18 दिसंबर को जयंती के अवसर पर विशेष गिरौदपुरी का चितेरा गुरू घासीदास प्रो. अश्विनी केशरवानी छत्तीसगढ़ पुरातन काल से धार्मिक, सांस्कृति...
18 दिसंबर को जयंती के अवसर पर विशेष
गिरौदपुरी का चितेरा गुरू घासीदास
प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ पुरातन काल से धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु रहा है। एक ओर जहां छत्तीसगढ़ प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक और भौतिक संपदाओं को अपने गर्भ में समेटकर अग्रणी है, वहीं दूसरी ओर संत-महात्माओं की या तो जन्म स्थली है, तपस्थली या फिर कर्मस्थली। ये किताबी ज्ञान के बुद्धि विलासी न होकर तत्व दर्शन के माध्यम से निरक्षरों के मन मस्तिष्क में छाने में ज्यादा सफल हुये हैं। गुरू घासीदास इसी श्रृंखला के एक प्रकाशमान संत थे। वे यश के लोभी नहीं थे। इसीलिये उन्होंने अपने नाम और यश के लिये कोई चिन्ह, रचना या कृतित्व नहीं छोड़ी। उनके शिष्यों ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। फलस्वरूप आज उनके बारे में लिखित जानकारी पूरी तरह नहीं मिलती। सतनाम का संदेश ही उनकी अनुपम कृति है, जो आज भी प्रासंगिक है॥ डॉ. हीरालाल शुक्ल प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने गुरू घासीदास के व्यक्तित्व और कृतित्व को समग्र रूप में समेटने का स्तुत्य प्रयास किया है। गुरू घासीदास पर उन्होंने तीन ग्रंथ क्रमश: हिन्दी में गुरू घासीदास संघर्ष समन्वय और सिद्धांत, अंग्रेजी में छत्तीसगढ़ रिडिस्कवर्ड तथा संस्कृत में गुरू घासीदास चरित्रम् लिखा है। ये पुस्तकें ही एक मात्र लिखित साक्ष्य हैं। इस सद्कार्य के लिये उन्हें साधुवाद दिया जाना चाहिये।
रायपुर जिला गजेटियर के अनुसार गुरू घासीदास का जन्म 18 दिसंबर सन् 1756 को एक श्रमजीवी परिवार में बलौदाबाजार तहसील के अंतर्गत महानदी के किनारे बसे गिरौदपुरी ग्राम में हुआ। यह गांव छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी शिवरीनारायण से मात्र 11 कि.मी. दूर है। इनके पिता का नाम मंहगू और माता का नाम अमरौतिन बाई था।
अमरौतिन के लाल भयो, बाढ़ो सुख अपार,
सत्य पुरूष अवतार लिन्हा, मंहगू घर आय किन्हा।
उनके जन्म को सोहर गीत में अमरौतिन के पूर्व जन्म का पुण्य बताया गया है। देखिये सोहर गीत की एक बानगी :-
हो ललना धन्य
अमरौतिन तोर भाग्य
दान पुण्य होवत हे अपार
सोहर पद गावत हे
आनंद मंगल मनावत हे
सोहर पद गावत हे...।
घासीदास का विवाह सिरपुर के अंजोरी की पुत्री सफुरा बाई से हुआ था। उनके चार पुत्र क्र्रमश: अमरदास, बालकदास, आगरदास, अड़गड़िया दास और एक पुत्री सुभद्रा थी। अपने पांचों भाईयों में घासीदास मंझले थे। इनके बचपन का नाम घसिया था। वे संत प्रकृति के थे। उनके साथ अनेक अलौकिक घटनाएं जुड़ी हुई है जिसमें आसमान में बिना सहारे कपड़े सुखाना, हल को बिना पकड़े जोतना, एक टोकरी धान को पूरे खेत में बोने के बाद भी टोकरी का धान से भरा होना, पानी में पैदल चलना और मंत्र शक्ति से आग जलाना आदि प्रमुख है।
प्रारंभ से ही घासीदास का मन घरेलू तथा अन्य सांसारिक कार्यों में नहीं लगता था। फिर भी उन्हें अपने पिता के श्रम में भागीदार बनना ही पड़ता था। एक बार इस क्षेत्र में भीषण आकाल पड़ा जिससे उन्हें अपने परिवार के आजीविका के लिये दर दर भटकना पड़ा। अंत में वे परिवार सहित उड़ीसा के कटक शहर पहुंचे। यहां वे मजदूरी करने में अपना मन लगा पाते, इसके पूर्व ही उनकी मुलाकात बाबा जगजीवनदास से हुई। बाबा जगजीवनदास उस समय उड़ीसा के सुप्रसिद्ध संत माने जाते थे। घासीदास ने उनसे सतनाम की शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने उनके मन को जगाया और उन्हें बताया कि उनका जन्म सांसारिक कार्यों के लिये बल्कि लोगों को सद्मार्ग दिखाने के लिये हुआ है। कटक से लौटकर घासीदास सोनाखान के बीहड़ वन प्रांतर में जोंक नदी के किनारे तप करने लगे। यहां उन्हें सत्य की अनुभूति हुई और उन्हें सिद्धि मिली। इसके पश्चात् वे भंडारपुरी में आश्रम बनाकर सांसारिक भोग विलास का परित्याग कर जन कल्याण में अपना जीवन समर्पित कर दिया।
18वीं सदी के उत्तरार्ध्द और 19वीं सदी के पूर्वार्ध्द में छत्तीसगढ़ के लोगों के सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिये यदि किसी महापुरूष का योगदान रहा है तो सतनाम के अग्रदूत, समता के संदेश वाहक और क्रांतिकारी सद्गुरू घासीदास का है। समकालीन विचार कमजोर और पिछड़े वर्ग के जीवन दर्शन को जितना गुरू घासीदास ने प्रभावित किया है, उतना किसी अन्य ने नहीं किया है। उन्होंने केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि देश के अन्य भागों में लोगों को जो सतनाम का संदेश दिया है वह युगों युगों तक चिरस्मरणीय रहेगा। इसके अतिरिक्त उन्होंने समता, बंधुत्व, नारी उद्धार और आर्थिक विषमता को दूर करने के लिये एक समग्र क्रांति का आव्हान किया। वे एक समदर्शी संत के रूप में छत्तीसगढ़ में सामाजिक चेतना लाने में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनका आध्यात्मिक और दार्शनिक व्यक्तित्व के बारे में कहा जाता है कि वे हिमालय की भांति उच्च औ र महान थे। पंथी गीत में भी गाया जाता है :-
श्वेत वरण अंग सो है, सिर कंचन के समान विशाला।
श्वेत साफा, श्वेत अंगरखा, हिय बिच तुलसी के माला।
एहि रूप के नित ध्यान धरौ, मिटे दुख दारूण तत्काला।
श्वांस त्रास जम के फांस मिटावत हे मंहगू के लाला॥
छत्तीसगढ़ में गुरू घासीदास का आविर्भाव उस समय हुआ जब इस क्षेत्र का धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पूरी तरह दूषित हो गयी थी। एक ओर जहां राजनीतिक एकता का अभाव था, सर्वत्र अशांति थी, वहीं दूसरी ओर सामाजिक विघटन और कटुता भरा वातावरण था। मराठा शासन के कारण चारों ओर भय, आतंक असुरक्षा और अशांति थी। शासन के नाम पर मराठा आततायियों तथा उनके स्थानीय उच्च वर्गीय अनुयायियों का अत्याचार अपनी पराकाष्ठा पर था। धार्मिक, आध्यात्मिक तथा सात्विकता की भावना का पूरी तरह आभाव था। सम्पूर्ण क्षेत्र में विषमता, दमन, अराजकता और मिथ्याभिमान विद्यमान था। ऐसी परिस्थितियों में निश्चित रूप से किसी युग पुरूष की आवश्यकता थी जो इस व्यवस्था में सुधार ला सके। ऐसे समय में गुरू घासीदास का जन्म एक वरदान था। उन्होंने अपने अंतर्मन के विश्वास और सतनाम के दिव्य संदेश से सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के दिग्भ्रमित लोगों को सही रास्ता दिखाया। उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत निम्नलिखित है :-
· सत्य ही ईश्वर है और उसका सत्याचारण ही सच्चा जीवन है।
· सत्य का अन्वेषण और प्राप्ति गृहस्थ आश्रम में सत्य के मार्ग में चलकर भी किया जा सकता है।
· ईश्वर निर्गुण, निराकार और निर्विकार है। वह सतनाम है। वह शुद्ध, सात्विक, निश्छल, निष्कपट, सर्व शक्तिमान और सर्व व्याप्त है।
· सत्य के रास्ते में चलकर और शुद्ध मन से भक्ति करके ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
· धर्म का सार अहिंसा, प्रेम, परोपकार, एकता, समानता और सभी धर्मो के प्रति सद्भाव रखना है।
· अहिंसा एक जीवन दर्शन है, दया एक मानव धर्म है। संयम, त्याग और परोपकार सतनाम धर्म है।
· गुरू घासीदास ने सतनाम का जो दार्शनिक सिद्धांत दिया वह निरंतर अनुभूति के तत्व दर्शन पर आधारित है। वह उनकी आजीवन तपस्या, चिंतन, मनन और साधना का प्रतिफल है। यह उनके अलौकिक ज्ञान तथा दिव्य अनुभूति पर आधारित है। उन्होंने न केवल डत्तीसगढ़ को एकरूपता प्रदान की बल्कि एक संस्कृति और एक जीवन दर्शन दिया। उनका उपदेश सम्पूर्ण मानवता के लिये कल्याणकारी है। जो निम्नानुसार है :-
1. दया, अहिंसा के रूप में ईश्वर तक पहुंचने का साधन है।
2. मांस तथा नशीली वस्तुओं का सेवन पाप है। यह हमें ईश्वर तक नहीं पहुंचने देता और दिग्भ्रमित कर देता
है।
3. सभी धर्मों के प्रति समभाव तथा सहिष्णुता रखना चाहिये। सभी धर्मों का लक्ष्य एक ही है।
4. जाति भेद, ऊंच नीच और छुआछूत का भेदभाव ईश्वर तक पहुंचने में व्यवधान उत्पन्न करता है।
5. मानवता की पूजा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है। दलितों और पीड़ितों की सेवा ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है और मानवता की आराधना ही सच्चा कर्मयोग है।
..अपने विचारों को गुरू घासीदास ने सात सूत्रों में बांधा है जो सतनाम पंथ के प्रमुख सिद्धांत है :-
सतनाम पर विश्वास रखो
मूर्ति पूजा मत करो
जाति भेद के प्रपंच में मत पड़ो
मांसाहार मत करो
शराब मत पीयो
परस्त्री को मां-बहन समझो।
नि:संदेह गुरू घासीदास के सतनाम के द्वारा भारतीय समाज को एक व्यावहारिक दर्शन का ज्ञान कराकर भारतीय संस्कृति को सुदृढ़ बनाया है। इस पंथ के लोगों द्वारा अक्सर गाया जाता है :-
हिंदू हिंसा जर छुआछूत माने हो,
पथरा ला पूज पूज कछु नई पावे हो
कांस पीतल ला भैया मूरचा खाही हो
लकड़ी कठवा ल घुना खाही हो
सब्बो घट म सतनाम हर समाही हो
गुरू घासीदास मन के भूत ल भगाही हो।
जीव बलिदान ला गुरू बंद करावे हो
सत्यनाम टेरत राखे रहियो मन में
माटी के पिंजरा ला परख ले तोर मन में
यह माटी तन म समाही हो
यह मानुष तन बहुरि नई आही हो
गुरू घासीदास कह सुन ले गोहार हो
सतनाम भज के तोर हंसा ल उतार हो
संत समाज म मन ल लगाइ ले
निरख निरख के भक्ति जगाइ ले।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार चोपड़ा, पुरी और श्रीदास ने मैकमिलन कम्पनी द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'ए सोसल कल्चरल एंड इकोनामिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया' के भाग तीन में लिखा है -'18वीं शताब्दी में अवध के बाबा जगजीवनदास ने एक अलग धार्मिक पंथ बनाया जो कि सतनाम पंथ कहलाया-सत्य और ज्ञान पर विश्वास करने वाला..। इस पंथ के लोग उत्तरी भारत में दूर तक विस्तृत रूप में फैले हैं। इस पंथ को दो भागों में बांटा गया है- एक गृहस्थ और दूसरा भिक्षुक। इस पंथ के पहले लोग अपना जाति लिखना शुरू कर दिये जबकि दूसरे लोग जाति लिखना छोड़ दिये। सेंट्रल प्राविन्स में उन दिनों सतनामी समाज एक सम्प्रदाय के रूप में आया। ये सतनामी उस समय के उच्च धार्मिक विचारों के लोगों की अनुमति के बगैर ईश्वर की पूजा अर्चना कर सकने में असमर्थ थे। इस सम्प्रदाय के गुरू घासीदास ही थे जो मध्य युगीन सतनामी समाज में विश्वास और उपासना विधि को जीवित रखना चाहते थे तथा उनमें अभिनव चेतना लाने की आकांक्षा रखते थे। उन्होंने प्रचारित किया कि वास्तविक भगवान उनके सतनाम में प्रकट होते हैं। ईश्वर की नजर में सभी समान हैं। इसलिये मानव समाज में कोई भेद नहीं होना चाहिये जैसा कि जाति प्रथा से भेदभाव परिलक्षित होता है। छत्तीसगढ़ में सतनाम आंदोलन पिछड़े, निम्न और अछूत समझे जाने वाले वर्गो में धार्मिक और सामाजिक चेतना लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। 19वीं सदी में इस ांदोलन ने अंधविश्वासी हिन्दू जाति विशेषकर प्रिस्टली क्लास के लोगों को भयभीत किया और समस्त लोगों के बीच आपसी सद्भावना हेतु बाध्य कर दिया।''
छत्तीसगढ़ की सुंदर समन्वित संस्कृति पर गुरू घासीदास द्वारा स्थापित सतनाम के बारे में सुप्रसिद्ध साहित्य चिंतक डॉ. विमलकुमार पाठक ने लिखा है कि यहां के हरिजन संत गुरू घासीदास द्वारा प्रवर्तित सत्यज्ञान अथवा सतनाम के अनुयायी होकर सतनामी सम्बोधित होते हैं। वे सात्विक विचार से युक्त होते हुये द्विज सदृश्य यज्ञोपवित से सुशोभित हुये हैं। गुरू घासीदास की जन्म भूमि और तपोभूमि गिरौदपुरी तथा कर्मभूमि भंडारपुरी था जहां वे अपना संदेश दिये। आज वे स्थान सतनामी समाज के धार्मिक और सांस्कृतिक तीर्थ स्थल हैं।
इतने बड़े ज्योति पुरूष एवं समदर्शी संत की इतने दिनों तक उपेक्षा सचमुच मानवता की उपेक्षा थी। उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिये तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने सन् 1983 में बिलासपुर में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय की स्थापना की। तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार का यह प्रयास सचमुच प्रशंसनीय है। 25 नवंबर सन् 1985 को गुरू घासीदास विश्वविद्यालय के प्रथम दीक्षांत समारोह में विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति श्री शरतचंद्र बेहार ने कहा था-''छत्तीसगढ़ विभिन्न संस्कृतियों का संगम होने के कारण बौद्धिक उदारता और सहनशीलता इस क्षेत्र की विशेषता रही है। इसलिये देश के अन्य हिस्सों से ऐसे लोग जो तत्कालीन मुख्य विचारधारा और व्यवस्था से असहमत थे, यहां आकर अपने विचारों के लिये समर्थन और आश्रय खोज रहे हैं इसी कारण यहां कबीर पंथी की बड़ी संख्या है। मतभेद का घोषनाद करने वालों की परम्परा में 19 वीं शताब्दी की शुरूवात में गुरू घासीदास ने समाज की कठोर जाति प्रथा तथा उससे जुड़ी सामाजिक, आर्थिक शोषण की प्रक्रियाओं से विद्रोह किया। मूर्ति पूजा का विरोध कर निराकार ईश्वर पर विश्वास करने तथा सामाजिक औपचारिकताओं के खिलाफ आवाज उठाने के कारण स्व. श्रीकांत वर्मा ने उनके दर्शन को ''अवतारों से विद्रोह'' निरूपित किया है। समाज को संगठित कर उनमें आत्म सम्मान की भावना बढ़ाने तथा एक क्षमता मूलक सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था की स्थापना के लिये ठोस कदम उठाने वाले ऐसे कर्मयोगी की उपलब्धियों का आकलन करने पर ''दलितों का मसीहा'' की सशक्त एवं सुस्पष्ट क्षवि मेरे मन में अंकित होता है। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में गुरू घासीदास ने अन्यों की उपेक्षा को देखा समझा और उसका विरोध किया। उसने जिस तरह से हरिजनों और समाज के पिछड़े वर्गा को संगठित कर उसका नेतृत्व किया वह 20वीं शताब्दी के अंत में भी बहुत कम लोग कर सकते हैं।''
बहरहाल, सद्गुरू घासीदास अन्याय तथा सामाजिक बुराईयों के विरूद्ध संघर्ष करने तथा पिछड़े लोगों के जीवन में सम्मान की भावना पैदा करने की दृष्टि से क्रांतिकारी उपदेश देने के लिये हमेशा याद किये जायेंगे। यदि हम उनके सिद्धांतों का अंश मात्र भी पालन करें तो अनेक सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समस्याओं का निराकरण स्वयमेव हो जायेगा। इन अर्थो में गुरू घासीदास आज भी प्रासंगिक हैं।
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रचना, लेखन, फोटो एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी
चांपा- 495671 (छ. ग.)
आलेख बढिया है किन्तु कहीं कहीं पर तथ्य भ्रामक भी है प्रमाणिक जानकारी संकलित कर संशोधित करें
जवाब देंहटाएंआलेख बढिया है परंतु तथ्य कहीं कहीं भ्रामक भी है ऐतिहासिक प्रमाणिक जानकारी संकलित कर संशोधन करने का कष्ट करें
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा,केशरवानी जी.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लेख है.
जवाब देंहटाएंdear kesharwani sir , saheb satnam, aapne babaji ke jeevan charitra ko achhe se likhne ka prayaas kiya hai, iske liye aap sadhuwaad aur badhai ke paatra hai. bas aapse ek nivedan hai, ki aap aage jab bhi babaji ke baare me likhen ,....... chuki baba gurughasidasji ke vanshaj dharmguru baaldas saheb ji abhi bhi maujud hai, please unse awlokan evam satyapan jarur karaayen...... saheb satnam
जवाब देंहटाएंsatnam saheb kesharwani ji aapne pratyek samaj ke yuva varg ko bhavishya ke liye satnam rakshak banane ke liye prerit rachana prastut kiya hai iske liye aap sadhuwad ke patra hai jay satnam apka VIDYA SAGAR KHUNTE
जवाब देंहटाएंआपके लेख में बहुत कुछ त्रुटि है, जो अशोभनीय है. कृपया तत्काल सुधार कीजियेगा आदरणीय .....
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