कविताएं - दिव्या माथुर सुनामी सच तुम्हारे एक झूठ पर टिकी थी मेरी गृहस्थी मेरे सपने मेरी ख़ुशियाँ तुम्हारा एक सुनामी सच बहा ...
कविताएं
- दिव्या माथुर
सुनामी सच
तुम्हारे एक झूठ पर
टिकी थी
मेरी गृहस्थी
मेरे सपने
मेरी ख़ुशियाँ
तुम्हारा एक सुनामी सच
बहा ले गया
मेरा सब कुछ।
कहानी
ऐत तहानी औल मम्मा
बहुत रात हो गई मुन्ना
बेटा अब तो तू सो जा
`बछ ऐत तहानी औल मम्मा
छुना बी दो ना'
अब मुन्ना बड़ा हो गया है
कहता है
मैं बहुत बोलती हूँ
मुन्ना ज़रा जल्दी चल
स्कूल को देर हो जायेगी
`मम्मा मेले छोते छोते पाँव
मैं दल्दी दल्दी तैछे तलूँ'
अब मुन्ना बड़ा हो गया है
कहता है कि
मैं बहुत `स्लो' हो गई हूँ
`मम्मा, मुदे दल लदता है
तुमाले छात छोऊँदा तुमाली दोदी में'
अब मुन्ना बड़ा हो गया है
और उसके मुन्ने को
मेरा कमरा चाहिये
उस बड़े से बूढ़ाघर में
मम्मा के नन्हे से प्राण अटके हैं
अपने मुन्ने की राह में।
झूठ ४
मेरी ख़ामोशी
एक गर्भाशय है
जिसमें पनप रहा है
तुम्हारा झूठ
एक दिन जनेगी ये
तुम्हारी अपराध भावना को
मैं जानती हूँ कि
तुम साफ़ नकार जाओगे
इससे अपना रिश्ता
यदि मुकर न भी पाये तो
उसे किसी के भी
गले मढ़ दोगे तुम
कोई कमज़ोर तुम्हें
फिर बरी कर देगा
पर तुम
भूल के भी न इतराना
क्यूंकि मेरी खामोशी
एक गर्भाशय है
जिसमें पनप रहा है
तुम्हारा झूठ।
झूठ ७
झूठ
सिर पर चढ़ के
बोलता है
यही सोच के
खामोश हूँ मैं
इसका क़तई
ये अर्थ न लो
कि मेरे मुँह में
ज़ुबान नहीं।
माँ
उसकी सस्ती धोती में लिपट
मैंने न जाने
कितने हसीन सपने देखे हैं
उसके खुरदरे हाथ
मेरी शिकनें सँवार देते हैं
मेरे पड़ाव हैं
उसकी दमे से फूली साँसें
ठाँव हैं
कमज़ोर दो उसकी बाँहें
उसकी झुर्रियों में छिपी हैं
मेरी खुशियाँ
और बिवाइयों में
मेरा भविष्य।
माँ
मेरा सुख दुख
अपनी कमज़ोर आँखों से पढ़ लेती है
अपने जोड़ों का दर्द भूल
मुझे अपने से सटा वह लेती है
सफ़ेद बाल हैं प्रकाशस्तंभ
मेरी कश्ती कभी नहीं डोली
है ध्रुव तारे सी साथ सदा
मैं रास्ता कभी नहीं भूली
पाँव पोंछता रहता है
अब भी उसका उजला आँचल
आज भी मेरे सिर पर है
उसकी दुआओं का गगनान्चल।
सबूत
तुम झूठे हो
मैं सच्ची
तुम सच्चे हो
मैं झूठी
क्या जीवन बीतेगा
यूं ही
सबूत इकट्ठा करते
अग्निपरीक्षा देते
संबंधो को स्थगित करते
समझौता
एक अदृष्ट
समझौता है
परिवार के बीच
यदि मैंने ज़ुबान खोली
तो वे समवेत स्वर में
मुझे झुठला देंगे
झूठ की
ओढ़नी में लिपटी
मैं खुद से भी
रहती हूँ छिपी।
बंजर
अंजाम जानते हो फिर भी
क्यूँ बोते हो बीज नया
मेरे शक के कीटाणु ले
ये पनप कभी पायेगा क्या
छलनी छलनी मैं हूँ अब
कुछ भी तो ठहर नहीं पाता
पत्थर से सिर फोड़ोगे
जो तुमने बंजर सींचा!
पहला प्यार
`मिट्टी पड़े
तुम्हारे पहले प्यार पर'
कहा था अम्मां ने
इक बार दुखी होकर
और ब्याह दिया था
मुझे विदेश
पर न तो समय
न ही दूरी
कर पाये धूमिल
रंग रूप गँध
सभी तो ताज़ा हैं
मिट्टी पड़े
मेरे पहले प्यार पर।
चंदन पानी
हम चंदन पानी न हो पाये
चंदन पानी न हो पाये
कोल्हू के बैल से घूमें गए
गले में रस्सी लटकाये
दिन रात पसीना बहा कर भी
इक बूँद तेल की न पाये
तैरा किए सतहों पर ही
चंदन पानी न हो पाये
पहल करे कब कैसे कौन
तोड़ न पाए कभी मौन
कभी साथ बैठे न सपने सजाए
नियति के भरोसे पछताए
दिन और रात रहे उम्र भर
चंदन पानी न हो पाये
चुरा ली नज़र झट कभी जो मिली
उँगलियाँ हमारी न उलझीं कभी
गलबहियों की तो खूब कही
मुँह बाएँ गए रस्में निभाये
दिल की थाह बिना पाए
चंदन पानी न हो पाये
सरकारी चक्की में पिसे
अफ़सर बनने की चाह लिऐ
बच्चों का अपने पेट काट
घूस में लाखों स्र्पये दिए
आँखों से अपनी अलग गिरे
चंदन पानी न हो पाये
बढ़ा पिता का रक्तचाप
माँ के गठिए का दर्द बढ़ा
मनमानी बच्चों की बढ़ी
फ़ासला हमारे बीच बढ़ा
बस रहे दूरियाँ तय करते
चंदन पानी न हो पाए
समय क़तर कैंची से हम
अब जीवन फिर से शुरू करें
थाम लो पतवार तुम्हीं
अपने रंग में रंग डालो मुझे
पानी और तेल नहीं रहें
हम चंदन पानी हो जाएँ।
पिंजरा
चारों प्रहर
पहरे पर रहता है
तुम्हारा शक
मेरी दृष्टि की भी
तय कर दी है
तुमने सरहद
प्रणय तुम्हारा
लेके रहेगा मेरे प्राण
क्या मुझे मिलेगा त्राण
आज़ाद है मन मेरा लेकिन
तन का छुटकारा सपना है
क़ैद तुम्हारी हो बेशक
पिंजरा तो मेरा अपना है।
बिछावन
ओस की बूँदों से
अब फिसल चुके हैं बच्चे
उनके बसंत पर
क्यूं मैं पतझड़ सी झड़ूं
उस स्पर्श का अहसास
बिछा लूँ
ओढ़ उसे ही कुछ सो लूँ
संबंध
संबंध ठहरे पानी से
अब सड़ने लगे हैं
आओ हम इक दूजे के
कंधों से उतर जाएं
और अब अपनी
राह बढ़ें
दायरे
ना इच्छा की
कहीं भागने की
ना जीवन को ही
कोसा कभी
हल को कंधे पर लादे सदा
बस आँख झुकाए जुगाली की
रस्सी तुड़ाते
लात मारते
और किसी भी
दिशा भागते
सिर पर जब थे सींग लदे
क्यूँ खाये तुमने डंडे
क्यूँ आँख पे पट्टी बँधवाए
रहे घिसटते जीवन भर
एक ही दायरे के भीतर
क्यूँ सदा लगाते रहे चक्कर
बेतुकी बात का पैर ना सिर
एक ज़रा से तेल की ख़ातिर?
बैल ने मुझे दो टूक जवाब दिया,
ये तुम कह रही हो?
क्लोन्ज़
अब शायद
नवजात बच्चियों की
हत्या न हो
न स्त्री भ्रूण को
गर्भ में ही
समाप्त करने की आवश्यकता पड़े
काँसे के थालों को
अब कोलकी में बंद कर दो
क्यूँकि पैदा होने वाला हर बच्चा
बेटा ही होगा
बधाइयों की अनवरत ध्वनि
से गूँज उठेगा संसार
बधाई हो
बधाई हो
बेटा हुआ है
बधाई हो
जल्दी ही
पुरुष क्लोन्ज़ की
बस्तियाँ बस जाएँगी
प्रतिलिपियों पर आधारित
एक ऐसी पीढ़ी होगी
जिसके न माँ का पता चलेगा
न ही बाप का
संग्रहालय में प्रदर्शित
बची खुची महिलाएँ
तब भी मनोरंजन का
साधन ही रहेंगी
हाथापाई, युद्ध, लड़ाई, संग्राम में जुटी
पुरुष प्रधान पृथ्वी
कब तक टिकेगी
पर फ़िलहाल
बधाई हो!
बँटवारा
कल का जब
बंटवारा होगा
आधे की
तुम माँग करोगे
भोगा था
न भोग्य बनोगे
कल संपूर्ण
तुम्हारा था
संपूर्ण क्या तुम कल
मुझको दोगे?
मुक्ति एक्सप्रैस
माँ ने लगाया न सीने से
पहचानी पिता ने बेटी नहीं
भैया पुकारती राखी रही
पर कोई कलाई न आगे बढ़ी
चाची ने तरेर के आँख कहा
क्या रस्ते में न थी कोई नदी
नगर को लौटी नगरवधु
मुक्ति एक्सप्रैस में जो थी क़ैदी
डब डब करती उन आँखों को
स्वागत नज़र न आया कहीं
थीं मानवता से कहीं अधिक
मज़बूत सलाख़ें लोहे की
अब स्वागत होगा साँझ ढले
शान से इन अबलाओं का
ज़ख़्मों पर नमक छिड़कने को
चकलों में जुटेगा फिर मजमा
बेधड़क कलाई बेगाने
थामेंगे बताए बिना रिश्ता
नित गाली, मार और यौन रोग
क्या यही हश्र होगा इनका?
मुक्ति एक्सप्रैस नाम की रेलगाड़ी में भारतीय सरकार ने कुछ वेश्याओं को घर भिजवाने का असफल प्रयत्न किया था.
दोष
बेवजह राम ने छोड़ा जब
कोई मित्र गया था आग लगा
चाहा था कि धरती फट जाए
बस और वह उसमें जाए समा
कृष्ण की बेवफ़ाई पर
वह ज़ार ज़ार यूँ रोई थी
अच्छा होता इससे तो वह
मर जाती पैदा होते ही
यौवन भी न उसका रोक सका
जब बुद्ध ने भी प्रस्थान किया
धन दौलत से भरा था घर
पर दिल उसका था टीस रहा
फिर टॉम, डिक और हैरी की
अनियमिता में भी वह तैरी
कुछ ठिठके, कुछ केवल ठहरे
कुछ बने जान के बैरी भी
अब बनता है संबंध कोई
कब टूटेगा वह सोचती है
कुछ नया पालने की उसको
टूटे तो खुजली होती है
इक स्थाई मित्रता की यूँ तो
वह आज भी इच्छा रखती है
आदर्श पुरुष की ख़ातिर वह
अपना सब कुछ तज सकती है
पर ये दुनिया न जाने सदा
क्यूं दोष उसे ही देती है
राम, कृष्ण और विष्णु को
आड़े हाथों नहीं लेती है
नज़रअंदाज करती है सदा
पुरुषों की सरासर ज़्यादती को
उसके विरुद्ध शह देती है
क्यूं टॉम डिक या हैरी को?
व्यवसाय
मज़हब जिनका भारी जेबें
ताज़ा कलियाँ उपलब्ध उन्हें
हर रात नई सोने की लौंग
एक बिस्तर नहीं नसीब जिन्हें
खिड़की से झाँक बुलाती हैं
चौखट पर खड़ी रिझाती हैं
पिछली रात की चोट छिपा
वे होंठ काट मुसकाती हैं
नाएलोन की साड़ी पर
पड़ गए पुराने धब्बे सूख
चुक जाते हैं बदन कई
पर मिटती नहीं सेठों की भूख
दलाल इधर दबोचते हैं
तो ग्राहक उधर खरोंचते हैं
हो गर्भपात या कि रक्त स्त्राव
कभी तन्हा इन्हें न छोड़ते हैं
बख़्शीश लोग दे जाते हैं
गहना रुपया और यौन रोग
उपयुक्त थीं केवल यौवन में
मृत्यु पर इनकी किसे शोक
नगरवधु दासी गणिका
क्यूँ आज हुइं रंडी वेश्या
क्यूँ आक़ा इनका ख़ून चूस
इन्हें लूट के हो जाते हैं हवा
समुचित आदर है आज जहाँ
बाक़ी के सब व्यवसायों का
लिहाज़ क्यूँ नहीं जग करता
इन अनाम अबलाओं का.
पूछताछ
एक बेसिर और बेनाम पुरुष
हर रात मेरा पीछा करता है
अपने सिर के बारे में
वह पूछताछ किया करता है
यदि ढूँढ के दे दूँ उसका सिर
बेवज़ह मुझे वह न हड़काए
खून में लिपटा उसका धड़
मेरे पीछे से हट जाए
क्यूं याद नहीं आता कुछ भी
मन मुझसे ही क्यों छिपाएगा
अधिक दिमाग पर ज़ोर दिया
तो वह अवश्य ही फट जाएगा
इसी बीच मिलती है मुझे
एक मासूम सी वह लड़की
गर्दन तक रेत में दबी हुई
लिए चेहरे पर मासूम हँसी
आँखों में उसकी खोजती हूँ
होती है मुझे बेहद दहशत
भर मुट्ठी रेत मैं झोंकती हूँ
और वह नहीं झपकती पलक
रेत न उसे दबा पाई
भर-भर बर्तन मैं डाल थकी
शीशे सा साफ़ लिए चेहरा
मासूम बनी मुस्काती रही
पीठ के पीछे हलचल सुन
मैं पलटी तो दिल दहल उठा
पूछ रहे थे लाखों धड़
सिरों का अपने अता-पता
क्या कभी पाऊंगी मैं अपने
बेसिर पुरूषों से प्राण छुटा
शायद ही एक छिपाया हो
क्यूं शहर था मेरे पीछे पड़ा!
पुनर्जन्म
आँखें थीं हिरणी की सी
चोटी ज्यूँ पूँछ गिलहरी की
उम्र से अपनी लंबी कहीं
पहने थी वो इक छींट छपी
लंबे लंबे घूँघट थे
जहाज़नुमा साफ़ों के तले
ढकेलने पर वह बढ़ती थी
काली लंबी मूँछों में घिरे
कुछ रेलमपेल में गाते थे
रघुपति राघव राजा राम
कुछ कोसते थे हत्यारे को
लेकर अजीब सा एक नाम
तर थे घूँघट, तर थीं मूंछें
था माजरा क्या किससे पूछें
उचक उचक देखा उसने
इक अर्थी को फूलों से लदे
फिर घेरा तंग होने लगा
पूंछ फंसी और फटी
उधड़ी सीवन को पकड़ हुए
नन्ही लड़की रस्ता भटकी
घुप्प अँधेरा सन्नाटा
न चोट कोई न दर्द कहीं
सुनिश्चित सी निश्चिंत जगह
जहाँ थी कोई भीड़ नहीं
न घूँघट थे, न ही थे साफ़े
न मूंछें थीं न ही अपना कोई
अजीब बात थी बड़ी की वह
घबराई नहीं न ही रोई ही
यादें हैं अवचेतन में
जिनसे मेरा मस्तिष्क भरा
मुझे कोई तो बतलाए
इन सपनों का आधार है क्या?
दर्द का रिश्ता
इक तरफ़ा था
कब तक निभता
पूरी तरह से
टूटा न था
केवल चटका
कैसे निभता
जब तक मुझसे
निभा निभाया
दर्द का रिश्ता
टूटे हाथ सा
सदा साथ
रहता है लटका
दर्द दर्द
और दर्द है करता.
ख़लील जिब्रान की याद आ गई…
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति…।
आपको नववर्ष की ढ़ेरों बधाइयाँ…।
नए साल में आप और भी अधिक ऊर्जा और कल्पनाशीलता के साथ ब्लॉगलेखन में जुटें, शुभकामनाएँ.
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