व्यंग्य एक आदमी की मौत -आर.के.भंवर वह जो मर गया हैं आदमी ही था। सुबह का वख्त। लोग टहलने के लिए निकले थे। उसकी लाश सड़क के किनारे पड़ी थी। ...
व्यंग्य
एक आदमी की मौत
-आर.के.भंवर
वह जो मर गया हैं आदमी ही था। सुबह का वख्त। लोग टहलने के लिए निकले थे। उसकी लाश सड़क के किनारे पड़ी थी। कौन था ? कैसे मरा वह ? ये कई सवाल ऐसे थे जो कुछेक लोगों के जेहन में उभर रहे थे। पर मरने वाला एक आदमी था, कपड़े लत्ते से लग रहा था कि वह ऊंची जमात का नहीं था। खून से उसकी काया लथपथ भी नहीं थी, वह सड़क के किनारे इस तरह पड़ी थी मानो गहरी नींद में सो रहा हो कोई। कुछ लोग उसे घेरे हुए थे। घेरा बनाने वाले दूर दूर तक मार्निंग वॉक से मतलब नहीं रखते थे। वे सब अचरज से देख रहे थे। हालांकि वे उसके रिश्तेदार नहीं थे।
मार्निंग वॉक वाले लोग सिर्फ वाकिंग पर थे। कुछ एक ऐसे भी थे जो कुछ कुछ समाजशास्त्र के जानकार थे। जौगिंग करते करते एक ने दूसरे से कहा कि होगा यह कि रात ज्यादा पी ली होगी या फिर कहीं लड़ा-झगड़ा होगा। मजबूत पार्टी वाले ने ढेर कर दिया होगा। ' पर खून तो बहा नहीं, नहीं नहीं ऐसा नहीं हुआ होगा ? ' उल्टे प्रश्न को सीधा करते हुए दूसरे ने कहा। तभी हल्की दौड़ में शामिल एक दूसरे ने पूछा कि अब मौत आ गई तो आ गई। वो किसी से पूछ कर तो आती नहीं। अब जैसे शर्मा जी को ही ले लें , मार्निंग वॉक के लिए तैयार हुए ही थे कि दिल का जबर्दस्त दौरा पड़ा, नहीं उठ पाये फिर।
निकलने वालों के लिए मरे आदमी की लाश चर्चा में तो थी, पर सभ्य और कुलीन लोग उस जगह रूक कर अपना समय खराब नहीं करना चाहते थे। समाज की सभ्यता शिखर पर थी। कोई अपना समय मरे आदमी के वास्ते क्यों खराब करे ? जिसको जाना था वह चला गया। किसी को पहले से बताकर पैदा भी नहीं हुआ था वह। फिर उन्हें तो रहना है। गणित भी यही कहती है और समाज का अर्थषास्त्र भी। अब कोई मरनेवाले के साथ तो मर नहीं जाता है। और मरे व्यक्ति बहुत दिनों तक जेहन में रहते भी नहीं है। पुराने पत्ते पेड़ से अपना स्थान इसलिए खारिज कर देते है कि नये पत्ते निकल आयें। मिट्टी में मिलने पर वही पत्तों खाद बन जायेंगे। पत्तों और आदमियों के फलसफे में यहीं तो है साम्यता।
अब जिसे मरना था, वह तो मर गया। समझदारी इसी में थी कि समाज का काम अनवरत चलता रहे। चलता तो रहता है, पर यह सब वैसे ही है जैसे फिल्म शुरू होने से पहले न्यूज रील के चलने जैसा हो। इधर आदमी भी बड़े बेभाव मर रहे हैं। कुंडी खटखटायी, बुढ़िया ने जैसे दरवाजा खोला कि छुरा उसके पेट में और कुंडी खटखटाने वाला घर के अंदर। अखबारों में तो रोजबरोज ऐसी ही सूचनाएं पढ़ने को मिलती हैं। गाड़ी चला रहे थे, सामने वाले को बचाने में लगे कि खुद पलट गये। अस्पताल में ब्रेन हैमरेज फिर सीधे ऊपर। पहले बाल्टी मेरी भरेगी, नहीं पहले मेरी, मेरी, मेरी कहते कहते गुम्माबाजी हो गई, एक दर्जन घायल और कुछेक ने दम तोड़ दिया। पहले जैसे बच्चा-बच्ची गुड्डे-गुड़िया का खेल खेलते थे अब बड़े लोग 'इसे मारो-उसे मारो' का खेल रहे हैं। सुपाड़ी दो, पूरी न मिले तो सुपाड़ी की कतरन दो, काम दोनों में ही चलना है। आदमी का मारा जाना अथवा उसे मारना आज की दुनिया का अहम् व्यवसाय है। बाहुबली से कभी श्री हनुमान जी का बोध होता था, अब इससे दाउद भाई, छोटा, बड़ा, मंझला शकील, पप्पू यादव, बबलू भैया, आदि आदि का। संकटमोचन हैं, इसलिए उनके नाम के स्मरण मात्र से धंधें की कोई भी वैतरणी पार लग जायेगी। हाथी, पंजा, कमल, साईकिल, लालटेंन, ताला-चाभी सभी तो इनके दम पर चलते और लगते है। कहीं कम तो कहीं ज्यादा।
सबसे सस्ती है आदमी की जान। इसे जब चाहें, जहां चाहें, कोई वॉट लगा सकता है। घर से निकले कि बाहर घमाघम, ढेर हो गये। मरते ही, वह मान्यताओं की खाल ओढ़े समाज में वह चिंता का विषय बन जाता है। कुछ समय के लिए वह मानवाधिकार चिंतकों का मुद्दा भी है और अखबारों की सनसनी भी। पर एक आदमी की मौत से कोई हिलता क्यों नहीं, क्या उसकी मौत में जिंदा आदमी अपनी सूरत नहीं देख पा रहा है। सांस-सांस मर रहे आदमी और अचानक मर गये आदमी में चिंता स्वाभाविक है। उस मरे आदमी को घेरे हुए उन लोगों के पास कोई काम-धाम नहीं है। सड़क पर इधर-उधर घूमना ही था उन्हें, अब क्या करें इधर-उघर जाकर, इस मरे आदमी के पास ही खड़े हो जाते है, समय ही कटेगा कुछ। खड़े लोगों से उसके मरने का कोई ताल्लुक नहीं हैं। वे तमाशबीन है। डुग्गी बजाते मदारी के पास भी वे लोग वैसे ही खड़े जाते है। जो नहीं खड़े थे, उनकी भी आत्मा उधर ही भटक रही थी, पर खड़े इस वास्ते नहीं हो सकते थे क्योकि वे या तो अपने वाहन से उतर कर आम आदमी की कोटि में आने से अपनी बेइज्जती समझते थे या अंग्रेजी पहचान देने वाली पोशाक पहने थे। स्टेट्स तो देखना ही पड़ता है। अब यह आदमी होटल ताज के अंदर गिरा, पड़ा व मरा मिलता तो वे सूट-बूट वाले साहेब का वहां पर खड़े होकर हमदर्दी दिखना मुनासिब था। सड़क है। सड़क की भाषा और व्याकरण चलताऊ किस्म का होता है। सड़क पर चलते लोग भीड़ के किस्म में होते हैं। भीड़ नारा लगा सकती है, उत्पात मचा सकती है, झंडा उठा सकती है। भीड़ संवेदना का वरण नहीं कर पाती है। मरने वाले आदमी का घेरा भीड़ जब बढ़ा लेती है, तो आंदोलन के समीकरण बनाने बिगाड़ने वाले चतुर सुजान भी जुट जाते है। यह भी ज्यादा देर तक नहीं चलता है। भीड़ की भाषा संवेदना के सुर से अलग है। संवेदना अकेले आदमी की थाती है। दिल की बात दिल तक जाती है।
एक आदमी की मौत न्यूज की लाईन के बन जाने के बाद भी आम आदमी के जेहन में अपनी पैठ नहीं बना पा रही है। पर रोज सड़क पर कुत्ता टहलाने वाले बाबू मोशाय का कुत्ता जब किसी गाड़ी के नीचे आकर जीभ लंबी कर देता है, तो बाबू मोषाय से मरे कुत्तो के प्रति शोक जताने वाले कई कई लोग जुट जाते है। इसीलिए आदमी रोज बरोज मर रहे हैं। दोपहिये, चौपहिये, मालगाड़ी, हथगोले, बंदूक न जाने कितने कितने निमित्ता उसे मरने, मारने व मिटाने में लगे हुए है। आतंक के साये में जी रहे अंचलों में आदमी रात भर जगते हैं, केवल सुबह थोड़ी देर तक सो लेते है। एक आदमी की मौत यदि हमारा सरदर्द नहीं बनती है तो समझ लेना चाहिए कि कहीं कोई बीमारी जन्म ले रही है। समय से उसका उपचार जरूरी है क्योंकि संवेदनहींनता का रोग ऐसा मठ्ठा है जो इंसानियत के दरख्त की जड़ों में जाने से समूचे पेड़ को ठूंठ में तब्दील कर देगा। हुआ भी यही, जब उस मरे आदमी की तफ़तीश के वास्ते देर दोपहर में पुलिस आई और पंचनामा के लिए पांच आदमियों से दस्तखत करने के लिए कहा, तो सबके सब भाग खड़े हुये। किसी ने कुछ देखा ही नहीं, कब हुआ कुछ पता ही नहीं। इधर से बस गुजर रहे थे, इस मरे को देखा तक नहीं। कौन है, पता नहीं। कैसे मरा, राम जाने। अब मरने वाले के साथ कोई मर नहीं जाता है, यह समाज की बारीक सोच थी। पुलिस ने कहा तो यहां खड़े क्यों थे ? जवाब मिला, यहां कहां, अरे हम तो बस का इंतजार कर रहे थे, ये तो बाद में पता चला कि मेरे पीछे एक मरे आदमी की लाश पड़ी है। और आप ? पुलिस ने दूसरे से पूछा। मैं, वो इनसे घड़ी का टैम पूछने के लिए रूक गया था।
सिपाही जी दरोगा जी से बोले - साहेब यह पांच दस्तखत तैयार, हो गया पंचनामा।
इस तरह आदमी तो रोज मरा करते है, फालतू टैम है का - दरोगा ने डांट पिलाई। चलो कुछ धंधें वाला काम भी करना है।
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व्यंग्य
क्यों सुनूं ... ?
-आर.के.भंवर
प्लीज, आप सुन लीजिए ...... ......
नहीं, अभी वख्त नहीं है।
तो कब आऊ ?
तीन चार दिन बाद ।
तीन दिन या चार दिन ?
अरे बाबा कह दिया न, तीन चार दिन बाद आकर देख लेना ।
पर सर एक दिन बताईये कि तीन दिन या चार दिन !
कह दिया न तीन प्लस चार, सात दिन बाद आना
पर सातवें दिन तो सण्डे है ...
अरे मेरे बा..., आठवे दिन आना ।
सर, उस दिन कोई अप्वाइंटमेंट तो नहीं है ?
नहीं है, बाबा, जाओ ।
तो सर मण्डे को कितने बजे आ जाए।
ओफ्फ, तीन बजे।
तो पक्का रहा, मन्डे को तीन बजे !
हां, बाबा, पक्का, पक्का, पक्का। अब टलो।
ये कोई 'सर' हैं जो मिलने वाले को 'गोली' दे रहे थे। हर आदमी किसी न किसी को गोली देने में लगा है। बड़ा छोटे को, नेता कार्यकर्ता को, अफसर मातहत को, बाबू चपरासी को, गोली देने में पीछे नहीं है। मजा तब आता है जब दोनों ही पक्ष एक दूसरे को गोली देने में बाज नहीं आते है। पहला कहेगा कि क्या खूब बनाया तो दूसरा कि ऐसी गोली दी कि दुबारा लौट कर नहीं आयेगा। सरकारी महकमे में तो सुनना बेहद जरूरी है, मा0 मुख्यमंत्री जी ऐसा कह रहे हैं। सबको सुनना उनकी प्राथमिकता में है। मा0 मुख्यमंत्री जी की प्राथमिकता में हर अफसर अव्वल आना चाहता है। सब सुन रहे हैं और ऐसा कोई नहीं बचा है, जिसको उन्होंने न सुना हो, काम हो या न हो । अलग विषय हैं यह ! पर जनता में यह साफ संदेश जाना चाहिए कि उनकी बात सुनी रही है और पूरी बात बड़ी तसल्ली से सुनी गई। अब काम का होना या न होना तो किस्मत का खेल है। किस्मत होगी तो हो जायेगा और जब किस्मत ही साथ नहीं देगी, तो काम क्या खाक होगा ! अफसर सत्ता के शिखर पुरूष की बॉडी लैंग्वेज को समझकर काम करते है। वे उनकी पार्टी के एजेंडे पर काम करने में सत्साहस दिखाते है।
शासकीय ढर्रे से हटकर सामान्यतया कभी-कभी ये सवाल जेहन में उठता है कि कोई किसी को क्यों सुने ? क्या मिलेगा अगले को सुनने में ? कोई मजबूरी या फायदा हो तो सुना भी जाए। ऐसे कोई किसी को क्यों सुने ? सुनने के लिए वख्त चाहिए जो आज के भागमभाग में तो है नहीं। कब और कैसे मिलेगा वख्त और कहां से आयेगा, ये। वख्त, आसमान चीर कर या धरती में दराज बनाकर तो आयेगा नहीं। यह भी कहा जा सकता है कि जल्दी जल्दी में आदमी अंडरवीयर की बजाय पेटीकोट तक पहन ले। यह जल्दबाजी एक अनिश्चित और अंतहीन दौड़ है। फुरसत किसी के हिस्से में कहां है। फुरसत के लिए तकनीक ईजाद करनी पड़ती है।
लेकिन फिर भी लोगबाग सुनते हैं। किस कान से सुनते है, पता नहीं। यह तो तब पता चलता है जब अगला आकर कहे कि पिछले महीने हुए आये थे, आपसे मिले थे और आपको बताया तो था, क्या हुआ उस काम का। अब मिलने वाला तपाक से कहेगा कि अच्छा, दिखवा लूंगा। मुगालता यह कि इतना कहां याद रहता है, मिलने वाले या सुनाने वाले एक तो है नहीं, ढेरों लोगों की बातें कोई कहां तक याद रखेगा। पर यह चिंतन बुद्धिजीवी जमात का है, जो बुद्धि के दम पर जी रहा है। उसे यह भूलने में एक क्षण भी देर नहीं लगती है कि वह आखिरकार उसके हितों की रक्षा के लिए ही वहां पर बैठा है। पर मीलों का सफर तय कर अपने काम के होने की जानकारी के लिए आया आम आदमी निराशा के बीहड़ में उम्मीद लिए रहता है।
आजादी के बाद लोगों में बोलने की आदत ज्यादा पड़ गई। बोलने में कोई तनाव नहीं है और सुनने में तनाव ही तनाव है। जैसे आप निहायत बेकार आदमी है, आप बहुत बड़े भुलक्कड़ है, कुछ भी याद नहीं रखते है, एक काम कह कर गये थे, वह भी नहीं हुआ। अब सोचिये कि सुनने वाले पर क्या बीतेगी। बेनजीर जब किसी जमाने में पाकिस्तान की हुक्मरान हुआ करती थी, अक्सर लोग कहा करते थे कि वह एक कान से सुनती थी। सुनने वाला कान जरदारी, उनके पति, की ओर होता था और न सुनने वाला कान आवाम की ओर। आवाम वायदों की भूखी होती है। वायदे तो बोल कर ही किये जायेगे, वहां कान का क्या काम ? सुनने और सुनाने में हमारे कवि भी बहुत आगे है। मेरे एक कवि मित्र हैं जो महीने के अपने बजट में एक मद अपने मित्रों को चाय समोसा के खर्च के लिए बनाते थे। चाय समोसे के दम पर यदि वह अपनी अगली रचना सुना ले रहे है, तो इससे बड़ी उनके लिए क्या उपलब्धि हो सकती है ? चाय समोसा खाकर सुधीजन कविता का श्रवण कर रहे है तो हिन्दी की सेवा ही हो रही है। पर फिर वही बात कि यहां निमित्त चाय समोसा है, पर बिना किसी निमित्त, अर्थ, प्रयोजन के कोई किसी को क्यों सुने। निमित्त लाइए, अर्थ दिखाइए और प्रयोजन का वास्ता दीजिये तभी आपको सुना जायेगा।
सुनना राष्ट्रधर्म नहीं है। इसलिए बोलने में हमने तरक्की की है। हम वजह और बिना वजह दोनों ही स्थितियों में बोलने में महारत हासिल कर चुके हैं। बात वजह से बिना वजह के पाले में कब और कैसे आ जाये, इसमें विषेष सावधानी रखने में भी हमारा कोई सानी नहीं है। हम जो बोलते है वह अंदर से कम, पर कपड़े की तरह बदलने की तरह बोलते है। अर्थ का अर्थ कब बदलना पड़े, इसमें हम सिद्धहस्त हैं। यह मेरा निजी विचार है, मेरी पार्टी का विचार नहीं। पार्टी के वह प्रमुख है। लोगों के सुनने के लिए पी.ए. हैं। और पी.ए. वह छन्नी है जो 'सार-सार को गहि रहै थोथा दई उड़ाय' की तरह है। अमुक बात को सुनने से नजरेइनायत रहेगी, इसका समीकरण बिठाने में उसने अपने बाल सफेद कर डाले हैं। सो वह जो सुनायेगा, वही ही सुना जायेगा। उसके अतिरिक्त तो सुनाने वाले ने बोला ही नहीं। अब जैसे किसी जनसभा में नेता यह कहता है कि हमने सुना है कि किसानों को उनकी उपज का यहां पर पूरा-पूरा लाभ नहीं मिलता है। किसने सुनाया। पी.ए. धृतराष्ट्र वाले दरबार के संजय की तरह हुआ करते हैं। और तभी बीच से नारा लहरायेगा कि यह सरकार निकम्मी है, जो सरकार निकम्मी है, वह सरकार बदलनी है। भीड़ में है तो भीड़ को यह वाकिफ होना ही है कि उनका नेता जन-समस्याओं से बेखबर नहीं है।
हर खुशहाल जिंदगी ज्यादा सुनने में भरोसा रखती है। सुनने में धीरज, आत्मीयता और समय की आवश्यकता होती है। सुनेंगे तो सुनाने वालों की दिक्कतों का रास्ता कायदे-कानून से निकालने में प्रयास आरंभ होगा और प्रयास शुरू हो जाता है तो निर्णय लेने में सत्साहस दिखाना पड़ेगा। यही तरीके है जो मूल्यों की प्राथमिकता पर गढ़े जाते है। ऐसे आचरण से सन्नद्ध व्यक्ति के लिए किसी मुख्यमंत्री या मुख्यसंत्री की प्राथमिकताएं असर नहीं दिखाती है। वह वही कर रहा होता है जो दूसरे लोगों की भली के लिए वाजिब होता है। उसे ऐसा करने में परम संतुष्टि होती है। क्यों सुनूं, किसलिए सुनूं वाले लोग अवसर के सिपाही होते है। अवसर के समीकरण बनते है तो बिगड़ते भी है। किसी ने कहा है तो उसे सुनना ही पड़ेगा। अवसर अक्सर नहीं रहते है, आज है तो कल नहीं। उपनिषदकार ने अपनी आत्मा का कहना मान कर चलने का निर्देश दिया है। इस रास्ते पर चलते चलते बिलट गये, तो क्या ! और चढ़ते चले गये, तो क्या ! यात्रा है, तो यात्रा जारी रहेगी। एक आई.ए.एस. अधिकारी ने एक बड़े बिल्डर से लोहा लिया । अंतत: बड़ी खूबसूरती से नप गये। उन्हें ट्रान्स्फर का रूक्का थमा दिया गया। वे बिल्डर के साथ चलते तो 'आत्मनो हन:' और नहीं चले तो ईमानदारी का दण्ड मिला। यह नहीं कि उन्होंने सुना नहीं। उन्होंने बखूबी सुना, किन्तु काम किया अपनी आत्मा के बताये अनुसार। ऐसे लोग कुछ क्षण के लिए निराश तो होते हैं, पर उनकी अंदर की प्रसन्नता स्थायी रहती है।
इसलिए सुनना जरूरी है और सुनाना बेहद जरूरी। चुप्पी कायरों का हथियार है। बाहुबलियों के लिए प्रोत्साहन है। आई बात समझ में ?
संपर्क:
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