उपन्यास गरजत बरसत ----उपन्यास त्रयी का दूसरा भाग---- - -असग़र वजाहत पहला खण्ड ( पिछली किश्त से आगे पढ़ें...) .. व...
उपन्यास
गरजत बरसत
----उपन्यास त्रयी का दूसरा भाग---- -
-असग़र वजाहत
पहला खण्ड
(पिछली किश्त से आगे पढ़ें...)
..
वह भी चला गया तो क्या करोगे।` नवीन ने बुरा-सा मुंह बनाया। वह जब स्कूल में था तो उसे टी.वी. हो गयी थी और एक पूरा फेफड़ा निकाल दिया गया था।
'अरे यार कौन सा मैं 'इनहेल` करता हूं। तुम तो साले हर बात पर टोक देते हो।` नवीन ने कहा।
रात ग्यारह बजे तक मोहन सिंह प्लेस आबाद रहा फिर मैं घर आ गया। नूर टेलीविजन पर खबरें देख रही थी और गुलशनिया किचन में खाना पका रही थी। मुझे लगा चारों तरफ अमन-चैन है। सब कुछ ठीक है। कहीं न तो कुछ कमी है और न कहीं कुछ दरकार है। पता क्यों कभी-कभी कुछ क्षण अपनी बात खुद कहलवा लेते हैं उनमें चाहे जितना सच या झूठ हो।
जब से मैं कोठी में शिफ्ट हुआ हूं शकील दिल्ली में मेरे ही पास ठहरता है क्योंकि ग्राउण्ड फ्लोर पर बड़ा-सा गेस्टरूम है जो पूरी तरह ''इण्डेपेंनडेण्ट` है। आजकल शकील आया है। उसका 'मॉरल` कुछ गिरा हुआ जरूर है लेकिन फिर भी मजे में हैं। उसने पिछले एक साल में खासी कमाई कर ली है और अपने क्षेत्र में 'कोल्ड स्टोरेज` खोल लिया है। नूर उसे बहुत पसंद तो नहीं करती लेकिन चूंकि मेरा दोस्त है इसलिए सारी औपचारिकताएँ पूरी करती है।
'देखो, कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानमती का कुनबा जोड़ा . . . तुम्हें लगता ये सब चलेगा? मैं चैलेंज करता हूं साल छ: महीने के अंदर ही ये सब ढेर हो जायेंगे।` शकील ने कहा।
'हो सकता है तुम ठीक कह रहे हो. . .लेकिन इस वक्त जो हुआ वो अच्छा ही हुआ।`
'ये तुम अखबार वालों का सोचना है यार. . .बताओ क्या फ़र्क़ पड़ेगा।`
'अरे यार नेता जेल में बंद तो नहीं है।`
हम विस्की पीते रहे। गुलशन कबाब ले आया। कुछ देर बाद नूर भी आ गयी। वह किसी तरह का 'एलकोहल` नहीं लेती लेकिन पीना बुरा भी नहीं समझती। नूर के सामने शकील के अंदर और जोश आ गया।
“देख लेना यार सब ठीक हो जायेगा. . .” नूर यह सुनकर कुछ मुस्कुरा दी। शकील देख नहीं पाया।
“और सुनाओ. . .तुम्हारे बीवी बच्चे कैसे हैं?” मैंने बात बदलने के लिए सवाल पूछा।
“यार कमाल की पढ़ाई की तरफ से फिक्रमंद हूं. . .वहां कोई अच्छा स्कूल नहीं है।”
“छोटे शहरों में क्या अच्छा है?”
वह बात को टाल गया और बोला “यार मैं सोचता हूं कि कमाल का एडमीशन दिल्ली के किसी अच्छे स्कूल में करा दूं।”
“क्या उसे हॉस्टल में रखना चाहते हो?”
वह कुछ देर सोचता रहा फिर दाढ़ी खुजाते हुए बोला, 'यार मैं सोचता हूं दिल्ली आ जाऊं।`
“क्या मतलब?”
“मतलब दिल्ली में घर ले लूं।” उसने कहा, “वैसे भी महीने में दिल्ली के चार-पांच चक्कर लग जाते हैं।”
“चुनावक्षेत्र छोड़ दोगे?”
“चुनावक्षेत्र कहां भागा जा रहा है।”
“मतलब?”
“मतलब ये कि दिल्ली में ही सब कुछ होता है।” वह खामोश हो गया।
“क्या?”
“सब कुछ. . .टिकट यहीं से मिलते हैं। नेता यहीं से तय होते हैं। नीतियां यहीं से बनती हैं, बड़े-बड़े नेता यहीं रहते हैं। उनका दरबार यहीं लगता है. . .यहां जो फ़ैसले हो जाते हैं। उन्हें लागू किया जाता है देश में।” वह विश्वास से बोला।
“ओहो।”
“मेरा पन्द्रह साल का यही अनुभव है. . .जो लोग दिल्ली में हैं उन्हें फायदा पहुंचता है. . .जो दूर बैठे हैं. . .वो दूर ही रहते हैं।
“लेकिन तुम्हारा चुनाव क्षेत्र।”
“यार तुम क्या बात करते हो? चुनाव क्षेत्र है क्या? मुश्किल से पचास आदमी हैं जिनके हाथ में वोट हैं। उन पचास आदमियों को दिल्ली बैठकर आसानी से साध जा सकता है। सबके सालों के दिल्ली में काम पड़ते हैं। कोई हज पर जाना चाहता है, कोई अपने लड़के को दुबई में नौकरी दिलाना चाहता है, कोई आल इण्डिया मेडिकल इंस्टीट्यूट में ऑपरेशन कराना चाहता है. . .ये सब काम कहां होते हैं? दिल्ली में? और फिर क्षेत्र में मेरी उपस्थिति तो है ही है। मेरा घर है, मेरे बाग हैं, मेरा पेट्रोल पम्प है, मेरा कोल्ड स्टोरेज है, मेरी मार्केट है. . .और क्या चाहिए।”
“बेगम रहेंगी तुम्हारी दिल्ली।”
“अब ये उनकी मरज़ी . . .लगता तो नहीं।”
“तो यहां मज़े करोगे।”
वह दबी-दबी सी हंसी हंसने लगा।
मेरी हाथ में वार्ड नंबर और बेड नंबर की पर्ची है जो मुझे कल ही बाबा ने दी थी। उसे किसी ने मेरे लिए मैसेज दिया था कि अलीगढ़ से जावेद कमाल दिल्ली ले लाये गये हैं और अस्पताल में भर्ती है। होते हुआते आज चौथा दिन है। सोचा जावेद कमाल बीमार हैं। इलाज चल रहा है। उनके लिए कुछ फल वग़ैरा ही लेता चलूं। आश्रम के चौराहे से फल खरीदे और अस्पताल आ गया। बेमौसम की बारिश तो नहीं है लेकिन छींटे पड़ रहे हैं।
क्या आदमी है यार जावेद कमाल। मुझे अलीगढ़ में बिताये दिन याद आ गये। वे शामें याद आ गयीं जब जावेद कमाल की कैंटीन में महफ़िलें जमा करती थीं और वे अपने दोस्तों पर पानी की तरह पैसा बहाते थे। उनके शेर याद आ गये। उनकी दावतें याद आ गयीं। उनका फक्क़ड़पन और अकडूपन याद आ गया। रॉ सिल्क की शेरवानी, चौड़े पांयचे का पाजामा, सलीम शाही जूते, गेहुआँ रंग, लंबे सूखे बाल, बड़ी बड़ी रौशन आंखें, हाथों में पानों का बण्डल और विल्स फिल्टर सिगरेट की दो डिब्बियां. . .उनकी गलियां. ..रामपुर के लतीफ़े. . .फिर कैंटीन का बंद होना. . .उन्हें पी.आर.ओ. आफिस में क्लर्की करते देखना।
वार्डों के चक्कर लगाता रहा। पता नहीं सोलह नंबर का वार्ड कहां है। वैसे भी अस्पताल मुझे नर्वस कर देते हैं और यह विशाल काय सरकारी अस्पताल जहां हर तरफ गंदगी है, जहां गैलरियों में मरीज़ लेटे हैं, जहां गरीबी और भुखमरी अपने चरम पर दिखाई देती है, मुझे और ज्यादा नर्वस कर रहे हैं लेकिन वार्ड नंबर सोलह और बेड नंबर सात तक तो जाना ही है। वहीं चिर परिचित मुस्कुराहट आयेगी उनके चेहरे पर।
वार्ड के अंदर आ गया। लंबा चौड़ा हाल है जहां तीन तरफ मरीज भरे पड़े हैं। बेड नंबर कहां लिखे हैं? शायद नहीं है? या किसी ऐसी जगह लिखे हैं जो अस्पताल वालों को ही नज़र आते हैं। बहरहाल पूछता हुआ बेड नंबर सात पर पहुंचा देखा बेड खाली है। लगता है कहीं और शिफ्ट कर दिया है। मैं कुछ देर खाली बेड को देखता रहा। आसपास जो मरीज थे वे बता न सके कि जावेद कमाल को किस वार्ड में शिफ्ट किया गया है। कुछ देर बाद गुज़रती हुई नर्स से पूछा तो जवाब देने के लिए रुकी नहीं, चलते चलते बोली- 'ही एक्सपायरड यस्टर डे।`
मैं सन्नाटे में आ गया। जावेद कमाल कल मर गये। मर गये? कई बार अपने आपसे सवाल किया। जवाब नहीं आया कि मर गये। मैं खाली बेड को देखता रहा। मर गये जावेद कमाल? मुझे देर हो गयी। मैं बेड को देखता रहा। वहां कुछ न था। गंदे से गद्दे पर गंदी सी चादर बिछी थी जिसमें इधर-उधर कई धब्बे और छेद थे। मैं धीरे-धीरे आगे बढ़ा। हाथ में फल वाला बैग था उसे बेड के नीचे सिरहाने की तरफ रख दिया। इससे पहले कि आसपास वाले मुझसे कुछ पूछते मैं तेज़ी से बाहर निकल गया। अब भी फुहार पड़ रही थी। पूरा शहर गीला-गीला हो रहा था। मेरी आंखों मेंं आंसू आ गये। मैं अपने आपको कन्विंस नहीं कर पाया कि जावेद कमाल मर गये हैं। यार जावेद कमाल जैसा आदमी कैसे मर सकता है? जो यारों का यार हो, जो मनमौजी और मस्त हो, जो जिंदगी की हर खूबसूरत चीज़ से प्यार करता हो, जो लतीफ़ों का बादशाह हो, जो गालियों का एक्सपर्ट हो वो मर कैसे सकता है. . .मैंने आंखों से आंसू पोंछे. . .नहीं, जावेद कमाल मरे नहीं. . .शायर कभी नहीं मरते
. . . दोस्त कभी नहीं मरते. . .और वो भी जावेद कमाल जैसे दोस्त . . . जो आन-बान से रहते हों, जो दोस्तों के लिए कभी इतना-इतना झुक जाते हों कि जमीन को चूम लें और दुश्मनों के लिए सीना तानकर इस तरह खड़े हो जाते हों कि सिर बादलों से टकराने लगे. . .वो मर कैसे सकते हैं. . .चांदनी रातें. . .कच्ची पगडण्डियां, हवा के झोंके, ओस की बूंद, गुलाब के फूल मर कैसे सकते हैं. . .अब मैं रोने लगा. . . अस्पताल के बाहर शायद बहुत लोग ये करते होंगे. . .किसी ने तवज्जो नहीं दी. . .मुझे यकीन है जावेद कमाल नहीं मरे. . .दुनिया झूठ बोलती है. . .
----१३----
सरयू जेल से छूटते ही घर चला गया। वापस तब भी किसी से नहीं मिला। बस उड़ी-उड़ी बातें सुनने में आती रही। ये भी पता नहीं चला कि वह कहां नौकरी कर रहा है क्योंकि उसका अख़बार तो बंद हो ही चुका था। मैंने नवीन जोशी, रावत और मोहसिन टेढ़े ने सोचा कि सरयू से चलकर मिला जाये। हम रावत के नेतृत्व में क्योंकि रावत का नेतृत्व करने का सबसे ज्यादा शौक है, सरयू के कमरे पहुंचे। वह कमरे पर ही था मिल गया। हम सब को एक साथ देखकर उसके चेहरे पर अजीब से भाव आये कि पता नहीं। उसे खुश होना चाहिए या कुछ और महसूस करना चाहिए।
उसने विस्तार से अट्ठारह महीने का लेखा-जोखा दिया। सबसे अहम बात तो यही बताई कि अमरेश जी अपने बयान में साफ-साफ कहा था कि अखबार में केवल उनका नाम संपादक के तौर पर जाता था लेकिन उसमें जो भी छपता था उसका निर्णय सरयू डोभाल लेते थे। मतलब यह कि असली अपराधी वही है। इसके बाद सरयू का कहना था कि जेल में उसे पार्टी की तरफ से कोई मदद नहीं मिली। अगर उसके साथ आर.एस.एस. के लोग न होते तो वह शायद मर जाता। मुझे यह डर लगने लगा कि सरयू कहीं आर.एस.एस. में न चला जाये। लेकिन मैं खामोश रहा। सरयू बताता रहा कि तिहाड़ में दूसरे समाजवादी कैदी आराम से थे। उनके पास पैसा भी था, उनकी जरूरतें भी पूरी होती थी और जेलवाले भी उनसे कुछ डरते थे क्योंकि उनके पीछे राजनैतिक ताकत थी। मुझे पार्टी ने कुछ नहीं समझा क्योंकि शायद मैं उनका मेम्बर
नहीं हूं लेकिन उनके अखबार का पत्रकार था। डिसूजा इसके मालिक थे। अमरेश जी प्रधन संपादक थे और इस अखबार के काम करने की वजह से ही गिरफ्तार किया गया था। क्या पार्टी की यह जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि मेरा भी ध्यान रखा जाये? सब जानते हैं विक्टर के पास पैसे की कमी नहीं है, साधनों की कमी नहीं है।``
“और अब तो वह मिनिस्टर है।” रावत ने कहा।
“इन लोगों की तरफ से मैं बहुत निराश हुआ, दुखी हुआ, अपमानित महसूस किया मैंने. . .मुझे यार आर.एस.एस. वाले तौलिया साबुन दिया करते थे. . .यार. . .
“सरयू कहीं तुम आर.एस.एस. तो नहीं ज्वाइन कर लोगे?” मैंने पूछ ही लिया।
“आर.एस.एस. ज्वाइन करने की मेरी उम्र निकल गयी।” वह हंसकर बोला, देख निजी तौर पर, व्यक्तिगत स्तर पर मुझे वे अच्छे लोग लगे। सामाजिक स्तर पर, राजनैतिक स्तर पर मैं उनसे सहमत नहीं हो सकता. . .बल्कि हो सकता है मैं जेल के अनुभवों के आधार पर आर.एस.एस. पर किताब लिखूँ. . .वैसे मैंने ये कुछ कविताएं लिखी है कहो तो सुनाऊं।”
सरयू ने कविताएं सुनाईं तो सन्नाटा गहरा हो गया। बिल्कुल अलग ढंग की बड़ी सशक्त और मार्मिक कविताएं लिखी थी उसने।
“इन कविताओं के छपते ही तुम हिंदी के प्रमुख कवियों में. . .” रावत ने कहा।
“अरे छोड़ो यार।”
“नहीं, कविताएं बहुत ज्यादा अच्छी हैं. . .आज हिंदी में कोई ऐसा नहीं लिख रहा।” नवीन ने कहा।
इसके बाद नवीन ने भी अपनी कुछ नयी कविताएं सुनायीं। देर तक हर सरयू के यहां बैठे रहे। सरयू ने बताया कि उसकी बात 'नया भारत` में चल रही है, हो सकता है वहां नौकरी लग जाये।
वापसी पर मैं मोहसिन टेढ़े को अपने साथ लेता आया। ये हम दोनों के लिए अच्छा है। उसे घर का पका खाना मिल जाता है। नूर उससे गप्प शप्प कर लेती है। उसे मोहसिन टेढ़े के कुछ अंदाज जैसे छोटी-छोटी बातों पर बेहद आश्चर्य व्यक्त करना आदि पसंद आते हैं क्योंकि वह उनके नकलीपन को पहचान लेती है। मोहसिन टेढ़ा उससे योरोप के बारे में सैकड़ों सवाल करता है। नूर थोड़ी बहुत फ्रेंच भी जानती है और मोहसिन को गाइड करती रहती है कि यहां से डिप्लोमा करने के बाद उसे फ्रांस की किस यूनीवर्सिटी में जाना चाहिए।
मोहसिन टेढ़ा नूर को अपनी जायदाद के झगड़ों, अपने अकेले होने, जायदाद बेचकर दिल्ली शिफ्ट हो जाने के इरादों, अपनी पोलियो की बीमारी वगै़रा के बारे में बताता रहता है। नूर हिन्दुस्तानी तेजी से सीखी है और अब वह अंग्रेज़ी की बैसाखी के सहारे नहीं है। उसकी सबसे बड़ी टीचर है गुलशनिया यानी गुलशन की बीवी जो हम लोगों के साथ ही रहते हैं। इस कोठी में आने के बाद अब्बा ने गांव से गुलशन को यहां भेज दिया था।
मैं ये समझ रहा था कि शायद नूर को दिल्ली ममें 'एडजस्ट` करना मुश्किल होगा। लेकिन वह बड़े आराम से रहने लगी। पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन सेंटर में उसे नौकरी मिल गयी है। वहां अपने काम से खुश है। सुबह मैं उसे आफिस छोड़ता हूं। शाम कभी-कभी जब मुझे कहीं जाना होता है तो स्कूटर करके घर आ जाती है। बिल्कुल सीधी-साधी सामान्य और निश्चिंत जिंदगी जी रही है। दिन में एक बार लंदन फोन करना नहीं छुटा है। जब तक वह ममी से पन्द्रह मिनट बात नहीं कर लेती तब तक खाना हज़म नहीं होता।
आफिस पहुंचा तो हसन साहब ने बताया कि मेरी तलबी हुई है। ब्यूरो चीफ़ ने मुझे बुलाया है।
“क्या मामला हो सकता है हसन भाई, अब तो दूसरी आजादी का जश्न भी मनाया जा चुका है।”
“टोटल रेवोल्यूशन` आ गया है. . .फिर भी हो सकता है कहीं दुम फंसी रह गयी हो. . .जाओ देखो क्या कहते हैं”, वे बोले।
सक्सेना साहब के विशाल कमरे में पहुंचा तो पता चला कि वे एडीटर इन चीफ के पास हैं और मैं कुछ देर बात आऊं। इधर-उधर देखा तो सबिंग में सुप्रिया दिखाई दे गयी। मैं उसके पास आ गया। उसके चेहरे पर वही उदासी थी। उसने बताया कि उसके भाइयों कोमल और सुकुमार का अभी तक कोई पता नहीं चला है और वह कलकत्ता जा रही है। हम दोनों कुछ देर तक पश्चिम बंगाल के आतंक की चर्चा करते रहे। थोड़ी देर बाद, उसे दिलासा देने के बाद मैं उठा तो उसके हाथ पर मैंने एक क्षण के लिए अपना हाथ रख दिया। वह मुस्कुरा दी। फीकी सी मुस्कुराहट।
सक्सेना साहब हैं तो ब्यूरो चीफ लेकिन माना जाता है कि मैनेजमेण्ट की नाक का बाल हैं और कभी-कभी एडीटर-इन-चीफ के ऊपर भी हावी हो जाते हैं। उन्होंने मुझसे बैठने के लिए और एक दो काग़जों पर दस्तख़त करके बोले “पिछले साल तुमने अलीगढ़, संभल वगै़रा पर जो रिपोर्ट की थी वो मैंने पढ़ी हैं।”
“जी।”
“काफी संवेदना है तुम्हारे लेखन में. . .इमोशन्स का भी अच्छा इस्तेमाल करते हो।”
मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह भूमिका क्यों बांधी जा रही है। कुछ देर के बाद वे नुक्ते पर आ गये। देखो पार्लियामेंट बंधुआ मज़दूर वाले मसले पर बहुत सीरियल है। हम पर यह इल्जाम तो है ही है कि हम 'अर्बन` हैं। हमारे यहां गांव के बारे में कुछ नहीं छपता या कम छपता है. . .अब सारे अखबार बंधुवा मज़दूरों पर छापें ओर हम ख़ामोश रहें यह भी नहीं हो सकता. . .तुम्हें इस तरह की रिपोर्टिंग में दिलचस्पी भी है”, वे बोलते-बोलते रुक गये। आदेश नहीं देना चाहते थे। पहले यह जानना चाहते थे कि मुझ्रे कितनी रुचि है।
“लेकिन हसन साहब. . .मैं तो. . .”
“उनसे बात हो गयी है. . .हम तुम्हें ब्यूरो मे ले लेंगे. . .तुम्हें तो कोई. . .?”
“जी नहीं, मैं तो ये काम खुशी खुशी करूंगा।”
मैंने 'हां` कर दी थी लेकिन एक सवाल मेरे दिमाग की दीवारों से टकराता रहा। अगर पार्लियामेण्ट में 'कुलक लॉबी` और 'उद्योग लॉबी` के बीच टकराव की स्थिति न होती तो क्या बधुआ मज़दूर मुद्दा आज भी उसी तरह दबा न पड़ा रहता जैसे आज़ादी के बाद से लेकर आज तक दबा पड़ा था? क्या इसका मतलब यह हुआ कि मुद्दे भी 'दिए` जाते हैं? कौन देता है? वे लोग जो सत्ता संघर्ष में या सत्ता बनाये रखने की कोशिश में लगे हुए हैं? क्या इसका यह मतलब हुआ कि मुद्दे या तो वास्तविक मुद्दे नहीं होते या उनको उठाने वालों का उद्देश्य मुद्दा विशेष नहीं बल्कि कुछ और होता है। कभी-कभी कुछ मुद्दे इसलिए भी उठाये जाते हैं कि वास्तविक मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाना जा सका। लेकिन इतना तय है कि बंधुआ मज़दूरी का मुद्दा ग्रामीण जीवन के शोषण की 'हाईलाइट` करेगा।
सक्सेना साहब ने जो नाम और फोन नंबर दिया था वहां फोन किया तो “फौरन डॉ. आर.एन. सागर से बात हो गयी। उन्होंने बताया कि 'रुरल इंस्टीट्यूट` की टीम अगले सप्ताह पूर्णिया जा रही है और मैं उस टीम के साथ जाना चाहूं तो जा सकता हूं। अगले दिन मैं इंस्टीट्यूट पहुंच गया। यहां डॉ. आर. एन. सागर से मिलना था। वे अभी तक आये नहीं थे। मैं इंतिज़ार करने लगा। कुछ देर बाद आये तो कई अर्थों में बहुत अजीब लगे। दिन का ग्यारह बजा था लेकिन यह लगता था कि डॉ. सागर के लिए रात के आठ का समय है क्योंकि वे 'महक` रहे थे। उसके विशाल सिर पर ढेर सारे बाल और चेहरे पर कार्ल मार्क्स कट फहराती हुई दाढ़ी थी। बंद गले का काला कोट और पतलून पहने थे पर कपड़े उनके शरीर पर ऐसे लग रहे थे जैसे यह शरीर इस तरह के कपड़ों के लिए बना ही नहीं। कुछ ही देर में उन्होंने बंधुआ मज़दूर सर्वेक्षण के बारे में दुर्लभ जानकारियां दी। यह साबित होते देर नहीं लगी कि डॉ. सागर न सिर्फ विषय के विशेषज्ञ हैं बल्कि बहुत पढ़े लिखे और सोचने समझने वाले, मौलिक किस्म के आदमी हैं। उन्होंने मुझे चाय पिलाई और खुद पानी पीते रहे क्योंकि जाड़े के इस मौसम में भी उन्हें खूब पसीना आ रहा था और रुमाल से अपना माथा पोछ रहे थे।
एयरपोर्ट पर ही पता चला कि पूर्णिया जाने वाली टीम में सरयू भी 'नया भारत` की तरफ से जा रहा है। अब चूंकि मेरा काफी हाउस जाना छूट गया था इसलिए सरयू से मुलाकात ही न होती थी। एयरपोर्ट पर उसे देखकर खुश हो गया क्योंकि इतने सालों बाद उसके साथ कुछ समय बिता सकूंगा और अपने पुराने साहित्यिक मित्रों के बारे में जानकारियां मिलेंगीं। सरयू जब भी मिलता है यह शिकायत करता है कि मैंने कहानियां लिखना क्यों बंद कर दिया है। मेरे पास इसका सवाल का कोई जवाब नहीं है। पत्रकारिता का काम सोख लेता है लेकिन दूसरे पत्रकार भी तो लिखते हैं? फिर भी शायद यह लगता है कि मैं जैसा लिखना चाहता था वैसा लिख नहीं सकूंगा या लंबे अंतराल के बाद आत्मविश्वास डिग जाता है या दूसरे तो कहां के कहां निकल गये और मैं यही रह गया। मैं उस दौड़ में क्या शामिल होऊं? बहरहाल सरयू ने एयरपोर्ट पर चाय पीते हुए फिर यही से बात शुरू की और कहा कि यार तुमने कहानियां लिखनी क्यों बंद कर दिया है। मैंने सवाल को टालते हुए पुराना जवाब दिया कि यार टाइम ही नहीं मिल पाता, ये अखबार का काम बड़ा जानलेवा होता है।
सरयू सागर साहब को पहले से जानता है। उसने जो जानकारियां दीं उनसे सागर साहब की नामुकम्मल तस्वीर पूरी हो गयी। सरयू ने बताया “दरअसल सागर साहब स्वयं एक बंधुआ मज़दूर परिवार में पैदा हुए थे। सागर उन्होंने उपनाम रखा था कि किसी ज़माने में कविताएं लिखा करते थे। वे पता नहीं कैसे गांव के स्कूल में पहुंच गये थे। उसके बाद तो उन्होंने कभी पीछे नहीं देखा। सरयू ने बताया यार जीनियस हैं सागर साहब. . .तुम सोचो मूल जर्मन में 'दास कैपिटल` पर इनकी टीका बर्लिन विश्वविद्यालय ने छापी है। इनके जैसा पढ़ा लिखा और मौलिक सोच रखने वाला यार मैंने तो आजकल देखा नहीं।”
किसी के बारे में कुछ सुनकर न प्रभावित होने वाली प्रवृत्ति के कारण मैंने इन बातों का कोई नोटिस नहीं लिया और सोचा खुद ही पता चल जायेगा सागर साहब क्या है?
यह 'हापिंग` “लाइट है दिल्ली से लखनऊ और फिर पटना और फिर रांची जहां हमें दो दिन रुकना है ताकि 'रीजनल रुरल डवलप्मेंट इंस्टीट्यूट` में 'लैण्ड रेवेन्यु` रिकार्ड देख लें। उसके बाद पूर्णिया जाना है। हापिंग “लाइट बड़े मज़े से लखनऊ में दो घण्टे के लिए खड़ी हो गयी। यही हरकत उसने पटना में भी की। लेकिन मैं और सरयू बेफिक्र थे कि सालों बाद मिले हैं और बातचीत करने का मौका मिल रहा है।
- “यार तुम्हें मालूम है अमरेश जी का क्या हुआ?”
- “कौन अमरेश जी?”
- “यार वही. .कभी कभी काफी हाउस भी आते थे. . .जार्ज मैथ्यू के दोस्त. . .
- “हां हां याद आ गया। बताओ क्या हुआ?”
- “यार कुछ समय में नहीं आता क्या हो रहा है। अभी पिछले महीने मुझे अमरेश जी से मिलना था। मैं उनसे मिले डिफेन्स कालोनी डी-१३ में पहुंचा और सीधे सर्वेण्ट क्वार्टर पहुंच गया। क्योंकि अमरेश जी इससे पहले कोठियों के सर्वेण्ट क्वार्टरों में ही किराये पर रहा करता थे। पर कोई हमें मुख्य कोठी में ले गया। यार अमरेश जी ने वह कोठी खरीद ली है। क्या कोठी है यार. . .और डियर क्या लायब्रेरी बनाई है. . .लाखों रुपये की तो किताबें हैं. . .हर चीज़ 'टाप` की है. . .
- “ये सब हुआ कैसे?”
- “यार बताते हैं कि किसी डील में जार्ज मैथ्यू ने कई सौ करोड़ बनाये हैं और इस डील में अमरेश जी भी साथ थे. .अब बताओ यार मैं तो ये सब देखकर भी यक़ीन नहीं कर सकता।” वह बताते बताते शरमाने लगा।
- “जार्ज मैथ्यू की तो समाजवादी छवि है. . .ट्रेड यूनियन बैक ग्राउण्ड है. . .
- “यही तो हैरत है यार. . .”
- “हैरत करने का ज़माना चला गया प्यारे. . .”
- “अच्छा और सुनो. . .कामरेड सी.सी. कनाडा में जाकर बस गये हैं।”
- “क्या अमित के साथ वो भी गये?”
- “हां. . .कहते हैं उन्होंने जेल में माफी मांग ली थी. . .उनके भाई कनाड़ा से आये थे और उन्हें अपने साथ ले गये।”
- “ओर सुनो भुवन पंत. . .उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का पी.एस. हो गया है।”
- “वही जो सब को डांटता था और अपने को सबसे बड़ा क्रांतिकारी समझता था।”
- “हां वही।”
- “तो यार तुम्हारे सब नक्सलवादी वाले ऐसे ही निकले।”
- “नहीं यार. . .” वह बुरा मानकर बोला जो लोग काम करते हैं वो तो जंगलों में हैं. . .उन्हें क्या मतलब है काफी हाउस या शहरों से. . .ऐसे हज़ारों हैं. . .
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''रांची में ज़मीन खरीद-फ़रोख्त के रिकार्ड देखिए तो आपको हक़ीकत का पता चल जायेगा।” सागर साहब ने हमें एक मोटा-पोथा थमा दिया।
“ये जो आप रांची शहर देख रहे हैं यह आदिवासियों की ज़मीन पर बसा है। आज यह करोड़ों रुपये की ज़मीन है. . .लेकिन यह किस तरह, कितना पैसा देकर खरीदी गयी है, ये रिकार्ड बतायेगा. . .कहीं कहीं . . .ज़मीन खरीदने वालों के नाम नहीं दिए गये हैं. .क्योंकि वे लोग इतने असरदार. . .इतने बड़े. . .इतने सम्मानित हैं कि चोरों की सूची में उनका नाम दर्ज करने की हिम्मत यहां किसी को नहीं है। ये देखिए. ..पांच एकड़ ज़मीन. . .सौ रुपये में बिकी. . .ये देखिए दो एकड़ जमीन. . .दस रुपये में. . .ये कहानियां नहीं हैं. . .लैण्ड रिकार्ड है. . .अगर चाहें तो मूल बैनामे भी देख सकते हैं।”
हम हैरत से रिकार्ड देखने लगे। पता लगने लगा कि देश के अंदर कितने देश हैं। देश किसका है और विदेशी कौन है?
- “हमने इन आदिवासियों के साथ वही किया है जो अमरीकी में 'रेड इण्डियन्स` के साथ किया गया था। पर इस देश में कोई यह मानता नहीं क्योंकि जिनके पास यह मानने का अधिकार है उन्होंने ही यह
अपराध किया है। आज वे सब आदिवासी बंधुआ हैं जिनके पास कल तक ज़मीन थी। उन्हें यह सज़ा क्यों मिली है? क्या इसलिए कि वे हमसे ज्यादा चतुर नहीं हैं?”
रांची में हमारी मुलाकात लेबर कमिश्नर से हुई और एक और आश्चर्य का पहाड़ टूट पड़ा।
कभी-कभी महज़ इत्तफ़ाक़ से कुछ ऐसे लोग ऐसी जगह पहुंच जाते हैं कि उन्हें वहां देखकर हैरानी होती है। लेबर कमिश्नर विनय टण्डन भी ऐसे ही आदमी हैं। उन्हें देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि वे आई.ए.एस. होंगे। उलझे-उलझे से बेतरतीब बाल, लंबा पतला चेहरा, गहरी आंखें जिन पर मोटा चश्मा, बहुत मामूली सीधी-सीधी कमीज़ पैण्ट और पैरों में सस्ती किस्म की चप्पल। हमें बताया गया कि विनय टंडन 'सिंगिल` है मतलब अविवाहित हैं। अपना खाना खुद पकाते हैं और अपने कपड़े भी खुद धोते हैं। आफिस ठीक साढ़े नौ बजे आते हैं और शाम छ: बजे जाते हैं। सरकारी गाड़ी सिर्फ दफ्तर लाती ले जाती है। अपने निजी आने-जाने के लिए वे रिक्शे का सहारा लेते हैं। विनय टण्डन को काफी लोग पागल कहते हैं। कुछ सिड़ी, सनकी, दीवाना कुछ घमण्डी और कुछ मूर्ख बताते हैं।
सुबह हम लोग तीन जीपों पर बंधुआ मज़दूरों का पता लगाने निकले। बहुत जल्दी ही डामर वाली सड़क ख़त्म हो गयी और कच्ची धूल उड़ाती पगडण्डियों जैसी सड़कों पर गाड़ी आ गयी। दो ही एक घंटे के अंदर पूरे चेहरे, हाथों और कपड़ों पर धूल की एक गहरी परत जम गयी। रास्ते के धचकों से कमर की ऐसी तैसी हो गयी। दरअसल रास्ते और क्षेत्र की दिक्कतों को छोड़कर हमारा काम आसान था। हम खेतिहर मज़दूरों से यह पूछते थे कि क्या उन्हें एक जगह से काम छोड़कर दूसरी जगह काम करने की आज़ादी है? यदि उत्तर 'हां` में मिलता था तो बंधुआ मज़दूर नहीं हैं ओर नहीं में मिलता था तो है। उसके बारे दूसरे सवाल भी थे। पूरा परिवार बंधुआ है? कितने समय या कितनी पीढ़ियों से बंधुआ है। क्या पैसा मिलता है? कितना अनाज या जोतने के लिए ज़मीन मिलती है. . .वगैऱा वगै़रा. . .हमें यह भी बताया गया था कि कोई
कमिश्नर 'रैंक` का आदमी कभी इस तरह के सर्वेक्षणों में नहीं जाता लेकिन विनय टण्डन के चेहरे पर ज़रा भी उकताहट कभी नज़र नहीं नहीं पड़ती थी। इन सवालों के साथ बंधुआ मज़दूरों से यह सवाल भी पूछा जाता था कि क्या साल भर खाने को अनाज हो जाता है? इसके उत्तर में आमतौर पर वे बताते थे कि दो-एक महीने जंगली पेड़ों की जड़े खाकर गुज़ारा करना पड़ता है।
मैं और सरयू बंधुआ मज़दूरों के झोपड़े नुमा घरों में जाते थे। पूरे घर में जो कुछ भी दिखाई देता था। उस सबको अगर जमा करके बाज़ार में बेचा जाये तो कोई दो रुपये का भी नहीं खरीदेगा, यह हमारी पक्की राय बनी थी। कुछ चटाइयां, चीथड़े हुए कपड़े, मिट्टी के बर्तन, मिट्टी का दिया और मुश्किल से एक टीन का कनस्तर ही दिखाई पड़ते थे। दूसरी तरफ बड़े-बड़े फार्म थे जिनमें पचास हज़ार एकड़ जमीन थी। दो हज़ार एकड़ भगवान के नाम. . .हज़ार एकड़ कुत्ते के नाम. . .इसी तरह ज़मीन पर कब्जा बनाया गया था।
एक दिन कई गांवों का चक्कर काटकर एक दिन हमारा कारवां एक कस्बे के बी.डी.ओ. कार्यालय जा रहा था। हम रास्ते में ही थे कि एक मामूली और गरीब किसान ने हाथ देकर जीप को रुकने का इशारा किया। इस जीप पर विनय टण्डन बैठे थे। उन्होंने “फौरन ड्राइवर से कहा कि जीप रोको। जीप रुकी तो पीछे वाली जीपें भी रुक गयीं और हम लोग जीप से उतर पड़े। यह गरीब किसान बता रहा था कि कस्बे के सिनेमा हाल के मालिक ने उसके लड़के के साथ मारपीट की है और थाने वाले उसकी रपट नहीं लिख रहे हैं। विनय टण्डन ने उस किसान को “फौरन अपनी जीप में बैठा लिया। ब्लाक ऑफिस में बी.डी.ओ. शायद विनय टण्डन को भी दिल्ली से आये कोई शोधकर्ता समझे। टंडन जी ने खाये पिये मोटे और ताज़े देखने में राशी लगने वाले बी.डी.ओ. से कहा कि वे इस किसान को थाने ले जायें और एफ.आई.आर. दर्ज करा दें। इसके बाद हमने वे जानकारियां लीं जो लेना थीं और चाय पानी के बाद आगे बढ़े। कुछ ही दूर गये होंगे कि एक जीप खराब हो गयी। यह तय पाया कि लौटकर ब्लाक ऑफिस चला जाये और वहां से जीप ली
जाये ताकि आगे का कार्यक्रम पूरा हो सके।
हम लौटकर ब्लाक ऑफिस की तरफ जा रहे थे तो फिर वही किसान रास्ते में मिल गया। उसने फिर हाथ दिया और टण्डन जी ने फिर जीप रुकवा दी। किसान ने बताया कि बी.डी.ओ. साहब ने थानेदार के नाम पर्चा लिख कर दिया था लेकिन थाने में फिर भी रपट नहीं लिखी गयी। टण्डन जी ने फिर उसे जीप में बैठा लिया।
बी.डी.ओ. बरात को बिदा करके सो गये थे कि उन्हें पता चला फिर सब आ गये हैं। बी.डी.ओ. को देखते ही टण्डन जी ने कहा मैंने आपको आदेश किया था कि थाने जाकर इस आदमी की एफ.आई.आर. लिखा दीजिए। आपने आदेश का पालन क्यों नहीं किया?”
आदेश शब्द सुनते ही बी.डी.ओ. के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी। जाहिर है कि इस शब्द के प्रयोग का अधिकार सरकारी अधिकारियों को ही है। वे गिड़गिड़ाने लगे. . .सर सर . . .मैंने पर्चा. . . ।
“यह तो आदेश नहीं था कि आप पर्चा लिखकर दें. . .आपने आदेश का पालन नहीं किया है और मैं चाहूं तो आपको अभी सस्पेण्ड कर सकता हूं।”
अब तो बी.डी.ओ. का भारी भरकम शरीर लोच खाकर ज़मीन से आ लगा।
''आप सुबह इसके साथ थाने जाइये। रपट लिखवाइये। रहट की कापी लेकर कल ग्यारह बजे तक सर्किट हाउस आइये. . .और मुझे दिखाइये।”
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सर्किट हाउस में रोज़ रात का खाना खाने के बाद पीछे वाले बरामदे में सब बैठ जाते थे। विनय टण्डन और सागर साहब आदिवासी समस्या और बंधुआ मज़दूरी के विषय में बातचीत करते थे। हम चार पांच लोगों का काम सवाल पूछना था। विनय टण्डन सारी उम्र आदिवासी इलाकों में ही रहे हैं। उन्होंने बताया कि मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में एक समय था कि जब आदिवासियों को कपड़े के दुकानदार चारों तरफ से
नाप कर कपड़ा देते थे। लंबाई चार गज़ और चौड़ाई एक गज़ इधर से . . .एक गज़ उधर से। उन्होंने बताया कि पटवारी आदिवासी क्षेत्रों में जाने वाला सबसे बड़ा अधिकारी हुआ करता था। वह मौका मुआयना करने इस तरह जाता था कि चारपाई पर बैठ जाता था और आदिवासी चारपाई अपने कंधें पर उठाये-उठाये उसे खेत-खेत ले जाकर मौका मोआयना कराते थे। एक पटवारी रेडियो का शौकीन था और अपने साथ रेडियो भी ले जाता था। चारपाई पर वह खुद बैठता था। एक आदमी सिर पर रेडियो उठाता था। दूसरा बैटरी उठाता था। दो लोग बांस में बंधे एरियल उठाते थे और इस तरह मौका मोआयना होता था। जब कभी पटवारी का दिल चाहता था वह रेडियो बजाने लगता था। रात में पूरा गांव चंदा करके उसे अच्छा-से-अच्छा खाना खिलाता थे। लेकिन पटवारी कोई बहाना बनाकर खाना नहीं खाता था। जैसे रोटियां जल गयी हैं या मुर्गे में नमक ज्य़ादा हो गया है। उसके खाना न खाने से पूरा गांव डर जाया करता था और हाथ जोड़ता था कि पटवारी खाना खा लें। पटवारी के खाना न खाने से उन्हें कितना नुकसान होगा इसकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे। पटवारी कहता था ठीक है मैं बीस रुपये लूंगा तब खाना खाऊंगा। वे किसी न किसी तरह उसे रुपये देते थे और तब वह खाना खाता था।
सागर साहब ने बताया कि छोटा नागपुर के आदिवासी क्षेत्रों में सूद पर पैसा देना संसार का सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाला और सुरक्षित व्यवसाय है। इतना ब्याज संसार में और कहां मिल सकता है। उन्होंने ने बताया कि एक आदिवासी ने किसी तरह सूद समेत अपना सारा कर्जा चुका दिया। महाजन ने आदिवासी से कहा कि आज तो तुम बड़े खुश होंगे कि सारा कर्जा चुका दिया है। उसने कहा- 'हां महाराज बहुत खुश हूं।` साहूकार बोला- 'तो मुंह मीठा कराओ।` वह बोला- 'महाराज अब मेरे पास एक पैसा नहीं है।` साहूकार ने कहा- 'अच्छा अगर तुम्हारे पास पैसा होता तो कितने पैसे से मुंह मीठा करा देते।` उसने कहा- 'महाराज चार आने से करा देता।` साहूकार ने कहा- 'ठीक है. . .चार आने तुम्हारे
नाम खाते में चढ़ाये लेता हूं।`
“आदिवासियों की दुनिया अलग है। इतना सहयोग है उस दुनिया में कि आप उसकी कल्पना नहीं कर सकते। उनके ऊपर हमने अपनी दुनिया लाद दी है। छल, कपट, लालच और हिंसा की दुनिया के नीचे ये पिस गये हैं अब न तो जंगल हैं जो इनके पेट भरते थे, न नदियों में पानी है जहां से इनकी सौ ज़रूरतें पूरी होती थीं। विकास के नाम पर इन्हें हमें लालची और झूठा-मक्कार बना दिया है। भाई ये तो हर तरफ से मारे गये हैं. . .अब शहर में जाकर मज़दूरी के अलावा क्या चारा है? एक ज़माने के गर्वीले आदिवासी जिन्होंने बड़े-बड़े सम्राटों के साथ युद्ध किए थे आज निरीह, कमज़ोर और दया के पात्र बन गये हैं। हमारे लोकतंत्र ने इन्हें यही दिया है।” सागर साहब ने खुलासा किया।
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'द नेशन` में बंधुआ मजदूरों पर मेरी रिपोर्ट छपने लगी तो हंगामा हो गया। पहली बार इतने बड़े पैमाने पर, देश के सबसे बड़े अख़बार में तस्वीरों के साथ एक ऐसी जिंदगी पेश होने लगी कि पढ़कर लोगों के रोंगटे खड़े हो गये। आजादी मिले चौथाई सदी बीत चुकी है और हमारे देश में लोगों की हालत जानवरों से भी बदतर है। एडीटर-इन-चीफ ने मुझे बुलाकर पीठ ठोकी। सक्सेना साहब तो मुझे अपनी खोज बता-बताकर नाम रोशन कर रहे थे। हसन साहब ने कहा- अच्छा है, देखे कब तक चलता है।” उनके इस कमेण्ट से मैं कुछ परेशान हो गया। सुप्रिया ने खासतौर पर काफी पिलाई और पूछती रही कि वहां क्या क्या देखा। नूर को भी रिपोर्ट पसंद आयीं। उसने उनकी अंग्रेजी भी ठीक की थी। इस तरह उनकी भाषा भी मंझ गयी थी। कहा जा रहा है कि पार्लियामेण्ट के अगले सत्र में मेरी इन रिपोर्ट के आधार पर विषय पर चर्चा का समय भी मांगा जायेगा।
सागर साहब बहुत खुश थे। एक दिन शाम उन्होंने घर बुलाया था। कुछ दूसरे सोशल साइंटिस्ट भी वहां थे। सागर साहब के यहां पीने पिलाने का प्रोग्राम हुआ था। ये कुछ हैरत की बात थी कि सागर साहब ने अब तक अपने रहने का तरीका बिल्कुल गांधीवादी रखा हुआ था। वे खुद एक कमरे में दरी पर बैठते थे। बाकी लोगों के लिए लकड़ी की कुर्सियां थीं। दीवारों पर कैलेण्डर वो छोड़कर कुछ नहीं था। मैं जैसे जैसे सागर साहब के बारे में जानता जा रहा था वैसे वैसे उनकी विलक्षण प्रतिभा का कायल होता जा रहा था। उनका अध्ययन बहुत ज्यादा था। उनकी समझ बहुत साफ थी। शराब में उनकी बहुत ज्यादा दिलचस्पी थी। हम लोग
अपने हिसाब से पी रहे थे लेकिन सागर साहब शराब का सागर पी रहे थे। इतना पीने के बाद भी पूरे होशोहवास में थे। वे अपने इंस्टीट्यूट के नये प्रोजेक्ट की बात कर रहे थे जिसे यू.एन.डी.पी. सपोर्ट कर रहा था। मुझे उन्होंने नयी प्रोजेक्ट साइट यानी छोटा नागपुर के एक आदिवासी गांव में चलने की भी दावत दी जिसे मैंने कुबूल कर लिया। खूब पीने के बाद सागर साहब की दावत पर हम सब एक ढाबे पर गये जहां तली मछली खाई गयी और रात करीब साढ़े ग्यारह बजे बर्खास्त हुई।
बंधुआ मज़दूरों पर मेरी रिपोर्ट अहमद ने मास्को में पढ़ी थी। जहां वह दूतावास में फर्स्ट सेक्रेटरी था। उसने फोन पर मुझे मुबारकबाद दी थी और कहा था कि यार अब मिर्जा इब्राहिम की लड़की से शादी के बाद तुम ये जर्नलिज़्म वगैरा छोड़ो और बिजनेस में आ जाओ। सोवियत यूनियन बहुत बड़ा मार्केट है मैं तुम्हें यहां बेहिसाब बिजनेस दिला सकता हूं. . .अगर चाहो तो तुम और मैं साथ-साथ भी कर सकते हैं। उस इस प्रस्ताव पर मैंने उसे गालियां दी थीं और अपनी दुनिया में चला आया था।
इन रिपोर्टों के छपने के बाद पहली बार मुझे कुछ थोड़ा-सा संतोष हुआ था। दिमाग में 'कुछ करने` के कीड़े ने मुझे कुरेदने की रफ्तार कुछ कम कर दी थी। मैं सोचता था चलो राजनीति में कुछ नहीं कर सका, चुनाव हार गया, पार्टी होल टाइमर नहीं बन सका, लेखक नहीं बन सका तो क्या मैं कुछ ऐसा कर रहा हूं जो गरीब और बेसहारा आदमी के हक में है। कुछ दोस्तों खासतौर पर नवीन जोशी और रावत ने कहा था कि अंग्रेज़ी में आमतौर पर लोग ग्रामीण क्षेत्रों पर नहीं लिखते हैं। तुमने शुरुआत की है। अगर तुम दस-पांच साल इधर ही लगे रहे तो बड़ा 'कान्ट्रीब्यूशन` माना जायेगा। मैं कान्ट्रीब्यूशन से ज्यादा अपने मन को समझाने और संतोष देने के चक्कर में था। सबसे बड़ी बात तो यही कि आपको अच्छा लगे कि जो कर रहे हैं वह 'मीनिंगफुल` है।
शकील ने बसंत विहार में कोठी खरीद ली है। हालांकि आजकल दिल्ली में उसके पास कोई काम नहीं है लेकिन यहीं रहता है। कभी-कभी पार्टी ऑफिस चला जाता है। एक दो नेताओं के घरों के चक्कर मार देता है। कहता है यार जिन नेताओं के यहां पहले घुस नहीं सकता था उनसे इस दौरान पक्का याराना हो गया है। देखो यही फायदा होता है दिल्ली में रहने का।
उसकी अक्सर शामें हमारे यहां गुजरती हैं। नूर मुझसे अक्सर पूछती रहती है कि मैं शकील जैसे लोगों के साथ कैसे 'एडजस्ट` कर लेता हूं जो मुझसे बिल्कुल अलग हैं। मैं इस बात का बहुत तसल्लीबख्श जवाब दे नहीं पाता। आदमी की कैमिस्ट्री बड़ी अजीब होती है और वह समझ में आ जायेगी, यह दावा कोई आदमी खुद अपने बारें में भी नहीं कर सकता। शकील की राजनीति से मैं सहमत नहीं हूं लेकिन इतना पुराना 'एसोसिएशन` है कि हम बाकी बातें भूल जाते हैं। मैंने नूर को वह किस्सा सुनाया जब शकील ने मुझे पहली बार शराब पिलाई थी।
शकील के बेटे कमाल का दाखला तो किसी तरह दिल्ली पब्लिक स्कूल में हो गया है लेकिन उसका दिल दिल्ली में बिल्कुल नहीं लगता। मौका मिलते ही घर भाग जाता है। वैसे भी उसके रंग-ढंग बड़े लोगों के बेटों जैसे हैं। शकील के पास पैसा है और वह बेटे का दिल्ली में पढ़ाने के चक्कर में उसकी ख्वा़हेशात पूरी करता रहता है।
दिल्ली से रांची वाली “लाइट पर सागर साहब ने मुझे गलहौटी प्रोजेक्ट के बारे में बताना शुरू किया था। ख़ासा दिलचस्प प्रोजेक्ट लग रहा था। उन्होंने बताया ''यू.एन.डी.पी. वाले किसी आदिवासी क्षेत्र में विकास का एक मॉडल प्रोजेक्ट चलाना चाहते थे। इस सिलसिले में उन्होंने हमारे इंस्टीट्यूट से सम्पर्क किया। मैं मिस्टर ब्लेक से मिलने गया। मैंने साफ कह दिया कि पैसे से डिवलपमेंट नहीं होता। मतलब नालियां बना देना, हैण्डपम्प लगा देना, कर्ज दे देना, खुशहाली की गारंटी दे देना विकास नहीं है। इस पर ब्लैक चौंके और पूछा फिर डिवलपमेंट क्या है? मैंने कहा लोगों को बदलना, लोगों को जागरूक बनाना, उनके अंदर बदलाव की चेतना पैदा करना, उनके अंदर संगठन और संयोजन की शक्तियों का विकास करना, उन्हें सामूहिकता से जोड़ना. . .ये विकास है यानी विकास की पहली शर्त है।”
फिर?
“बड़ी बहस होती रही। मैंने उनसे कहा कि प्रोजेक्ट को मैं अपने तौर पर, अपनी परिकल्पना के आधार पर करूंगा। पहले तो उन्होंने सोचने का वक्त मांगा और मुझसे एक नोट बनाकर देने को कहा। मैंने नोट दे दिया और भूल गया। सोचा ये लोग जो खाँचों में सोचते हैं, जो सिर्फ आँकड़ों में बात करते हैं उनकी समझ में यह सब नहीं आयेगी।”
“इसके बाद?”
“तीन महीने बाद उनका फोन आया कि मैं जाकर मिलूं। मैं गया और बताया गया कि प्रोजेक्ट मंजूर हो गया है और प्रोजेक्ट में हमें दस लाख रुपया दिया गया है। फिर वही सवाल सामने आ गया। मैंने कहा, पैसे से विकास नहीं हो सकता। अगर हो सकता होता तो भारत सरकार कर चुकी होती।”
“क्या भारत सरकार विकास करना चाहती हैं?”
“ये और भी बुनियादी सवाल है. . .देखो हम कहते हैं कि हमारे देश की जाति व्यवस्था में एक सुपर जाति पैदा हो गयी है जो हर जाति से ऊंची है।”
“मैं हंसने लगा, ये कौन सी जाति है सागर साहब?”
“इस जाति को कहते हैं आई.ए.एस.” मैं ओर जोर से हंसने लगा।
“क्यों क्या मैं ग़लत हूं?”
“आप सौ फीसदी सच कह रहे हैं।”
“पूरे देश पर यह जाति शासन कर रही है जैसे पहले मान लो ब्राह्मण किया करते थे।”
“हर मर्ज की यही दवा है।”
“इनका जाल इतना भयानक है कि इन्होंने पूरे देश को जकड़ रखा है। अरे भाई कहो, कलक्टर का काम लगान वसूली है, प्रशासन है, पर ये जाति विकास पर भी कब्जा करके बैठ गयी। बड़े से बड़े और तकनीकी से भी अधिक तकनीकी संस्थानों पर छा गयी। कोई भी कारपोरेशन ले लो. . . यही लोग जमे बैठे हैं. . .और ये हैं बुनियादी तौर 'नॉन कमिटेड` लोग। इनका धर्म स्वयं अपना और अपनी जाति का भला करने के अलावा कुछ नहीं है।”
“और ये करप्ट भी है. . .शायद पहले न होते होंगे. . .अब।”
“नहीं, 'करप्शन` तो नौकरशाही का बुनियादी कैरेक्टर है। फ़र्क़ सिर्फ इतना आया है कि अब ये कायदा, कानून, शर्म-हया, क्षेत्र प्रांत छोड़कर खुल्लम खुल्ला भ्रष्ट हो गये हैं. . .और इन्हें राजनेताओं का संरक्षण भी मिल रहा है। वे भी इनके साथ शामिल है. . .अब ऐसे लोग क्या विकास करेंगे?”
“लेकिन इनमें कुछ अच्छे भी होते हैं।” मैंने कहा।
“अरे अच्छे तो कुछ डाकू भी होते हैं. . .पर क्या आप डकैती को अच्छा कहेंगे?” सागर साहब ने हंसकर कहा।
रांची पहुंचकर सागर साहब ने मेरे साथ कुछ ऐसा किया जिसकी उम्मीद नहीं थी और मैं सकते में आ गया। हम दोनों को साथ-साथ गलहौटी गांव जाना था। वही प्रोजेक्ट चल रहा था। सागर साहब ने मुझसे कहा कि उन्हें तो किसी ज़रूरी काम से पलामू जाना है। वे गलहौटी नहीं जा पायेंगे। मैं बस पकड़कर पलेरा चला जाऊं जो मेन हाई वे पर एक छोटा-सा बस स्टाप है। वहां मुझे गलहौटी जाने वाले लोग मिल जायेंगे। गलहौटी पलेरा से बारह किलोमीटर दूर है। ये पैदल का रास्ता है। वहां प्रोजेक्ट का आदमी रविशंकर मिल जायेगा। उसे मेरी विज़िट के बारे में मालूम है। अब मैं बड़ा चक्कर में फंसा। जाहिर है गलहौटी अकेले जाना आसान न होगा। अगर नहीं गया तो यहां तक आना बेकार जायेगा। सागर साहब किसी भी तरह मेरे साथ गलहौटी नहीं जा सकते थे क्योंकि उन्हें पलामू जाना था।
ख़ै़र और कुछ हो या न हो, हमने रात खूब जमकर पी। बहुत अच्छी बातचीत हुई और सुबह-सुबह सागर साहब चले गये और मैं अनिश्चय के सागर में डूब गया।
मैं परेला में उतरा तो देखा दो चार छोटी-छोटी लकड़ी की गुमटियों के अलावा और कुछ नहीं है। शाम का चार बज रहा था। बस मुसाफ़िरों को उतारकर आगे बढ़ गयी। मैं एक चाय के खोखे पर आया और पूछा कि गलहौटी जाने वाला कोई है? चाय वाले ने इधर-उधर देखा और बोला, 'नहीं अभी तो नहीं है।`
मैंने यह भी देखा कि चाय वाला कुछ अपनी दुकान बढ़ाने के मूड में है। वह बर्तनों को अंदर रख रहा था।
मैंने उसे एक चाय बनाने को कहा तो वह चाय बनाने लगा।
“अब यहां बस कितने बजे आयेगी?” मैंने पूछा।
“कल सुबह आठ बजे।”
“उससे पहले यहां कोई बस नहीं आयेगी।”
“नहीं”, वह चाय बनाता रहा।
मेरे होशो हवास गुम हो गये। रात कहां रहूंगा? ख़ै़र अब तो फंस गया था। गलहौटी मैं अकेले पहुंच नहीं सकता था क्योंकि वहां तक जाने के लिए जो पगडण्डी थी वह छितरे पहाड़ों में जाकर खो जाती थी।
चाय पी ही रहा था कि एक आदमी आता दिखाई दिया। चाय वाले ने कहा, 'ये गलहौटी के पास वाले गांव में जायेगा। इससे बात कर लो।`
मैं झपटकर आगे बढ़ा। सफेद कमीज़, पजामे में यह आदमी कहीं स्कूल मास्टर था और अपने गांव जा रहा था। वह मुझे गलहौटी पहुंचा देने पर तैयार हो गया।
पगडण्डी पर चलते हुए उसने मुझसे पूछा, आप तेज़ चलते हैं या धीरे?
मैं क्यों कहता कि धीमे चलता हूं? मैंने कहा, 'तेज़ चलता हूं।` मेरे यह कहते ही वह सरपट रफ्तार से चलने लगा। मैंने भी अपनी रफ्तार तेज़ कर दी लेकिन पन्द्रह मिनट के अंदर ही अंदर लग गया कि मैं उसकी तरह सरपट नहीं चल सकता। मजबूर होकर कहना पड़ा कि 'भाई जी थोड़ा धीमे चलिए।` उसने रफ्तार कम कर दी।
सूरज डूब गया था। पहाड़ियाँ धुंधली छाया में बदल गयी थी। पगडण्डी भी ठीक से नहीं दिखाई पड़ रही थी। अचानक स्कूल मास्टर रुक गया और ज़ोर ज़ोर से कुछ सूँघने लगा।
“क्या सूंघ रहे हैं,” मैंने पूछा।
“आसपास कहीं जंगली हाथी का झुण्ड है।” वह बहुत सरलता से बोला और मेरे छक्के छुट गये। यहां तो झाड़ियां छोड़कर ऊंचे पेड़ भी
न थे जिन पर चढ़कर जान बचाई जा सकती।
“अब क्या करें।”
“चले जायेंगे।” वह आराम से बोला।
कुछ देर हम खड़े रहे। वह हवा में सूँघता रहा फिर बोला, 'चले गये।` हम लोग आगे बढ़ने लगे। मैं इतना डर गया था कि उससे यह भी न पूछ सका कि उसे सूँघने से कैसे पता चल गया था कि हाथियों के झुण्ड चले गये।
रात नौ बजे के करीब हम गलहौटी पहुंचे। स्कूल टीचर मुझे सीधा प्रोजेक्ट के ऑफिस ले गया जहां रविशंकर सो चुके थे। वे उठे और उन्होंने मुझसे पहला सवाल यह पूछा कि क्या मैं कम्बल लेकर आया हूं? मेरे यह कहने पर कि मुझे नहीं बताया गया था कि कम्बल लेकर जाना और मैं नहीं लाया, वे परेशान से हो गये। बोले, 'चारपाई तो है लेकिन कम्बल नहीं है। रात में सर्दी बढ़ जाती है।`
हम दोनों एक ही चारपाई पर लेटे। रविशंकर ने मेरे सिरहाने की तरफ पैर कर लिए और मैंने भी यही किया। एक कम्बल से हमने अपने को ढंक लिया। सर्दी बढ़ चुकी थी। तेरह किलोमीटर पैदल चलने और मानसिक कलाबाज़ियों की वजह से गहरी नींद आ गयी।
अचानक आधी रात के करीब आंख खुली तो देखा रविशंकर चारपाई से कुछ दूर चूल्हे में आग जलाये ताप रहे हैं। पूछने पर बताने लगे कि आपने सोते में कम्बल खींच लिया था। हम खुल गये थे। सर्दी लगने लगी। हमने सोचा कि हम भी कम्बल खींचेंगे तो आप को सर्दी लगने लगेगी। आप उठ जायेंगे। सो हमने आग जला ली।
मुझे अपने ऊपर शर्म आयी। मैं उठ बैठा। आधी रात हमने चूल्हे के सामने बैठकर आग तापकर गुजार दी।
छ: बजे के करीब मैंने उनसे पूछा, “भाई रविशंकर जी यहां चाय-वाय भी कुछ बनती है?”
“बनाते तो हैं. . .पर लकड़ी नहीं है। रात लकड़ी जला डाली।”
“फिर क्या होगा?”
“लकड़ी बीनना पड़ेगी. . .बाहर ही मिल जायेगी।” वह उठने लगा।
“नहीं आप बैठो मैं बीनकर लाता हूं।”
लकड़ियां बीनकर लाया और चाय का पानी चढ़ा दिया गया। ज़िंदगी में मुझे याद नहीं कि इससे पहले मैनें पानी कभी इतनी देर में उबलते देखा हो। आध घण्टा हो गया। पानी उबलने का नाम ही नहीं ले रहा था और लकड़ियां बीनकर लानी पड़ी। अल्लाह अल्लाह करके पानी उबला, चाय बनी।
चाय पीते हुए मैंने कहा, “भाई रविशंकर जी यहां एक स्टोव तो रखा जा सकता है।” वह हंसने लगा। मैं हैरत से उसे देखने लगा।
“सागर साहब स्टोव के खिलाफ हैं।”
“यार बेचारे स्टोव ने सागर साहब का ऐसा क्या बिगाड़ा है।”
वह हंसने लगा “नहीं, सागर साहब कहते हैं यहाँ वह वैसी कोई चीज़ नहीं होना चाहिए जो आदिवासियों के घरों में नहीं होती। मुझे यहां घड़ी भी लगाने की अनुमति नहीं है।” वह खाली कलाइयां दिखाकर बोला।
“आप यहां करते क्या हैं?”
“हम कुछ नहीं करते।”
“आपके कुछ करने के भी सागर साहब खिलाफ हैं क्या?” वह हंसते हुए बोला “ठीक कहा आपने, सागर साहब कहते हैं। हम कौन होते हैं इन आदिवासियों को यह बताने वाले कि यह करो यह न करो।”
“तो श्रीमान जी फिर आप यहां हैं ही क्यों? अपने घर जाइये?” मैंने कुछ व्यंग्य और कुछ प्यार से कहा।
वह खिलखिलाकर हंस पड़ा।
“मेरा काम यह देखना है गांव के लोग सामूहिकता की भावना से प्रेरित होकर क्या कर रहे हैं और जो कर रहे हैं उसमें उन्हें सफलता मिले. . .कोई अड़चन न आये।”
रविशंकर की उम्र मुश्किल से बाइस- तेइस साल है। पटना विश्वविद्यालय से इसी साल सोशलवर्क में एम.ए. किया है और इस प्रोजेक्ट में लग गया है। छ: महीने से वह यहां लगातार रह रहा है। सागर
साहब आते जाते रहते हैं। रविशंकर ने मुझे विस्तार से छ: महीने की कहानी सुनाई। आमतौर पर लोग इस इलाके के आदिवासी गांवों में पटवारी या पुलिस के सिपाही के साथ आते हैं, अपना काम करते हैं और चले जाते हैं। लेकिन सागर साहब यह चाहते थे कि हमें सरकारी आदमी न समझा जाये। इसलिए हम लोग यहां अकेले ही आये थे। शुरु में न तो कोई हमारे पास आता था, न हमसे बात करता था। पहली रात तो हमने एक पेड़ के नीचे गुजारी थी। उनके बाद कलिया ने वह खपरैल दे दी थी जहां उसके जानवर भी बंधते हैं।”
“बहुत दिलचस्प कहानी है।”
“विश्वास जमाना बहुत टेढ़ी खीर है। हमने धीरे-धीरे विश्वास जमाया। कभी चूके भी, कभी गल़ती भी हुई लेकिन. . .”
“विश्वास कैसे जमा?”
“ब्लॉक ऑफिस के काम, पटवारी के काम. . .इनको एक तरह से सहायता सहयोग देना और बदले में कुछ न लेना. . .ऐसा इन्होंने कभी देखा नहीं है. . .पहले इन्हें हैरत होती थी कि ये कौन लोग हैं? फिर समझने लगे. . .ये जंगल से जड़ी बूटियाँ, झरबेरी के बेर, आंवला और दूसरी चीज़ें जमा करके बाज़ार में बेचा करते थे. . .हमारे सुझाव पर यह काम अब पूरा गांव मिलकर करता है और आमदनी बढ़ गयी। गांव का एक अपना फण्ड बनाया गया है जिसमें दो-दो चार रुपये जमा होते हैं . . .अभी पिछले महीने पूरे गांव ने मिलकर तीन कुएं खोदे हैं. . .मतलब पूरे गांव के जवान लोग लग गये थे। दो-दो तीन-तीन दिन में एक कुआं खुद गया था।”
मैं चार दिन गलहौटी में रहा और पूरी रिपोर्ट तैयार की। इस रिपोर्ट ने भी राष्ट्रीय स्तर का तहलका मचा दिया। योजना आयोग में विशेष बैठक बुलाई गयी। इसके बाद मैं मध्य प्रदेश के उन आदिवासी क्षेत्रों में गया जहां उद्योग धंधों के कारण आदिवासी उजड़ रहे थे। कारखानों का दूषित पानी नदी की मछलियाँ मार रहा था और गंदा पानी पीने से आदिवासियों में तरह-तरह की नयी बीमारियां फैल रही थी। आदिवासियों की हज़ारों एकड़ जमीन पर उद्योग लग रहे थे, बांध बन रहे थे और
जाहिर था कि वहां पैदा होने वाली बिजली उनके लिए नहीं थी। ये रिपोर्ट भी 'द नेशन` में छपी।
एक दिन सक्सेना साहब ने बुलाया कहा कि अब अखबार आदिवासी अंचलों पर उतना बल नहीं देना चाहता क्योंकि यह संवेदनशील मामला है। मुझे लगा मैं पहाड़ पर से गिर गया हूं। मैंने तो आगे पांच साल तक के लिए अपने 'टारगेट` तय कर लिए थे। मैं सक्सेना साहब से बहस क्या करता। एक अजीब तरह की खीज, अपमानित होने का एहसास, गुस्सा और द्वेष की भावना मेरे अंदर भर गयी। हसन साहब ने कहा, ये तुमने 'इण्डस्ट्री` को 'टारगेट` क्यों किया? तुम्हें नहीं मालूम नेशनल चैम्बर ऑफ कामर्स ने तुम्हारी रिपोर्टों पर एडीटर-इन-चीफ को बड़ा सख्त खत लिखा है।
इस पूरे प्रकरण के बारे में शकील को पता चला था तो उसकी आंखों में चमक आ गयी थी। उसे लगा था कि वह मुझे जो कुछ समझाया करता था उसका निचोड़ सामने आ गया है। मेरे घर में ही टेरिस पर विस्की पीते हुए उसने कहा, ''यार साजिद तुम इन लोगों से लड़ नहीं सकते। तुम सत्ता से टक्कर ले नहीं सकते। तुम्हारे अख़बार का मालिक भी इण्डस्ट्रियलिस्ट है। उसकी भी उसी इलाके के पेपर फैक्ट्री है जिसे प्रदेश सरकार ने बीस हज़ार एकड़ बॉस के जंगल सौ रुपये प्रति एकड़ की दर से नब्बे साल के लिए दे दिये हैं. . .अब बताओ. . .और बिजली ये तो जान है यार इण्डस्ट्री की. . .बड़े बांध नहीं बनेंगे तो बिजली कहां से आयेगी?. . .देखा इन लोगों ने अपना हर मामला जमाया हुआ है. . भई सरकारों से इनके क्या संबंध हैं, तुम्हें पता है। अखबार इनके हैं। पार्लियामेंट में इनके कितने लोग हैं तुम जानते हो। सर्विसेज़ के लोग तो इनके पहले से ही गु़लाम हैं. . .कला और संस्कृति पर इनका कब्जा है।”
“तुम्हारा मतलब है कुछ नहीं हो सकता।”
“यार फिर वही मुर्गे की एक टांग. . .तुम्हें किस चीज़ की कमी है. . .”
“है. . .कमी है।”
“ये तुम्हारे दिमाग का फितूर है।” वह हंसने लगा।
मेरे अंदर गुस्सा और बढ़ने लगा। इसलिए कि वह जो कुछ कह रहा है सच नहीं है।
(जारी क्रमशः अगले अंकों में....)
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