कविताएँ -अशोक गुप्ता दादाजी दादाजी और उनकी सायकल के पीछे बच्चे दौडते थे, झोपडी और बंगलेवालों के. दादाजी की काली बडी देह, दिनों पुरानी खिचडी ...
कविताएँ
-अशोक गुप्ता
दादाजी
दादाजी और उनकी सायकल के पीछे
बच्चे दौडते थे,
झोपडी और बंगलेवालों के.
दादाजी की काली बडी देह,
दिनों पुरानी खिचडी सी दाढी
और सीट के पीछे लटकती हुई
लम्बी लहराती कमीज.
चौड़ा सफेद पायजामा पहने
वे पेडल मारते चले जाते,
उसी रास्ते,
दिन प्रतिदिन.
बच्चे खुशी से चीखते, चिल्लाते,
''दादाजी! दादाजी!''
और दूर दूर तक
उनका पीछा करते,
जब तक वे थक नहीं जाते,
और एक पैर पर सायकल टिकाकर,
अपनी जेब से रंग बिरंगी पिपरमिंट
निकालकर बच्चों को देते.
उन्होने फिर चलना शुरू ही किया होता,
अतृप्त, वे चीखते, ''दादाजी! दादाजी!''
उन्हें चिढ़ाते हुए,
जब तक वे उनके घर से
बहुत दूर तक निकल नहीं जाते.
यह सब भूल गए
और बच्चे अपनी अपनी राह चले गए.
एक दिन अचानक मुझे दादाजी मिल गए,
एक पुरानी ढहती हुई झोंपड़ी क़े सामने
चारपाई पर बैठे हुए.
मैं संकोच करता सा रुका,
''दा दादाजी,'' मैं हिचकिचाया.
उनके सीधी तरफ लकवा मार गया था
और वे मुझे सुन नहीं पाए.
अपना मुंह उनके कान के करीब लाकर
मैं कुछ ऊंचे से बोला, ''दादाजी''
वे धीरे से रुकते रुकते
एक करवट मुडे,
और एक लाल पिपरमिंट
जेब से निकालकर
मेरे हाथ पर रख दी.
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मां
सडक़ की रोशनी
मां और मेरे दूर गांव की
यादों का धुंधलाते खालीपन
भर रही है.
तेज़ बुखार में तपती
मैं बेहोशी में बड़बड़ा रही हूं .
मां पिछवाड़े से मिर्ची और कुछ केले
तोड़ लाती है.
बाजार से लौटती है
कुछ रुपए लेकर,
जो वैद्य के लायक भी नहीं.
बत्तियां बुझने पर
झींगुर का स्वर
और हमारी सिस्कियों का सन्नाटा.
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पत्थर
वो पत्थर जो हमने
राह चलते बाग से, धरती से, उठाए,
जिन्हें हमने चुना,
आपस में मिलाया, बदला,
चमकाया, और सम्हाला
वे अलग अलग रंग, शक्ल,
छुअन और सपनों के थे.
जिन रत्नों के खजानों को
हमारी बोझिल जेबों ने ढोया,
मां की डांट की अपेक्षा,
वे सब समा गए
टाउनसॅन्टर के कांक्रीट में.
और जहां हम चपटेवालों को
सात, आठ, ग्यारह, टिप्पे खिलाते
तालाब में फेंकते थे,
वहां है एक विशालकाय
कांच और एल्युमिनियम का
सिटीप्लाजा,
शहर का सबसे ऊंचा प्रतीक.
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रबर की चप्पल
मैं उनको स्कूल जाते देखता
घिसे पुराने कपड़ों में,
कुछ रबर की चप्पल पहने,
कुछ नंगे पैर.
और मैं अपने आप से कहता,
''एक दिन जब मैं बड़ा होऊंगा
तो एक ट्रकभर चप्पल खरीदकर
उनके सामने ढेर लगा दूंगा.''
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झूठ
मार्गाओ, गोवा
फादर एग्निल का आश्रम,
कुछ कॉटेज.
एक मां हर घर में
और अनाथ बच्चे.
हर घर साफ,
व्यवस्थित.
अक्सर शाम को
हम वहां जाते हैं,
अरुना, मैं,
और छः वर्षीया आभा.
मुंडेर पर बैठे, हम
बच्चों को खेलता देखते हैं.
शाम गहराते स्लेटी रंगों में
बुझ रही है,
बच्चे इधर उधर दौड़ते हुए,
थिरकते, धक्के देते और लड़ते.
पता नहीं कब से फ्रेजर
चुपके से मेरे पास खड़ा है.
अपने नन्हे हाथों से मेरी उंगली पकडक़र
पूछता है,
''क्या तुम मेरे पापा बनोगे?''
आकाश में आखिरी रोशनी
उस रात की खामोशी में
धुंधला कर समा गई.
मैंने झूठ बोला ''हां'',
बीस साल पहले.
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उन दिनों
जब हम
राख से मलकर
हाथ धोते थे,
कोयले और नमक से
दांत मांजते थे,
जब हम
एक गुट में
रसोई में बैठे,
चमचों से थालियां पीटकर,
अम्मां की गालियों के बीच
खाने का इन्तजार करते थे,
जब हम
नंगे पैर
धूल भरी सडकों पर
बैलगाडियों और तांगों के पीछे
दौड़ते थे,
नन्हे थिरकते पांव
गोबर से बचाते हुए,
या मेंढक और भैसों के बीच
तालाब में कूद जाते थे,
हम खुश थे.
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गलती मत करना
जब तुम रेलगाडी से उतरो
तो रामधुन रिक्शावाले को पूछना,
कहना कि तुम्हें चौक जाना है,
उसको दो रुपये देना, ज्यादा नहीं.
जब तुम नदी पर पहुंचो
अपने जूते हाथ में ले लेना,
पेड क़े तने के पुल पर
रस्सी पकडक़र रखना,
नहीं तो भीग जाओगे.
कुछ दूर पगडंडी पर चलकर
तुम गांव के चौक पहुंचोगे.
वैद्यजी को पूछना, उन्हें सब जानते हैं
क्योंकि वे सबको दवाई देते हैं .
गांव के लडक़े तुम्हारे पीछे आएंगे
क्योंकि तुम्हारे शहर के कपड़े
उन्हें अजीब लगेंगे,
उन्हें आने देना.
यदि तुम मुझे अन्य लडक़ियों के साथ
खेलते, या कुछ काम करते देखो,
तो न घूरना, न ही नाम से पुकारना,
वो चौंक जाएंगीं.
बस नजर झुकाकर
तेज चाल से
घर की तरफ बढ़ ज़ाना,
मैं पीछे से आऊंगी.
जब बाबा से मिलो
तो कुछ और बातें करना,
हमारे बारे में नहीं,
नहीं तो वे तुम्हें उद्दंड समझेंगे.
जब वे अग्रंजों के जमाने
की बात करें,
तो प्रभावित दिखना,
और उन्हें और बताने को कहना.
यदि तुम यह सब करोगे,
और गलती नहीं करोगे,
तो वे तुम्हें मेरा हाथ
विवाह में दे देंगे.
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गुर्खा फोर्ट की हाइक
गुर्खा फोर्ट की हाइक पर,
जून की भकभकाती गर्मी में,
विक्टर और मैं.
नदी सूखकर
छोटे छोटे टुकडों में
सिकुड ग़ई थी.
पानी में गोल पत्थरों पर
धूप चमक रही थी.
छोटी छोटी गुलाबी मछलियां
अपने नन्हे मुहों में पानी
निगलते हुए दौड़ रहीं थीं,
इधर उधर, लाचार और भूखी.
वे कांटे की ओर भागीं,
काला, नुकीला कांटा
उनके आतुर खुले मुंह
को साफ चीर गया.
यह आसान था, बहुत आसान,
हमने कितनी ही पकडीं
और उन्हें फेंक दिया,
स्कूल लौटने के रास्ते पर.
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रामला
वह एक फटी कमीज पहने
झाडू, बर्तन, कपडे क़रने
हर रोज आता.
मैंने उसे एक कमीज दी
जो मैं पहनता नहीं था,
फिर एक,
फिर एक और,
पर वह फिर वही फटी कमीज पहने
झाडू, बर्तन, कपडे करने
हर रोज आता.
''क्यों?'' मैं पूछता.
हर बार उसका जवाब होता
''घर भेज दी
भाई के पास डूंगरपुर''
और वह फिर वही फटी कमीज पहने
झाडू, बर्तन, कपडे क़रने
हर रोज आता.
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'' भाग अमीना भाग ''
"गुजरात 2002 नरसंहार जब 2000 लोगो मारे गए 300 महिलाओं का बलात्कार किया गया और 22000 लोग बेघर हुए"
मरे हुए लोगों को कभी भी आराम नहीं
ख़ासकर रात को
कभी मैं ऊपरी मंजिल पर उनको चलते सुनती हूं
दरवाजों के कुंडे लगाते फ़र्नीचर खिसकाकर
दरवाजे पर बैरिकेड बनाते
मैं सो नहीं पाती हूं
कभी कभी गहरी खामोशी होती है
नारंगी रंग की सन्नाहट
सिर्फ चरमराहट की आवाज
और जलने की बदबू
एकाएक वे चिल्लाने लगते हैं
''भाग अमीना भाग''
मैं उनको समझाती हूं
कि भीड क़ई सालों पहले चली गई
मुझे अब दर्द भी नहीं होता
और वे मर चुके हैं
पर वे चीखते जाते हैं
''वो आ रहे हैं
भाग अमीना भाग''
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पागल भिखारी
बाहर शोर हो रहा था
भीड ज़मा हो गई थी
सडक़ पर एक भिखारी
या एक पागल चिथडों में
पड़ा था
क्या हुआ? सब पूछ रहे थे
कैसे मरा ?
क्या कार से टक्कर हुई ?
किसी बदमाश ने मारा ?
या ड्रग की बहुतायत ?
क्या प्यार में पागल हो गया ?
''नहीं नहीं '' उसका साथी बोला
''वह खामोशी थी ''
वह अन्त तक चीखता रहा
''कुछ कहो, भगवान के लिए कुछ कहो,
कुछ भी ''
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रेल्वे स्टेशन पर
मैं कर्म्पाटमॅन्ट के अन्दर हूं
एक कोहनी खिडक़ी पर टिकाए
तुम बाहर प्लॅटफॉर्म पर खडी हो
मेरी पसन्द की नीली साड़ी पहने
लगता है मैं फिर बारह साल का हूं
र्बोडिंग स्कूल की ट्रेन में
डरा हुआ ग़ले में दुखती गांठ लिए
एक भयानक दुः स्वप्न की जकड़ में
तुम ट्रेन चलने का इंतजार कर रही हो
अपनी घड़ी दो बार देख चुकी हो
मैं नजर बचाकर आंसू पोंछता हूं
वह तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा
स्टेशन के बाहर
कि तुम कार में बैठो
और चैन की सांस ले कर कहो
''वह चला गया आखिरकार''
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वक्त के प्रवाह में
वक्त के प्रवाह में जो भी था सो बह गया,
हम कगार पर खड़े,
यहां लड़े वहां लड़े,
आंख जब खुली पता चला कि कुछ न रह गया,
वक्त के प्रवाह में जो भी था सो बह गया.
हर बुजुर्ग़ जो मिला हमसे यही कह गया,
देश को सम्हालना,
यूं ही खो न डालना,
रेत सा ईमान था, ढह गया सो ढह गया,
वक्त के प्रवाह में जो भी था सो बह गया.
हर गरीब था कि जुल्म हाथ जोड़ सह गया,
हम किनारा कर गए,
दूर से निकल गए,
हमको क्या पड़ी थी लहू बह गया तो बह गया,
वक्त के प्रवाह में जो भी था सो बह गया.
त्राहि त्राहि मच उठी, यह गया लो वह गया,
हम पोटली पकड़ रहे,
स्वर्ण को जकड़ रहे,
डाकुओं का गिरोह लूटकर सुबह गया,
वक्त के प्रवाह में जो भी था सो बह गया.
शहर शहर सिहर उठा कि गांव गांव दह गया
गली गली सुलग उठी,
वसुंधरा बिलख उठी,
धर्मपाल का अधर्म दे हमें प्रलय गया,
वक्त के प्रवाह में जो भी था सो बह गया.
हरेक जीव जान में छा अजीब भय गया,
मृत्यु की पुकार सुन,
मां का चीत्कार सुन,
आसमां भी कैसी कैसी यातनाएं सह गया,
वक्त के प्रवाह में जो भी था सो बह गया.
इन्सां बहक बहक उठा कैसी पी वो मय गया,
पढ़े लिखे अनपढ़ हुए,
जो संत थे कुजन हुए,
बापू तुम्हारे स्वप्न का बचा क्या रह गया,
वक्त के प्रवाह में जो भी था सो बह गया.
अब तो आंख खोल लो, नींद का समय गया,
अपने मन में ठान लो,
अपना सीना तान लो,
फिर न पूछना कहां सूर्य का उदय गया,
वक्त के प्रवाह में जो भी था सो बह गया.
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अशोक गुप्ता पेशे से रासायनिक अभियंता हैं. आपको कविताएँ लिखने का शौक बचपन से रहा है. नियमित रूप से लिखना पिछले कुछ वर्षों से ही शुरू किया है.
कुछ कविताएं पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुई हैं.
संपर्कः
ई मेल : ashok1082@yahoo.co.uk
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