: महीने में मुझसे मिलने चला आता था। मुझे यह एहसास हो रहा था कि वह 'एल्कोहलिक` होता जा रहा है यानी रात-दिन नशे में डूबा नज़र आता था। मैं सोचता क्या उसकी बर्बादी का जिम्मेदार मैं ही हूं? पता नहीं यह कितना सच है लेकिन इतना तो

है कि अगर वह दिल्ली न आता। इस तरह न उखड़ता तो शायद बर्बाद न होता।

आज भी वह नशे में हैं। उसका दुबला-पतला जिस्म देशी ठर्रे की ताब नहीं ला पाया है और जर्जर हो चुका है। ओवर साइज़ कमीज में वह अजीब-सा लग रहा है। बाल तेज़ी से सफेद हो गये हैं और चेहरे पर लकीरें पड़ने लगी हैं।

“चाय पियोगे?” मैंने उससे पूछा।

“चाय?” वह बेशर्मी वाली हंसने लगा। लेकिन सिर नहीं उठाया।

“क्यों?” मैंने पूछा।

“अब. . .आप जानते हो।”

“तो क्या पियोगे।”

“अरे बस. . .आपको थोड़ी तकलीफ देनी है. . .”

मैं समझ गया। उसका ये रटा हुआ जुमला मुझे याद हो चुका है। इससे पहले कि वह वाक्य पूरा करता मैंने जेब में हाथ डाला पर्स निकालना और दो सौ रुपये उसकी तरफ बढ़ा दिए।

उसने पैसे मुट्ठी में दबाये और तेज़ी से उठकर बाहर निकल गया। वह उसे जाते देखता रहा। फाटक पर उसने गुलशन से कोई बात की और बाहर निकल गया। मैं सोचता रहा कि देखें ये क्या हो गया। मुख्त़ार बहुत अच्छा संगठनकर्ता रहा है। वह वक्ता भी अच्छा था। अपने समाज के लोगों को 'कन्विन्स` करने के लिए उसके पास मौलिक तर्क हुआ करते थे। अगर राजनीति में रहता. . .या ये कहें कि अगर मैं राजनीति में रहता . . .अपने जिले में. . .अपने घर में. . .अपने गांव में रहता तो वह भी . . .लेकिन कोई गारंटी तो नहीं है। गारंटी तो वैसे किसी चीज़ की भी नहीं है यही तो जिंद़गी की लीला है।

----१७----

काफी हाउस क्यों उजड़ा? ये कुछ उस तरह की पहेली बन गयी है। जैसे 'राजा क्यों न नहाया, धोबन क्यों पिटी?` पहेली का उत्तर है। धोती न थी। मतलब राजा इसलिए नहीं नहाया कि नहाने के बाद पहनने के लिए दूसरी धोती न थी और धोबन इसलिए पिटी कि धोती न थी, यानी कपड़े न धोती थी। तो 'काफी हाउस क्यों उजड़ा?` पहेली का उत्तर हो सकता है। 'स` न था। 'स` से समय, 'स` से समझदारी, 'स` से सहयोग, 'स` से सगे, 'स` से सत्ता, 'स` से सोना. . .साहित्य. . .

काफी हाउस उजड़ा इसलिए कि वहां बसने वाले परिन्दों ने नये घोंसले बना लिये। मेरी और यार दोस्तों की शादियां हो गयीं। बच्चे हो गये। सास-ससुर और साले सालियों की सेवा टहल और पत्नी की फरमाइशों के लिए वक्त कहां से निकलता? और फिर कनाट प्लेस और काफी हाउस के नज़दीक कोई कहां रह सकता है? इसलिए पटक दिए गये काफी हाउस से दस-दस बीस-बीस मील दूर इलाकों में, वहां से कौन रोज़ रोज़ आता?

कुछ लोग हम लोगों के बारे में कहते हैं जब तक ये लोग संघर्ष कर रहे थे काफी हाउस आते थे। अब स्थापित हो गये हैं। सोशल सर्किल बड़ा हो गया है। जोड़-तोड़, लेन-देन के रिश्ते बन गये हैं। जिनमें काफी हाउस के लिए कोई जगह नहीं है। पता नहीं ये कितना सच है लेकिन कुछ न कुछ सच में इसमें हो सकता है।

पिछले डेढ़ दशक में पन्द्रह बहारें आयीं हैं और पतझड़ गुज़रे हैं। जेल से निकलने के बाद सरयू डोभाल का कविता संग्रह 'जेल की रोटी` छपा था और उसकी गिनती हिंदी के श्रेष्ठ कवियों में होने लगी थी।

उसके बाद 'पहाड़ के पीछे` और 'आवाज का बाना` उसके दो संग्रह आ चुके हैं। वह 'दैनिक प्रभात` का साहित्य संपादक है और हिंदी ही नहीं भारत की अन्य भाषाओं के प्रतिष्ठित साहित्यकारों में उसका अमल-दखल है। उसकी शादी इलाहाबाद में हुई है। पत्नी एन.डी.एम.सी. के किसी स्कूल में पढ़ाती है। एक लड़का है जो बी.ए. कर रहा है। इसमें शक नहीं कि अब सरयू के पास काफी हाउस में दो-दो तीन-तीन घण्टे गप्प मारने का वक्त नहीं है। उसे अपने दफ्तर में ही आठ-साढ़े आठ बजे जाते हैं। बाहर ड्राइवर खड़ा इंतिज़ार करता रहता है कि साहब को जल्दी से जल्दी घर छोड़कर मैं आजाद हो जाऊं। उसकी पत्नी शीला खाने पर इंतिज़ार करती है और बेटा अपनी सहज ज़रूरतों की सूची थामे उसका 'वेट` करता रहता है। ऐसे में सरयू काफी हाउस तो नहीं जा सकता न? और फिर हफ्ते में तीन चार शामें ऑफीशियल किस्म के 'डिनर` होते हैं जहां जाना नौकरी का हिस्सा है। कोई कुछ कहता नहीं लेकिन ऐसे 'डिनरों` में ही नीतियां तय होती, फैसले लिए जाते हैं, लॉबींग की जाती है, समझौते होते हैं, रास्ते निकलते हैं। लखटकिया से लेकर दस हज़ारी इनामों तक की लॉबींग होती है। सरयू को साहित्य की राष्ट्रीय पत्रिका निकालनी है, साहित्यकारों के बीच रहना है, उनका समर्थन प्राप्त करना है, उनसे संबंध बनाना है इसलिए यह सब नौकरी का आवश्यक हिस्सा बन जाता है।

नवीन जोशी की शादी सुमित्रानंदन पंत के परिवार में हुई है। शादी के बाद नवीन ने दो-तीन नौकरियां बदलने के बाद एक बड़ी पब्लिक अंडरटेकिंग में पी.आर.ओ. के पद पर पांव जमा लिए हैं। शादी से पहले उसका एक कविता संग्रह 'चुप का संगीत` छप चुका है। अब शादी, नौकरियों और बाल-बच्चों के झंझटों में इंज्वाय करना सीख गया है। वह दिल्ली के पहाड़ी ब्राह्मण समाज का एक प्रतिष्ठित सदस्य है। ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं है क्योंकि उसके पिताजी अंग्रेजों के ज़माने के सेक्शन ऑफीसर थे, चाचा जी जज थे, छोटे चाचा इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। आज उसके परिवार में दो दर्जन आई.ए.एस. और प्रोफेसर हैं। अखबारों के सम्पादक हैं, टी.वी. चैनलों के एंकर हैं,

संवाददाता हैं, कुमाऊंनी पंडितों की प्रतिष्ठा और प्रभाव से नवीन गदगद रहता है। वह अपने पिछले राजनैतिक विचारों पर शर्मिन्दा तो नहीं लेकिन उसका उल्लेख करने पर असुविधाजनक स्थिति में आ जाता।

'पब्लिक अण्डरटेकिंग` किस तरह अपने कर्मचारियों और वह भी ऊंचे कर्मचारियों के नाज़ नखरे उठाती हैं इसका सउदाहरण बयान करना नवीन को बहुत पसंद है। वह कंपनी की उन तमाम योजनाओं के बारे में जानता है जिनसे लाभ उठाया जा सकता है। जैसे बच्चे के जन्म से लेकर उनकी शिक्षा तक कंपनी कितनी छुट्टी मां को और कितनी छुट्टी बाप को देती है। बच्चे के पैदा होने पर कितना एलाउंस मिलता है। स्कूल योग्य हो जाने पर यह एलाउंस कितना बढ़ जाता है। अगर कार खरीद ली जाये तो कितना पैसा कार 'मेनटेनेंस एलाउंस` का मिलता है। ड्राइवर की तनख्वाह मिलती है। ऑफिस अगर तेरह किलोमीटर से दूर है तो पांच रुपये पचास पैसे प्रति किलोमीटर और ज्यादा एलाउंस मिलता है। साल में तीस हज़ार पेट्रोल के लिए बीस हजार इंजन बदलवाने आदि आदि ये सब उसे जबानी याद है और वह धड़ाके से बताना शुरू कर देता है। तीन साल बाद नयी कार खरीदने का इंटरेस्ट फ्री लोन मिल जाता है। पुश्तैनी मकान ठीक कराने और बच्चों की शादी करने के लिए भी दस लाख तक का 'इंटरेस्ट फ्री` लोन मिलता है।

नवीन परिवार के पुराने किस्सों का भी ख़ज़ाना है। अंग्रेजों के ज़माने में राजधानी शिमला चली जाती थी। एक ट्रेन में पूरी भारत सरकारी दिल्ली से शिमला कैसे जाती थी। उसके पिताजी को दो घर एलाट थे। एक दिल्ली में एक शिमला में। सारा काम बहुत व्यवस्थित और योजनाबद्ध हुआ करता था। इन किस्सों के साथ-साथ उसके पास अपने परिवार के बुजुर्गों की ईमानदारी, मेहनत और लगन को दर्शाने वाले अनगिनत किस्से थे। बडे चाचा सन् बीस में जज थे। आठ सौ रुपये महीने तन्खा मिलती थी। वे हर महीने दो सौ रुपये के दस-पन्द्रह मनीआर्डर अल्मोड़ा करते थे। किसी गरीब रिश्तेदार को पांच रुपये, किसी को दस, जैसी जिसकी जरूरत होती थी। पचास रुपये महीने का गुप्तदान करते थे। सौ रुपये महीने हेड़ाखान बाबा के मठ में जाता था।

इसके अलावा परिवार का जो भी लड़का हाईस्कूल कर लेता था उसे इलाहाबाद बुलाकर अपनी कोठी में रख लेते थे और आगे की पढ़ाई का पूरा खर्चा उठाते थे।

नवीन के एक चचा जी पंडित गोविन्द वल्लभ पंत के क्लासफेलो थे। इन दोनों के बड़े रोचक किस्से उसे याद हैं जिनमें पंडित पंत को शिकस्त हुआ करती थी और पंडित भुवन जोशी विजेता और आदर्श पुरुष के रूप में स्थापित होते थे। एक रिश्तेदार शूगरकेन इंस्पेक्टर थे और तरक्की करते करते शूगरकेन कमिश्नर हो गये थे। वे कभी किसी से बहस में हारते नहीं थे। नवीन के अनुसार कहते थे, भाई मैं तो बातचीत को खींचकर गन्ने पर ले आता हूं और वहां अपनी मास्टरी है. . .बड़े से बड़े को वहीं चित कर देता हूं।

हम लोगों ने ये सब किस्से काफी हाउस के जमाने में सुने थे। इनमें अल्मोड़ा के लोगों, वहां आपसे एक नवाब साहब, एक आवारा और न जाने किन-किन लोगों के किस्से नवीन अब भी जब मौका मिल जाता है सुना देता है। उसका मनपसंद काम चाय की प्याली और गपशप्प का आदान-प्रदान है। वह यह काम घण्टों कर सकता है।

कविता का पहला संग्रह छपने के बाद नवीन अपनी पब्लिक सेक्टर नौकरी में आ गया था। पत्नी, बच्चे, रिश्तेदार, नातेदार सब समय की मांग करते थे। इसलिए उसका काफी हाउस आना बंद हो गया था और फिर अकेला क्या आता? न तो सरयू जाता था। न मैं जाता था, न रावत ही जाता था। वह अकेला वहां क्या करता? मेरा कभी-कभी मूड बन जाता था और कोई काम नहीं होता था। तो मैं उसके आफिस का कभी-कभार एक आद चक्कर लगा लेता था। मैं जानता था उसे आमतौर पर कोई काम नहीं होता है। वह आफिस के दो-चार दूसरे अधिकारियों से गप्प-शप्प करता रहता है। चाय पीता है। ए.सी. की बेहिसाब हवा खाता है। गप्प करने को जब कोई नहीं मिलता तो चपरासियों से खैनी लेकर खाता है और गप्पबाज़ी करता है। यह उसका बड़प्पन है कि वह पद को महत्व नहीं देता जिसकी वजह से कभी-कभी ऑफिस में उसकी आलोचना भी हो जाती है।

अच्छी खासी नौकरी में होते हुए भी नवीन को हम सब की तरह यह कामना तो थी कि यार पैसा बनाया जाये। हम में से किसी को पैसा मिल जाता तो शायद वह सब न करते जो दूसरे पैसे वाले करते हैं। हम फिल्म बनाते, यात्राएं करते, किताबें खरीदते वग़ैरा, वग़ैरा. . .नवीन अक्सर काफी हाउस में भी मोटा पैसा बनाने की योजनाएं बताया करता था और रावत उसका मज़ाक उड़ाया करता था। पैसा कमाने की मोटी योजनाएं अब भी उसके पास आती रहती हैं। एक दिन मैं उसके आफिस गया तो बोला कि यार किसी का फोन आया था, सोवियत यूनियन से एक आर्डर है। पांच करोड़ की प्याज़ भेजना है।?

“क्या?” मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं आया।

“हां यार पांच करोड़ की प्याज़ भेजने का आर्डर है।”

“तुम्हारे पास है?”

“हां हां . . .और क्या . . .पांच परसेंट कमीशन।” वह बहुत गंभीर लग रहा था।

“मज़ाक तो नहीं कर रहे हो।”

“नहीं यार. . .” वह नाराज़ होकर बोला।

इसी तरह पुरानी बात है, एक दिन उसका फोन आया कि अमेरिका से पानी का एक जहाज 'डनहिल` सिगरेट लेकर ईरान जा रहा था कि ईरान में क्रांति हो गयी है। अब यह जहाज खुले समुद्र में रुका खड़ा है और विश्व में अपने माल के ग्राहक तलाश कर रहे हैं। नवीन ने बताया कि 'डनहिल` का ग्राहक खोजने की कोशिश कर रहा है।

इस तरह के कोई काम उससे नहीं हो सके। बस टेलीफोन ऑफिस का, क्लर्क और चपरासी, काग़़ज स्टेशनरी. . .अपने शौक मुफ्त में पूरे कर लेता था और थोड़ी देर के लिए एक सपना देख लेता था। यार इसमें बुराई क्या है?

“यार ये निगम को साले को हो क्या गया है?” रावत गुस्से में बोला।

“अच्छा खासा पैसा है साले के पास।” नवीन ने कहा।

“भई देखो चाहे जो करे. . .हमें क्यों पार्टी बनाता है. . .” सरयू ने अपनी बात रखी।

“ये बताओ उसने तुमसे कहा क्या था?” सरयू ने मुझसे पूछा।

“यार यही कहा था कि आज रात तुम चारों हमारे साथ डिनर करो. . .और कुछ नहीं बताया था।” मैंने कहा।

“यही चालाकी है उसकी . . .वहां जाकर पता चला कि क्या किस्सा है।”

“देखो मैं तो बहुत पहले से निगम के बारे में 'क्लियर` हूं। मुझे पता है उसका मुख्य धंधा दलाली है . . . वह पैसा कमाने के लिए कोई भी रास्ता अपना सकता है।” रावत ने कहा।

“चलो अब आगे से देखा जायेगा।”

“यार किस बेशर्मी से मंत्री से कह रहा था, सर एक ड्रिंक तो और लीजिए. . .देखिए सर. . .साकी कौन है।” सरयू ने कहा।

“मतलब अपनी पत्नी को साकी बना दिया. . .।”

“यार मंत्री को तो वही सर्व कर रही थी न?” नवीन ने कहा

“मंत्री के बराबर बैठी थी।”

“देखो राजाराम चौधरी पर्यटन मंत्री हैं. . .और निगम की एडवरटाइजिंग. . .”

“वो सब ठीक है. . .पर हद होती है।”

हम चारों में मेरी निगम से ज्यादा पटती है। वह यह जानता है और इन तीनों को 'इनवाइट` करने के लिए भी उसने मेरा ही सहारा लिया था। हम जब उसके घर पहुंचे तब ही पता चला था कि वह अपनी पत्नी का जन्मदिन मना रहा है और उसमें चीफगेस्ट के रूप में राजाराम चौधरी को बुलाया है। वैसे एक-आद बार यह बात काफी हाउस में उड़ती उड़ती सुनी थी कि निगम अपनी पत्नी के माध्यम से बहुत से काम साधता है। उसकी पत्नी सुंदर है। बच्चा कोई नहीं है। आज तो निगम का चेहरा अजीब लग रहा था। उसने उतनी शराब पी नहीं थी जितनी दिखा रहा था। वह नशे में है इसका फ़ायदा उठा रहा था। यह सब समझ रहे थे।

निगम मुझसे बता चुका था कि पार्टी में राजाराम चौधरी होंगे और

उसने यह भी कहा था कि यह बात मैं सरयू और रावत वगै़रा को न बताऊं। उसे शक था क तब शायद ये लोग न आते।

“लेकिन वो हम लोगों को क्यों बुलाता है।”

“सीधी बात है यार. . .मंत्री को यह बताना चाहता है कि उसके मित्र पत्रकार भी हैं।”

“हां यार मुझे तो उसके दो बार मिला दिया मंत्री से. . .और दोनों बार खूब जोर देकर कहा कि ये 'दैनिक प्रभात` में साहित्य सम्पादक हैं।”

“तो ये बात है।” रावत आंखें तरेरता हुआ बोला।

कुछ महीनों बाद सुनने में आया कि निगम को पर्यटन मंत्रालय से बहुत काम मिल गया है। यह भी सुना गया कि निगम ने दो कोठियां खरीद ली हैं। यह भी पता चला कि गाड़ी बदल ली है। उसने फोन करके खुद बताया कि नैनीताल में एक काटेज खरीद लिया है। जब कभी मिल जाता है तो बड़े जोश में दिखाई देता है। नया ऑफिस खोल लिया है जहां बीस पच्चीस का स्टाफ काम करता है।

मैंने शकील के पास संबंध खत्म कर लिये थे लेकिन उसका फोन अक्सर आता रहता था। वह कहता था कि मैं तुम्हें फोन करता रहूंगा। . . . इस उम्मीद पर के एक दिन हम फिर उसी तरह मिलेंगे जैसे हम पहले मिला करते थे। मैंने भी सोच लिया था कि बस पुरानी दोस्ती जितनी निभ सकी है मैंने निभायी है और अब जिन्दगी के इस मोड़ पर मेरे और शकील के बीच कुछ 'कामन` नहीं है। हमारे रास्ते अलग है।

एक साल तक हमारी मुलाकात नहीं हुई। अहमद टोक्यो से लौट कर आया तो उसने अपना 'ऐजेण्डा` घोषित कर दिया कि वह मेरी और शकील की दोस्ती करवाना चाहता है। मुझे उसकी इस बात पर हँसी आई और उसे समझाया कि यार कि अब हम लोग हॉस्टल के लौण्डे नहीं है हम पचास के आसपास पहुँचे लोग हैं। न तो अब शकील को मेरी ज़रूरत है और मुझे उसकी। हमारी जिन्दगी अलग है, सोचने का तरीका अलग है।

- अरे साले तो मेरा और तुम्हारे सोचने का तरीका कौन सा एक है?``

- कभी एक नहीं रहा`` मैनें कहा।

- यही तो बात है . . . तुम उस साले को इतना 'सीरियसली` क्यों लेते हो``।

मुझे हँसी आ गयी आज भी अहमद उसी तरह के बेतुके तर्क देता है जैसे तीस साल पहले दिया करता था।

अहमद पीछे पड़ गया आखिरकार मैं शकील से एक साल बाद मिला और हैरत ये हुई कि वह मुझसे लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगा पहले तो मैं समझा साला 'एक्टिंग` कर रहा है नेता साले एक्टिंग का कोर्स किए बिना 'टॉप` के एक्टर बन जाते है। लेकिन बाद में पता चला कि वह एक्टिंग नहीं कर रहा था।

----१८----

मोहसिन टेढ़े धड़ाधड़ अपनी जायदाद बेचकर पैसा खड़ा कर रहा है। अभी आम का बाग और वह हवेली नहीं बेची है जहां उसकी मां रहती है। मां से वह काफी परेशान है। कहता है अम्मां दिल्ली आना नहीं चाहती। मोहसिन टेढ़ा किसी भी तरह अब तक इसमें कामयाब नहीं हो सका कि अम्मां को दिल्ली ले आये। हां, उसके बहनोई दिलावर हुसैन एडवोकेट ने कहला दिया है कि पुश्तैनी जायदाद में उनका मतलब उनकी बीवी का भी हिस्सा है। मोहसिन टेढ़े किसी भी तरह जायदाद का एक तिनका अपनी बहन और बहनोई को नहीं देना चाहता।

सौ बीघा कलमी आम का बाग मोहसिन टेढ़े के दादा ने लगवाया था और यह ज़िले के ही नहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़े बागों में गिना जाता है। बाग में चार कुएं हैं, पक्की नालियां हैं, और हर तरह से कलमी आम के पेड़ हैं। मोहसिन टेढ़े ने जब इस बाग का ग्राहक तय किया तो उसके बहनोई दिलावर हुसैन एडवोकेट ने उसे धमका दिया और वह बयाना देने भी नहीं आया। मोहसिन ने एक और खरीदार को पटाया और उससे बयाना ले लिया। यह बात दिलावर हुसैन को पता लग गयी। उन्होंने मोहसिन को चैलेंज किया कि वे तहसील में बाग की लिखा-पढ़ी न करा सकेंगे। उनका मतलब यह था कि गुण्डे मोहसिन टेढ़े को तहसील न पहुंचने देंगे। ऐसे मौके पर मोहसिन टेढ़े के काम कौन आता सिवाय शकील अहमद अंसारी के। शकील ने यह छोटा-सा काम करने की जिम्मेदारी अपने सुपुत्र कमाल को सौंप दी।

कमाल ने मोहसिन को यकीन दिलाया कि बैनामा हो जायेगा। दिलावर हुसैन एडवोकेट कुछ नहीं कर सकेंगे। मोहसिन को यह बड़ा

अच्छा लगा। कमाल उन्हें बताता रहता था कि उसने अपने इलाके के इतने लोग बुला लिए हैं, जिले के अफसरों को साउण्ड कर दिया है कि यह मंत्री जी का काम है। सब मदद करने के लिए तैयार हैं। बैनामा अगले दिन होना था।

रात शकील के घर पर खाना-वाना खाने के बाद कमाल ने मोहसिन टेढ़े से पूछा, “अंकिल ये बताइये. . .अगर अपनी सिस्टर को उनका शेयर आपको देना ही पड़ जाता तो वह कितना होता?”

इस सवाल पर मोहसिन टेढ़े के हवास गुम हो गये। वह उड़ती चिड़िया के पर गिन गया।

“क्यों?” उसने पूछा।

“मतलब अंकिल आप जानते हैं. . .हमने पचास लोग बुलाये हैं जो हर तरह से लैस होंगे. . .अधिकारियों को उनका हिस्सा पहुंचा दिया गया है। पुलिस को भी दिया गया है क्योंकि पुलिस किसी के रिश्तेदार नहीं होती. . .”

मोहसिन टेढ़े की अकल के सभी दरवाजे खुल गये। उसने सोचा, कल बैनामा होना है, अगर आज कमाल कह दे कि उसके आदमी वहां नहीं पहुंच पायेंगे, वह नहीं जा सकता तो क्या होगा।

कितना खऱ्चा लग जायेगा।” मोहसिन टेढ़े मरी हुई आवाज़ में बोला।

पांच लाख।” कमाल ने कहा और मोहसिन टेढ़ा कुर्सी से उछल पड़ा, पांच लाख।”

“हां अंकिल पांच लाख. . .ये कुछ नहीं है. . .आप अस्सी लाख का बाग बेच रहे हैं।”

“ठीक है।”

मोहसिन टेढ़ा यह समझ रहा था कि कमाल शायद किसी काग़ज पर दस्तखत करायेगा। पर ऐसा नहीं हुआ।

अगले दिन जब बैनामा हो रहा था तो मोहसिन टेढ़े को कमाल के पचास आदमी कहीं नहीं दिखाई दिए। पुलिस भी नहीं थी। सब कुछ सामान्य था। मोहसिन टेढ़े ने कमाल से पूछा, तुम्हारे आदमी कहां हैं?”

“अंकिल आप अपना काम कीजिए।” वह सख्ती से बोला था। काम हो गया था। जितना पैसा कैश मिलना था वह सब कमाल ने गिनकर अपने पास रख लिया था। दिल्ली आकर उसमें से पांच लाख बड़ी ईमानदारी से गिनकर बाकी मोहसिन को लौटाते हुए कहा था, पापा को ये सब न बताइयेगा. . .”

मोहसिन ने सिर हिला दिया।

सुप्रिया को यह पसंद नहीं कि उसके रहते मेरे टेरिस पर महफिलें जमें और यार लोग शराब कबाब करें। अगर कभी ऐसा होने वाला होता है तो वह अपनी बरसाती में चली जाती है। लेकिन आजकल वह कलकत्ता गयी है इसलिए मेरी टेरिस आबाद हो गयी है।

मसला जेरेबहस यह है कि बलीसिंह रावत ने लोक सेवा आयोग द्वारा विज्ञापित डायरेक्टर मीडिया की पोस्ट पर अप्लाई कर दिया है। यह एस.टी. के लिए रिजर्व पोस्ट है और रावत के पास एस.टी. का प्रमाण-पत्र है। आज वह जिस वेतनमान पर काम कर रहा है उससे दुगना वेतनमान इस पोस्ट का है।

सरयू, नवीन का कहना है कि यह 'गोल्डन अपारच्युनिटी` है रावत के लिए। मैं इससे सहमत हूं। डायरेक्टर मीडिया की पोस्ट सीधे मंत्रालय में है। क्या कहने?

रावत अपनी जानकारियों, समझदारी, फिल्म और साहित्य की सूक्ष्म दृष्टि के बावजूद सीधा है। उसमें मध्यवर्गीय छल कपट है। हम लोग ये जानते हैं रावत को 'खींचने` का काई मौका नहीं छोड़ते।

पता नहीं कैसे धीरे-धीरे हम लोगों ने रावत को 'कन्विंस` कर लिया कि नौकरी के लिए उसका जो इंटरव्यू लिया जायेगा उसका पूर्वाभ्यास करके देखना चाहिए।

कुछ ही देर में 'मॉक इंटरव्यू` शुरू हो गया। कहावत है कि दाई से पेट नहीं छिपाना चाहिए। हम सब दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह साल पुराने दोस्त, एक दूसरे के बारे में सच जानते हैं। पूरे विश्वास से ऐसे सवाल पूछने लगे जिनका जवाब रावत नहीं दे सकता। चार पांच सवालों का

उत्तर रावत नहीं सके क्योंकि वे वैसे ही सवाल थे जिनके उत्तर की उपेक्षा उनके नहीं हो सकती।

कुछ देर में रावत चिढ़ गया और शायद समझ भी गया कि उनके साथ खेल हो रहा है। वह बोला, “अरे मादरचोदो, सत्यजीत रे पर सवाल पूछो, चार्ली चैपलिन पर पूछो, अम्बादास की पेंटिंग पर पूछो, रवीन्द्र संगीत पर पूछो. . .फिलिस्तीनी प्रतिरोध कविता पर पूछो. . .”

हम सब हंसने लगे।

हम लोगों ने पूरे प्रसंग को चाहे जितना 'नॉन सीरियसली` लिया हो लेकिन बलीसिंह रावत की निदेशक मीडिया के पद पर नियुक्ति हो गयी। हमने जश्न मनाया। रावत पर सब अपने-अपने दावे पेश करने लगे। नवीन ने कहा यार मैंने तो तुझे सूट का कपड़ा खरीदवाया और सूट सिलवाया था। मैंने कहा, मैंने तुम्हें टाई बांधना सिखाई थी। बहरहाल रावत बहुत खुश था।

संबंध ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चल रहे हैं। नूर अब पूरे साल लंदन में रहती हैं। पहले जाड़ों में हीरो के साथ एक दो हफ्त़े के लिए आ जाती थी और हीरा का कॉलिज खुलने से पहले लौट जाती थी। धीरे-धीरे साल में एक चक्कर लगना भी बंद हो गया और दो-तीन साल में एक बार आने लगी। मैं भी लंदन जाते-जाते थक गया था। अब वहां सब कुछ नीरस था। मैं गर्मियों में श्रीनगर चला जाता था।

धीरे-धीरे सुप्रिया ने नूर की जगह ले ली थी लेकिन सुप्रिया के साथ भी संबंधों में कोई पक्कापन न था। हमेशा लगता था जब पत्नी ही अपनी न हुई तो प्रेमिका क्या होगी। लेकिन सुप्रिया ने हमेशा विश्वास बनाये रखा। कभी जब नूर को आना होता था तो बिना मुझे बताये अपने कपड़े वग़ैरा लेकर अपनी बरसाती में चली जाती थी और कभी नहीं कहती थी कि ये संबंध कैसे हैं? वह मेरी कौन है? नूर कौन है? मैं ये क्यों कर रहा हूं। लगता है कि सुप्रिया को अपार दुख ने सतह से उखाड़ दिया है वह अब जहां है वहां कोई सवाल जवाब नहीं होते।

लंदन और नूर से दूर होने के साथ-साथ मैं हीरा से भी दूर हो गया

हूं। मैंने उसे लेकर जो ख्वाब पाले थे वे छितरा गये हैं। लेकिन हीरा से मेरी बातचीत होती रहती है। हो सकता है नूर से किसी महीने बात न हो लेकिन हीरा से होती ही है। वह चाहे जहां हो, मैं उसे फोन करता हूं। हॉस्टल में था तो वहां 'काल` करता था। मेरे और उसके बीच सबसे बड़ा विषय तीसरी दुनिया के संघर्ष हैं। उसे राजनीति और अर्थशास्त्र में दिलचस्पी है और मैं पत्रकार होने के नाते इन दोनों विषयों से बच नहीं सकता। 'लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स` के रेडीकल टीचर्स उसके 'आइडियल` हैं। वह बराबर उनकी किताबें और लेख मुझे भेजता रहता है। वह जानता है कि मैं कभी वामपंथी राजनीति में था और भी उससे सहानुभूति रखता हूं। वह बताता रहता है नवपूंजीवाद किस तरह संसार के गरीब देशों पर कब्ज़ा जमाना चाहता है। हीरा अपनी शिक्षा, परिवार के उदार मानवीय विचारों, बॉब से दोस्ती और रेडिकल टीचर्स की संगति में काफी इन्किलाबी बन गया है। वह क्यूबा और चीन की यात्रा कर चुका है। मिर्जा साहब, उसके नाना लेबरपार्टी से अपने पुराने और गहरे रिश्ते की वजह से 'गुलाबी` विचारों को पसंद करते हैं और उन्हें लगता है कि हीरा जवानी के जोश में 'अतिलाल` है जो समय के साथ-साथ 'गुलाबी` हो जायेगा।

सुप्रिया के साथ रहते हुए कभी-कभी यह ख्य़ाल आता है कि मुझे यहां सुप्रिया का सहारा मिल गया है। नूर लंदन में क्या करती होगी? पता नहीं मुझे लगता है लेकिन हो सकता है मैं गल़त हूं कि नूर और बॉब की दोस्ती सिर्फ दोस्ती की हद तक कायम नहीं है। दोनों स्कूल में साथ पढ़ते थे फिर कॉलिज में साथ आये। यूनीवर्सिटी साथ-साथ गये। अंग्रेज़ संस्थानों का माहौल 'वीकली पिकनिक`, 'नाइट आउट`, 'पार्टियां डांस`, 'ड्रिंक्स डिनर` ऐसा कौन है जो इस माहौल में एक बहुत अच्छे आदमी और दोस्त के साथ गहरे और बहुत गहरे संबंध बनाने में हिचकिचायेगा? लंबे जाड़ों और बरफीले तूफान के बाद जब प्रकृति जागती है तो ऐसा लगता है जैसे वीनस की मूर्ति चादर ओढ़े सो रही थी और अचानक उसने चादर फेंककर एक अंगड़ाई ली है। ऐसे मौसम में युवक पागल हो जाते हैं और रंगों के तूफान में अपने को रंग लेते हैं। जाड़ा बीत जाने

के बाद सूखी-सी लगती टहनियों के ऊपर हरे रंग की कोपल जैसी पत्तियां निकलती जिनके रंग हरे होने से पहले कई चोले बदलते हैं और पत्तियाँ हर चोले में मारक नज़र आती है। सड़कें किनारे खड़ी बेतरतीब झाड़ियां इस तरह फूल उठती है कि उन पर से निगाह हटाना मुश्किल होता है। लगता है यह पृथ्वी, पेड़, फूल, रंग, नीला पानी, नीला आसमान सब आज ही बना है। दूर तक फैली हरी पहाड़ियों की गोद में बसे गांवों में बसंत उत्सव मनाये जाते हैं। सेब के बागों में आर्केस्ट्रा बजता है, नृत्य होता है, बियर बहती है, 'बारबीक्यु` होता है और पूरा माहौल नयी जिंदगी का प्रतीक बन जाता है। पता नहीं इस तरह के कितने वसंत उत्सवों में नूर और बॉब गये होंगे। पता कितनी बार हरे पहाड़ों के जंगली फूलों के बीच ट्रैकिंग की होगी। पता नहीं टेम्स के किनारे कितनी दूर तक टहले होंगे।

नूर और बॉब के रिश्ते या उनके बीच शारीरिक संबंधों की बात जब मैं सोचता हूं तो मुझे गुस्सा नहीं आता। मैं मानता हूं अगर ऐसे संबंध होंगे तो नूर की इच्छा बिना न होंगे। और दूसरी बात यह कि बॉब इतना अच्छा आदमी है कि उसे साधारण की परिभाषा में नहीं बाध जा सकता। अगर यह संबंध है तो विशेष संबंध होगा. . .क्या यह मैं किसी और से भी कह सकता हूं।

बाग बेचने के बाद मोहसिन टेढ़े ने शादी कर डाली। चूंकि मोहसिन टेढ़े नौकरी वगै़रा तो करता न था सिर्फ ज़मीन जायदाद का खेल था। वह भी तेजी से बेच रहा था इसलिए मोहसिन टेढ़े के लिए लड़की मिलना मुश्किल था। ये बात जरूर है कि इलाके वालों, रिश्ते-नातेदारों में अच्छी साख थी। लोग जानते और मानते थे लेकिन अच्छे घरों से इंकार ही हो रहा था। आखिरकार एक मीर साहब जो मेरठ कचहरी में पेशकार थे, की चौथी लड़की के साथ मोहसिन टेढ़े का रिश्ता तय हुआ।

मोहसिन की शादी सीधी-साधी थी। दोनों पक्षों को अच्छी तरह मालूम था कि 'एडजस्टमेंट` क्यों किया जा रहा है। दहेज वाजिब वाजिब मिला था। रिसेप्शन वाजिब वाजिब था। लड़की इंटर तक पढ़ी थी। घरदारी से अच्छी वाक़िफ़ थी। देखने सुनने में वाजिब वाजिब थी। मोहसिन टेढ़े जानता है कि इससे ज्यादा इन हालात में कुछ नहीं हो सकता। शादी के बाद वह बीवी को लेकर सीधे दिल्ली आ गया। उसने कहा था, यार क्या फायदा पहले घर ले जाऊं? घर में है कौन अम्मां हैं, वो यहीं शादी में आ गयी। बाकी बहनोई साहब ने तो मुकदमा दायर कर दिया है। दूसरे रिश्तेदारों से मेरा मतलब ही नहीं है।

दिल्ली में उसने गुड़गांव के पास किसी सेक्टर में मकान खरीद लिया था। मैंने बहुत समझाया था कि यार इतनी दूर क्यों जा रहे हो। पर वह नहीं माना था। उसका कहना था, “यार मैं रिश्तेदारों से दूर रहना चाहता हूं. . .ये सब मुझे लूटना खाना चाहते हैं। मैं गुड़गांव सेक्टर तेरह में रहूंगा वहां कोई साला क्या पहुंचेगा. . .और फिर वहां सस्ता है और फिर यार कौन-सा मुझे नौकरी करनी है। हफ्ते में एक आद बार दिल्ली चला आया करूंगा और वही सुकून से रहूंगा. . .तुम कभी वहां आकर देखो. . .बड़ी पुरफ़िज़ा जगह है।”

----१९----

“देखो आदमी सच बोलने के लिए तरसता है। उसकी ये समझ में नहीं आता कि कहां सच बोला जाये? मेरी तो समझ में आ गया कि सच कहां बोलना चाहिए. . .यहीं बोलना चाहिए, यहीं बोलना चाहिए और यहीं बोलना चाहिए. . .” अहमद हंसने लगा।

टेरिस पर चांदनी फैली है नीचे से चमेली की फूलों की तेज़ महक आ रही है। मलगिजी चांदनी में जामो-सुबू का इंतिज़ाम है। तीन पुराने दोस्त ज़िंदगी की दोपहर गुज़ारकर आमने सामने हैं।

“क्या कमजोरी है तुम्हारी।” शकील ने पूछा।

“यार तुम लोग पूछ रहे थे न कि पहले मैंने इंदरानी को छोड़ा था, फिर राजी रतना को छोड़ा। उसके बाद एक रूसी लड़की के साथ रहने लगा. . .मास्को से टोक्यो आ गया तो एक अमरीकी टकरा गयी . . . मैं यार. . .” उसे कुछ नशा आ गया था और जबान लड़खड़ा रही थी।

“तुम्हें नशा ज्यादा हो रहा है।” मैंने कहा।

वह हंसने लगा हां, मैं जानता हूं और ये भी जानता हूं कि कहां नशा होना चाहिए और कहां नहीं. . .डिप्लोमैटिक पार्टियों में नशा होना जुर्म है. . .वहां हम वी.वी.आई.पी को नशे में लाते हैं, उसे खुश करते हैं. . .उसके चले जाने के बाद अपने हाई कमिश्नर साहब को नशे में लाते हैं। ये भी हमारी ड्यूटी होती है. . .जानते हो. . .एक बार मैक्सिको में हमारे एम्बैस्डर एक स्पेशल कोटे वाले आदमी थे और लगता था उन्हें उनके पूरे कैरियर ''दूसरे तरह के लोगों ने परेशान किया था। अब 'टॉप बॉस` हो जाने के बाद उनके अंदर बदला लेने की ख्वाहिश बहुत मज़बूत

हो गयी थी. . .तो जब उन्हें चढ़ जाती थी तो 'उन लोगों` में से किसी को बुलाकर दिल की भड़ास निकाला करता था. . .गाली गलौज करता था और जवाब में हम सब यस सर, यस सर कहते रहते थे। सब जानते थे दस-पन्द्रह मिनट में थककर चला जायेगा या. . .”

“जो बात शुरू की थी वो तो रह ही गयी।”

“हां सच ये है कि औरतें मेरी कमज़ोरी है. . .और ये भी मेरी कमज़ोरी है कि मैं एक औरत के साथ लंबे अरसे नहीं रह सकता. . .और . . .”

“इतनी बड़ी और भयानक बातें इतनी जल्दी एक साथ न बोलो।” मैंने उससे कहा। शकील हंसने लगा।

“ये बताओ कि तुम राजदूत बन रहे हो न?” शकील ने पूछा।

“टेढ़ा सवाल है. . .देखो हमारी मिनिस्ट्री में जो सबसे पावरफुल लॉबी है वह चाहती है कि अब मुझे दिल्ली में सड़ा दिया जाये क्योंकि मेरी जगह उनका एक आदमी राजदूत बन जायेगा। हमारे सेक्रेटरी उन लोगों के दबाव में हैं. . .अब अगर पी.एम.ओ. और कैबनेट सेक्रेटरी दखल दें तो बात बन सकती है. . .मैंने शूज़ा चौहान से बात की है।”

“वाह क्या तगड़ा सोर्स लगाया है. . .वह तो आजकल कैबनेट सेक्रेटरी की गर्ल फ्रेण्ड है।”

“हां यही सोचकर उससे कहा है।”

“फिर?”

“वह तो एम.ई.ए. में भी बात कर सकती है।”

“नहीं उससे काम नहीं चलेगा. . .तुम लोग या और दूसरे लोग एम.ई.ए. के बारे में नहीं जानते. . .वहां अजीब तरह से काम होता है . . .क्योंकि पब्लिक डीलिंग नहीं है. . .प्रेस तक खबरें कम ही पहुंचती हैं इसलिए अजीब माहौल है. . .”

“कुछ बताओ न?” मैंने कहा।

“नहीं यार तुम प्रेस वाले हो।”

“तो तुम ये समझते हो कि मैं चाहूंगा तो स्टोरी छप जायेगी? ऐसी बात नहीं है मेरी जान. . .सरकार के खिलाफ हमारे यहां कुछ नहीं

या कम ही या नपा तुला छपता है।”

फ्तब तो बता सकता हूं।” वह हंसकर बोला, “तुमने जर्मनीदास की किताब महाराजा पढ़ी है?”

“हां।”

“बस उसे भूल जाओगे।”

“नहीं यार।”

“छोड़ो यार छोड़ो. . .ये तुम लोग कहां से लेकर बैठ गये। दिनभर यही सब सुनते-सुने कान पक गये हैं” शकील ने उकता कर कहा।

“तो तुम्हारे मंत्रालय में भी. . .”

“मेरे भाई कहां नहीं हैं. . .अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान. . .कहां 'करप्शन` नहीं है।

“तो उसके बारे में बात न की जाये?” मैंने कहा।

“जरूर करो. . .मैं चलता हूं. . .यार यहां मैं इसलिए नहीं आया हूं।” शकील बोला, “अहमद ने मुझे आंख मारी।”

“कबाब ठण्डे हो गये हैं।” अहमद ने कहा।

मैंने हांक लगाई “गुलशन. . .”

“तो राजी रतना को तुमने छोड़ दिया?” शकील ने अहमद से पूछा।

“नहीं उसने मुझे छोड़ दिया।”

“कैसे?”

“जब हम मास्को में थे तो एक बड़ी 'डील` जो मेरी वजह से ही मिली थी, राजी ने मुझे बाहर कर दिया था। पूरे पचास लाख का चूना लगाया था।” अहमद ने कहा।

मेरे अंदर ये सब सुनकर 'वहश्त` बढ़ने लगी। यार मैं इस दुनिया में इसलिए हूं कि शकील और अहमद जैसे लोगों की बकवास सुनता रहूं? मैंने अपने ऊपर कितनी ज्यादती की है। दसियों साल से मैं इनकी बकवास सुनता आया हूं। खामोश रहा हूं। पर और कर भी क्या सकता हूं? लेकिन कम से कम से मैं मजबूर तो नहीं हूं उनकी बकवास सुनने

के लिए? सुप्रिया अक्सर कहती है कि तुम इन दोनों को 'टालरेट` कैसे कर लेते हो? मैं पुरानी दोस्ती का हवाला देकर उसे चुप करा देता हूं लेकिन जानता हूं कि यह सही नहीं है। पता नहीं, मेरी क्या कमजोरी है जो मैं इन लोगों से अब तक जुड़ा हुआ हूं। अहमद तो फिर भी ब्यूरोक्रैट है लेकिन शकील अहमद अंसारी ये तो सत्ता का एक पहिया है जो करोड़ों इंसानों को कुचलती आगे बढ़ती चली जा रही है।

“क्या सोच रहे हो उस्ताद?” अहमद ने पूछा।

मैं चौंक गया। सोचा जो सोच रहा हूं सब कह दूं और ये खेल यहीं खत्म हो जाये। लेकिन नहीं। मैंने कहा, “कुछ नहीं यार. . .हीरा की याद आ गयी थी।”

“क्या कर रहा है हीरा?” शकील ने पूछा।

“एशिया पर कुछ रिसर्च का प्रोजेक्ट है।”

“बहुत अच्छा. . .तुम खुशनसीब हो यार. . .हीरा बहुत कामयाब होगा।” शकील ने कहा।

“कमाल का क्या हाल है?” अहमद ने पूछा।

“यार मेरे नक्शे कदम पर चल रहा है। जिला परिषद का चेयरमैन है, जिला सहकारी बैंक का अध्यक्ष है।”

रात घिर आई थी। चांदनी महक गयी थी। मैंने तय किया धीरे-धीरे इन दोनों से पीछा छुटाना है। क्या मैं इनसे अलग हूं? मैंने ऐसा क्या किया है?

“यार ये क्या है प्यारे? इतनी भी कंजूसी ठीक नहीं. . .तुमने खिड़कियों पर पर्दे अब नहीं लगाये हैं?”

मोहसिन टेढ़े हंसने लगा “नहीं यार कंजूसी नहीं. . .कसम खुदा की पर्दे तो रखे हैं. . .लेकिन बस. . .”

चाय लेकर मोहसिन टेढ़े की बीवी आ गयी। हम चाय पीने लगे।

“अच्छा गाड़ी का क्या हुआ? खरीद ली तुमने?”

मोहसिन टेढ़े फिर शर्मिन्दगी वाली हंसी हंसने लगा। उसकी बीवी के चेहरे पर पीड़ा के भाव आ गये।

मोहसिन टेढ़े की शादी को दस साल हो गये हैं। इस बीच उसकी अम्मां गुजर गयी हैं। खानदानी हवेली भी वह बेच चुका है और एक अंदाज़ के तहत उसके पास सत्तर अस्सी लाख रुपये हैं जिनका ब्याज आता है। गुड़गांव में एक और फ्लैट है जो किराये पर उठा दिया है।

शादी के बाद जब मैं एक बार उसके घर आया था तब भी घर में पर्दे नहीं थे। उसने कहा था यार देखो दिन में तो बाहर से कुछ नज़र नहीं आता। रात की बात है। तो रात मैं पहले बत्ती बंद कर देता हूं उसके बाद अपन लेटते हैं, मतलब यार छोटी-सी एहतियात से काम चल जाता है। वैसे पर्दे पांच हजार के लग रहे हैं। अब देखो यार लगवाते हैं,”

धीरे-धीरे उसकी बीवी मुझसे खुलने लगी थी और जब भी जाता था कोई न कोई मसला सामने आ जाता था। शादी के बाद बीवी को मायके भेजने में भी मोहसिन बड़ी कंजूसी करता था। बीवी जब तक दो-तीन दिन खाना नहीं छोड़ती थी। रो-रोकर अपना बुरा हाल नहीं कर लेती थी तब तक उसे लेकर उसके घर न जाता था।

“भाई साहब देखिये किचन का बल्ब पिछले दो महीने से फ्यूज है। अंधेरे में रोटी डालती हूं। हाथ जल जाता है।” उसने एक बार शिकायत की थी।

“यार मोहसिन तुम पैसा किसके लिए बचा रहे हो? तुम्हारे कोई औलाद है नहीं। ले देके एक बहन है जिनसे तुम्हारा मुकदमा चल रहा है. . .तुम्हारी सारी जायदाद उन्हीं को. . .”

“नहीं यार क़सम खुदा की मैं कंजूसी नहीं करता। यार बस बाज़ार जाना नहीं हो पाता।” वह बोला।

मैंने अपने ड्राइवर को भेजकर दो बल्ब मंगवाये और मोहसिन की पत्नी को दे दिए।

कभी वह शिकायत करती थी कि भाई साहब देखिए राशन पूरा नहीं पड़ता`` मोहसिन का ये कहना था कि यार सलमा बर्बादी बहुत करती है, रोटियाँ बच जाती है, दाल दो- दो दिन फ्रिज में पड़ी रहती है, फेंकी जाती है, और इफ़रात में आ जायेगा तो और बर्बादी होगी।

जैसे जैसे वक्त गुज़र रहा था मोहसिन टेढ़े के पैरों की तकलीफ बढ़ रही थी, वह अस्पताल के चक्कर लगाया करता था, कभी-कभी मुझसे भी सरकारी अस्पतालों में फोन कराता था। बीमारी के साथ- साथ उसकी कंजूसी भी बढ़ रही थी।

एक दिन उसने मुझसे कहा, “यार देखो, तुम्हें तो हर महीने तनख्वाह मिलती है न?”

“हां”

“मुझे नहीं मिलती।”

“अरे यार फ्लैट का किराया आता है. . .ब्याज आता है. . .ये क्या है?”

“साजिद. . .यार मुझे डर लगता रहता है कि मेरा पैसा यार ख़त्म हो जायेगा. . .यार फिर मैं क्या करूंगा।”

“तुम पागल हो।” मैंने कहा।

“सच बताओ यार।”

“तुमने पैसा 'इनवेस्ट` किया हुआ है. . .वहां से आमदनी होती है. . .अपने ऊपर भी खर्च न करोगे तो पैसे का फायदा?”

“हां यार बिल्कुल ठीक कहते हो।”

मोहसिन टेढ़े यह वाक्य कई सौ बार बोल चुका है लेकिन करता वही है जो उसका जी चाहता है।

रावत कुछ खुलकर तो नहीं बता रहा है लेकिन इतना अंदाज़ा लग गया है कि हालत गंभीर है।

“यार पहले तो मैं समझा कि ठीक है. . .मुझे नौकरशाही की कोई ट्रेनिंग नहीं है। मैं तो पत्रकार रहा हूं. . .इसलिए गल़तियां होती हैं . . . और फिर अंग्रेज़ी भी उतनी अच्छी नहीं है। फ़ाइल वर्क सारा अंग्रेजी में होता है. . .फिर सालों ने मुझे डरा भी दिया था। रावत साहब सरकारी काम है. . .ज़रा सा भी इधर से उधर हो जाता है तो जेल चला जाता है. . .नौकरी तो जाती ही है।”

“तुम्हारी उम्र दूसरे बराबर के अधिकारियों से कम है। तुम एस.टी. कोटे में हो, तरक्की भी जल्दी ही होगी। बहुत जल्दी वह अपने साथ के दूसरे अफसरों से बहुत आगे निकल जाओगे। असली खेल ये लगता है।” मैंने कहा।

“नहीं यार, ऐसा क्यों होगा?” नवीन बोला।

“है क्यों नहीं, कुलीन इस बात को पसंद क्यों करेंगे कि सत्ता उनके हाथ से निकलकर किसी 'ट्राइबल` के हाथ में जाये।”

“तुम भी तो कुलीन मुसलमान हो।” नवीन हंसकर बोला।

“हां ठीक कहते हो।” मैंने कहा।

“ये बातचीत कुछ ज्यादा ही निजी स्तर पर आ गयी।” सरयू बोला।

“चलो यार रावत को बताने दो।” मैंने कहा।

“देखो भाई हमारे तो ऐसे संस्कार हैं नहीं. . .तुम मेरे दोस्त हो . . .मैं कभी सोचता भी नहीं कि मुसलमान हो. . .जोशी ब्राह्मण है, ये कभी मेरे मन में आया ही नहीं. . .तो मैं ये सब नहीं सोचता लेकिन यहां मतलब मंत्रालय में. . . र वह रूक गया।

“कहो, कहो, इसमें छिपाने की क्या बात है।” सरयू बोला।

“देखो मेरे बॉस ने पहले मुझसे कहा कि आपको फाइल वर्क नहीं आता. . .आप सीख लें. . .मैंने सीख लिया. . .उसके बाद बोले, देखिए इंग्लिश में ही सब कुछ होता है. . .आपकी लैंग्वेज हिंदी रही है. . .खैर मैंने इंग्लिश नोटिंग सीखी. . .अब रोज कोई न कोई गल़ती निकाल देता है. . मैं फाइलों को विस्तार से पढ़ता हूं तो ये 'कमेण्ट` आ जाता है कि 'अनावश्यक देरी हो गयी` अगर ठीक से नहीं पढ़ता तो ये लिख देते हैं कि फाइल पढ़ी नहीं गयी। एक ही अफसर नहीं. . .मुझे तो लगता है सब के सब. . .” वह खामोश हो गया। पिछली नौकरी उसने छोड़ दी है। अब कोई और नौकरी मिलेगी नहीं। डायरेक्टर के पद पर वेतन अच्छा मिलता है। सरकारी मकान मिला हुआ है। लेकिन . . .

“देख यार मैं. . .जंगली हूं. . .मेरा पिता भेड़ियों से लड़ते हुए मर गया था. . .मैं साला आदमियों से लड़ते हुए नहीं मर सकता।” रावत गिलास खाली कर गया।

“यही प्राब्लम है. . .मध्यवर्गीय संस्कार नहीं है।” नवीन बड़बड़ाया जो रावत नहीं सुन सका।

पता नहीं ये मध्यवर्गीय संस्कार क्या होते हैं? क्या वही तो नहीं होते जो निगम साहब के हैं। उनके बारे में उड़ती-उड़ती खबरें आती हैं। अब तो लोग कहने लगे हैं कि निगम ने अपने पत्नी को राजाराम चौधरी की रखैल बना दिया है और दोनों हाथों से पैसा बटोर रहा है। शिमला मेंं फ्लैट खरीद रहा है। रामनगर में बड़ा-सा फार्म लिया है। अय्याशी में खूब पैसा उड़ा रहा है। हर शाम एक नयी लड़की के साथ गुजरती है। इस तरह शायद वह राजाराम चौधरी से बदला ले रहा है। दिखाना चाहता है कि वह घाटे में नहीं है। अगर उसकी पत्नी किसी की रखैल है तो वह हर रात एक नयी लड़की के साथ सोता है।

निगम कभी छटे-छमाहे मुझे फोन भी कर देता है और बड़े 'ऑफर` देता है। जैसे चलो यार जिम कार्बेट पार्क चलते हैं। 'लैण्ड क्रूसर` ले ली है मैंने, ड्राइवर है। मिनी बार साथ ले लेंगे। नमकीन वग़ैरा साथ होगा। पीते-पिलाते चलेंगे. . .रामनगर में बढ़िया खाना खायेंगे . . .अब इन साले एम.पी., एम.एल.ओ. ने वहां होटल डाल दिए हैं। सब फारेस्ट की लैण्ड पर बनाये हैं। कोई साला कहने सुनने वाला नहीं है। जंगल में घूमेंगे. . .सुबह-सुबह तुम्हें चीता दिखायेंगे. . .उसके इस तरह के आफरों को मैं टाल देता हूं।

(जारी क्रमशः अगले अंकों में...)

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: असग़र वजाहत का उपन्यास : गरजत बरसत (किश्त 5)
असग़र वजाहत का उपन्यास : गरजत बरसत (किश्त 5)
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